शैक्षिक समावेश से अभिप्राय
सलमानका सम्मेलन (1994) के अनुसार शैक्षिक समावेश से तात्पर्य है− ‘‘बच्चों के उनके शारीरिक‚ बुद्धिमत्ता‚ सामाजिक‚ भावनात्मकता‚ भाषायी या कोई अन्य परिस्थितियों पर ध्यान दिये बिना विद्यालय को सभी बच्चों को दाखिला देना चाहिए। यह सम्मिलित करता है विकलांक और प्रतिभावान बच्चे‚ गली के और कार्य करने वाले बच्चे‚ गाँव या बंजारे बच्चे‚ भाषायी‚ प्रजातीय या सांस्कृतिक अल्पसंख्यक के बच्चे तथा दूसरे अलाभान्वित या अधिकारहीन क्षेत्र या समूह के बच्चे को।’’ मानव विकास संसाधन मंत्रालय के समावेशित शिक्षा स्कीम के अनुसार− समावेशित शिक्षा से तात्पर्य सभी सीखने वाले‚ बिना विकलांग एवं विकलांग नवयुवक‚ पूर्व−विद्यालय प्रावधानों‚ विद्यालय और सामुदायिक शैक्षिक स्थानों पर युपयुक्त तंत्र एवं सहायक सुविधाओं के साथ एक साथ सीख (पढ़) सके।
एक बात ध्यान रखनी चाहिए कि समावेशित शिक्षा से तात्पर्य केवल विकलांग बच्चों को ही कक्षा में सामान्य बच्चों के साथ शिक्षा देना ही नहीं है‚ बल्कि सभी बच्चे जो विभिन्न वर्ग एवं योग्यता के हैं‚ को एक साथ एक ही कक्षा में शिक्षा देना समावेशित शिक्षा कहलाता है।
शैक्षिक समावेशन के अंतर्गत आने वाले विभिन्न वर्ग के बालक
विशिष्ट आवश्यकता वाले बालक
विशिष्ट आवश्यकता वाले बालक से अभिप्राय−
• क्रुक शैंक के अनुसार−‘‘विशिष्ट बालक वह है जो बौद्धिक‚ शारीरिक‚ सामाजिक अथवा संवेगात्मक दृष्टि से सामान्य समझे जाने वाली दृष्टि तथा विकास से इतना भिन्न है कि वह नियमित विद्यालय कार्यक्रम से पूर्ण लाभ नहीं उठा सकता है तथा विशिष्ट कक्षा अथवा पूरक शिक्षण व सेवा चाहता है।’’
• क्रो एवं क्रो के अनुसार− ‘‘विशिष्ट प्रकार या विशिष्ट शब्द ऐसे गुणों या उस गुण को रखने वाले व्यक्ति पर लागू किया जाता है जिसके कारण व्यक्ति अपने साथियों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करता है।’’
• हीबर्ड के अनुसार− ‘‘विशिष्ट बच्चों की श्रेणी में वे बच्चे आते हैं जिन्हें सीखने में कठिनाई का अनुभव होता है या जिनका मानसिक या शैक्षिक निष्पादन या सृजन अत्यन्त उच्च कोटि का होता है या जिनको व्यवहारिक‚ सांवेगिक एवं सामाजिक समस्याएँ घेर लेती हैं या वे विभिन्न शारीरिक अपंगताओं या निर्बलताओं से पीड़ित रहते हैं‚ जिनके कारण ही उनके लिए अलग से विशिष्ट शिक्षा की व्यवस्था करनी पड़ती है।’’ उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर कहा जा सकता है कि‚ विशिष्ट बच्चे वे बच्चे हैं जो कि शारीरिक‚ मानसिक‚ सामाजिक‚ शैक्षिक‚ सांवेगिक एवं व्यावहारिक विशेषताओं के कारण किसी सामान्य या औसत बच्चों से उस सीमा तक स्पष्ट रूप से अलग होते हैं‚ जहाँ कि उन्हें अपनी योग्यताओं‚ क्षमताओं एवं शक्तियों को समुचित रूप से विकसित करने के लिए परम्परागत शिक्षण−विधियों में परिमार्जन या विशिष्ट प्रकार के कार्यक्रमों की आवश्यकता होती है‚ उन्हें विशिष्ट बालक या विशिष्ट आवश्यकता वाले बालक कहा जाता है।
विशिष्ट आवश्यकता वाले बालकों की पहचान− विशिष्ट आवश्यकता वाले बच्चे सामान्य बच्चों से विशिष्ट लक्षणों वाले होते हैं। विशिष्ट बच्चों में निम्नलिखित प्रवृत्तियाँ पायी जाती हैं− यह अंतर्मुखी‚ निराशवादी‚ सांवेगिक अस्थिरता वाले‚ शर्मिले‚ निष्क्रीय‚ आत्मकेन्द्रित‚ चिंताग्रस्त‚ निर्भर प्रवृत्ति‚ कभी−कभी उग्र‚ एकाकी भावना वाले उच्च सृजात्मक कौशल वाले ‚ दृढ़ निश्चयी आदि होते हैं इनकी पहचान हम निम्नलिखित तरीके से कर सकते हैं−
1. निरीक्षण द्वारा− अध्यापक अपने कक्षा−कक्ष में शिक्षण के दौरान उपरोक्त लक्षणों के आधार पर विशिष्ट आवश्यकता वाले बच्चों की पहचान कर सकता है।
2. मानसिक परीक्षण द्वारा− छात्रों का मानसिक परीक्षण कर उनकी विशिष्टता का पता लगाया जा सकता है। बुद्धि परीक्षण‚ मानसिक योग्यता परीक्षण‚ व्यक्तित्व परीक्षण आदि की सहायता से विशिष्ट आवश्यकता वाले बालकों की पहचान की जा सकती है।
3. व्यवहार के अवलोकन के द्वारा− विशिष्ट आवश्यकता वाले बच्चों द्वारा किये गये व्यवहारों के अवलोकन‚ मनोवैज्ञानिक परीक्षण एवं विश्लेषण से उनकी विशिष्टताओं का पता लगाया जा सकता है।
4. चिकित्सकीय परीक्षण द्वारा− जब साधारण परीक्षणों द्वारा विशिष्ट बालकों की पहचान नहीं हो पाती है तब चिकित्सकीय परीक्षण कर उनकी पहचान की जाती है।
5. शैक्षिक परिणामों के द्वारा− विशिष्ट आवश्यकता वाले बच्चों के कक्षा के परीक्षा में प्राप्त परिणामों का अवलोकन एवं विश्लेषण के द्वारा इनकी विशिष्टता का पता लगाया जा सकता है।
6. समाजमिति एवं साक्षात्कार के द्वारा− विशिष्ट आवश्यकता वाले बच्चों की पहचान के लिए समाजमिति एवं उनका प्रत्यक्ष विधि से साक्षात्कार कर उनकी विशिष्टताओं का पता लगाया जा सकता है।
विशिष्ट बालकों के प्रकार−
• मनोवैज्ञानिकों ने विशिष्ट बालकों या असाधारण बालकों के कई प्रकार बताए हैं। हेवार्ड तथा औरलेंसकी (Heward and Orlansky, 1980) के अनुसार विशिष्ट बालकों के निम्नवत प्रकार होते हैं− विशिष्ट बालक−
(i) प्रतिभाशाली या प्रवीण बालक
(ii) मानसिक मंद बालक
(iii) अधिगम असमर्थ बालक
(iv) व्यवहार रोगों से ग्रसित बालक
(v) संचार रोगों जैसे− भाषा दोष से ग्रसित बालक
(vi) श्रव्य−दोष से ग्रसित बालक
(vii) दृष्टि दोष से ग्रसित बालक
(viii) शारीरिक एवं अन्य स्वास्थ्य क्षति से ग्रसित बालक
(ix) गंभीर एवं बहु−विकलांगता से ग्रसित बालक
• रिली एवं लेविस (1983) ने विशिष्ट बालकों को निम्नांकित छ: भागों में बाँटा है−
विशिष्ट बालक−
(i) प्रतिभाशाली बालक
(ii) मानसिक मंद बालक
(iii) अधिगम असमर्थ बालक
(iv) मानसिक रोग से ग्रसित बालक
(v) शारीरिक रूप से विकलांग बालक
(vi) बहु विकलांगता से ग्रसित बालक
सामान्य रूप से विशिष्ट बालकों को निम्नांकित भागों में बाँटा जा सकता है−
प्रतिभाशाली बालक
प्रतिभाशाली बालक का अर्थ−
• स्किनर एवं हैरीमैन के अनुसार− ‘‘प्रतिभाशाली’ शब्द का प्रयोग उन 1% बालकों के लिए किया जाता है‚ जो सबसे अधिक बुद्धिमान होते हैं।’’
• क्रो एवं क्रो के अनुसार− ‘‘प्रतिभाशाली बालक दो प्रकार के होते हैं−(i) वे बालक‚ जिनकी बुद्धि लब्धि 130 से अधिक होती है और जो असाधारण बुद्धि वाले होते हैं। (ii) वे बालक जो कला‚ गणित‚ संगीत‚ अभिनय आदि में एक या अधिक में विशेष योग्यता रखते हैं।’’
• अब्दुल रउफ के अनुसार− ‘‘प्राय: उच्च बुद्धि लब्धि को प्रतिभाशाली का संकेत माना जाता है। अत: ‘प्रतिभाशाली बच्चे’ शब्द का अभिप्राय बच्चे की उच्च बुद्धि लब्धि से किया जा सकता है।’’
• कालसनिक के अनुसार− ‘‘वह प्रत्येक बालक जो अपने आयु स्तर के बच्चों में किसी योग्यता में अधिक हो और जो हमारे समाज के लिए महत्त्वपूर्ण योगदार कर सके‚ प्रतिभाशाली बालक है।’’
• प्रतिभाशाली बच्चों की बुद्धि लब्धि को लेकर विद्वानों में मतभेद है। क्रो एवं क्रो जहाँ बुद्धि लब्धि 130 से अधिक वाले बालक को प्रतिभाशाली बालक मानते हैं वहीं टरमैन के अनुसार 140 से अधिक बुद्धि लब्धि वाले बालक प्रतिभाशाली की श्रेणी में आते हैं। सामान्यत: 130−140 और उसके ऊपर बुद्धि लब्धि वाले बालकों को प्रतिभाशाली माना जाता है।
प्रतिभाशाली बालकों की पहचान−
प्रतिभाशाली बालकों की पहचान के लिए प्रयोग में लायी जाने वाली दो प्रमुख विधियों (1) विधिवत अवलोकन (2) प्रमापीकृत परीक्षण का प्रयोग किया जा सकता है। इन दोनों विधियों के अंतर्गत आने वाले कुछ प्रमुख उपकरण निम्नवत् हैं−
1. विधिवत अवलोकन−
(i) अध्यापक निर्णय (ii) सहपाठी निर्णय
2. प्रमापीकृत परीक्षण−
(i) समूहगत बुद्धि परीक्षण (ii) व्यक्तिगत बुद्धि परीक्षण (iii) सम्प्राप्ति परीक्षण (iv) विशिष्ट योग्यता परीक्षण (v) रुचि सूचि (vi) व्यक्तित्व परीक्षण (vii) प्रवणता परीक्षण (viii) सम्बन्धित व्यक्तियों से एकत्र सूचना
प्रतिभाशाली बालक की विशेषताएँ− डी होन एवं कफ के अनुसार प्रतिभाशाली बालकों की निम्न विशेषताएँ होती हैं−
• प्रतिभाशाली बच्चे रटने की बजाय समझने में विश्वास करते हैं।
• इनका शब्द भण्डार विस्तृत होता है।
• प्रतिभाशाली बच्चे कठिन कार्यों को सुगमतापूर्वक कर लेते हैं।
• इनका चिंतन मौलिक होता है।
• इनकी ज्ञानेन्द्रियों का विकास तीव्र गति से होता है।
• ये अमूर्त चिंतन एवं अमूर्त विषयों में अधिक रुचि लेते हैं।
• इनमें सृजनशीलता का गुण पाया जाता है।
• प्रतिभाशाली बच्चे सुगमता से याद कर लेते हैं।
• ये बच्चे सामान्य बुद्धि का प्रयोग अधिक करते हैं।
• प्रतिभाशाली बच्चे स्पष्ट रूप से सोचने‚ अर्थो को पहचानने और सम्बन्धों को पहचानने में दक्ष होते हैं।
शीली एवं सिल्वरमैन के अनुसार प्रतिभाशाली बच्चों का वर्गीकरण−
प्रवर्ग | बुद्धि लब्धि स्तर |
न्यून प्रतिभाशाली | 115–129 |
मध्यम प्रतिभाशाली | 130–144 |
उच्च प्रतिभाशाली | 145–159 |
असाधारण प्रतिभाशाली | 160–174 |
प्रगाढ़ प्रतिभाशाली | 175 से अधिक |
प्रतिभाशाली बालक की समस्याएँ एवं आवश्यकताएँ− प्रतिभाशाली एवं प्रवीण बालक हर क्षेत्र में− बुद्धि में‚ शारीरिक क्षमता में‚ शारीरिक बनावट में‚ सामाजिक कुशलता में‚ उपलब्धि में‚ सांवेगिक स्थायित्व में उत्कृष्ट होते हैं। परन्तु कभी−कभी यह भी देखा गया है कि कुछ प्रतिभाशाली ऐसे भी होते हैं जो शारीरिक रूप से कमजोर‚ नाटे‚ कुरूप असामाजिक होते हैं। किन्तु यहाँ हम एक समूह के सामान्यीकरण से प्राप्त समस्याओं की ही चर्चा करेंगे−
शारीरिक समस्याएँ−
• शारीरिक विकास तीव्र गति से होता है।
• खेलकूद जैसे क्रियाकलापों में अधिक रुचि लेते हैं।
• इन्हें साधारण खेलों एवं खेल के साधारण नियम उबाऊ लगते हैं।
• अन्य बालकों की तुलना में खेल के मैदान में ये अधिक आक्रामक होते हैं।
• खेल के मैदान में इनकी उपलब्धि अधिक होती है तथा इनके विपक्ष में अन्य बालक खेलने में कठिनाई महसूस करते हैं।
शैक्षिक समस्याएँ−
• ये अपने आयु वर्ग के बालकों की तुलना में अधिक बुद्धि लब्धि वाले होते हैं।
• अत्यधिक पाठ्यक्रम को बालक विद्यालय में पहुँचने से पहले ही स्वयं या अपने पिता की सहायता से पूरा कर लेते हैं।
• सामान्य कक्षाओं में बालक ऊबने लगते हैं।
• कभी−कभी बालक को विद्यालय से रुचि खत्म भी हो जाती है।
• ज्यादातर प्रतिभाशाली बालक विद्यालय में रुचि लेते हैं तथा उन्हें पढ़ना−लिखना अच्छा लगता है।
• ऐसे बालकों में रचनात्मक‚ अभिप्रेरणा तथा उचित बुद्धिमत्ता पायी जाती है।
• ऐसे बालक पाठ्य सहगामी क्रियाओं में अधिक रुचि लेते हैं तथा बढ़−चढ़कर हिस्सा लेते हैं।
• सामान्य कक्षाओं में बालक कम लाभान्वित होते हैं।
• ऐसे बालकों को ऐसा लगता है कि पाठ्यक्रम बहुत धीमी गति से पूरा किया जा रहा है।
सामाजिक एवं सांवेगिक समस्याएँ−
• प्रतिभाशाली बालक हमेशा खुश रहते हैं तथा अपने समूह के नेता होते हैं।
• ज्यादातर प्रतिभाशाली एवं प्रवीण बालक सांवेगिक रूप से स्थायी होते हैं तथा किसी भी प्रकार की मानसिक अस्वस्थता के होने की सम्भावनाओं से दूर होते हैं।
• सामान्यतया इन बालकों की रूचियाँ व्यापक होती हैं तथा इन्हें सकारात्मक रूप में लेते हैं।
नोट− कुछ कला प्रेमी प्रतिभाशाली बालकों में मानसिक अस्वस्थता आ जाती है। क्योंकि ये बालक समाज से अलग−थलग रहते हैं तथा वास्तविकता से दूर कल्पना की दुनिया में जीवन व्यतीत करते हैं। ऐसे बालकों में सांवेगिक अस्थायित्व पाया जाता है। इन्हें अपने आयु−वर्ग के बालकों में समायोजन की समस्या आ जाती है तथा इन बालकों का अपने वरिष्ठ एवं अध्यापकों से व्यवहार भी बिल्कुल असमान्य सा होता है। ऐसे बालकों से समाज के लोग असंतुष्ट रहते हैं।
नैतिक समस्याएँ
• ऐसे बालकों में सामाजिक न्याय एवं सही−गलत की अच्छी समझ होती है।
• कुछ प्रतिभाशाली बालक समाज द्वारा स्थापित मूल्यों एवं अनुमन्य व्यवहार की परवाह नहीं करते।
• ऐसे बालक अपने को उत्कृष्ट प्रस्तुत करने में अपने ही सहपाठियों की भावनाओं आदि को आसानी से चोट भी पहुँचा देते हैं।
आवश्यकताएँ
• प्रतिभाशाली बालकों के शारीरिक विकास के अनुसार इन बालकों को नये एवं अधिक चुनौतिपूर्ण खेलों में शामिल करने की आवश्यकता होती है। कुछ सामान्य नियमित खेलों में नियमों में परिवर्तन करके उन्हें आकर्षक बनाने की जरूरत होती है।
• ऐसे बालकों की शैक्षिक समस्याओं को ध्यान में रखते हुए उन्हें विशिष्ट कक्षाओं की जरूरत होती है।
• ऐसे बालकों के लिए पाठ्यक्रम को अधिक समृद्ध करने की आवश्यकता होती है।
• नये शिक्षण व्यूह आदि की सहायता से कक्षाओं को अधिक प्रभावशाली एवं आकर्षक बनाना होता है।
• ऐसे बालकों की शैक्षिक रुचियों के अनुसार शैक्षिक कार्यक्रमों का आयोजन एवं पाठ्यचर्या का समृद्धिकरण की आवश्यकता होती है।
विस एवं गलाधर (1982) ने पाठ्यचर्या के समृद्धिकरण हेतु सात प्रकार के शैक्षिक कार्यक्रमों का सुझाव दिया है− • कक्षा का समृद्धिकरण • सलाहकार शिक्षक कार्यक्रम • संसाधन कक्ष • सामुदायिक परामर्शदाता कार्यक्रम • स्वाध्याय कार्यक्रम • विशिष्ट कक्षा • विशेष विद्यालय • प्रतिभाशाली बालकों की क्षमताओं का सही एवं न्यायसंगत उपयोग कर बालक का सर्वांगीण विकास के लिए बालक को एक शैक्षिक सत्र में एक से अधिक कक्षा प्रोन्नति का प्रावधान किया जाना चाहिए।
• प्रतिभाशाली बालकों के समाज में सही समायोजन हेतु उचित परामर्श एवं निर्देशन की जरूरत होती है। साथ ही इन बालकों के माता−पिता या संरक्षकों को भी परामर्श एवं निर्देशन दिया जाना चाहिए।
• नैतिक समस्याओं को दूर करने हेतु बालकों को समाज की जरूरतों से परिचित कराना चाहिए तथा समाज के प्रति उत्तरदायित्व को स्पष्ट करना चाहिए।
• समाज में कुछ नैतिक समस्याओं को हल करने वाली समितियों का सदस्य बनाना चाहिए।
तीन वृत्त सिद्धांत
रेंजुली द्वारा प्रतिपादित तीन−वृत्त सिद्धांत में तीन वृत्त मानव लक्षण के तीन समूहों (औसत से ऊपर की क्षमता‚ रचनात्मकता और कार्य प्रतिबद्धता) का प्रतिनिधित्व करते हैं। इस सिद्धांत के अुनसार ये तीनों गुण एक दूसरे से जुड़कर या एक दूसरे से अंत:क्रिया कर प्रतिभाशाली व्यवहार के रूप में प्रकट होते हैं।
प्रतिभाशाली बच्चों की शिक्षा− प्रतिभाशाली बच्चे को किस प्रकार की शिक्षा दी जानी चाहिए? इसका उत्तर देते हुए हैविंगहर्स्ट ने अपनी पुस्तक “A survey of the
education gifted children” में लिखा है कि ‘‘प्रतिभाशाली बच्चों के लिए शिक्षा का सफल कार्यक्रम वही हो सकता है‚ जिसका उद्देश्य उनकी विभिन्न योग्यताओं का विकास करना हो।’’ इस कथन के अनुसार प्रतिभाशाली बच्चों की शिक्षा का कार्यक्रम इस प्रकार होना चाहिए−
• प्रतिभाशाली बच्चों को सामान्य बच्चों के साथ शिक्षा की व्यवस्था
• सर्वांगीण विकास पर बल
• विशेष व समृद्ध पाठ्यक्रम के अंतर्गत शिक्षा
• संस्कृति की शिक्षा
• पाठ्य सहगामी क्रियाओं का आयोजन
• सामाजिक अनुभवों के अवसर देना
• नेतृत्व प्रशिक्षण देना
• श्रेष्ठ एवं विशेष रूप से प्रशिक्षित अध्यापकों द्वारा शिक्षण
• कक्षा संवर्द्धन
• मानसिक उद्वेलन विधि द्वारा शिक्षा
• पुस्तकालय सुविधाएँ उपलब्ध कराना
• योजना विधि द्वारा शिक्षण
• विशेष कक्षाओं का आयोजन
• शिक्षक द्वारा व्यक्तिगत ध्यान देना
• समय−समय पर विशेष निर्देशन−परामर्श प्रदान करना
• तीव्र उन्नति
निम्न उपलब्धि वाले प्रतिभाशाली बालक
प्रतिभाशाली बालक शिक्षा एवं समायोजन की दृष्टि से शिक्षकों के लिए सबसे उचित चुनौती देने वाले बालक होते हैं। ऐसे बालक अधिक तीव्र गति से सीखते हैं‚ जिससे कक्षा की विषय वस्तु को अन्य छात्रों की अपेक्षा शीघ्रता से सीख लेते हैं और अति आत्म− विश्वास का शिकार हो कक्षा में रुचि लेना बंद कर देते हैं। यदि इन पर उचित ध्यान न दिया जाये तो ये अपना ध्यान विभिन्न तरह के शरारतों में लगा देते हैं और कक्षा में अनुशासन एवं समायोजन की समस्या पैदा कर देते हैं। ये बालक पाठ्यक्रम की विषय−वस्तु को अत्यधिक आसान समझ लेते हैं जिस कारण इनकी शैक्षिक उपलब्धि का स्तर नीचे गिर जाता है।
धीमी गति से सीखने वाले बालक
धीमी गति से सीखने वाले बालक का अर्थ−
• क्रिक के अनुसार यदि सामान्य बालक की शैक्षिक उपलब्धि अपने आयु वर्ग के बालकों से कम है तब उसे धीमी गति से सीखने वाला माना जायेगा। इसके अतिरिक्त यदि बालक का विकास‚ समायोजन‚ आत्मनिर्भरता अपनी आयु वर्ग के बालकों से कम है तब भी इन्हें धीमी गति से सीखने वाला बालक कहा जा सकता है।
धीमी गति से सीखने वाले बच्चों की विशेषताएँ−
1. शारीरिक विशेषता− धीमी गति से सीखने वाले बच्चे वे होते हैं‚ जिनमें शारीरिक या मानसिक या शारीरिक−मानसिक दोनों
(मिश्रित) प्रकार के विशेषताओं का विकास धीमी गति से होता है।
इनमें परिपक्वता भी देर से आती है। ये साफ कपड़े नहीं पहनते हैं।
ऐसे बच्चे लिखना‚ कला‚ आत्मविश्वास एवं सामाजिक गुणों का लोप‚ चिंतामुक्त‚ विद्यालय में अनुपस्थिति‚ इंन्द्रियदोषों से ग्रसित एवं सीखने में ह्रास जैसी बिमारी से ग्रसित होते हैं।
2. अवधान शक्ति का अभाव− धीमी गति से सीखने वाले बच्चों में स्मरण शक्ति की कमी के कारण धारण शक्ति का अभाव होता है। ये बच्चे पढ़ाई लिखाई से कतराते हैं। शिक्षक द्वारा की गयी प्रस्तुतीकरण का ये प्रत्यक्षीकरण नहीं कर पाते हैं क्योंकि प्रस्तुतीकरण इनके अनुकूल नहीं होता है।
3. असुरक्षा का भाव− धीमी गति से सीखने वाले बच्चों में असुरक्षा का भाव अधिक रहता है। यह भाव शारीरिक एवं मानसिक कमजोरी के कारण आ जाता है।
4. अभिव्यक्ति या सम्प्रेषण क्षमता का अभाव− धीमी गति से सीखने वाले बच्चों में कल्पना शक्ति कम होती है। साथी ही दूरदर्शिता का भी अभाव होता है। ये अपने विचारों को अभिव्यक्त नहीं कर पाते हैं। इनमें भविष्य बोध का गुण भी नहीं होता है।
5. समस्याग्रस्तता− धीमी गति से सीखने वाले बच्चों में सामाजिक सांस्कृति तथा शैक्षिक समस्याएँ पायी जाती हैं। इन्हें हतोत्साहित करने से इनमें समाजविरोधी अभिवृत्ति उत्पन्न हो जाती है।
धीमी गति से सीखने वाले बच्चों की पहचान− • उनके क्रियाकलापों का अवलोकन करके। • उनके मित्रों‚ रिश्तेदारों‚ परिवारों और स्वयं उनसे सूचनाओं को एकत्रित करके। • चिकित्सकीय जाँच द्वारा • शैक्षिक परीक्षाओं से प्राप्त परिणामों द्वारा • व्यक्तित्व परीक्षओं द्वारा • बुद्धि परीक्षणों द्वारा • अन्य मनोवैज्ञानिक परीक्षणों द्वारा
बच्चों के धीमी गति से सीखने के कारण− • सामाजिक−आर्थिक परिस्थिति • परिवार के सदस्यों का मानसिक स्तर • संवेगात्मक घटक • व्यक्तिगत घटक • शारीरिक दुर्घटना • मानसिक दुर्घटना
धीमी गति से सीखने वाले बच्चों की समस्याएँ− • ज्ञानात्मक अधिगम समस्याएँ • भाषा एवं वाणी की समस्याएँ • श्रवण प्रत्यक्षीकरण की समस्याएँ • दृष्टि एवं व्यवहारिक समस्याएँ • सामाजिक एवं संवेगात्मक समस्याएँ • समायोजन की समस्याएँ
धीमी गति से सीखने वाले बच्चों की शिक्षा− • पाठ्यक्रम का लचीलापन • क्रियात्मक विधियों का प्रयोग • कार्यों का स्तरीकरण • व्यवहारिक आयाम द्वारा शिक्षा • अधिगम के लिए तत्पर करना • अभिक्रमिक अनुदेशन आव्यूह • प्रगति आलेख तैयार करना • शिक्षक द्वारा बच्चे का अवलोकन • सम्प्रत्यय की संरचना का निर्माण करना
• शिक्षक की भूमिका गिलफोर्ड तथा टेन्सले ने धीमी गति से सीखने वाले बच्चों के लिए निम्न सुझाव दिये हैं−
• पाठ्यवस्तु के अनुदेशन निर्माण तथा इनकी विशिष्ट आवश्यकताओं को ध्यान में रखना चाहिए।
• अध्ययन के लिए बच्चे की पहुँच के अनुरूप व्यापक सुविधाओं का आयोजन करना चाहिए।
• शिक्षक को ऐसे बच्चों के लिए छोटी कक्षा की व्यवस्था करनी चाहिए। अनुवर्ग शिक्षण की व्यवस्था करनी चाहिए।
• पाठ्यवस्तु को छोटे खण्डों में प्रस्तुत करना चाहिए।
• इनको असफल होने पर भी प्रवेश देना चाहिए।
• माता−पिता से सहयोग लेने का प्रयास करना चाहिए।
• इनको हर सम्भव स्वतंत्रता देनी चाहिए।
• योग्य एवं प्रतिभावान बच्चों की सहायता लेनी चाहिए जिससे सहयोगी अधिगम को बढ़ावा मिले।
पिछड़े बालक
पिछड़े बालक का अर्थ−
जो बालक अपनी कक्षा के अन्य बालकों से अध्ययन तथा शैक्षिक प्रगति की दृष्टि से पिछड़ जाते हैं‚ उन्हें पिछड़ा बालक कहते हैं।
• बार्टन हार्ट के अनुसार− ‘‘पिछड़े बच्चे वे होते हैं‚ जिनकी शैक्षिक उपलब्धिता उस स्तर से निम्न स्तर की होती है‚ जिनके लिए वह योग्य होते हैं।’’
• सिरिल बर्ट के अनुसार− ‘‘पिछड़ा बालक वह है‚ जो अपने विद्यालयी जीवन के मध्य में अपनी कक्षा से नीचे की कक्षा के उस कार्य को न कर सके‚ जो उसकी आयु बालकों के लिए सामान्य कार्य है।’’
• बर्ट के अनुसार जिस बालक की शैक्षिक लब्धि 85 से कम होती है‚ उसे पिछड़ा बालक कहा जा सकता है।
• पिछड़ापन दो प्रकार का होता है−
(i) सामान्य पिछड़ापन− इस प्रकार के पिछड़ेपन में बच्चे सभी पक्षों में पिछड़ा दिखाई देते हैं।
(ii) विशिष्ट पिछड़ापन− इस प्रकार के पिछड़ेपन में बच्चे किसी एक विशेष विषय या पक्ष में पिछड़ा होता है।
पिछड़े बच्चों की पहचान−
1. विभिन्न परिस्थितियों एवं व्यवहार का ज्ञान− शैक्षिक पिछड़ेपन के बाह्य कारणों का पता लगाने के लिए बच्चे की सामाजिक-आर्थिक स्तर‚ माता−पिता का शिक्षा स्तर‚ सत्र में बच्चे की उपस्थिति‚ विद्यालय में प्रवेश का समय‚ विद्यालय का वातावरण‚ शिक्षकों का शैक्षिक ज्ञानात्मक स्तर‚ प्रयोग में लायी जाने वाली शिक्षण विधियों एवं उपकरणों आदि का ज्ञान सहायक सिद्ध हो सकता है।
2. व्यक्तिगत बुद्धि परीक्षण− मनोवैज्ञानिकों ने पिछड़ेपन का कारण बच्चों का मंद बुद्धि होना पाया है।
• बार्टन हार्ट ने हालाँकि इस पर आपत्ति जताते हुए कहा है− ‘‘एक बालक मंदबुद्धि और पिछड़ा हुआ दोनों ही हो सकता है लेकिन उसका पिछड़ा हुआ होना इसलिए आवश्यक नहीं है क्योंकि वह मंदबुद्धि है।’’
3. मानकीकृत उपलब्धि परीक्षण
4. उपलब्धि परीक्षण
5. सामूहिक परीक्षण
6. अन्य मनोवैज्ञानिक परीक्षण
पिछड़ेपन का कारण
1. सामान्य से कम शारीरिक विकास 2. शारीरिक दोष 3. शारीरिक रोग 4. निम्न सामान्य बुद्धि 5. परिवार की निर्धनता तथा बड़ा आकार 6. विद्यालय का दोषपूर्ण संगठन
7. परिवार के झगड़े
पिछड़े बालक की विशेषताएँ−
• सीखने की गति धीमी • जीवन में निराशा का अनुभव • समाज विरोधी कार्यों की प्रकृति • जन्मजात योग्यता की तुलना में कम शैक्षिक प्रगति • सामान्य विद्यालय के पाठ्यक्रम से लाभ उठाने में असमर्थता • सामान्य शिक्षण−विधियों द्वारा शिक्षा ग्रहण करने में विफलता • मानसिक रूप से अस्वस्थ और असमायोजित व्यवहार • बुद्धि परीक्षाओं में निम्न बुद्धि लब्धि • व्यवहार सम्बन्धी समस्याओं की अभिव्यक्ति
पिछड़े बच्चों की शिक्षा−
• विशिष्ट विद्यालयों की स्थापना • विशिष्ट कक्षाओं की स्थापना • अच्छे शिक्षकों की नियुक्ति • छोटे समूह में शिक्षा • विशेष पाठ्यक्रम का निर्माण • हस्तशिल्पों की शिक्षा • सांस्कृतिक विषयों की शिक्षा • विशेष शिक्षण विधियों का प्रयोग • श्रव्य−दृश्य साधनों का प्रयोग • निदानात्मक एवं उपचारात्मक शिक्षण • उचित निर्देशन एवं परामर्श • आत्म विश्वास की जागृति
मानसिक रूप से मंद बालक या मंद बुद्धि बालक
मानसिक रूप से मंद बालक या मंद बुद्धि बालक का अर्थ-
मंद बुद्धि बालकों से तात्पर्य उन बालकों से होता है जिनकी मानसिक योग्यता सामान्य बालकों से कम होती है।
• क्रो एवं क्रो के अनुसार ‘‘जिन बालकों की बुद्धि लब्धि 70 से कम होती है उनको मंद बुद्धि बालक कहते हैं।’’
• मानसिक मन्दता पर अमेरिकन एसोशिएशन के अनुसार ‘‘मानसिक पिछड़ेपन से तात्पर्य सार्थक रूप से औसत से कम सामान्य बौद्धिक कार्यपरकता से है‚ जो अनुकूल व्यवहार में कमी के साथ−साथ विद्यमान होती है तथा विकासात्मक अवस्था में परिलक्षित होती है।’’
मंद बुद्धि बालकों की पहचान−
• विस्तृत अवलोकन
• व्यक्तिगत व सामूहिक बुद्धि परीक्षण
• उपलब्धि परीक्षण
• व्यक्तित्व परीक्षण
• अन्य मनोवैज्ञानिक परीक्षण
मंदबुद्धि बालकों की विशेषतायें−
• ऐसे बालक नई बातों को सीखने में कठिनाई का अनुभव करते हैं। ऐसे बालक ऐसी सीखी गयी बातों को नवीन परिस्थितियों में प्रयुक्त करने में प्राय: कठिनाई का अनुभव करते हैं।
• ऐसे बालक अन्य व्यक्तियों या परिजनों की जरा भी चिंता किये बिना केवल अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति की चिंता करते हैं।
• ऐसे बालकों में धैर्य‚ कल्पना‚ चिंतन तथा आत्मविश्वास आदि योग्यताओं की कमी होती है।
• ऐसे बालकों की बुद्धि लब्धि का मान प्राय: 71 से कम होती है।
• ऐसे बालकों में नवीन बातों को सीखने की गति सामान्य बालकों से मंद होती है।
मानसिक मंद बालकों की समस्याएँ एवं आवश्यकताएँ− संज्ञानात्मक समस्याएँ− मानसिक मंद बालकों को निम्नवत् चार संज्ञानात्मक क्षेत्रों में समस्याएँ होती हैं-
• अवधान • स्मृति • भाषा • शिक्षा
अवधान क्षमता−
• ऐसे बालकों में अवधान की कमी के कारण बालक का अधिगम प्रभावित हो जाता है‚ जिससे बालक की क्रियात्मकता में कमी आ जाती है।
• ऐसे बालक जटिल प्रक्रियाओं को समझने में कठिनाई महसूस करते हैं।
• ऐसे बालक में अवधान विस्तार में कमी पायी जाती है।
स्मृति क्षमता−
• स्मृति के संदर्भ में भी मानसिक मंद बालक सामान्य बालकों की तुलना में पीछे होते हैं।
• मानसिक मंद बालक गहन मानसिक प्रक्रिया स्तर में कमजोर होते हैं।
• मानसिक मंद बालक पूर्वाभ्यास करने में कठिनाई महसूस करते हैं।
• ऐसे बालकों की समस्या-समाधान करने की क्षमता भी सामान्य बालकों की तुलना में कम होती है।
भाषा विकास−
• ऐसे बालकों में उच्चारण सम्बन्धी समस्या जैसे वाणी दोष आदि पाया जाता है।
शैक्षिक उपलब्धि−
• मानसिक मंद बालकों की शैक्षिक उपलब्धि बुद्धि−लब्धि कम होने के कारण सामान्य बालकों की तुलना में कम होती है।
व्यक्तित्व सम्बन्धी समस्याएँ−
• मानसिक मंद बालकों में सामाजिक व सांवेगिक समस्याएँ विविधता में पायी जाती है।
• ये बालक स्वयं अवधान की कमी के चलते किसी से मिलना जुलना पसंद नहीं करते।
• इनके सहपाठी इन्हें सामान्य खेल−कूद‚ सामूहिक क्रियाकलापों आदि में स्वीकार नहीं करते।
आवश्यकताएँ− अवधान क्षमता का विकास
• मानसिक मंद बालकों के अवधान क्षमता को बढ़ाने के लिए पाठ्य−सामग्री या अनुदेशों को छोटे−छोटे टुकड़ों में प्रस्तुत करना चाहिए।
• उनकी रुचि के अनुरूप सहायक सामग्रियों का इस्तेमाल करना चाहिए।
• खेल−खेल में आकर्षक वातावरण का निर्माण किया जाना चाहिए जिससे बालक की अवधान क्षमता का विकास हो सके।
स्मृति विकास−
• स्मृति के विकास हेतु इन बालकों को अधिगम नीतियों के प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है।
• इन बालकों को अपनी सामान्य बातों को याद रखने हेतु दैनंदिनी लेखन आदि का प्रशिक्षण देना चाहिए।
भाषा विकास−
• ऐसे बालकों को अधिक से अधिक अंत:क्रिया का अवसर प्रदान करना चाहिए।
• नियमित शब्दों का उच्चारण अभ्यास कराना चाहिए तथा उनके सहपाठियों के साथ खेलने−कूदने एवं बात−चीत करने के अवसर प्रदान करना चाहिए।
शैक्षिक उपलब्धि
• मानसिक मंद बालकों की शैक्षिक उपलब्धि बढ़ाने के लिए बालकों का मूल्यांकन उनके सीखने के स्तर एवं मानसिक स्तर के अनुसार करना चाहिए।
• ऐसे बालकों की मूल्यांकन प्रक्रिया मौखिक एवं छोटे−छोटे क्रियाकलापों पर आधारित होनी चाहिए।
• बालाकों के स्वामित्व स्तर के मूल्यांकन की बजाय उनके सीखने की मात्रा का मूल्यांकन किया जाना चाहिए।
व्यक्तित्व सम्बन्धी आवश्यकताएँ−
• ऐसे बालकों को छोटे−छोटे कार्यों के लिए पुनर्बलन का प्रयोग करना चाहिए।
• अन्य जटिल कार्यों को करने के लिए अभिप्रेरणा प्रदान करना चाहिए।
मंद बुद्धि बालकों की शिक्षा−
• अपनी देखभाल का प्रशिक्षण देना चाहिए।
• विशेष प्रशिक्षित शिक्षक द्वारा शिक्षा की व्यवस्था।
• आर्थिक प्रशिक्षण की व्यवस्था करनी चाहिए।
• सामाजिक प्रशिक्षण देना चाहिए।
• शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य से समायोजन करने की शिक्षा।
• निष्क्रीय और सक्रिय मनोरंजन की शिक्षा।
• सुनने‚ निरीक्षण करने‚ बोलने और लिखने की शिक्षा।
• विशिष्ट कक्षा व्यवस्थ करनी चाहिए।
आंशिक रूप से शारीरिक अक्षम बच्चे (दृष्टि बाधित‚ श्रवण बाधित‚ वाक दोष‚ अस्थि बाधित्)
आंशिक रूप से अक्षम बच्चों का अर्थ− ऐसे बच्चों या बच्चियों का कोई न कोई अंग दुर्बल होता है‚ जिससे वे अपनी सामान्य क्रियाएँ नहीं कर पाते है ऐसे बच्चों को आंशिक रूप से शारीरिक अक्षम कहा जाता है।
आंशिक अक्षम बच्चों या व्यक्तियों में समायोजन से सम्बन्धित अनेक समस्याएँ होती हैं। आंशिक शारीरिक रूप से अक्षम बच्चों को चार वर्गों में विभाजित किया जाता है−
1. दृष्टि बाधित बालक 2. श्रवण बाधित बालक 3. वाक दोष बालक 4. अस्थि बाधित बालक
आंशिक रूप से दृष्टिबाधित बालक
सामान्य शब्दों में ठीक प्रकार से देख पाने में असमर्थता‚ दृष्टिबाधिता कहलाती है।
दृष्टि बाधिता दो प्रकार की होती है−
(1) आंशिक या अल्पदृष्टि दोष
(2) पूर्णत: दृष्टि अभाव या दृष्टिहीन
1. आंशिक दृष्टि बाधित बालक− कानूनी परिभाषा के अनुसार सुधारात्मक उपायों के बावजूद अल्प दृष्टि बालक या व्यक्ति की देखने की क्षमता (दृष्टितीक्ष्णता) 20/70 फीट या दृष्टि क्षेत्र 20
डिग्री होती है। अर्थात सामान्य दृष्टि वाला जिस वस्तु को 70 फीट की दूरी से देख सकता है उसे आंशिक दृष्टि दोष वाला व्यक्ति 20
फीट की दूरी से देख पायेगा तथा दृष्टि के बिल्कुल सीध में रखने पर व्यक्ति मात्र 20 डिग्री या कम की परिधि में आने वाली वस्तुओं को देख सकने में सक्षम होगा।
शैक्षणिक परिभाषा के अनुसार अल्प दृष्टि वाले वे व्यक्ति हैं‚ जो कि छिपे हुए अक्षर पढ़ तो सकते हैं परन्तु उनके लिए मोटी छपाई वाली पुस्तकों या लिखे हुए अक्षरों को बड़ा करके दिखाने वाले उपकरणों की आवश्यकता होती है।
2. दृष्टिहीनता या पूर्णत: दृष्टि अभाव− वैधानिक रूप से दृष्टिहीनता वह स्थिति है जब किसी व्यक्ति की देखने की क्षमता या दृष्टितीक्ष्णता स्वस्थ या अच्छे नेत्र में‚ चश्में या कांटेक्ट लेंस के साथ सर्वोत्तम सम्भव सुधार करने के बाद 20/200 या उससे कम हो अथवा वे व्यक्ति जिनका दृष्टि क्षेत्र 20 डिग्री से कम होता है।
शैक्षणिक परिभाषा के अनुसार दृष्टिहीन व्यक्ति वे व्यक्ति हैं जिनकी आँखे इतनी गम्भीर रूप से प्रभावित हैं कि उनको शैक्षिक उद्देश्यों के लिए ब्रेल लिपि या श्रवण प्रणाली का प्रयोग करना पड़ता है।
इस प्रकार हमने देखा कि आंशिक दृष्टि की श्रेणी में वे बच्चे या व्यक्ति आते हैं‚ जिनमें अवशिष्ट की मात्रा सामान्य दृष्टि वाले और पूर्ण अन्धत्व के बीच की होती है। इनको पढ़ने−लिखने‚ चलने−फिरने अथवा सामान्य काम−काज करने में समस्या का सामना करना पड़ता है। ऐसे बालकों के दृष्टिमूलक कार्य प्रभावित हो सकते हैं तथा दृष्टिमूलक कार्य का सम्पादन करने के लिए इन्हें सहायक उपकरणों की सहायता लेनी पड़ती है।
दृष्टि−अक्षम बालक की समस्याएँ एवं आवश्यकताएँ− भाषा विकास−
• दृष्टि अक्षम बालक भाषा विकास की दृष्टि से सामान्य बालकों से भिन्न नहीं होते। किन्तु इनके भाषा अधिगम में थोड़ा अन्तर होता है। जैसे− दृष्टि अक्षम बालक ज्यादा स्वकेंद्रित वार्ता करते हैं जबकि सामान्य बालक क्रियाकलाप सम्बन्धी वार्ता अधिक करते हैं।
संप्रत्ययात्मक क्षमता−
• दृष्टि अक्षम बालक सामान्य बालकों की तुलना में संप्रत्यात्मक विकास में कुछ पीछे होते हैं।
• दृष्टि अक्षम बालक एवं सामान्य बालक की संप्रत्ययात्मक क्षमता में अंतर उनके स्पर्शीय अनुभव एवं दृश्य अनुभव के अंतर की वजह से होता है।
चलिष्णुता (Mobility)–
• चलिष्णुता अपने वातावरण से समायोजन करने की एक महत्त्वपूर्ण क्षमता है। दृष्टि अक्षमता से सबसे ज्यादा बालकों की चलिष्णुता प्रभावित होती है। फलस्वरूप बालक की वातावरण से अंत:क्रिया प्रभावित हो जाती है।
• ऐसे बालकों को भीड़ वाले स्थान एवं दुर्घटना बाहुल्य क्षेत्र में विचरण करने में कठिनाई होती है।
अन्य इन्द्रियों की तीक्ष्णता−
• बालक अपनी अक्षमता की वजह से सूचनाएँ प्राप्त करने में कमी को पूरा करने के लिए अन्य इन्द्रियों का प्रयोग अधिक तत्परता एवं अवधान के साथ करता है।
शैक्षिक उपलब्धि−
• कुछ अध्ययन स्पष्ट करते हैं कि दृष्टि अक्षम बालकों की शैक्षिक उपलब्धि सामान्य बालकों की अपेक्षा कम होती है।
सामाजिक समायोजन−
• कोई भी अध्ययन यह प्रदर्शित नहीं करता कि दृष्टि अक्षम बालक कुसमायोजित होते हैं। अर्थात् दृष्टि अक्षम बालकों में व्यक्तित्व सम्बन्धी समस्याएँ समाज के दृष्टिकोण एवं व्यवहार की वजह से आती है न कि दृष्टिबाधित में निहित होती है।
आवश्यकताएँ− दृष्टि अक्षम बालक की मुख्यत: चार आवश्यकताएँ इस प्रकार हैं−
• ब्रेल
• शेष दृष्टि का प्रयोग
• श्रवण कौशल
• अनुपस्थिति एवं चलिष्णुता प्रशिक्षण
• ब्रेल− 19वीं शताब्दी में फ्रांस के लुई ब्रेल ने दृष्टि अक्षम व्यक्तियों के लिए सूचनाओं के आदान−प्रदान हेतु विकसित 12 बिन्दु पद्धति का संशोधन कर छ: बिन्दु पद्धति का प्रतिपादन किया‚ जो दृष्टि अक्षमों की शिक्षा व्यवस्था तथा संप्रत्यय को चमत्कारिक रूप से बदल दिया।
• शेष दृष्टि का प्रयोग−
• हैनिनेन का विश्वास है कि अधिकतर दृष्टि अक्षम बालकों को मुद्रित सामग्री पढ़ना चाहिए क्योंकि मुद्रित सामग्री को पढ़ने की गति अधिक होती है।
• दृष्टि अक्षम बालकों को शेष दृष्टि क्षमता का प्रयोग कर मुद्रित सामग्री से अधिक लाभ लेने में मदद करने हेतु अग्रलिखित दो विधियाँ हैं−
(i) बड़े अक्षरों में मुद्रण
(ii) आवर्धक लेंसों का प्रयोग
आंशिक दृष्टिबाधित बच्चों की शिक्षा व्यवस्था निम्न प्रकार से की जा सकती है−
• इन्हें विभिन्न प्रकार से प्रकाशों में रखा जाय उनके सम्बन्ध में कुछ कहने और देखने को प्रोत्साहित किया जाय‚ जिससे कि उनके शब्दावली में वृद्धि हो।
• वस्तुओं के निरीक्षण में पर्याप्त समय दिया जाय और रंगीन प्रकाश दिया जाय।
• उनसे चित्रों‚ आकृतियों आदि बनाने को कहा जाय।
• वस्तुओं के आकार के बोध हेतु स्पर्श कराया जाय और लम्बाई और चौड़ाई का ज्ञान दिया जाय।
• स्मृति के विकास में संकेतों का प्रयोग किया जाय‚ जटिलता को कम करने के लिए विशिष्ट क्रम में रखा जाय।
• गेंद को पकड़ने एवं फेकने का अभ्यास कराया जाय।
• उन्हें प्रत्ययों का शिक्षण कराया जाय।
• उन्हें तथ्यों एवं घटनाओं को समझने की व्यवस्था की जानी चाहिए।
• इनके लिए विशेष कक्षा की व्यवस्था की जानी चाहिए।
• इनके शिक्षण कार्य में सहकारिता योजना का प्रयोग करना चाहिए।
• कम देखने वाले बच्चों और औसत बच्चों का पाठ्यक्रम एक समान नहीं होता है। अध्यापक को यह ध्यान देना चाहिए कि उनकी आँखों पर जोर न पड़े।
• इनके कक्षा−कक्ष में प्रकाश पर्याप्त होना चाहिए।
• इनके कक्षा का फर्नीचर ऐसा होना चाहिए कि वे सुविधानुसार चाहे जहाँ बैठ सके।
• इनके शिक्षण हेतु विशेष रूप प्रशिक्षित अध्यापाकों को लगाया जाना चाहिए।
• इनके शिक्षण में शिक्षण सहायक उपकरणों जैसे लेंस वाले चश्में‚ दृष्टि यंत्रों‚ आकृतियों‚ दृष्टि कैमरा चलायमान टेलीस्कोप‚ अक्षर चित्रों को बड़ा प्रदर्शित करने वाले यंत्रों का प्रयोग करना चाहिए।
आंशिक रूप से दृष्टि बाधित बच्चों की पहचान−
• ऐसे बच्चे अक्सर सिर दर्द की शिकायत करते हैं और आँखे बंद कर लेते हैं।
• ऐसे बच्चे बार−बार पलक झपकाते हैं।
• पुस्तक या अन्य वस्तुओं को आँख के पास ले आते हैं।
• जब श्यामपट्ट लिखी चीजों को लिखते समय बगल में बैठे छात्र से जोर से पढ़ने को कहता है।
• एक आँख को बंद करके सिर को ऊपर उठाता है।
• अक्सर आँखों को मलता रहता है।
• आँखों का आकार भिन्न प्रकार का होता है।
• आँखों की पलक छोटी एवं आँख लाल रहती है।
• प्रकाश के प्रति संवेदनशील रहता है।
• जब दूर की वस्तुएँ देखता है तो शरीर में तानव होता है।
• पढ़ने के समय अनुदेशन सामग्री नहीं रखता है।
• आँखों से पानी बहता रहता है।
• चलते समय गलत तरीके से पैर रखता है।
• श्यामपट्ट पर लिखी विषय-वस्तु को उठ-उठ कर देखता है
• आँखों का टेढ़ापन या तिरछापन अथवा आँखे भारी होती हैं।
श्रवण बाधित बच्चे
श्रवण बाधित बालक का अर्थ− श्रवण बाधित बच्चों से अभिप्राय ऐसे बच्चों से है जो बच्चे सुनने की क्षमता पूर्ण रूप से खो देते हैं‚ वे अन्य बच्चों की अपेक्षा गम्भीर रूप से कठिनाइयों का सामना करते हैं। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि जो बच्चे पूर्णतया नहीं सुन पाते वे बहरे होते हैं।
आंशिक रूप से श्रवण बाधित बच्चे− आंशिक रूप से कम सुनने वाले बच्चे वे हैं जो श्रवण क्षमता को कुछ सीमा तक खो देते हैं। ऐसे बच्चों के जोर से की गयी ध्वनि अथवा बोली गयी आवाज को सुनने के लिए श्रवण यंत्र की आवश्यकता नहीं होती है। श्रवणयंत्र यदि इन्हें उपलब्ध हो तो आवाज को और अच्छी प्रकार से सुन सकेंगे। ऐसे बच्चों को सामान्य स्कूलों में तथा सामान्य बच्चों के साथ शिक्षा देनें में कठिनाई नहीं आती है। जब किसी बच्चे के श्रवण अंगों में कोई दोष होता है तब इसे श्रवण बाधिता कहा जाता है।
श्रवण बाधित बच्चों के लक्षण−
• इनके व्यवहार में लगातार एकाग्रता नहीं होती है।
• अध्यापक के होठों की गतिविधि और उसके हाव−भाव पर ध्यान देते हैं।
• प्रश्न पूछने पर अध्यापक से दुबारा पूछने को कहते हैं।
• ऐसे बच्चे गतिविधियों के विषय में और कार्यों के प्रति अधिक सजग होते हैं।
• ये अपने सिर को एक ओर झुकाकर या घुमाकर सुनने का प्रयास करते हैं।
• बिना जानकारी के भी वार्ता के बीच में बिना वजह बोलते हैं।
• शाब्दिक निर्देशनों को समझने में और अनुसरण करने में कठिनाई होती है।
• कक्षा में ध्वनि के दोत को नहीं जान पाता है।
• शब्दों के सही उच्चारण में उसे कठिनाई होती है।
• बिना जानकारी के बड़बड़ाता रहता है।
• अधिक धीरे या अधिक तेज बोलता है।
• इनकी भाषा का पूर्ण विकास नहीं हो पाता है।
• कभी−कभी कान दर्द की शिकायत करता है।
श्रवण बाधितों का वर्गीकरण
स्तर श्रवण बाधिता के प्रकार | डेसीबल स्तर | बाधित प्रतिशत |
1. कम बाधित बालक | 35–54DB तक | 40% |
2. मन्द बाधित बालक | 55–69DB तक | 40–50% |
3. गम्भीर बाधित बालक | 70–89DB तक | 50–75% |
4. पूर्ण/गहन बाधित बालक | 90–100DB तक | 100% |
_ श्रवण कौशल−
• दृष्टि अक्षम बालकों को अपने श्रवण कौशल के उपयोग का प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए।
• ऐसे बालकों के लिए रिकार्डेड सामग्री आदि की व्यवस्था करनी चाहिए।
• अनुपस्थिति एवं चलिष्णुता प्रशिक्षण−
• चलिष्णुता ही सामाजिक अंत:क्रिया के लिए अधिक जिम्मेदार घटक है। बालक की चलिष्णुता को बढ़ाने के लिए उन्हें प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है।
• सामन्यतया चलिष्णुता का प्रशिक्षण देने की चार प्रमुख विधियाँ हैं−
(i) मानव निर्देशक (ii) निर्देशक श्वान (iii) लम्बी छड़ी (iv) इलेक्ट्रॉनिक यंत्र
• प्रौद्योगिकीय एवं विशिष्ट सहायक सामग्रियाँ−
• दृष्टि अक्षम बालकों के कौशल अधिगम में सहायता प्रदान करने के लिए अन्य प्रौद्योगिकीय यंत्रों जैसे− आप्टाकॉन (Optacon) कुर्जवेन पठन मशीन‚ वर्साब्रेल‚ केन्मेर गिनतारा आदि का प्रयोग किया जा सकता है।
• श्रवण ह्रास से ग्रसित बालक की समस्याएँ एवं आवश्यकताएँ
• भाषा एवं वाणी विकास−
• श्रवण ह्रास से ग्रसित बालक को ध्वनि का कोई संप्रत्यय ही नहीं होता है‚ जिससे बालक अपने समाज से अंत:क्रिया करने में अक्षम हो जाता है। फलस्वरूप भाषा एवं वाणी का विकास बुरी तरह से प्रभावित हो जाता है।
• बौद्धिक क्षमता− सामान्यतया श्रवण ह्रास से ग्रसित बालकों की बौद्धिक क्षमता कम होती है तथा वह अपने विचारों को भाषा के अभाव में अभिव्यक्त भी नहीं कर पाता है।
• शैक्षिक उपलब्धि− श्रवण ह्रास से ग्रसित बालकों की शैक्षिक उपलब्धि कम होती है क्योंकि इन बालकों की पठन क्षमता सबसे अधिक प्रभावित होती है जो बालक की उपलब्धि का एक मुख्य घटक है।
• सामाजिक समायोजन− श्रवण ह्रास से ग्रसित बालक समाज से कट सा जाता है तथा बालक एक प्रकार से समाजीकरण की प्रक्रिया से वंचित रह जाता है।
आवश्यकताएँ− श्रवण ह्रास वाले बालकों की सबसे बड़ी समस्या सम्प्रेषण स्थापित करने में अक्षमता है। सम्प्रेषण समस्या को दूर करने के लिए दो प्रकार के प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है−
(i) मौखिक प्रशिक्षण
(ii) शारीरिक प्रशिक्षण
प्रौद्योगिकी तरक्की−
• प्रौद्योगिकी तरक्की से श्रवण ह्रास के क्षेत्र में अद्भुत परिवर्तन हुआ है तथा श्रवण ह्रास बालकों का जीवन उत्कृष्ट हुआ है।
मुख्यत: चार क्षेत्रों में यह तरक्की अवलोकित होती है−
(i) कम्प्यूटर आधारित अनुदेशन (ii) दूरदर्शन (iii) दूरभाष (iv) श्रवण यंत्र
आंशिक श्रवण बाधित बालकों की शिक्षा−
1. इनकी शिक्षा के लिए विशेष सम्प्रेषण तकनीकी अपनायी जानी चाहिए जिसमें कि ओष्ठ पठन विधि‚ संकेत भाषा का प्रयोग करके‚ स्पर्श विधि से‚ शरीर से विभिन्न गति करवाकर एवं ध्वनि प्रवर्द्धक यंत्रों का प्रयोग जैसी उपयोगी सम्प्रेषण विधियों का प्रयोग प्रभावी रहेगा।
2. शिक्षण तकनीकी का प्रयोग− श्रवण बाधित बच्चों के लिए सहायक सामग्री जैसे− आकृतियाँ‚ चित्र‚ संकेत‚ शब्द‚ मॉडल‚ मानचित्रों का प्रयोग किया जा सकता है। बीच−बीच में अध्यापक द्वारा प्रश्न पूछना अनिवार्य है। विशेष प्रशिक्षित अध्यापकों का प्रयोग किया जा सकता है। इनके लिए कम्प्यूटर अनुदेशन विधि लाभदायी है।
3. पृथक कक्षाओं की व्यवस्था होनी चाहिए।
4. इन्हें अंशत: कुछ समय के लिए पृथक विद्यालय में रखा जा सकता है।
5. शिशु कार्यक्रम चलाकर प्रारम्भ से ही शिक्षित किया जा सकता है।
6. श्रवण बाधितों को शैक्षिक सुविधाएँ‚ जैसे− सहायक उपकरण‚ व्यवसायिक प्रशिक्षण‚ पूर्व प्राथमिक शिक्षा‚ कक्षा का समुचित प्रबन्धन‚ बोलने एवं पढ़ने का प्रशिक्षण‚ माता−पिता की भूमिका‚ विद्यालय का वातावरण‚ आदि तत्त्वों का उचित समन्वय करके प्रशिक्षित किया जा सकता है।
7. श्रवण बाधित को इस प्रकार प्रशिक्षित करना कि वह सामान्य कक्षा के लिए स्वयं को तैयार कर सके।
8. श्रवण बाधित बच्चों की अभिरुचि‚ अभियोग्यता को ध्यान में रखकर उन्हें शैक्षिक निर्देशन दिया जाना चाहिए। उन्हें आवश्यकतानुसार व्यवसायिक प्रशिक्षण भी प्रदान किया जाना चाहिए ताकि वह अपनी दैनिक जरूरतों के अनुसार धनार्जन कर सके।
वाक दोष
वाक दोष का अर्थ−
• लाहन एवं काफमैन के अनुसार− ‘‘वाणी मुखर भाषा के ध्वनि की क्रमबद्ध एवं व्यवहारिक अभिव्यक्ति है।’’ जब इस प्रकार उपर्युक्त से अलग या भिन्न स्थिति उत्पन्न होती है तो यही स्थिति वाक दोष कहलाती है।
वाक दोष युक्त बच्चे वे हैं जो मुख की आवाज‚ बोले गये शब्दों में तालमेल तथा शब्दों को संयोजित करने में कठिनाई महसूस करते हैं। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि वे बोलते समय कुछ शब्दों को छोड़ देते हैं‚ बदल देते हैं‚ तोड़−मरोड़ देते हैं तथा कुछ जोड़ देते हैं। वाकदोष बाधित बच्चों में बोलने की लयक्रम टूट जाता है और उनकी आवाज में हकलाहट होती है।
• राइपर के अनुसार− ‘‘वे बच्चे जिसकों सम्प्रेषण में समस्या होती है और उसका स्वर या वाणी अन्य बच्चों से भिन्न प्रकार की होती है। वह स्वयं भी सजग होता है कि वह अपनी बात करने में असमर्थ है। उसकी वाणी मधुर नहीं होती है।’’
वाकदोष बालक की विशेषताएँ−
• इनके तालु व जबड़े में दोष होता है‚ जिसके कारण ये शब्दों का सही उच्चारण नहीं कर पाते हैं।
• इनकी आवाज में मधुरता नहीं होती है।
• इस प्रकार के जो बच्चे होते हैं‚ उनकी श्वसन क्रिया असामान्य होती है और उनकी आवाज भी हल्की होती है। जो बोलते हैं वह स्पष्ट नहीं होता है‚ बोलने में संकोच करते हैं तथा धारा प्रवाह नहीं बोल पाते हैं।
• वाकदोष तब उत्पन्न होता है जब सामान्य बच्चों से ऐसे बच्चों की बोलचाल विशिष्ट होती है। जैसे− सम्प्रेषण में बाधा उत्पन्न होती है‚ बोलते समय बहुत एकाग्र होना पड़ता है तथा बोलने एवं सुनने दोनों में कठिनाई होती है।
• कुछ बच्चों में श्रोता प्रक्रिया में दोष होना अथवा वाक के स्वर में बोलना जिससे उनमें नासिक दोष होता है‚ जिसके कारण ये नाक के स्वर में बोलते हैं और सुनने वाले को समझने में कठिनाई होती है। इसके अनेक कारण होते हैं‚ जैसे− संक्रामक रोग‚ टोन्सिल्स में सूजन आदि।
• कुछ बच्चे बोलने में तुतलाते हैं। धाराप्रवाह बोलने में उन्हें कठिनाई होती है‚ रुक−रुक कर बोलते हैं। इस प्रकार का दोष गले और जीभ में दोष के कारण होता है। इन्हें बोलने में संकोच होता है परन्तु बलपूर्वक बोलते हैं।
वाक दोष के प्रकार−
भाषा−दोष से ग्रसित बालक की समस्याएँ एवं आवश्यकताएँ−
• उच्चारण दोष− इस दोष में बालक कुछ विशेष शब्दों का उच्चारण करने में कठिनाई महसूस करता है।
• प्रवाह− प्रवाह से तात्पर्य वाणी के प्रवाह से है। बालक में यह प्रवाह की समस्या ‘हकलाना’ कहलाती है।
• आवाज− वाणी दोष से ग्रसित बालक की आवाज में तारत्व‚ अनुनाद‚ गुणवत्ता एवं उच्चता की समस्याएँ पायी जाती हैं।
आवाज में कर्कशता‚ मोटी आवाज या आवाज में रूखापन होना आदि से बालक समस्याग्रस्त रहता है।
• भाषा− भाषा−दोष के रूप में बालक के दो अलग−अलग या संयुक्त रूप से निम्नवत् समस्याएँ हो सकती हैं−
(i) बालक को अपने विचारों को अभिव्यक्त करने में या
(ii) दूसरों के विचारों के अर्थापन करने में
आवश्यकताएँ−
• भाषा−दोष से ग्रसित बालक को विशेष शिक्षा सेवाओं तथा संबंधित सेवाओं की आवश्यकता होती है। ज्यादातर बालकों को भाषा एवं वाणी−रोगशाध्Eा सेवाओं की आवश्यकता होती है। ये सेवाएं निम्नलिखित को शामिल करती हैं−
• भाषा दोष से ग्रसित बालकों की पहचान करना
• विशिष्ट भाषा−दोषों का निदान
• चिकित्सकीय या अन्य व्यावसायिक सलाह
• भाषा एवं वाणी सेवाओं का प्रावधान
• भाषा दोष से ग्रसित बालकों‚ उनके माता−पिता‚ संबन्धित शिक्षकों का परामर्श एवं निर्देशन
• सहायक प्रौद्योगिकी सहायक प्रौद्योगिकी बालक के अपने अधिगम का प्रदर्शन करने‚ कक्षा कार्य को सम्पन्न करने तथा अपने विचारों को साझा करने में सहयोग प्रदान करती है।
वाकदोष वाले बच्चों की शिक्षा-
1. उपयुक्त वाक अभ्यास− वाक दोष वाले बच्चों को समुचित एवं पर्याप्त वाक अभ्यास देना चाहिए। शिक्षक को बच्चों के सामने सही और गलत दोनों शब्दों को स्वयं बोलकर तत्पश्चात् बच्चों से अनुकरण अभ्यास कराया जाना चाहिए।
2. दुश्चिंता से मुक्ति− 70−80% व्यक्ति कहीं न कहीं‚ कभी न कभी हकलाट या तुतलाहट से ग्रसित होते हैं। यह दोष अधिकतर सांवेगिक कारणों जैसे− चिंता‚ लज्जा‚ ग्लानि आदि से उत्पन्न होती हैं। इसलिए शिक्षकों को चाहिए कि कक्षा का वातावरण आनन्दपूर्ण‚ सुखप्रद‚ मैत्रीभावना से परिपूर्ण और स्वस्थ्य रखे। एतएव शिक्षक का व्यवहार एवं कक्षा का वातावरण ऐसा होना चाहिए जिससे बच्चों में चिंता उत्पन्न न हो।
3. लज्जा एवं घबराहट से बचाव− अध्यापकों को चाहिए कि वह वाक दोष से पीड़ित बच्चों को कक्षा में लज्जा एवं घबराहट उत्पन्न करने वाली परिस्थितियों से दूर करे। प्राय: सामान्य कक्षाओं में सामान्य बच्चे इस प्रकार के बच्चों को हँसी−मजाक का केन्द्र बना लेते हैं ऐसी परिस्थितियों में इन बच्चों में कुंठा एवं अवसाद की स्थिति का जन्म होता है।
जहाँ तक संभव हो सके ऐसे बच्चों का पता उनके बाल्यकाल में लगाकार उपचार कराना चाहिए ताकि सामान्य बच्चों के साथ उनका समायोजन स्थापित हो सके।
4. पर्याप्त अभिप्रेरणा प्रदान करना− अध्यापकों को सबसे पहले ऐसे बच्चों को चिन्हित कर उन्हें प्रोत्साहन एवं अभिप्रेरणा प्रदान करना चाहिए। इससे उनके आत्म विश्वास में वृद्धि होगी और वे उत्सुकता से सीखने के लिए प्रेरित होंगे।
5. दोष पर बल न देना− शिक्षक को वाकदोष वाले बच्चों के बाधित स्तर एवं मात्रा पर अधिक बल नहीं देना चाहिए अन्यथा वह हतोत्साहित हो जायेगा तथा उसमें अपेक्षित सुधार नहीं हो पायेगा।
6. सही निदान करना− किसी भी वाकदोष वाले बच्चों को शिक्षा देने से पूर्व उसकी आवश्यकतानुसार (स्तर एवं मात्रा का पता लगा कर) ही निदान करना चाहिए क्योंकि जल्दबाजी में किया गया निदान गलत निष्कर्षों को जन्म देता है। परिणामस्वरूप अपेक्षित सुधार के स्थान पर अनापेक्षित गति की सम्भावना होती है।
अस्थि बाधित बालक
अस्थि बाधित बालक का अर्थ−
अस्थि बाधित बालक वे बालक हैं‚ जिनकी किसी एक या अधिक हड्डियों में दोष आ गया हो या क्षतिग्रस्त हो गयी हो‚ जिससे वो सामान्य बच्चों की भाँति शारीरिक अभ्यास करने में असमर्थ हो गया हो‚ ऐसे बच्चों की मांसपेशियों तथा जोड़ो अथवा अस्थियों में किसी कारण से दोष आ जाता है।
अस्थिबाधित बच्चों की विशेषताएँ−
• अस्थिबाधित बच्चे सामान्यत: मानसिक दृष्टि से सामान्य या सामान्य से अधिक होते हैं किन्तु पोलियों या अन्य शारीरिक रोगों से क्षतिग्रस्त हो जाते हैं।
• शारीरिक रूप से बाधित बच्चे क्रियाशील कम होते हैं तथा अपने आपको एकाग्र भी कम समय के लिए रख पाते हैं।
• ऐसे बच्चे अपने आपको किसी कार्य में कम समय के लिए ही लगा पाते हैं।
• यह दूसरों पर आश्रित रहते है‚ साथियों के साथ अंतर्क्रिया कम कर पाते हैं।
• इनमें हीनग्रंथियों का विकास हो जाता है।
• इन्हें सामाजिक सम्बन्ध स्थापित करने में कठिनाई होती है।
• इनमें उत्सुकता होती है।
अस्थिबाधिता के प्रकार−
चिकित्सा विज्ञान के आधार पर अस्थिबाधिता को आठ प्रकारों में विभाजित किया गया है− 1. लूले−लग़ँडे‚ हथकटे 2. एक या इससे अधिक अंगों का लकवाग्रस्त 3. पाँवफिरा 4. मेरुदण्ड का वक्र होना 5. विकृत नितम्ब 6. मष्तिष्कीय पक्षाघात 7. मेरुदण्डीय द्विशामुखी 8. मांसपेशीय असमर्थता
अस्थि बाधित बच्चों की पहचान-
• शारीरिक अंगों पर समुचित नियंत्रण न होना। • वैसाखियों की सहायता से चलना। • शारीरिक कार्यों तथा अभ्यास में दर्द एवं कठिनाई का अनुभव करना। • वस्तुओं को उठाने एवं रखने में कठिनाई का अनुभव करना • लड़खड़ा कर चलना। • चलते−चलते गिर जाना। • शारीरिक अंगों की गतिविधि में नियंत्रण का अभाव। • अंगों का असामान्य होना। • जोड़ों में दर्द रहना। • चलने में कठिनाई का अनुभव एवं ज्यादा न चल पाना। • नकली अंगों की सहायता लेना/उपयोग करना। • चलने‚ उठने तथा बैठने में कठिनाइयों का अनुभव करना।
अस्थिबाधा के कारण-
(1) जन्मजात अनियमितता के कारण (2) दुर्घटना के कारण (3) बीमारी के कारण
अस्थि बाधित बच्चों की शिक्षा-
ऐसे बच्चों की शिक्षा को निम्नलिखित प्रकार से वर्णित किया जा सकता है−
(1) उपचार सुविधाएं प्रदान कर (2) प्रशिक्षित अध्यापक द्वारा शिक्षण कार्य (3) विशेष कक्षाओं के आयोजन द्वारा (4) अतिरिक्त कक्षा के सृजन से (5) विशेष विद्यालयों के निर्माण से (6) पाठ्यक्रम को आवश्यकतानुकूल बनाकर (7) अभिवृत्तियों में परिवर्तन करके (8) प्रशासनिक परिवर्तन द्वारा (9) अधिगम अनुभव करवाकर (10) समाजीकरण की प्रक्रिया द्वारा (11) पुनर्वास योना बनाकर उन्हें लागू करना (12) मनोवैज्ञानिक परामर्श दिलवाकर (13) समन्वित शिक्षा द्वारा (14) आर्थिक सहायता द्वारा (15) सहायक सामग्री प्रदान कर
अपवंचित वर्ग के बच्चे (अनुसूचित जाति एवं जनजाति‚ पिछड़ी जाति‚ घुमन्तु वर्ग तथा श्रमिक परिवारों के बच्चे)
वंचन का अर्थ−
वंचन वह परिवेशजन्य अवस्था है जिसका स्वरूप एवं अर्थ सामाजिक‚ सांस्कृतिक तथा भिन्नता के साथ−साथ परिवर्तित होता जाता है। यहाँ पर वंचन को अपेक्षित अनुभवों की न्यूनता के अर्थ में लिया जाता है न कि किसी समूह की सदस्यता के रूप में।
यहाँ पर अध्ययन की मुख्य धारा वंचन रूप में संवेदी अनुभवों के वंचन से है जिसमें परिवेशीय अनुभव प्रमुख होने के कारण बच्चों के विकास पर इनका सीधा परन्तु निषेधात्मक प्रभाव पड़ता है।
यूनेस्को ने अपने भारतीय अध्ययन आख्या में चार प्रकार के असुविधा सम्पन्न समूहों का उल्लेख किया है। यह अध्ययन अनुसूचित जाति एवं जनजाति‚ पिछड़े एवं अल्पसंख्यकों आदि जाति के अध्ययनों पर आधारित है−
1. अनुसूचित जाति 2. अनुसूचित जनजाति 3. भ्रमणकारी (घुमन्तु) जनजाति 4. संदर्भित जनजाति 5. पिछड़ी जनजाति 6. श्रमिक परिवारों के बच्चे
इन परिवारों के अध्यन के बाद बच्चों मे निम्न लक्षण देखने को मिलते हैं−
1. निम्न महत्वाकांक्षा 2. निम्न शैक्षिक उपलब्धि 3. निम्न व्यक्तित्व विशेषताएँ‚ जैसे− अपने विचारों में अस्थिरता‚ अति उत्साही और समूह पालक‚ न्यून बहिर्मुखी‚ न्यून आत्मवलोकन 4. अनुपयुक्त आत्म सम्प्रत्यय 5. बौद्धिक मंदता 6. सामाजिक कुशलता का अभाव 7. भाषा विपन्नता 8. कक्षाओं को छोड़ना अथवा पढ़ाई के प्रति उदासीन होना।
सामाजिक दृष्टि से सुविधावंचित समूहों के विद्यार्थियों की शिक्षा
• सामाजिक दृष्टि से सुविधावंचित समूहों के अंतर्गत अनुसूचित जाति‚ अनुसूचित जनजाति‚ अल्पसंख्यक वर्ग‚ सामाजिक‚ आर्थिक और शैक्षिक रूप से अन्य पिछड़े वर्ग शामिल हैं।
• आर्थिक दृष्टि से कमजोर वर्गों में गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले परिवारों के ऐसे विद्यार्थी शामिल हैं जिनके माता−पिता या अभिभावक की वार्षिक आय सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम आय से कम है।
• इनमें सामाजिक‚ सांस्कृतिक‚ आर्थिक‚ भौगोलिक‚ भाषायी लिंग या ऐसे अन्य किसी कारकों के कारण सुविधावंचित समूहों या वर्गों के लोगों को भी शामिल किया गया है। जैसे−
• शहरी क्षेत्रों के सुविधावंचित बच्चे
• बाल मजदूर‚ खासतौर पर बंधुआ बाल मजदूरी और घरेलू कामगार
• पारिस्थितिकीय दृष्टि से वंचित‚ दुर्गम‚ वनवासी‚ रेगिस्तानी इलाकों में रहने वाले बच्चे जो प्राय: घरेलू कार्यों जैसे जलाऊ ईंधन‚ पानी आदि की व्यवस्था इत्यादि में व्यस्त रहते हैं।
• अत्यधिक निर्धन भूमिहीन कृषकों के बच्चे
• कचरा चुनने वाले परिवारों और अन्य मलीन कार्यों में लिप्त परिवारों के बच्चे
• देह व्यापार में लिप्त अभिभावकों के बच्चे
• मानवीय आपदा‚ नागरिक संघर्ष से प्रभावित क्षेत्रों के बच्चे
• बंजारों‚ मौसमी प्रवासी श्रमिकों‚ खानाबदोश समुदायों और चारवाहों के बच्चे जिनकी जीवनशैली घूमन्तू और अस्थायी है।
अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के विद्यार्थियों के साथ भेदभाव शिक्षक द्वारा−
• विद्यार्थियों को कक्षा में अलग बैठाना
• सवर्ण जातियों और अनुसूचित जातियों के प्रति भेदभावपूर्ण व्यवहार करना।
• कक्षागत क्रियाओं में उन पर पर्याप्त ध्यान नहीं देना।
• विद्यालय में सार्वजनिक कार्यों में अनुसूचित जाति के विद्यार्थियों को सम्मिलित न करना।
• सामाजिक दृष्टि से वंचित समूहों के विद्यार्थियों के बारे में अपमान जनक टिप्पणी करना।
• विद्यालय के संसाधनों जैसे पेयजल‚ मध्यान्ह भोजन आदि से इन समूहों के विद्यार्थियों को दूर रखना व भेदभाव करना।
सहपाठियों द्वारा
• अनुसूचित जाति के विद्यार्थियों को जातिसूचक शब्दों से बुलाना
• कक्षा में इन विद्यार्थियों के साथ नहीं बैठना।
• कक्षा की गतिविधियों में या कक्षा के बाहर खेल गतिविधियों में उन्हें शामिल न करना।
व्यवस्था तंत्र द्वारा
• जातिगत विशेषताओं का पाठ्चर्या और पाठ्यपुस्तकों में शामिल न करना।
• शिक्षकों को इन समूहों से जुड़े मुद्दों पर पर्याप्त प्रशिक्षण न दिया जाना।
• अनुसूचित जाति के शिक्षकों की अपर्याप्त नियुक्ति अनुसूचित जातियों के विद्यार्थियों की शिक्षा से संबंधित मुद्दों और चुनौतियों का निराकरण
• विद्यालय में शिक्षकों और विद्यार्थियों के व्यवहार संबंधी दिशा निर्देश बनाना।
• आवश्यकतानुसार अनुसूचित जाति की बहुलता वाले बसाव क्षेत्रों में विद्यालय खोलना।
• भेदभाव के तरीकों की पहचान करना।
• विद्यालय या प्रखंड स्तर पर शिकायतों का निश्चित समय−सीमा के भीतर निवारण करना।
• पाठ्यसहगामी गतिविधियाँ जैसे कि खेल‚ संगीत समारोह‚ नाटक आदि को बढ़ावा दिया जाये एवं इनमें वंचित समूहों के विद्यार्थियों की भागीदारी भी सुनिश्चित करना।
अल्पसंख्यक समुदायों के विद्यार्थियों के साथ होने वाले भेदभाव
• सामान्तया उन्हें ऐसे विद्यालयों में पढ़ना पड़ता है जहाँ विद्यालय और कक्षा की परिस्थितियाँ उनके अनुरूप नहीं होती हैं और बहुसंख्यक समाज की संस्कृति या धार्मिक भावनाएँ प्रभावी होती हैं।
अल्पसंख्यक समुदायों के विद्यार्थियों की शिक्षा से संबंधित मुद्दों और चुनौतियों का निराकरण−
• अल्पसंख्यक बहुलता वाले क्षेत्रों में विद्यालय खोलना
• अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों की सांस्कृतिक और धार्मिक विविधता आदि के बारे में सभी शिक्षकों को संवेदनशील बनाना।
• पाठ्यचर्या और शैक्षिक प्रक्रियाओं में अल्पसंख्यक समुदायों की संस्कृति का समावेशन सुनिश्चित करना।
• धार्मिक त्योहारों के दौरान अल्पसंख्यक समुदाय के बच्चों के साथ संवेदनशील तरीके से व्यवहार करना।
• विद्यालय प्रबन्धन समिति में अल्पसंख्यक समुदाय के सदस्यों का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करना।
सामाजिक दृष्टि से वंचित समूहों के विद्यार्थियों की शिक्षा के लिए योजनाएँ−
• कस्तूरबा गाँधी बालिका विद्यालय
• पुस्तक बैंक योजना
• आश्रम विद्यालय
• मुफ्त पुस्तकें और गणवेश
• मैट्रिक पूर्व छात्रवृत्ति
• सुधारात्मक कोचिंग योजना
• मदरसों में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान करने की योजना
• मदरसा शिक्षा का आधुनिकीकरण
• निजी सहायता प्राप्त/सहायता नहीं पाने वाले अल्पसंख्यक संस्थानों में बुनियादी सुविधाओं के विकास की योजना।
विद्यालय प्रबंधन समिति की भूमिका−
• सामाजिक आर्थिक दृष्टि से वंचित समूहों के विद्यार्थियों को विद्यालयों में प्रवेश दिलाए और उनकी नियमित उपस्थिति का ध्यान रखें।
• अनुसूचित जाति‚ अनुसूचित जनजाति और अल्पसंख्यक समुदाय की बहुलता वाले क्षेत्रों में बाल शिक्षा का अधिकार अधिनियम‚ 2009 के तहत निर्धारित मानदण्डों और मानकों के क्रियान्वयन पर ध्यान रखें।
• अनुसूचित जाति‚ अनुसूचित जनजाति और अल्पसंख्यक समुदायों की बहुलता वाले क्षेत्रों में शिक्षकों को गैर शैक्षिक कार्य न दिये जाये।
• अनुसूचित जाति‚ अनुसूचित जनजाति और धार्मिक अल्पसंख्यकों से संबंधित पूर्वाग्रह और गलत धारणाएँ विद्यालय में प्रबलित न हो।
• विद्यालय एक धर्मनिरपेक्ष वातावरण में काम कर रहा हो।
• प्राथमिक स्तर पर कक्षाओं में पठन−पाठन स्थानीय भाषा में हो न कि केवल राज्य स्तरीय भाषा के माध्यम से।
• विद्यालय में शिक्षण अधिगम प्रक्रियाओं में समानता के बजाय समता की नीति को अपनाए।
अपवंचित बच्चों की शिक्षा−
रथ ने अपवंचित बच्चों की समस्याओं का विश्लेषण करते हुए तीन विशिष्ट उपायों की संस्तुति की थी−
1. पूर्व विद्यालय वातावरण के कारण उत्पन्न अधिगम न्यूनतओं को दूर करने का प्रयास
2. विशिष्ट विषयों में न्यूनताओं को दूर करने का प्रयास
3. वंचित बच्चों की प्राथमिक आवश्यकताओं की पूर्ति का प्रयास यह सर्वविदित है कि शारीरिक और मानसिक विशेषताओं में वैयक्ति भिन्नता होती है। अत: यह मानना कि सभी बच्चे अकसर मिलने पर समान क्षमता वाले हो जायेंगे यह तर्क संगत नहीं लगता है। अत: क्षमता की वास्तविक मूल्यांकन होना चाहिए। इस मूल्यांकन से न केवल कमियों के सम्बन्ध में ज्ञान होता है बल्कि ऐसे कौशल और क्षमताओं का पता लगता है जो कि अपवंचित बच्चों में होती है।
ऐसे कौशलों को विकसित तथा पुरस्कृत करना भी वंचित बच्चों की स्थिति को सुधारने में सहयोगी सिद्ध होता है।
इस प्रकार से अपवंचित बच्चों की समस्या बहुआयामी है और समाधान के लिए विद्यालय‚ परिवार तथा समाज द्वारा सभी अवसरों पर प्रयास अपेक्षित है।
समस्यात्मक बालक
समस्यात्मक बालक का अर्थ−
समस्यात्मक बच्चों से हमारा तात्पर्य उन बच्चों से है जो परिवार एवं कक्षा व विद्यालय मे भाँति−भाँति की समस्याएँ उत्पन्न करते हैं।
ऐसे बच्चों का व्यवहार सामान्य प्रकार के बच्चों से भिन्न होता है। वे वातावरण के साथ अपने आप को समायोजित नहीं कर पाते हैं। ऐसे बच्चे अपने अध्यापकों के लिए समस्या बने रहते हैं। समस्यात्मक बच्चे कई प्रकार के हो सकते हैं‚ जैसे− चोरी करने वाले बच्चे‚ झूठ बोलने वाले बच्चे‚ क्रोध करने वाले बच्चे‚ विद्यालय से भाग जाने वाले बच्चे‚ गृहकार्य न करने वाले बच्चे‚ कक्षा में देर से आने वाले बच्चे आदि। समस्यात्मक बच्चों के समस्यात्मक व्यवहार के कारणों को जानकर ऐसे बच्चों के व्यवहार में सुधार लाया जा सकता है।
प्राय: बच्चे आवश्यकताएँ पूरी न होने पर‚ अत्यधिक लाड़ प्यार में‚ कठोर अनुशासन के कारण या असुरक्षा की भावना के कारण‚ विभिन्न प्रकार का समस्यात्मक व्यवहार करता है। समस्यात्मक बच्चों को उनके समस्यात्मक व्यवहार के लिए प्रताणित अथवा शारीरिक दण्ड न देकर मनावैज्ञानिक ढंग से शिक्षा देनी चाहिए।
• वैलेस्टाइन के अनुसार− ‘‘समस्यात्मक बच्चे वे हैं जिनके व्यवहार तथा व्यक्तित्व इस सीमा तक असामान्य होते हैं कि वे घर‚ विद्यालय तथा समाज में समस्याओं के जनक बन जाते हैं।’’
समस्यात्मक बच्चों की पहचान−
(1) निरीक्षण विधि का प्रयोग करके (2) साक्षात्कार द्वारा (3) अभिभावकों‚ शिक्षकों तथा मित्रों से वार्तालाप (4) कथात्मक अभिलेख (5) संचयी अभिलेख के द्वारा (6) मनोवैज्ञानिक परीक्षणों के द्वारा
समस्यात्मक बच्चों के लक्षण−
(अ) न्यून मानसिक दक्षता और समस्यात्मक लक्षण-
(1) पैसे एवं अन्य वस्तुओं की चोरी करना (2) स्कूल के कार्यों में सक्रिय न होना (3) शारीरिक एवं मानसिक कष्ट देकर आनन्द लेना (4) अनुशासन का विरोध करना (5) बुरा आचरण (6) असहयोग की प्रवृत्ति रखना (7) सन्देह करना (8) धोखा देना (9) अश्लील बातें करना (10) बिस्तर गीला करना
(ब) अत्यधिक मानसिक दक्षता का होना-
(1) मानसिक द्वन्द्व से ग्रसित होना (2) हीन भावना का शिकार होना (3) सीमा से अधिक कठोर व्यवहार का होना (4) अप्रसन्न एवं चिड़चिड़े होना (5) भयभीत परन्तु आत्मकेन्द्रित होना (6) लोगों के विरोध का शिकार होना (7) अनावश्यक तर्क आधारित आख्याए प्रस्तुत करना।
समस्यात्मक व्यवहार के कारण−
(i) आनुवांशिक कारण (ii) शारीरिक कारण (iii) स्वभाव सम्बन्धी तथा संवेगात्मक कारण (iv) सामाजिक तथा परिवेशीय कारण
समस्यात्मक बच्चों की शिक्षा−
(i) माता−पिता को बच्चों के प्रति प्रेम‚ सहानुभूति तथा सहयोगात्मक व्यवहार करना चाहिए।
(ii) बच्चे की मूल प्रवृत्तियों का दमन न करके उनका शमन या परिशोधन किया जाना चाहिए।
(iii) बच्चों के अच्छे कार्य के लिए प्रोत्साहन तथा पुरस्कार दिया जाना चाहिए।
(iv) बच्चे के सहयोगियों का गुप्त निरीक्षण रखना चाहिए।
(v) बच्चों को नैतिक शिक्षा प्रदान करनी चाहिए।
(vi) बच्चों को मनोरंजन के उचित अवसर दिये जाने चाहिए।
(vii) बच्चे की व्यक्तिगत आवश्यकता की पूर्ति की जानी चाहिए।
(viii) अध्यापक का व्यवहार मधुर एवं सहयोगात्मक होना चाहिए।
(ix) बच्चों की आवश्यकता‚ परिस्थिति तथा क्षमता के अनुरूप ही उन्हें गृहकार्य दिया जाना चाहिए।
अधिगम अक्षमता
अधिगम अक्षमता का अर्थ−
सामान्य भाषा में अधिगम अक्षमता का तात्पर्य सीखने की क्षमता अथवा योग्यता की कमी या अनुपस्थिति से है।
अधिगम अक्षमता पद का सर्वप्रथम प्रयोग वर्ष 1963 में सैमुअल किर्क ने किया था और इसे इन्होंने निम्न शब्दों में परिभाषित किया− ‘‘अधिगम अक्षमता को वाक‚ भाषा‚ पठन‚ लेखन या अंकगणितीय प्रक्रियाओं में से किसी एक या अधिक प्रक्रियाओं में मंदता‚ विकृति अथवा अवरूद्ध विकास के रूप में परिभाषित किया जा सकता है‚ जो सम्भवत: मस्तिष्क कार्यविरूपता या संवेगात्मक अथवा व्यवहारिक विक्षोभ का परिणाम है न कि मानसिक मंदता‚ संवेदी अक्षमता अथवा सांस्कृतिक या अनुदेशन कारक का।’’
अधिगम अक्षमता की विशेषताएँ−
• अधिगम अक्षमता आंतरिक होती है।
• यह स्थायी स्वरूप का होता है अर्थात् यह व्यक्ति विशेष में आजीवन विद्यमान रहता है।
• यह कोई एक विकृति नहीं बल्कि विकृतियों का एक विषम समूह है।
• चूँकि यह समस्या केन्द्रिय तंत्रिका तंत्र की कार्यविरूपता से सम्बन्धित है‚ अत: यह एक जैविक समस्या है।
• यह कोई विकृति नहीं बल्कि विकृतियों का एक विषम समूह है।
• यह श्रवण‚ सोच‚ वाक‚ पठन‚ लेखन एवं अंकगणितीय गणना में शामिल मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया में विकृति के फलस्वरूप उत्पन्न होता है‚ अत: यह एक मनोवैज्ञानिक समस्या भी है।
अधिगम अक्षमता के प्रकार−
1. डिस्लेक्सिया (पढ़ने सम्बन्धी विकार)
2. डिस्ग्राफिया− (लेखन सम्बन्धी विकार)
3 डिस्कैलकुलिया (गणितीय कौशल सम्बन्धी विकार)
4. डिस्फैसिया (वाक क्षमता सम्बन्धी विकार)
5. डिस्प्रैक्सिया (लेखन एवं चित्रांकन सम्बन्धी विकार)
6. डिसआर्थोग्राफिया (वर्तनी सम्बन्धी विकार)
7. ऑडिटरी प्रोसेसिंग डिसआर्डर (श्रवण सम्बन्धी विकार)
8. विजुअल परसेप्शन डिसआर्डर (दृश्य प्रत्यक्षण क्षमता सम्बन्धी विकार)
9. सेंसरी इंटिग्रेशन ऑर प्रोसेसिंग डिसआर्डर (इन्द्रीय समन्वयन क्षमता सम्बन्धी विकार)
10. आर्गनाइजेशनल लर्निंग डिसआर्डर (संगठनात्मक पठन सम्बन्धी विकार)
विशिष्ट आवश्यकता वाले बच्चों की शिक्षा व्यवस्था
भारत जैसे प्रजातांत्रिक देश में प्रत्येक व्यक्ति को शिक्षा का अधिकार प्राप्त है। वर्तमान समय में शिक्षा के अधिकार कानून को लागू करना इसका परिचायक है। साथ ही पूर्व में संविधान के नीतिनिदेशक तत्त्व (अनु. 45 में) शामिल अनिवार्य शिक्षा के उपबन्ध को जीवन जीने के अधिकार (अनु. 21) में अन्त: स्थापित का नया उपबन्ध (अनु. 21 क) बना दिया है। इसमें प्रत्येक बच्चे को यह अधिकार है कि वह अपने सामर्थ्य के अनुसार सहायता ग्रहण करें।
प्रत्येक कक्षा−कक्ष में शिक्षण की कुछ सम्बन्धित समस्याएं होती है तथा कुछ बच्चों में इसकी प्रवृत्ति अधिक पायी जाती है। इस प्रकार के बच्चों में अध्यापक की सहायता की अधिक आवश्यकता पड़ती है।
परन्तु कभी−कभी अध्यापक इनकी आवश्यकता को नहीं समझ पाते हैं तब अध्यापक अपने आप को असफल अनुभव करने लगते हैं‚ क्योंकि विशिष्ट बच्चों की विशिष्ट आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए सामान्य तथा विशिष्ट शिक्षा कार्यक्रमों की आवश्यकता होती है।
पूर्ण रूप से लाभान्वित होने के लिए विशेष सहायता‚ साधनों एव अधिगम सामग्री की आवश्यकता होती है। इसके अतिरिक्त उपकरणों की भी आवश्यकता होती है। जैसे की श्रवण बाधित बच्चों के लिए श्रवण यंत्र‚ वाणी प्रशिक्षक एवं दृष्टि बाधित बच्चों के लिए देखने के उपरण जैसे ‘उत्तल लेंस’ जिसकी सहायता से छोटे शब्दों को बड़े शब्दों के रूप में देखा जा सकता है। इसी प्रकार मन्दबुद्धि बच्चों को खिलौने तथा खेलने की सामग्री की आवश्यकता होती है। प्रतिभाशाली बच्चों को उच्च स्तर की अधिगम सामग्री‚ अथवा सपुस्तिका एवं योग्य अध्यापक की आवश्यकता होती है अधिकांश विद्यालयों में प्रतिभाशाली या विशिष्ट बच्चों के शिक्षण हेतु पढ़ाने में सहायक सामग्री तथा साधन पूर्णतया उपलब्ध नहीं होते हैं। इससे बच्चों की वास्तविक क्षमता तथा कार्यकलापों में अन्तर बढ़ जाता है। विशिष्ट आवश्यकता वाले बच्चों की शिक्षा व्यवस्था देते समय तीन प्रमुख समस्याएं क्रमश: (विशिष्ट बच्चों को समझने की समस्या‚ औपचारिक शिक्षा की समस्या‚ एवं व्यवसायिक प्रशिक्षण की समस्या) आती है।
चँूकि विशिष्ट आवश्यकता वाले बच्चे कई प्रकार के होते हैं विशिष्ट बच्चों के लिए उनकी श्रेणी के अनुसार ही शिक्षा कार्यक्रम बनाना चाहिए। सामान्य रूप से विशिष्ट आवश्यकता वाले बच्चों की शिक्षा व्यवस्था को हम निम्नलिखित बिन्दुओं के आधार पर समझ सकते हैं−
(1) विशिष्ट आवश्यकता वाले बच्चों की पहचान व उनका आकलन करना- अधिकांश विशिष्ट आवश्यकता वाले बच्चों का चिन्हीकरण ही नहीं हो पाता है। परिणाम स्परूप उनकी क्षमताओं का पूर्ण ज्ञान नहीं हो पाता है। जबकि ऐसे बच्चों को यदि अध्यापकों द्वारा ध्यान दिया जाए तो आसानी से पहचाना जा सकता है। बच्चे को चिकित्सीय एवं मनोवैज्ञानिक सलाह दिलाने का प्रयास करना चाहिए। इस सम्बन्ध में ‘राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद’‚ नई दिल्ली द्वारा विकसित क्रियात्मक निर्धारण निर्देशिका के अनुसार निर्धारण किया जा सकता है।
(2) सेवाओं का स्थापन मनोवैज्ञा निक एवं चिकित्सकीय निर्धारण के पश्चात् विशिष्ट आवश्यकता वाले बच्चों को उपयुक्त श्रेणी तथा उपयुक्त शिक्षण संस्था में रखा जाना चाहिए। किसी भी शिक्षण संस्था में विशिष्ट बच्चों के स्तर का निर्धारण उनके अतीत तथा पिछले अनुभवों के आधार पर किया जा सकता है। जहाँ तक शारीरिक व मानसिक बाधित बच्चों का सम्बन्ध है‚ इस सम्बन्ध में निम्नलिखित कार्यक्रम हैं−
(i) सामान्य कक्षाओं में पूर्णकालिक स्थापन
(ii) सामान्य कक्षा तथा विशिष्ट कक्षा में बारी−बारी से अंशकालिक स्थापन
(iii) विशिष्ट कक्षाओं में पूर्ण कालिक स्थापन‚ विशिष्ट शिक्षण में पूर्णकालिक स्थापन
(iv) आवासीय शिक्षा संस्थाओं में पूर्णकालिक स्थापन चूँकि हमारे देश में बुद्धिमान‚ सृजनात्मक‚ भावात्मक तथा सामाजिक रूप से बाधित बच्चों के लिए विशिष्ट संस्थाओं तथा विशिष्ट कक्षाओं का प्रावधान नहीं है‚ इसलिए प्रभावित बच्चे सामान्य शिक्षण संस्थाओं में शिक्षा ग्रहण करते हैं। पूणे में विलक्षण तथा प्रतिभाशाली बच्चों के लिए ‘ज्ञान प्रबोधिनी’ नामक संस्था की स्थापना की गयी है। इसी तरह का राष्ट्रीय स्तर का अनुसंधान केन्द्र जिसे ‘दृष्टि विकलांग राष्ट्रीय संस्थान’ (National Institute for the Visually Handicapped NIVH) कहा जाता है‚ वर्ष 1971 से देहरादून‚ उत्तराखण्ड में कार्य कर रहा है।
3. वैयक्तिकता पर बल− चूँकि विशिष्ट बच्चे एक विषमांगी समूह बनाते हैं अर्थात विशिष्ट आवश्यकता वाले बच्चे विभिन्न प्रकार के होते हैं‚ जो कि विभिन्न श्रेणी में वर्गीकृत हो सकते हैं।
प्रत्येक श्रेणी के बच्चों की अपनी विशेषताएँ होती हैं। बच्चों के विशिष्ट गुणों पर विचार करते हुए उन्हें विभिन्न समूहों में बाँटा जा सकता है। इस प्रकार विशिष्ट बच्चों की शिक्षा उनकी वैयक्तिक विशेषताओं से मिलती जुलती होनी चाहिए। दूसरे शब्दों में प्रत्येक बच्चे की वैयक्तिकता के आधार पर शिक्षा व्यवस्था होनी चाहिए।
4. अधिगम पर बल− यह आवश्यक नहीं है कि बच्चे किसी विषयवस्तु को उसी प्रकार से सीखे‚ जैसे− अध्यापक सिखाते हैं। क्योंकि वर्तमान में शिक्षा की अपेक्षा अधिगम पर विशेष जोर देना न्यायसंगत है। अध्यापकों को चाहिए कि वे इस प्रकार से बच्चों को शिक्षा प्रदान करें कि वह अधिगम करने पर बल दे।
जब विशिष्ट बच्चों का शैक्षिक कार्यक्रम बनाया जाय तो विशेषज्ञ को उपर्युक्त बातों पर बल देना चाहिए‚ चाहे वो बच्चे शारीरिक रूप से विशिष्ट हो या सांवेगिक रूप से विशिष्ट हो‚ सामाजिक हो या प्रतिभाशाली बच्चे ही क्यों न हों।
5. विशिष्ट शिक्षा संस्थाओं का स्वरूप− हमारे देश में विशेष रूप से दृष्टिबाधित‚ श्रवणबाधित‚ मानसिक मन्दित तथा शारीरिक व मानसिक रूप से बाधित बच्चों के लिए विशिष्ट शिक्षा स्थापित की गयी है। विशिष्ट विद्यालय में प्रशिक्षित अध्यापक संसाधनों‚ उपकरणों तथा अन्य विशेष सहायक सामग्री की सहायता से बच्चों की आवश्यकता के अनुरूप शिक्षण उपलब्ध कराते हैं। कुछ सरकारी संस्थाओं को छोड़कर प्राय: यह देखा गया है कि विशिष्ट शिक्षा पर पर्याप्त धन व्यय करना पड़ता है।
कुछ बच्चों के अभिभवाक सामान्य रूप से इतना अधिक धन खर्च करने की क्षमता नहीं रखते हैं। इसलिए आर्थिक संकट के कारण अपने बच्चों को मजबूर होकर शिक्षण संस्थान से हटा लेते हैं।
6. समन्वित शिक्षा की स्थापन− शारीरिक एवं मानसिक रूप से बाधित बच्चों की शिक्षा की दिशा में एक नवीन प्रयास किया जा रहा है। बाधित बच्चों को सामान्य बच्चों के साथ सामान्य शिक्षण संस्थाओं में शिक्षण दिया जा रहा है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 में कहा गया है कि ‘‘जहाँ तक संभव होगा आंशिक रूप से बाधित बच्चों तथा हाथ−पैर से अक्षम बच्चों की शिक्षा सामान्य बच्चों की शिक्षा के समान ही होगी। जहाँ तक सम्भव होगा आंशिक रूप से बाधित बच्चों के लिए विशिष्ट शिक्षा जिला मुख्यालयों में विशिष्ट शिक्षा संस्थाएँ तथा आवासीय शिक्षा संस्थाएँ स्थापित की जायें। प्रत्येक सम्भव दशा में गम्भीर रूप से बाधित बच्चों की शिक्षा को प्रेरित किया जाये।
7. भत्तों का प्रावधान− भारत सरकार ने शारीरिक रूप से बाधित बच्चों की शिक्षा के लिए कुछ भत्तों का प्रावधान किया है‚ जैसे− यात्रा भत्ता‚ वर्दी भत्ता‚ पुस्तक खरीदना‚ छात्रवृत्ति आदि।
विशिष्ट आवश्यकता वाले बच्चों को भी राष्ट्रीय प्रतिभावान विद्यालय (NTS) जैसी संस्थाओं से लाभ तथा छात्रवृत्ति के लिए मार्गदर्शन किया जाना चाहिए।
8. सामान्य शिक्षा से पूर्व तैयारी हेतु प्रशिक्षण− शिक्षा संस्थाओं में औपचारिक शिक्षा प्राप्त करने से पहले बाधित बच्चों को कुछ तैयारी करवानी चाहिए। यह तैयारी किसी विशिष्ट शिक्षा संस्था‚ ‘विशिष्ट बच्चों के शिक्षा केन्द्र (ECEC), बालवाड़ी‚ आंगनवाड़ी अथवा किसी प्राथमिक स्कूल की कक्षाओं के माध्यम से की जा सकती है। इसमें प्रवेश के लिए अध्यापक को बच्चे का सामान्य परीक्षण करना चाहिए‚ इसके पश्चात बच्चों की वैयक्तिक परीक्षा‚ माता−पिता का साक्षात्कार आदि करना चाहिए।
इस प्रकार के परीक्षणों से बाधित बच्चों के बारे में अध्यापक को यह जानकारी प्राप्त होती है कि बच्चे कार्य करने में किस सीमा तक सक्षम हैं तथा वे कितना काम कर सकते हैं और क्या−क्या काम कर सकते हैं। उनको कितना ज्ञान है। विशिष्ट आवश्यकता वाले बच्चे को संसाधन युक्त कक्षा−कक्ष में उनकी आवश्यकता के अनुरूप प्रशिक्षण/शिक्षण दिया जाता है। मानसिक एवं शारीरिक रूप से बाधित बच्चों को सामान्य समुदायों के साथ समन्वित करने और उन्हें सहज तथा आत्म विश्वास से जीवन का सामना करने के योग्य बनाने का लक्ष्य होना चाहिए।
9. संसाधनयुक्त अध्यापक की सहायता− प्रत्येक शिक्षा संस्थान के बाधित बच्चों की सहायता हेतु एक संसाधन युक्त अध्यापक को रखना चाहिए। यह पूर्णािलक एवं अंशकालिक दोनों प्रवृत्तियों का हो सकता है। ये संसाधन युक्त अध्यापक संसाधनयुक्त सामग्री की सहायता से‚ संसाधन कक्षों के माध्यम से शारीरिक एवं मानसिक आवश्यकता वाले बाधित बच्चों को अपनी सेवायें दे सकता है। ये बाधित बच्चों की विशिष्ट आवश्यकताओं की शिक्षण प्रणाली में निपुण होते हैं। संसाधनयुक्त शिक्षाविद सामान्य अध्यापकों को इस सम्बन्ध में सलाह भी दे सकते हैं।
10. सहायक सामग्री तथा उपकरण (टी.एल.एम.)− ऐसे विशिष्ट आवश्यकता वाले बच्चे जो पुराने अनुदेशन सामग्री‚ परम्परानुसार साधन‚ शिक्षण सहायता तथा संसाधन उपकरणों का लाभ ग्रहण नहीं कर पाये हैं उनकी आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए संसाधन कक्ष के उपकरण तथा सुविधाओं का लाभ विशिष्ट आवश्यकता वाले बच्चों को मिलना चाहिए। ऐसे बच्चों की विशिष्ट आवश्यकताओं के अनुरूप जैसे गम्भीर रूप से दृष्टि बाधित बच्चों के लिए ब्रेललिपि सामग्री‚ मोटे छापे की पठन सामग्री अथवा पठन सामग्री तथा श्रवण बाधितों के लिए श्रवणयंत्र तथा अन्य सहायक सामग्री वाणी में सहायक यंत्र‚ मानसिक मंदित बच्चों के लिए खेल‚ खिलौने‚ तथा अधिगम असमर्थता वाले बच्चों के लिए उनकी बाधिता के अनुरूप सामग्री विशिष्ट शिक्षा संस्थाओं में उपलब्ध होने चाहिए।
विशेष तथा समावेशित शिक्षा के संदर्भ में राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय नीतियाँ
• अन्तर्राष्ट्रीय नीतियाँ एवं कानून−
• विकलांग व्यक्तियों के अधिकारों के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ ने 9 दिसम्बर 1975 को एक घोषणा पत्र जारी किया। यह घोषणा पत्र विकलांग व्यक्तियों के मानव अधिकारों की रक्षा के लिए एक महत्त्वपूर्ण कदम था।
• सन् 1990 ई. में जोमेटिन (थाईलैण्ड) में ‘सभी के लिए शिक्षा पर विश्व सम्मेलन’ का आयोजन हुआ‚ जिसमें 155 राष्ट्र के प्रतिनिधि एवं 150 गैर सरकारी संस्थाओं ने भाग लिया। इस सम्मेलन का मुख्य उद्देश्य था शिक्षा को सर्वव्यापी बनाने के लिए तथा निरक्षरता हटाने के लिए उपायों पर विचार करना।
• सन् 1994 ई. में स्पेन के सालामांका शहर में ‘विशेष आवश्यकता वाले बच्चों के शिक्षण पर विश्व सम्मेलन’ का आयोजन यूनेस्कों एवं स्पेन की सरकार ने मिलकर किया। इसी सम्मेलन में सर्वप्रथम समावेशी शिक्षा पर चर्चा हुई।
• विकलांग व्यक्तियों के अधिकारों पर अधिवेशन‚ जिसको संक्षेप में यू.एन.सी.आर.पी.डी. भी कहते हैं‚ विकलांग व्यक्तियों के अधिकारों को संरक्षित रखने के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ का एक महत्त्वपूर्ण दस्तावेज है‚ जो 3 मई सन् 2008 को अंतर्राष्ट्रीय कानून बना।
• राष्ट्रीय नीतियाँ एवं कानून−
• भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 में कहा गया है कि कानून के समक्ष सभी नागरिक एक समान हैं। तथा अनुच्छेद 15 में कहा गया है कि राज्य किसी भी नागरिक को धर्म‚ नस्ल‚ जाति‚ लिंग‚ जन्म‚ स्थान या इसमें से किसी भी आधार पर भेदभाव नहीं करेगा।
• अनुच्छेद 41 जहाँ कार्य करने के अधिकार की बात करता है वहीं अनुच्छेद 45 कहता है कि राज्य 6 वर्ष के आयु वाले बच्चों को प्रारम्भिक बाल्यावस्था देखभाल एवं शिक्षा देने का प्रयास करे।
• अनुच्छेद 46 कहता है कि राज्य जनता के दुर्बल वर्गों के विशिष्टतया‚ अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के शिक्षा और अर्थ सम्बन्धी हितों की विशेष सावधानी से अभिवृद्धि करेगा और सामाजिक अन्याय और सभी प्रकार के शोषण से उनकी संरक्षा करेगा।
• भारतीय संविधान के 86वें संशोधन (2002) के द्वारा अनुच्छेद 21(क) में 6–14 वर्ष के बच्चों के लिए नि:शुल्क व अनिवार्य शिक्षा की बात कही गयी है।
• शिक्षा का अधिकार अधिनियम‚ 2009 जो 1 अप्रैल 2010 से लागू हुआ‚ यह सुनिश्चित करता है कि शिक्षा प्रत्येक बच्चे का अधिकार है तथा राज्य को अनिवार्य रूप से उसको ये अधिकार प्रदान करने होंगे तथा उनसे कोई शुल्क नहीं लिया जायेगा।
• मानसिक स्वास्थ्य अधिनियम सन् 1987 में लागू हुआ‚ जिसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना था कि मानसिक रोगी व्यक्तियों की शीघ्र पहचान करके उनका अच्छा उपचार किया जा सके।
• भारतीय पुनर्वास परिषद अधिनियम जिसे संक्षेप में हम आर.सी.आई. एक्ट कहते हैं‚ सन् 1992 में पारित हुआ तथा 22 जून 1993 को लागू हुआ। सन् 2000 में इस अधिनियम में संशोधन किया गया।
नोट− पुनर्वास के क्षेत्र में स्वास्थ्य तथा परिवार कल्याण मंत्रालय के अधीन कई राष्ट्रीय संस्थान हैं‚ जैसे मानसिक स्वास्थ्य तथा न्यूरो विज्ञान राष्ट्रीय संस्थान‚ बंगलुरू; अखिल भारतीय शारीरिक चिकित्सा तथा पुनर्वास‚ मुम्बई; अखिल भारतीय वाणी तथा श्रवण संस्थान‚ मैसूर; केन्द्रिय मनोचिकित्सा संस्थान‚ राँची आदि।
• विकलांग/दिव्यांग व्यक्तियों के लिए अधिनियम सन् 1995 में पारित हुआ तथा इसका पूरा नाम विकलांग/दिव्यांग अधिनियम−1995 (PWD Act–1995) है।
• यह अधिनियम 7 फरवरी 1996 ई. से लागू हुआ। इस अधिनियम के अंतर्गत सात विकलांगताएँ/दिव्यांगताएँ आती हैं−
(i) अंधत्व (ii) अल्पदृष्टि (iii) श्रवण बाधा (iv) मानसिक विकलांगता (v) मानसिक रोग (vi) गामक बाधा (vii) कोढ़ उपचरित
विशेष−
• 16 दिसम्बर 2016 को लोकसभा में ‘दिव्यांगजन अधिकार विधेयक‚ 2016’ पारित हुआ। यह विधेयक 21 वर्ष पुराने दिव्यांग व्यक्ति (समान अवसर‚ अधिकारों का संरक्षण तथा पूर्ण सहभागिता) अधिनियम‚ 1995 का स्थान लेगा।
• अब सात की जगह इक्कीस प्रकार की अक्षमताओं को इस श्रेणी में रखा गया है− वाणी व भाषा पीड़ित अक्षमता‚ विशिष्ट प्रज्ञता/अधिगम अक्षमता‚ एसिड अटैक पीड़ित‚ तीन रक्त सम्बन्धी बीमारियों जैसे− थैलेसेमिया‚ हीमोफीलिया और सिकल सेल बिमारी‚ वामनता तथा पेशीय दुर्विकास आदि।
• इसके अतिरिक्त इस विधेयक में दिव्यांग बच्चों के लिए 6−18 वर्ष की आयु तक मुफ्त शिक्षा के अधिकार की व्यवस्था की गयी है।
• विशेष श्रेणी के दिव्यांगजनों हेतु सरकारी प्रतिष्ठानों में आरक्षण को 3% से बढ़ाकर 4% तक कर दिया गया है।
• 40 प्रतिशत या उससे अधिक किसी भी प्रकार की अक्षमता वाले व्यक्तियों को दिव्यांग कहा जाता है।
• दिव्यांगजनों के अधिकार से सम्बन्धित संयुक्त राष्ट्र अभिसमय (United Nations Convention on the Rights of
Persons with Disabilities– UNCRPD) को भारतवर्ष ने वर्ष 2007 में अभिपुष्ट किया था।
• 3 दिसम्बर 2015 को ‘सुगम्य भारत अभियान’ की शुरूआत की गयी थी।
• राष्ट्रीय न्यास अधिनियम सन् 1999 में पारित हुआ तथा इसका पूरा नाम है− ‘‘राष्ट्रीय न्यास अधिनियम (स्वालीनता‚ प्रमस्तिष्क पक्षाघात‚ मानसिक विकलांगता और बहु−विकलांगता प्रभावित व्यक्तियों के कल्याण हेतु) 1999’’। इसको संक्षेप में एन.टी.एक्ट 1999 भी कहते हैं। यह अधिनियम चार विकलांगताओं के लिए है−
(i) स्वालीनता
(ii) प्रमस्तिष्क पक्षाघात
(iii) मानसिक विकलांगता
(iv) बहु विकलांगता
• विकलांग व्यक्तियों के लिए राष्ट्रीय नीति 10 जनवरी 2006 को पारित हुआ। इस नीति का निर्माण विकलांग व्यक्तियों के लिए समान अवसर‚ उनके अधिकारों के संरक्षण और समाज में पूर्ण भागीदारी के लिए वातावरण तैयार करने के उद्देश्य से हुआ।
परीक्षोपयोगी महत्त्वपूर्ण तथ्य निम्न सात राष्ट्रीय संस्थान हैं जो मानव बल के विकास के लिए विभिन्न क्षेत्रों में कार्य कर रहे हैं−
1. राष्ट्रीय विकलांग संस्थान‚ नई दिल्ली
2. राष्ट्रीय दृष्टि विकलांग संस्थान‚ देहरादून
3. राष्ट्रीय आर्थोपेडिक विकलांग संस्थान‚ कोलकाता
4. राष्ट्रीय मानसिक विकलांग संस्थान‚ सिकन्दराबाद
5. राष्ट्रीय श्रवण विकलांग संस्थान‚ मुम्बई
6. राष्ट्रीय पुनर्वास तथा अनुसंधान संस्थान‚ कटक
7. राष्ट्रीय बहु−विकलांग सशक्तिकरण संस्थान‚ चेन्नई