बालक का सोचना या चिंतन
चिंतन का अर्थ एवं परिभाषा− चिंतन एक जटिल मानसिक प्रक्रिया है। इसमें व्यक्ति नयी परिस्थिति का सामना करने अथवा किसी समस्या का समाधान करने में अपने पूर्व अनुभवों का प्रयोग करता है।
चिंतन की प्रक्रिया में संवेदना‚ प्रत्यक्षीकरण‚ प्रत्यय−निर्माण‚ पूर्व अधिगम स्मृति आदि सम्मिलित रहते हैं।
• रॉस के अनुसार− ‘‘चिंतन मानसिक क्रिया का ज्ञानात्मक पहलू है या मन की बातों से सम्बन्धित मानसिक क्रिया है।’’
• वेलेन्टाइन के अनुसार− ‘‘चिंतन शब्द का प्रयोग उस क्रिया के लिए करना उचित होता है‚ जिसमें शृंखलाबद्ध विचार किसी लक्ष्य अथवा उद्देश्य की ओर प्रवाहित होते हैं।’’
चिंतन की विशेषताएँ−
• चिंतन की प्रक्रिया किसी समस्या‚ कठिनाई या बाधा के उत्पन्न होने से प्रारम्भ होती है।
• चिंतन के द्वारा व्यक्ति इन समस्याओं के उपाय सोचता है फिर इन उपायों का प्रयोग कर समस्या का समाधान करता है।
• चिंतन की प्रक्रिया स्थूल से अमूर्त की ओर तथा सरल के कठिन की ओर होती है।
• चिंतन की प्रक्रिया में संकेतों‚ भाषा‚ प्रतिमाओं‚ विचारों‚ सम्प्रत्ययों तथा अमूर्त सम्बन्धों आदि का विशेष योगदान रहता है।
• चिंतन सदैव उद्देश्यपूर्ण होता है।
• चिंतन में व्यक्तिगत भिन्नता पायी जाती है।
• चिंतन प्रक्रिया वातावरण के साथ अंतर्क्रिया का संज्ञानात्मक पक्ष है।
• चिंतन प्रक्रिया व्यक्ति के व्यवहार के सभी पक्षों यथा−ज्ञानात्मक‚ भावात्मक तथा क्रियात्मक‚ से किसी न किसी रूप से सम्बन्धित होती है।
चिंतन की प्रक्रिया−
चिंतन की प्रक्रिया निम्न सोपानों के अंतर्गत सम्पन्न होती है−
1. लक्ष्य की ओर उन्मुख होना
2. लक्ष्य प्राप्ति के लिए प्रयास करना
3. पूर्व अनुभवों का स्मरण करना
4. पूर्व अनुभवों को वर्तमान समस्या से संयोजित करना
5. समस्या की सार्थकता देखना चिंतन के प्रकार-
1. प्रत्यक्षात्मक चिंतन− इस चिंतन को मूर्त चिंतन भी कहते हैं।
यह चिंतन पूर्व अवलोकित या प्रत्यक्ष रूप से उपस्थित घटना पर आधारित होती है। यह निम्न प्रकार का चिंतन होता है।
2. कल्पनात्मक चिंतन− इसे सृजनात्मक चिंतन भी कहा जाता है। इस प्रकार के चिंतन का आधार मानसिक प्रतिमाए होती हैं।
इस प्रकार के चिंतन में कोई वस्तु या परिस्थिति प्रत्यक्ष रूप से उपस्थित नहीं होती हैं।
3. प्रत्ययात्मक चिंतन− इस चिंतन को अमूर्त चिंतन भी कहते हैं। इस प्रकार के चिंतन में पूर्व निर्मित सम्प्रत्यों के आधार पर प्राणी चिंतन करता है। यह चिंतन का सर्वोच्च रूप है। इस प्रकार के चिंतन में सामान्यीकृत विचार‚ भाषा‚ प्रतीक तथा संकेतों का प्रयोग किया जाता है।
4. तार्किक चिंतन− इस प्रकार के चिंतन में व्यक्ति क्रमबद्ध रूप से चिंतन करता है। इसके द्वारा व्यक्ति अपनी समस्याओं का समाधान खोजने का प्रयास करता है।
5. परावर्तित चिंतन− इस प्रकार के चिंतन में पूर्व अनुभवों का पुनर्गठन करके किसी समस्या के समाधान की नूतन विधि को प्रस्तुत किया जाता है।
6. निर्देशित चिंतन− इस प्रकार के चिंतन में व्यक्ति किसी लक्ष्य की ओर निर्देशित होकर चिंतन करता है।
7. अनिर्देशित चिंतन− इस प्रकार का चिंतन उद्देश्यहीन होता है। इस प्रकार के चिंतन में दिवा स्वप्न‚ कल्पना की उड़ान जैसे चिंतन को शामिल किया जाता है। इसके अतिरिक्त चिंतन को अन्य प्रकारों में भी विभाजित किया जा सकता है−
1. यथार्थवादी चिंतन− इस प्रकार के चिंतन का सम्बन्ध वास्तविकता से होता है और उसके आधार पर व्यक्ति अपनी समस्या का समाधान करता है। यथार्थवादी चिंतन को भी तीन प्रकारों में बाँटा जा सकता है−
(i) अभिसारी चिंतन− इस प्रकार के चिंतन में व्यक्ति अपनी समस्या के समाधान में अपने अनुभवों का उपयोग करते हुए चिंतन करता है।
(ii) अपसारी चिंतन− इस प्रकार के चिंतन में व्यक्ति कुछ नये तथ्यों एवं विचारों का सृजन करते हुए चिंतन करता है।
(iii) आलोचनात्मक चिंतन− इस प्रकार के चिंतन में व्यक्ति किसी घटना‚ विषयवस्तु तथा तथ्यों को स्वीकार करने से पहले इनके गुणों और दोषों के बारे में चिंतन करता है तथा आलोचनात्मक विचार मंथन द्वारा इनको परखता है।
2. स्वली चिंतन− इस प्रकार के चिंतन में व्यक्ति अपने काल्पनिक विचारों से अपनी आवश्यकता एवं इच्छाओं की अभिव्यक्ति करता है।
चिंतन की सामग्री
1. पदार्थ 2. प्रतिमा 3. सम्प्रत्यय 4. संकेत तथा प्रतीक
बालक किस प्रकार सीखते हैं
बालक कई प्रकार के विधियों द्वारा सीखते हैं। प्रारम्भ में अनुकरण द्वारा सीखते हैं‚ फिर क्रिया द्वारा सीखते हैं और इस प्रकार उम्र बढ़ने के साथ−साथ उनके सोचने व सीखने के तरीकों में भी परिवर्तन होता जाता है। इस प्रकार बालक द्वारा सीखने की निम्न विधियों का प्रयोग किया जाता है− अनुकरण द्वारा सीखना− जन्म के बाद से ही बालक अपने माता−पिता‚ भाई−बहन या परिवार के अन्य सदस्यों के व्यवहारों का अवलोकन करता है और उन व्यवहारों को अपने व्यवहार में अनुकरण करता है।
क्रिया द्वारा सीखना− बालक जिस कार्य को स्वयं करते हैं‚ उसे वह जल्दी सीखते हैं। कारण है कि उसे करने में वे उसके उद्देश्य का निर्माण करते हैं‚ उसको करने की योजना बनाते हैं और योजना को पूर्ण करते हैं। इस प्रकार सीखने में सक्रिय सहभागिता करते हैं‚ और सीखते हैं।
निरीक्षण द्वारा सीखना− बालक कुछ व्यवहारों या कार्यों को निरीक्षण द्वारा सीखते हैं। निरीक्षण का अर्थ है किसी वस्तु या कार्य को भलि−भाँति समझना। इस प्रकार वे कार्यों या व्यवहारों को भली− भाँति समझकर सीखते हैं।
सामूहिक विधियों द्वारा सीखना− बालक बहुत से कार्य− व्यवहार अपने समूह द्वारा सीखते हैं। वे अपने मित्र−मण्डली‚ या विद्यालय में कराये जा रहे सामूहिक कार्यों जैसे− वाद−विवाद‚ विचार गोष्ठी‚ परियोजना कार्य आदि के द्वारा सामाजिक कौशल‚ सम्प्रेषण कौशल‚ नैतिकता आदि सीखते हैं।
परीक्षण द्वारा सीखना− बालक चंचल स्वभाव के होते हैं। वे तरह−तरह के प्रयोग करते रहते हैं‚ जैसे− खिलौनों को तोड़कर उसके अंदर के चीजों को देखना‚ विद्यालय के प्रयोगात्मक क्रियाकलापों को करना आिद। इस प्रकार वे परीक्षण और प्रयोगों द्वारा कुछ न कुछ सीखते रहते हैं।
इसी प्रकार अन्य क्रिया कलापों के द्वारा बालक कुछ न कुछ सीखते रहते हैं। सीखने के रचनावादी सिद्धांत का भी यही मानना है कि बच्चे ज्ञान का स्वयं निर्माता होते हैं। वे अपने अनुभवों से सीखते हैं। वे किसी बाह्य दबावों या उद्दीपकों के प्रभाव की अपेक्षा आंतरिक प्रेरणा के द्वारा सीखते हैं।
बच्चे विद्यालयी उपलब्धि में क्यों और कैसे असफल होते हैं?
विद्यालय औपचारिक शिक्षा का प्रमुख साधन है‚ विद्यालय में बच्चों को पूर्व नियोजित व्यवस्था के अंतर्गत शिक्षा प्रदान करनी होती है। यह शिक्षा वैयक्तिक विभिन्नता से युक्त सभी छात्रों की आवश्यकताओं‚ रुचियों‚ मनोवृत्तियों‚ योग्यताओं‚ क्षमताओं‚ बुद्धि आदि के अनुरूप न होने के कारण उनका समुचित विकास नहीं कर पाती है‚ जिससे छात्र विद्यालयी प्रदर्शन में असफल होने लगते हैं परिणामस्वरूप अपव्वय एवं अवरोधन की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।
बच्चों के विद्यालयी उपलब्धि में असफलता के अन्य कई कारण हो सकते हैं जो निम्नलिखित हैं−
1. विद्यालय का वातावरण− विद्यालय का वातावरण प्रजातांत्रिक‚ स्नेहपूर्ण‚ भयमुक्त तथा सृजनात्मक होना चाहिए जहाँ बच्चे अपने विचारों‚ भावनाओं‚ प्रश्नों आदि को स्वतंत्रता पूर्वक अभिव्यक्त कर सकें। यदि विद्यालय का वातावरण सत्तात्मक और दोषयुक्त होता है तो विद्यार्थियों का प्रदर्शन गिरता चला जाता है।
2. पारिवारिक वातावरण− पारिवारिक वातावरण बच्चों के सफलता या असफलता में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यदि परिवार में झगड़ा‚ विखण्डन‚ निम्न आर्थिक स्थिति आदि अवगुण विद्यमान होते हैं तो बच्चों का विकास सही से नहीं हो पाता है और वे असफल होते हैं।
3. अभ्यास की कमी− सीखने की प्रक्रिया में अभ्यास की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। यदि बच्चे सीखी गयी बातों को अभ्यास में नहीं लाते हैं तो वे उसे भूल जाते हैं परिणामस्वरूप वे अन्य बालकों से पिछड़ जाते हैं।
4. रुचि एवं जिज्ञासा की कमी− कक्षा−शिक्षण में जब बच्चे रुचि नहीं लेते हैं तो वे ध्यान से अधिगम नहीं करते हैं परिणाम होता है कि वे असफल होने लगते हैं। साथ ही यदि शिक्षण विधि उबाऊ और निरस होती है तथा बच्चों में रुचि और जिज्ञासा नहीं उत्पन्न कर पाती है तब भी बच्चे असफल होते हैं।
5. स्वास्थ्य− स्वास्थ्य भी बच्चों की असफलता में एक प्रमुख कारण होता है। शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य यदि ठीक नहीं होता है तो बच्चे शिक्षण−अधिगम प्रक्रिया में रुचि नहीं लेते हैं परिणामस्वरूप वे विद्यालय के प्रदर्शन में असफल होते हैं।
6. बौद्धिक योग्यताएँ− बच्चों को जो बातें कक्षा शिक्षण में सिखायी जा रही हैं वे उनकी बौद्धिक योग्यता के अनुरूप नहीं होने पर बच्चे नहीं सीख पाते हैं परिणामस्वरूप वे कक्षा प्रदर्श में असफल होते हैं।
7. तत्परता की कमी− यदि बच्चे कक्षा में सिखाई जा रही बातों को सीखने के प्रति तत्पर नहीं रहते हैं तो वे ठीक प्रकार से शिक्षण−अधिगम प्रक्रिया में भाग नहीं लेते हैं‚ परिणामस्वरूप विद्यालय प्रदर्शन में असफल होते हैं।
8. कक्षा−कक्ष परिवेश− कक्षा−कक्ष का ऐसा परिवेश जो छात्रों की आवश्यकताओं की पूर्ति करता है वही परिवेश छात्रों के अधिगम में सहायक होता है‚ कक्षा−कक्ष का अनुपयुक्त परिवेश भी बच्चों के कमजोर प्रदर्शन के लिए जिम्मेदार होता है।
9. शिक्षण विधियाँ एवं युक्तियाँ− अनुपयुक्त‚ प्रभावहीन शिक्षण विधियों के प्रयोग से छात्रों की उपलब्धि पर प्रतिकूल असर पड़ता है फलत: वे विद्यालयी प्रदर्शन में असफल होते हैं और उनकी उपलब्धि का स्तर गिरता जाता है।
10. बच्चों की कमजोरियों‚ कठिनाइयों एवं समस्याओं का समुचित निवारण न होना− शिक्षण अधिगम में यह आवश्यक है कि बच्चों की कमजोरियों‚ कठिनाइयों एवं समस्याओं का समुचित निदान एवं उपचार किया जाय। इसके अभाव में बच्चों की सफलता‚ उनका प्रदर्शन प्रभावित होता है।
11. उचित प्रेरणा एवं मार्गदर्शन का अभाव− उचित प्रेरणा एवं मार्गदर्शन के अभाव में भी बच्चे विद्यालयी प्रदर्शन में असफल होते हैं। अत: आवश्यक है कि शिक्षक द्वारा समय−समय पर उनको अधिगम के लिए प्रेरित करे तथा सही दिशा में मार्गदर्शन करे।