Chapter 6. शिक्षण

शिक्षण का अर्थ तथा उद्देश्य

शिक्षण का अर्थ−
शिक्षण एक सामाजिक प्रक्रिया है‚ जिसमें शिक्षक सामाजिक परिवेश में पारस्परिक सहभागिता से अपने छात्रों तक अपने ज्ञान‚ कौशल‚ व्यवहार व दक्षताओं को पहुँचाने का कार्य
करता है।
• शिक्षण एक त्रिध्रुवीय‚ गत्यात्मक‚ अंत:क्रियात्मक व सोद्‌देश्य प्रक्रिया है जिसके तीन प्रमुख ध्रुव हैं− उपरोक्त तीनों ध्रुवों के मध्य सम्बन्ध स्थापित करने की प्रक्रिया ही शिक्षण है। तीनों पक्षों के मध्य सम्बन्ध स्थापित करने का कार्य शिक्षक अपने शिक्षण के माध्यम से करता है।
शिक्षण का व्यापक अर्थ−
व्यापक अर्थ में ‘शिक्षण’ मनुष्य के जीवन में निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है‚ जिसके अन्तर्गत सभी व्यक्ति‚ वस्तुएँ‚ वातावरण‚ साधन‚ माध्यम व घटनाएँ व्यक्ति को जन्म से मृत्यु तक कुछ न कुछ सिखाती रहती हैं। परिवार‚ विद्यालय‚ समाज‚ वातावरण‚ उद्योग‚ सिनेमा‚ राजनीति‚ कला व साहित्य आदि प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से व्यक्ति को कुछ न कुछ शिक्षण प्रदान करते हैं। इस प्रकार के शिक्षण में औपचारिक व अनौपचारिक दोनों प्रकार के साधनों से व्यक्ति जीवन भर सीखता रहता है।
शिक्षण का संकुचित अर्थ−
निश्चित उद्‌देश्यों को लेकर निश्चित समय में निश्चित स्थान पर‚ निश्चित व अनुभवी व्यक्तियों द्वारा दी जाने वाली प्रक्रिया ही शिक्षण है।
शिक्षण की परिभाषाएँ-
बर्टन के अनुसार−‘‘शिक्षण सीखने के लिए प्रेरणा‚ पथ प्रदर्शन‚ पथ निर्देशन और प्रोत्साहन है।’’
डॉ. माथुर के अनुसार−‘‘शिक्षण का अर्थ शिक्षार्थी को ऐसे अवसर प्रदान करना है‚ जिनसे शिक्षार्थी अपनी अवस्था एवं प्रकृति के अनुरूप समस्याओं को हल करने की क्षमता प्राप्त कर सके। वह स्वयं योजना बना सके‚ शैक्षिक सामग्री इकट्‌ठी कर उसे सुसंगठित रूप में प्रयोग कर सके तथा लक्ष्य को प्राप्त कर सके।
योकम व सिम्पसन के अनुसार−‘‘शिक्षण वह साधन है जिसके द्वारा समूह के अनुभवी सदस्य अपरिपक्व व छोटे सदस्य को जीवन में अनुकूलन करने में पथ प्रदर्शन करते हैं।’’
जेम्स एम. थाइन के अनुसार−‘‘समस्त शिक्षण का अर्थ सीखने में वृद्धि करना है।’’
शिक्षण का स्वरूप-
• जॉन ड्‌यूवी तथा रायबर्न के अनुसार शिक्षण एक त्रिमुखी प्रक्रिया है।
• शिक्षण एक अंत:प्रक्रिया है ‘फ्लैण्डर के अनुसार’
• शिक्षण एक उद्‌देश्यपूर्ण प्रक्रिया है।
• शिक्षण-सम्बन्ध स्थापित करना है।
• शिक्षण एक तार्किक प्रक्रिया है।
• शिक्षण एक कौशलपूर्ण प्रक्रिया है।
• शिक्षण एक सामाजिक एवं व्यवसायिक प्रक्रिया है।
• शिक्षण औपचारिक तथा अनौपचारिक प्रक्रिया है।
उत्तम शिक्षण की विशेषताएँ−
योकम सिम्पसन ने अच्छे शिक्षण की निम्नलिखित विशेषताएँ बताई हैं−
• अच्छे शिक्षण में वांछित सूचनाएँ प्रदान की जाती हैं।
• यह आदेशात्मक न होकर निर्देशात्मक व जनतंत्रीय आदर्शों पर आधारित होता है।
• इसमें सीखने वाला स्वयं सीखने के लिए प्रेरित होता है।
• उत्तम शिक्षण में छात्रों की वैयक्तिक भिन्नताओं को ध्यान में रखा जाता है।
• यह प्रेरणात्मक व सृजनात्मक होता है।
• इसमें छात्रों की कठिनाइयों को पहचानकर दूर करने का प्रयास किया जाता है।
• इसमें छात्र सदैव क्रियाशील रहते हैं।

शिक्षण के प्रमुख उद्‌देश्य

शिक्षण उद्‌देश्यों को दो भागों में बाँटा जा सकता है−
(i) व्यापक उद्‌देश्य‚ (ii) विशिष्ट उद्‌देश्य
(i) व्यापक उद्‌देश्य शिक्ष ण का मूल उद्‌देश्य छात्रों का व्यवहार परिवर्तन होता है।
• शिक्षण का उद्‌देश्य शिक्षार्थियों को जीवनोपयोगी ज्ञान प्रदान करके उनके व्यक्तित्व‚ क्षमताओं‚ योग्यताओं व कुशलताओं का अधिकतम विकास करना है।
• शिक्षार्थियों को सीखने के लिए प्रोत्साहित करना‚ जिससे वे पढ़ने व अन्य कार्यों में रुचि ले सकें।
• छात्रों में आत्मविश्वास की भावना जागृत करना।
• छात्रों में नैतिक व सामाजिक मूल्यों के विकास के साथ-साथ नेतृत्व क्षमता का विकास करना।
• छात्रों को स्वास्थ्य‚ स्वच्छता व अपने परिवेश के प्रति जागरूक बनाना।
• छात्र-छात्राओं को सक्रिय रखना व उसमें रचनात्मक दृष्टिकोण का विकास करना।
• छात्रों की कठिनाइयों को दूर करना व अशुद्धियों का निवारण करना। छात्रों के मूल प्रवृत्तियों को सही दिशा देना।
• छात्रों को अपने वातावरण से समायोजन करना सिखाना ताकि वह समाज व लोकतांत्रिक राष्ट्र के जिम्मेदार नागरिक बन सकें।
(ii) विशिष्ट उद्‌देश्य- वर्ष 1956 में बेंजामिन एस्ा. ब्लूम ने शिक्षण उद्‌देश्यों को तीन भागों में विभक्त किया−
(i) ज्ञानात्मक उद्‌देश्य (ii) भावात्मक उद्‌देश्य (iii) मनोगत्यात्मक उद्‌देश्य
(i) ज्ञानात्मक क्षेत्र के उद्‌देश्य− ब्लूम के अनुसार ज्ञानात्मक क्षेत्र में वे उद्‌देश्य होते हैं जो ज्ञान के पुन:स्मरण या पहचान तथा बौद्धिक योग्यताओं व कौशलों के विकास से सम्बन्धित होते हैं।
इसको ब्लूम ने पुन: छ: स्तरों में विभाजित किया है− (i) ज्ञान‚ (ii) बोध‚ (iii) अनुप्रयोग‚ (iv) विश्लेषण‚ (v) संश्लेषण‚ (vi) मूल्यांकन
(ii) भावात्मक क्षेत्र के उद्‌देश्य− इस क्षेत्र के अन्तर्गत वे उद्‌देश्य आते हैं जिनका सम्बन्ध भावों‚ दृष्टिकोणों‚ मूल्यों‚ संवेगों‚ मनोवृत्ति‚ रुचियों आदि से होता है। इनका वर्गीकरण वर्ष 1964
में क्राथवॉल‚ ब्लूम तथा मसीआ ने प्रस्तुत किया था।
क्राथवेल तथा उनके सहयोगियों ने इसे पुन: पाँच स्तरों में विभाजित किया है−(i) आग्रहण‚ (ii) प्रतिक्रिया‚ (iii) अनुमूल्यन‚ (iv) संगठन‚ (v) स्वाभावीकरण
(iii) मनोगत्यात्मक क्षेत्र के उद्‌देश्य− मनोगत्यात्मक क्षेत्र से सम्बन्धित शैक्षिक उद्‌देश्यों का वर्गीकरण सिम्पसन ने वर्ष 1966 में किया था। मनोगत्यात्मक क्षेत्र में उन उद्‌देश्यों को सम्मिलित किया जाता है जो शारीरिक तथा क्रियात्मक कौशलों से सम्बन्धित होते हैं। इसको पुन: पाँच स्तरों में विभाजित किया जा सकता है−(i) प्रत्यक्षीकरण‚ (ii) मनोस्थिति‚ (iii) निर्देशित प्रतिक्रिया‚ (iv) कार्य कौशल‚ (v) जटिल बाह्य व्यवहार।
• कालान्तर में आर0 एच0 दवे ने मनोगत्यात्मक क्षेत्र के उद्‌देश्यों को अन्य पाँच भागों में विभाजित किया−(i) अनुकरण‚ (ii)
क्रिया‚ (iii) परिमार्जिता‚ (iv) समन्वयन‚ (v) स्वाभावीकरण
शिक्षण में प्रयुक्त प्रमुख क्रियाकलाप-
• विषय व पाठ्‌यवस्तु आधारित गतिविधियों को करना।
• छोटे व बड़े समूहों में कार्य कराना जिससे बच्चे स्वयं कार्य करते हुए सीख व समझ सकें।
• ऐसे प्रोजेक्ट कार्य कराना जिन्हें बच्चे स्वयं व साथियों के सहयोग से कर सकें।
• विविध प्रकार के अभ्यास कार्य कराना व उनकी जाँच करना।
• शैक्षिक व मनोरंजनात्मक खेल खिलवाना।
• वर्णन‚ व्याख्यान व कथन करना।
• स्वाध्याय व विचार-विमर्श के अवसर प्रदान करना।
• प्रेरणा व आवश्यक सुझाव प्रदान करना।
• चर्चा-परिचर्चा करवाना।
• सहायक सामग्री का समुचित प्रयोग करना।
• प्रश्नोत्तर व प्राप्त उत्तरों को सभी बच्चों के सामने स्पष्ट करना।
• मूल्यांकन करना

सम्प्रेषण

सम्प्रेषण का अर्थ एवं परिभाषाएँ-
सम्प्रेषण को अंग्रेजी में ‘Communication’ कहते हैं। कम्यूनिकेशन शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के ‘कम्यूनी’ (Commune) शब्द से हुआ है‚ जिसका शाब्दिक अर्थ विचारों‚ भावनाओं‚ सूचनाओं का आदान-प्रदान होता है।
• इसी प्रकार सम्प्रेषण शब्द ‘सम’ और ‘प्रेषण’ दो शब्दों से मिलकर बना है। सम का अर्थ है−भली प्रकार और प्रेषण का अर्थ है भेजना। अर्थात्‌ संदेश व सूचनाओं को भली प्रकार प्रेषित करना‚ जिससे सामने वाला उस संदेश को यथावत भली प्रकार ग्रहण कर सके।
पॉललीगन्स के अनुसार−‘‘सम्प्रेषण वह क्रिया है‚ जिसके द्वारा दो या अधिक लोग‚ विचारों‚ तथ्यों‚ भावनाओं एवं प्रभावों आदि का इस प्रकार विनियमन करते हैं कि संचार प्राप्त करने वाला व्यक्ति संदेश के अर्थ‚ उद्‌देश्य तथा उपयोग को भलीभाँति समझ लेता है।’’ इस प्रकार सम्प्रेषण या संचार एक प्रक्रिया है‚ जो कि दो या दो से अधिक व्यक्तियों के मध्य घटित होती है तथा इसके माध्यम से अभिवृत्तियों‚ इच्छाओं‚ आदर्शों एवं सूचनाओं इत्यादि का आदानप्रदान होता है।
प्रभावी सम्प्रेषण के लिए प्रमुख बिन्दु
• संदेश की स्पष्टता तथा भाषा की सरलता एवं शुद्धता • संदेश को सावधानीपूर्वक समझना • संदेश में विश्वसनीयता • संप्रेषण प्रक्रिया की सरलता • सम्प्रेषण में समयबद्धता • सम्प्रेषण विधा में लचीलापन • पश्चपोषण की व्यवस्था
सम्प्रेषण के घटक या कारक
1. प्रेषक (Sender or Communicator)प्रेषक वह होता है जो सूचना‚ विचार या भावनाओं को प्रेषित करता है। सरल शब्दों में कह सकते हैं कि संदेश भेजने वाले को प्रेषक कहा जाता है।
शिक्षा व्यवस्था में मुख्य प्रेषक शिक्षक होता है। अत: शिक्षक को अपना संदेश भली-भाँति प्रेषित करने के लिए निम्नलिखित बिन्दुओं को अवश्य ध्यान में रखना चाहिए−
• छात्रों का बौद्धिक स्तर • विषय-वस्तु का चयन • पाठ्‌ययोजना का निर्माण • उद्‌देश्य की जानकारी • उचित शिक्षण विधि एवं सहायक सामग्री का प्रयोग • वैयक्तिक भिन्नताओं का ध्यान • बालक का मानसिक एवं शारीरिक स्वास्थ्य • समवाय विषयों के सह-सम्बन्ध पर आधारित शिक्षण सम्प्रेषण • अभिप्रेरणा
• निष्पक्ष भाव
2. संदेश (Message)–शिक्षण में संदेश से आशय पाठ्‌य वस्तु से है। प्रेषक‚ प्रापक को जो कुछ भी सिखाना चाहता है‚ इस कार्य हेतु अपना जो अनुभव व ज्ञान वह शिक्षण के माध्यम से प्रेषित करता है उसे संदेश कहते हैं। यहाँ प्रेषक‚ शिक्षक तथा प्रापक‚ शिक्षार्थी होता है।
3. माध्यम (Media)–माध्यम प्रेषक और प्रापक के बीच मेल कराता है। माध्यम के द्वारा ही प्रेषक अपने संदेशों को प्रापक तक पहुँचाता है। वर्तमान समय में भाषा एवं भाव-भंगिमा के अतिरिक्त अनेक प्रकार के माध्यम प्रचलित हैं जैसे−रेडियो‚ टेलीविजन‚ ओवर हेड प्रोजेक्टर‚ टेलीफोन‚ कम्प्यूटर आदि के माध्यम से प्रेषक अपने संदेशों को प्रापक तक पहुँचा सकता है।
4. प्रापक या ग्राही (Achiever)–संदेश को प्राप्त करने वाला ही प्रापक कहलाता है। प्रेषक जिस रूप में संदेश को भेज रहा है प्रापक उसी रूप में संदेश को ग्रहण कर रहा है या नहीं इसकी जानकारी प्रेषक को अवश्य होनी चाहिए। इसके लिए प्रापक सूचना या संदेश प्राप्त करता है और समझता है फिर प्रतिपुष्टि देता है।
5. प्रतिपुष्टि (Feed Back)–प्रापक जब प्रेषक द्वारा भेजे गये संदेश को समझ लेता है तो प्रेषक को प्रतिपुष्टि प्रदान करता है।
प्रतिपुष्टि एक प्रकार का पुनर्बलन होता है‚ जो प्रेषक के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण होता है।
सम्प्रेषण के प्रकार-
वैयक्तिक सम्प्रेषण्ा जब शिक्षक प्रत्येक बालक को अलग-अलग शिक्षण देता है तो इसे वैयक्तिक सम्प्रेषण कहा जाता है।
ए. जी. मेलबिन के अनुसार−‘‘विचारों का आदान-प्रदान अथवा व्यक्तिगत वार्तालाप द्वारा बालकों को अध्ययन में सहायता‚ आदेश तथा निर्देश प्रदान करने के लिए शिक्षक का प्रत्येक बालक से पृथक-पृथक साक्षात्कार करना व्यक्तिगत सम्प्रेषण है।’’
वैयक्तिक सम्प्रेषण के उद्‌देश्य-
• छात्रों की रुचियों‚ अभिरुचियों‚ आवश्यकताओं तथा मानसिक योग्यताओं के अनुसार शिक्षण देना।
• बालकों की विशिष्ट योग्यताओं और व्यक्तित्व का विकास करना।
वैयक्तिक सम्प्रेषण के गुण-
• इस विधि में बालक स्वयं करना सीखता है।
• यह विधि प्रखर बुद्धि‚ मंद बुद्धि दोनों के लिए समान रूप से उपयोगी है
• शिक्षक बालक पर व्यक्तिगत रूप से ध्यान दे सकता है।
वैयक्तिक सम्प्रेषण के दोष-
• यह विधि व्ययपूर्ण है
• इस विधि द्वारा बालक में सामाजिकता के गुण विकसित नहीं किये जा सकते।
• यह विधि बालक के दृष्टिकोण को संकुचित करती है।
सामूहिक सम्प्रेषण सामूहिक सम्प्रेषण का अर्थ कक्षा शिक्षण है। इस विधि में एक कक्षा के सभी छात्रों के लिए सामूहिक शिक्षण विधि का प्रयोग किया जाता है।
सामूहिक सम्प्रेषण के गुण
• यह विधि सरल तथा सस्ती है।
• यह विधि छात्रों को व्यवहारकुशल बनाती है।
• यह विधि नेतृत्व के गुणों का विकास करती है।
• यह विधि छात्रों में सामाजिक एवं नैतिक गुणों का विकास करती है।
सामूहिक सम्प्रेषण के दोष-
• इस विधि को बालकेन्द्रित नहीं माना जाता है।
• इस विधि में बालक और छात्र के मध्य सम्पर्क नहीं बन पाता है।
• इस विधि में वैयक्तिक भिन्नता उपेक्षित होती है।
प्रभावी सम्प्रेषण के तरीके-
• शिक्षण के उद्‌देश्य स्पष्ट तथा विशिष्ट होने चाहिए।
• कक्षा का वातावरण सरल‚ सौहार्द‚ स्नेह तथा सहानुभूति युक्त होना चाहिए।
• सम्प्रेषण प्रेरणाप्रद होना चाहिए।
• सम्प्रेषण बाल केन्द्रित होना चाहिए।
• सम्प्रेषण सुनियोजित होना चाहिए।
• कक्षा का वातावरण प्रजातांत्रिक होना चाहिए।
• विषय-वस्तु में क्रमबद्धता होनी चाहिए।
• विषय-वस्तु का पूर्व ज्ञान से सम्बन्ध होना चाहिए।
• शिक्षण उपचारात्मक होना चाहिए।
• सम्प्रेषण माध्यमों या शिक्षण सहायक सामग्री का समुचित प्रयोग होना चाहिए।

शिक्षण के सिद्धान्त

1. क्रियाशीलता का सिद्धान्त− इस सिद्धान्त के अनुसार सीखने के लिए शिक्षक तथा विद्यार्थी का क्रियाशील होना आवश्यक होता है। यह बाल मनोविज्ञान का आधारभूत सिद्धान्त है। इसमें सीखने वाले का पूरी अधिगम प्रक्रिया में सक्रिय रहना परम आवश्यक है।
फ्राबेल के अनुसार−‘‘बालक कार्य करके ही सीखते हैं और क्रिया द्वारा सीखना स्थायी सीखना है।’’
• माण्टेसरी‚ किण्डरगार्टन‚ डाल्टन ऐसी ही कुछ पद्धतियाँ हैं‚ जो क्रियाशीलता पर जोर देती हैं। महात्मा गाँधी द्वारा चलायी गयी बेसिक योजना तथा राष्ट्रीय पाठ्‌यचर्या की रूपरेखा−2005 में करके सीखना‚ को मूलभूत सिद्धान्त के रूप में मान्यता दी गयी है।
• स्वयं कार्य करने से पाठ या कार्य जल्दी सीख जाते हैं‚ आत्मविश्वास बढ़ता है तथा व्यवहार परिमार्जन होता है।
2. प्रेरणा का सिद्धान्त− प्रेरणा बालक की वह आंतरिक शक्ति है जो उसमें ऐसी क्रियाशीलता उत्पन्न करती है‚ जो उद्‌देश्य प्राप्ति तक चलती रहती है। प्रेरित हो जाने पर बालक स्वयं क्रियाशील हो जाता है‚ वह अपने कार्य में रुचि लेने लगता है। अत: शिक्षक को ऐसे अधिगम परिस्थितियों का निर्माण करना चाहिए जिसमें छात्र स्वयं प्रेरित हो सकें।
3. रुचि का सिद्धान्त− छात्र को जिस कार्य में रुचि होती है उसे वह पूरे मन से करता है। इसलिए शिक्षण को प्रभावशाली बनाने के लिए पाठ्‌यवस्तु में छात्र की रुचि जागृत करना आवश्यक होता है।
पिसेण्ट के अनुसार−‘‘जब तक छात्रों में सक्रिय रुचि नहीं होगी तब तक शिक्षण का सर्वोत्तम कार्य नहीं होगा।
4. निश्चित उद्‌देश्य का सिद्धान्त −प्रत्येक कार्य का कोई उद्‌देश्य होता है अत: प्रत्येक पाठ का भी निश्चित उद्‌देश्य होना चाहिए। उद्‌देश्य का पूर्व और पूर्ण ज्ञान ही‚ उसके शिक्षण को स्पष्ट रोचक तथा प्रभावशाली बनाता है।
5. नियोजन का सिद्धान्त− अच्छे शिक्षण का आधार नियोजन है।
अत: किसी भी पाठ को पढ़ाने से पहले शिक्षक को यह सुनिश्चित कर लेना चाहिए कि उसे क्या पढ़ाना है‚ किस विधि को अपनाना है तथा किस सहायक सामग्री का उपयोग करना है आदि। इसके साथ ही नियोजन परिवर्तनशील व लचीली होनी चाहिए।
6. चयन का सिद्धान्त− शिक्षक किसी बात से सम्बन्धित सम्पूर्ण ज्ञान को छात्रों को 40-50 मिनट की अवधि में नहीं प्रदान कर सकता है। अत: उसके लिए विद्यार्थियों की आवश्यकता तथा विषय-वस्तु की उपयोगिता को ध्यान में रखते हुए पाठ्‌य-वस्तु का चयन करना चाहिए। रायबर्न ने लिखा है−‘‘शिक्षक के अच्छे चयन की योग्यता पर उसके कार्य की सफलता निर्भर करती है।’’
7. वैयक्तिक विभिन्नता का सिद्धान्त− बाल-मनोविज्ञान के अनुसार प्रत्येक विद्यार्थी विशिष्ट होते हैं तथा उनकी विशिष्ट योग्यता व क्षमता होती है। अत: शिक्षक के द्वारा अपने शिक्षण कार्य को आयोजित करते समय विद्यार्थियों की वैयक्तिक भिन्नताओं को ध्यान में रखना चाहिए‚ जिससे सभी विद्यार्थियों की अधिगम आवश्यकताओं की पूर्ति हो जाये।
8. लोकतांत्रीय व्यवहार का सिद्धान्त− शिक्षक को छात्रों का पथ-प्रदर्शक और मित्र होना चाहिए। उसे उनको प्रश्न पूछने‚ अपने विचारों को व्यक्त करने और अपने संदेहों का निवारण करने के लिए पूर्ण स्वतंत्रता देनी चाहिए।
9. जीवन से सम्बन्ध स्थापित करने का सिद्धान्त− विषय-वस्तु को जीवन की वास्तविकता से जोड़कर शिक्षण करने पर विद्यार्थी विषय-वस्तु की सार्थकता समझकर उसके अध्ययन करने की आवश्यकता महसूस करने लगते हैं। इसलिए राष्ट्रीय पाठ्‌यचर्या की रूपरेखा-2005 में शिक्षा को जीवन से जोड़ने की बात पर जोर दिया गया है।
10. आवृत्ति का सिद्धान्त− अर्जित ज्ञान को स्थायी बनाने के लिए उसे दोहराना चाहिए। पाठ्‌य वस्तु की बातों को दोहराने से छात्र उसे भली प्रकार से समझ जाते हैं।
11. निर्माण व मनोरंजन का सिद्धान्त− शिक्षण में इस बात का ध्यान देना चाहिए कि जो भी पाठ पढ़ाना हो उसको कक्षा में सीखने वालों की सृजनात्मक क्रियाओं द्वारा विकसित करते हुए पढ़ाया जाये। साथ ही शिक्षण कार्य को इस ढंग से सम्पन्न किया जाये कि शिक्षार्थीगण शिक्षण-अधिगम की प्रक्रिया में स्वाभाविक आनन्द व लगाव का अनुभव करें।
12. विभाजन का सिद्धान्त− इसे लघु सोपानों का सिद्धान्त भी कहते हैं। शिक्षक को चाहिए कि पाठ्‌यवस्तु को विभाजित करके सरल से कठिन की ओर अग्रसर हो ताकि तारतम्यता बनी रहे और सम्प्रेषण व्यवहारिक बना रहे।
13. पुनर्बलन का सिद्धान्त− इस सिद्धान्त के अनुसार शिक्षण कार्य को करने के उपरान्त शिक्षक को विद्यार्थियों द्वारा अर्जित ज्ञान‚ बोध व कौशल आदि को बार-बार पुनर्बलित अवश्य करना चाहिए।

शिक्षण के सूत्र

शिक्षण सूत्र का अर्थ एवं परिभाषा शिक्ष ण सूत्र वे मार्ग होते हैं जिस पर चलकर शिक्षण अधिगम की प्रक्रिया सुगम‚ रुचिकर‚ प्रभावशाली व वैज्ञानिक बन जाती है। ये सूत्र बाल प्रकृति पर आधारित है।
रेमण्ट के अनुसार−‘‘शिक्षण सूत्र पथ प्रदर्शन करते हैं जिसमें सिद्धान्त‚ सिद्धान्त से व्यवहार में सहायता के लिए अपेक्षा की जाती है।’’ इस प्रकार स्पष्ट होता है कि शिक्षकों द्वारा अध्ययन-अध्यापन को प्रभावशाली बनाने के लिए एवं छात्रों को अध्ययन के प्रति जागरूक तथा क्रियाशील बनाने हेतु जो तकनीकें एवं विधियाँ प्रयोग में लायी जाती हैं‚ वह शिक्षण सूत्र कहलाती हैं।
हरबर्ट स्पेन्सर तथा कामेनियस ने शिक्षण सूत्रों को खोजने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। कुछ शिक्षण सूत्र निम्नलिखित हैं−
1. सरल से कठिन की ओर− इस सूत्र के अनुसार छात्रों को पहले सरल व फिर कठिन बातों की जानकारी दी जाये‚ जिससे पाठ व विषय में उनकी रुचि व ध्यान लगा रहे। यह क्रम बाल विकास के अनुकूल व मनोवैज्ञानिक है।
2. ज्ञात से अज्ञात की ओर− शिक्षक को पहले वे बातें बतानी चाहिए जिन्हें छात्र जानता है फिर उस विषय-वस्तु पर आना चाहिए जिन्हें वह नहीं जानता है क्योंकि सर्वथा नवीन तथ्य बच्चे के लिए कठिन होते हैं। अत: नवीन ज्ञान पूर्व ज्ञान पर आधारित होना चाहिए।
3. स्थूल से सूक्ष्म की ओर− इसे मूर्त से अमूर्त की ओर शिक्षण सूत्र भी कहा जाता है। शिक्षकों को छोटे बच्चों को पढ़ाते समय प्रारम्भ में केवल मूर्त या स्थूल वस्तुओं का ही प्रयोग करना चाहिए और उनकी सहायता से सूक्ष्म बातों को बताना चाहिए।
4. पूर्ण से अंश की ओर− इस सूत्र का आधार गेस्टाल्टवाद है।
गेस्टाल्ट मनोवैज्ञानिकों के अनुसार बालक सर्वप्रथम किसी वस्तु को पूर्ण रूप से ही देखता है‚ जानता है व समझता है‚ फिर उसके विभिन्न अंगों को देखता है। अत: शिक्षक को चाहिए कि विषय-वस्तु का पूर्ण रूप प्रस्तुत करने के बाद ही उसके खणडों को प्रस्तुत करे। जैसे−किसी वृक्ष के अध्ययन में सर्वप्रथम सम्पूर्ण वृक्ष को फिर उसके बाद टहनियों‚ पत्तियों आदि की चर्चा करनी चाहिए।
5. अनिश्चित से निश्चित की ओर− इस शिक्षण सूत्र के अनुसार शिक्षक को शिक्षण करते समय विद्यार्थियों के अनिश्चित विचारों‚ सूचनाओं‚ समझ या सम्बन्धों आदि को निश्चितता प्रदान करने का प्रयास करना चाहिए।
6. प्रत्यक्ष से अप्रत्यक्ष की ओर− इस शिक्षण सूत्र के अनुसार छात्रों को सबसे पहले उसके द्वारा देखी गयी वस्तुओं के बारे में बताना चाहिए। तत्पश्चात्‌ उन वस्तुओं के बारे में चिन्हें वह देख नहीं सकता है। क्योंकि देखी गयी वस्तुओं का ज्ञान वे आसानी से ग्रहण कर लेते हैं।
7. विशिष्ट से सामान्य की ओर− शिक्षण का यह सूत्र आगमन विधि पर आधारित है। इसमें शिक्षक छात्रों के सामने कुछ विशिष्ट उदाहरण रखता है और छात्र उसकी परीक्षा करके उनसे सम्बन्धित सामान्य नियम निकालते हैं। इस सूत्र को ‘दृष्टांत से सिद्धान्त की ओर’ भी कहते हैं।
8. विश्लेषण से संश्लेषण की ओर− इस सूत्र के अनुसार किसी घटना या तथ्य की जानकारी पहले समग्र रूप से कराकर फिर उसके विविध भागों की व्याख्या व विश्लेषण द्वारा स्पष्ट किया जाना चाहिए तत्पश्चात्‌ उन भागों या खण्डों को आपस में जोड़कर पूरी जानकारी कराकर निष्कर्ष तक पहुँचना चाहिए।
9. मनोवैज्ञानिक क्रम से तर्कसंगत की ओर− बालक की शिक्षा उसकी रुचियों‚ रुझानों‚ क्षमताओं व जिज्ञासाओं के अनुसार प्रदान करनी चाहिए और जैसे-जैसे उसके ज्ञान का विकास होता जाये‚ उसे विषय का तार्किक व क्रमबद्ध ज्ञान प्रदान किया जाये।
10. अनुभव से युक्तियुक्त की ओर− बालक को प्रत्येक बात का ज्ञान पहले अनुभव के द्वारा प्रदान करना चाहिए और फिर उसे तर्कपूर्ण बनाना चाहिए क्योंकि बालक का प्रारम्भिक ज्ञान अनुभव प्रदत्त ही होता है।
11. प्रकृति का अनुसरण− शिक्षक को बालक की प्रकृति का सदैव ध्यान रखना चाहिए। बालक को जो भी शिक्षा दी जाय‚ उसके शारीरिक और मानसिक विकास के अनुरूप होनी चाहिए। ऐसा न करने से बालक के स्वभाविक विकास में बाधा पड़ सकती है।
अच्छे शिक्षण की विशेषताएँ
• अच्छा शिक्षण सुनियोजित होता है।
• अच्छा शिक्षण तैयारी का साधन होता है।
• अच्छे शिक्षण के लिए विषय-वस्तु पर पूर्ण अधिकार होना चाहिए।
• शिक्षक व छात्रों के मध्य सहानुभूतिपूर्ण सम्बन्ध।
• मानवीय विकास का पर्याप्त ज्ञान।
• मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों का उपयोग
• कक्षा-कक्ष सहयोगी एवं प्रजातांत्रिक
• अच्छा शिक्षण प्रेरणादायक होता है।
• शिक्षण क्रियाशील‚ गतिशील तथा संघर्षपूर्ण होना चाहिए।

शिक्षण प्रविधियाँ

थ्रिंग के अनुसार−‘‘शिक्षक शिक्षण प्रविधियों द्वारा अपने छात्रों को कार्य करने के योग्य बनाता है और स्वयं यह दर्शाने में लगा रहता है कि इस कार्य को कैसे किया जायेगा साथ ही इस बात के लिए सतर्क रहता है कि वे इसे करें।’’ अर्थात्‌ विशिष्ट प्रकार के शिक्षण सम्बन्धी क्रिया-कलापों को शिक्षण युक्तियाँ या शिक्षण प्रविधियाँ कहते हैं।
1. प्रश्नोत्तर प्रविधि−
शिक्षण कार्य की शुरुआत प्रश्न विधि से किया जाये तो शिक्षक अपनी समस्त शिक्षण योजना को नियोजित स्वरूप दे सकता है। इस विधि के जन्मदाता सुकरात माने जाते हैं। इन्होंने इसके तीन सोपान बताएं हैं−
• निरीक्षण
• अनुभव
• परीक्षण प्रश्न प्रविधि के प्रमुख प्रयोजन निम्न हैं−
• जिज्ञासा उत्पन्न करना।
• पाठ विस्तार करना।
• समस्या समाधान की क्षमता का विकास करना।
• नवीन ज्ञान का पूर्व ज्ञान से सम्बन्ध स्थापित करना।
• कक्षा अनुशासन बनाना।
• शिक्षण का मूल्यांकन करना।
पॉर्कर के अनुसार−‘‘प्रश्न आदत कौशल के स्तर से ऊपर उठकर समस्त क्रियाओं की कुंजी है।’’
प्रश्नों के प्रकार-
1. प्रस्तावना प्रश्न 2. विचारात्मक प्रश्न 3. बोध प्रश्न 4. विकासात्मक प्रश्न 5. समस्या प्रश्न 6. तुलनात्मक प्रश्न 7. पुनरावृत्ति प्रश्न
प्रश्न से सम्बन्धित प्रमुख बातें-
• प्रश्न सरल तथा स्पष्ट हो।
• प्रश्न पाठ्‌यवस्तु से सम्बद्ध हो।
• प्रश्न सम्पूर्ण कक्षा से किये जायें।
• प्रश्न पूर्व ज्ञान से जोड़ते हुए पाठ का विस्तार करने वाले हों।
उत्तर देते समय निम्नलिखित तथ्यों का पालन होना चाहिए−
• उत्तर देते समय छात्रों को सीधा खड़ा होकर उचित स्वर में बोलना चाहिए।
• एक समय में एक ही छात्र उत्तर दे।
• उत्तर देने के लिए प्रतिभाशाली व कमजोर दोनों प्रकार के छात्रों को प्रेरित करना चाहिए।
• सही उत्तर देने पर पुनर्बलन प्रदान करना चाहिए
2. विवरण प्रविधि−
विवरण विधि के माध्यम से छात्रों के मस्तिष्क में वस्तुओं तथा घटनाओं के मानसिक चित्र इतने सजीव ढंग से प्रस्तुत किये जाते हैं कि वे पाठ्‌यवस्तु को आसानी से समझ जाते हैं।
विवरण विधि की विशेषताएँ-
• स्थायी स्मृति का विकास करना।
• तार्किक क्षमता का विकास करना।
• अमूर्त घटनाओं या वस्तुओं को मूर्त रूप देना।
• ध्यान केन्द्रित करना।
• बोध विस्तार करना।
विवरण विधि से शिक्षण करते समय सावधानियाँ-
• विवरण विषय-वस्तु से सम्बन्धित हो।
• विवरण सरल व स्पष्ट हो
• विवरण‚ चित्र‚ मॉडल‚ श्यामपट्‌ट के द्वारा प्रस्तुत किया जाये।
• विवरण ज्यादा बड़ा न हो।
3. वर्णन प्रविधि−
वर्णन प्रविधि में किसी घटना‚ दृश्य एवं नियम का विस्तार से कथन किया जाता है ताकि छात्रों को पाठ अच्छी तरह से समझ में आ जाये।
• वर्णन विधि और विवरण विधि मे अंतर होता है। विवरण विधि मे टीका-टिप्पड़ी तथा विश्लेषण की भावना निहित होती है जबकि वर्णन में विषय का सांगोपांग विवेचन‚ स्पष्टीकरण एवं संश्लेषण मुख्य उद्‌देश्य होता है।
इस विधि से शिक्षण करते समय शिक्षक को कुछ बातों पर विशेष ध्यान देना चाहिए−
• वर्णन विषय-वस्तु से सम्बद्ध हो।
• वर्णन की भाषा शैली सरल व स्पष्ट हो।
• वर्णन समग्र रूप में प्रस्तुत किया जाये।
• वर्णन क्रमबद्ध और आवश्यकतानुसार हो।
• वर्णन स्तरानुकूल हो।
4. व्याख्या प्रविधि−
व्याख्या विधि का प्रयोग विषय-वस्तु को भली-भाँति व गहनता से स्पष्ट करने के लिए किया जाता है। व्याख्या के द्वारा शिक्षक कठिन शब्दों‚ वाक्यांशों‚ वाक्यों‚ विचारों‚ तथ्यों‚ सिद्धान्तों या अनुप्रयोगों आदि का विश्लेषण करके उनकी जटिलता और दुरुहता को सरलता में परिवर्तित कर कर देता है जिससे पाठ्‌य-वस्तु विद्यार्थियों के लिए बोधगम्य व ग्राह्य बन जाती है। व्याख्या विधि एकतरफा सम्प्रेषण होता है जिसमें शिक्षक सूचनाओं का सम्प्रेषण करता है। इसे रुचिकर व उपयोगी बनाने
के लिए निम्न बातों पर ध्यान देना आवश्यक होता है−
• उद्‌देश्यों को निश्चित कर लेना चाहिए।
• व्याख्या स्तरानुकूल होना चाहिए।
• व्याख्या की भाषा सरल व स्पष्ट होनी चाहिए।
• व्याख्या को प्रभावी बनाने के लिए शिक्षक को चित्र‚ मॉडलों‚ उदाहरणों एवं तुलना के तरीकों का समावेशन करना चाहिए।
5. स्पष्टीकरण प्रविधि−
किसी वस्तु‚ विषय‚ घटना को अच्छी तरह समझाना स्पष्टीकरण कहलाता है। इस विधि को उद्‌घाटन प्रविधि भी कहते हैं। यह विधि ज्यादातर जटिल विषयों को सरल रूप से बोधगम्य बनाने के काम आती है। स्पष्टीकरण विधि का प्रयोग करने के लिए शिक्षक को विषय-वस्तु का पूर्ण ज्ञान होना आवश्यक होता है।
• स्पष्टीकरण विधि को सफल बनाने के लिए निम्नलिखित बातों पर ध्यान देना चाहिए−
• पाठ्‌यवस्तु को छोटे-छोटे भागों में विभाजित करके उसे तार्किक क्रम में नियोजित कर लेना चाहिए।
• स्पष्टीकरण की भाषा सरल व शुद्ध रखना चाहिए।
• स्पष्टीकरण के अंत में प्रश्न अवश्य पूछें।
6. कहानी कथन प्रविधि−
कहानी कथन विधि में कहानी कहते समय विषय-वस्तु के सूक्ष्म तथा जटिल भागों को इतना सरल एवं स्पष्ट बनाया जाता है जिससे कि कक्षा के सभी छात्रों को वे स्पष्ट हो जायें। इस विधि का प्रयोग प्राय: छोटी कक्षाओं तक सीमित है।
कहानी विधि का महत्व
• एकाग्रता
• कल्पना शक्ति का विकास
• अधिग की तीव्रता
कहानी कथन विधि को प्रभावी बनाने के उपाय
• कहानी कथन स्तरानुकूल हो।
• कहानी कथन की भाषा स्पष्ट तथा सरल हो।
• कहानी कथन में प्रसंगानुसार हाव-भाव‚ आरोह-अवरोह हो।
• कहानी कथन के बाद अधिगमकर्ता से बोधगम्यता के प्रश्न पूछे जाये।
7. निरीक्षण व अवलोकन प्रविधि−
शिक्षण करते समय यदि छात्र को पाठ्‌य-विषय में शामिल वस्तुओं या घटनाओं के अवलोकन एवं निरीक्षण का अवसर दिया जाये तो शिक्षण अधिगम प्रभावशाली होगा। वास्तव में किसी वस्तु‚ स्थान‚ कार्य का ध्यानपूर्वक निरीक्षण करना ही अवलोकन है। सभी विषयों में विशेषकर विज्ञान‚ कृषि तथा समाज विज्ञान के लिए यह अधिक उपयोगी है।
इस विधि से शिक्षण करते समय ध्यातव्य बिन्दु−
• अवलोकन निरीक्षण की प्रक्रिया क्रमबद्ध हो।
• उद्‌देश्य का पूर्व निर्धारण आवश्यक होता है।
• छात्रों को शिक्षक के मार्गदर्शन में ही अवलोकन निरीक्षण करना चाहिए।
• अवलोकन निरीक्षण के बाद उसकी व्याख्या लेखन आवश्यक है।
8. उदाहरण प्रविधि−
किसी सूक्ष्म‚ गूढ़ व अमूर्त विचार को स्पष्ट करने के लिए तथा उसे स्थूल व मूर्त रूप में प्रस्तुत करने के लिए उदाहरण युक्ति का प्रयोग किया जाता है। उदाहरण प्रस्तुत करने पर अमूर्त विचार काफी हद तक मूर्त हो जाता है‚ कठिन बातें सहज व बोधगम्य हो जाती है‚ अरोचक विवरण रोचक हो जाता है तथा पाठ में अस्पष्टता के स्थान पर स्पष्टता आ जाती है।
उदाहरण विधि को प्रभावी बनाने के उपाय−
• उदाहरण सरल व स्पष्ट भाषा में हो।
• उदाहरणों में विविधता हो।
• उदाहरण स्तरानुकूल हो।
• उदाहरण सरल से कठिन की ओर तथा ज्ञात से अज्ञात की ओर उन्मुख हो।
9. खेल प्रविधि−
ह्यूजेज एवं ह्यूजेज के अनुसार−‘‘वह विधि जो बालकों को उसी उत्साह से सीखने की क्षमता देती है जो उनमें स्वाभाविक रूप में पायी जाती है‚ प्राय: खेल विधि कहलाती है।’’ यह विधि सीखने के मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों पर आधारित है।
रायबर्न ने इसके महत्व को बताते हुए कहा है−‘यह विधि बालक की रचनात्मक शक्तियों को प्रोत्साहित करती है‚ सामाजिक गुणों को विकसित करती है तथा सामूहिक प्रवृत्ति का विकास करती है। खेल विधि के द्वारा बालक के शारीरिक‚ मानसिक‚ सामाजिक‚ आध्यात्मिक शक्तियों का विकास किया जा सकता है।
10. समूह चर्चा प्रविधि−
किसी विषय पर एक से अधिक लोगों द्वारा चिंतन और वार्तालाप करने को समूह चर्चा विधि कहते हैं। इस विधि से शिक्षण करने से सुनने‚ समझने आदि का कौशल विकसित होता है।
महत्व−
• सामाजिकता का विकास • लोकतांत्रिक भावना का विकास
• ज्ञानवर्द्धन • स्वतंत्रता की भावना को महत्व
समूह-चर्चा विधि को प्रभावी बनाने हेतु प्रमुख बिन्दु−
• चर्चा का विषय स्पष्ट होना चाहिए।
• चर्चा का माध्यम एक भाषा होनी चाहिए।
• अनावश्यक विवाद न हो‚ शिक्षक को इस बात का ध्यान रखना चाहिए।
• चर्चा के अन्त में प्रश्न पूँछकर बोधगम्यता का पता लगाना चाहिए।
11. प्रयोगात्मक प्रविधि−
इस विधि का आधार वैज्ञानिकता एवं तार्किकता है। प्रयोग द्वारा शिक्षण करने से छात्र सक्रिय एवं एकाग्र रहते हैं और स्वयं करके सीखने का अवसर प्राप्त होने से अधिगम स्थायी होता है। इस विधि में बालक की समस्त इन्द्रियाँ सक्रिय रहती है।
महत्व−
• प्रयोग विधि से क्रियाशीलता बनी रहती है।
• ज्ञान प्रक्रिया दो तरफा होती है।
• कल्पना व यथार्थ का अंतर पता चलता है।
• जिज्ञासा पूर्ति में सहायक होती है।
12. वाद-विवाद प्रविधि−
जब किसी विषय पर चर्चा के लिए दो पक्ष होते हैं उनके अलग-अलग मत होते हैं और दोनों की चर्चा के बाद निष्कर्ष निकाला जाता है। इसी विधि को वाद-विवाद विधि कहते हैं।
महत्व−
• अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता होती है।
• तथ्य को स्पष्ट करने में सहायता मिलती है।
• मानसिक विकास के लिए उपयोगी है।
• सुनने‚ बोलने का कौशल विकसित होता है।
13. कार्यशाला प्रविधि−
कार्यशाला एक निश्चित विषय पर परिचर्या का प्रायोगिक कार्य होता है‚ जिसमें सभी प्रतिभागी सदस्य अपने ज्ञान‚ अनुभवों व कौशलों के पारस्परिक आदान-प्रदान के द्वारा विषय के बारे में सीखते हैं।
कार्यशाला वह प्रविधि है‚ जिसमें छात्र वास्तविक रूप से सक्रिय रहकर कार्य करते हुए अपने व समूह के सदस्यों के अनुभवों के पारस्परिक आदान-प्रदान के द्वारा किसी विषय की जानकारी प्राप्त करता है। चूँकि छात्र इसमें सक्रिय प्रतिभाग करते हैं‚ अत: प्राप्त ज्ञान स्थायी‚ विश्वसनीय व उपयोगी होता है। इस प्रविधि का प्रयोग छात्रों के क्रियात्मक पक्ष के विकास के लिए किया जाता है।
कार्यशाला प्रविधि के उद्‌देश्य−
• शिक्षण सम्बन्धी समस्याओं का समाधान खोजना।
• किसी प्रकरण के व्यवहारिक पक्ष को खोजना।
• शिक्षण की विशिष्ट क्षमताओं का विकास करना।
• शिक्षा व शिक्षण के नवीन उपागमों का प्रशिक्षण देना।
कार्यशाला का क्षेत्र−
• पाठ योजना के नवीन प्रारूप बनाने हेतु।
• क्रियात्मक शोध के प्रयोग हेतु।
• विविध प्रकार के प्रश्नावली के निर्माण हेतु।
कार्यशाला में शिक्षण क्रम−
• समस्या का चयन‚ प्रस्तुतीकरण व स्पष्टीकरण।
• पाठ पर आधारित कार्य।
• कार्य का अभ्यास।
• वास्तविक अनुभवों का आदान-प्रदान।
• सहभागियों के साथ कार्य।
• कार्यों/तैयारी सामग्री की जाँच/परीक्षण।
• निष्कर्ष।
14. भ्रमण प्रविधि−
इस विधि में स्थलों‚ वस्तुओं या घटनाओं से सम्बन्धित ज्ञान भ्रमण के द्वारा प्राप्त किया जाता है। इस विधि को शैक्षिक भ्रमण भी कहते हैं। भ्रमण के पश्चात्‌ सीखी गयी बातों का लेखन अवश्य करवाना चाहिए ताकि ज्ञान स्थायी रह सके।
भ्रमण विधि के लाभ−
• सीखने में स्वतंत्रता रहती है।
• सामाजिक भावना का विकास होता है।
• समस्त इन्द्रियाँ क्रियाशील रहती हैं।
• विभिन्न संस्कृतियों का ज्ञान सहजता से हो जाता है।

शिक्षण की नवीन विधाएँ (उपागम)

1. बाल केन्द्रित शिक्षण उपागम बाल केन्द्रित शिक्षण उपागम में शिक्षण का केन्द्र बिन्दु बालक होता है। बालक की रुचियों‚ प्रवृत्तियों तथा क्षमताओं को ध्यान में रखकर शिक्षण प्रदान किया जाता है। इसमें बालक का व्यक्तिगत निरीक्षण कर उसकी दैनिक कठिनाइयों को दूर करने के साथ ही उसे स्वावलम्बी बनाकर उसमें स्वतंत्रता की भावना उत्पन्न की जाती है।
उद्‌देश्य-
• स्वयं करके सीखने की प्रवृत्ति विकसित करना।
• चिंतन‚ मनन‚ जिज्ञासा जैसी प्रवृत्तियों का विकास करना।
• स्वतंत्र रूप से कार्य करने की प्रवृत्ति का विकास करना।
• शारीरिक दण्ड प्रक्रिया को बहिष्कृत करना।
• पढ़ाने के बजाय सिखाने की क्रिया पर जोर देना।
बाल केन्द्रित शिक्षण उपागम में शिक्षक की भूमिका-
• बाल केन्द्रित शिक्षण में शिक्षक बालकों का सहयोगी‚ सेवक तथा मार्गदर्शक के रूप में होता है। वह बालकों का सभी प्रकार से मार्गदर्शन करता है और विभिन्न क्रियाकलापों को क्रियान्वित करने में सहायता करता है।
• शिक्षक वह धुरी है जिस पर बाल केन्द्रित शिक्षण कार्य करता है। बाल केन्द्रित शिक्षण में शिक्षक माली के सदृश पौधों के समान बालकों का पोषण करके उनका शारीरिक‚ मानसिक तथा सामाजिक विकास करता है।
• बाल केन्द्रित शिक्षा में−
• शिक्षक बच्चों से मित्रवत व्यवहार करते हैं।
• शिक्षक मार्गदर्शक की भूमिका में होते हैं।
• बच्चों की कठिनाइयों को दूर करते हैं।
• बच्चों को नाम से सम्बोधित करते हैं।
• शिक्षण अधिगम सामग्री को अधिक से अधिक प्रयोग करते हैं।
• बच्चों को अभिव्यक्ति का अवसर देते हैं।
बाल केन्द्रित शिक्षा का महत्व-
• बालक प्रधान शिक्षण।
• सरल और रुचिपूर्ण शिक्षण।
• आत्माभिव्यक्ति के अवसर।
• ज्ञानेन्द्रियों के प्रशिक्षण पर बल।
• क्रियाशीलता पर आधारित शिक्षा।
• स्वयं करके सीखने पर बल।
• शिक्षक सुविधा प्रदाता के रूप में।
• क्रियाकलाप के अनुसार बैठने की व्यवस्था।
• प्रश्न पूछने‚ खोजने‚ प्रयोग करने के लिए प्रोत्साहन।
• सतत आकलन।
2. क्रिया या गतिविधि आधारित शिक्षण उपागम-
उन सभी क्रियाओं के द्वारा जिनमें बच्चे रुचिपूर्वक‚ जिज्ञासा‚ कौतुहल‚ लगन तथा मनोयोग से सक्रिय रहकर कार्य करते हुए सीखते हैं‚ गतिविधि कहलाती है। गतिविधि या क्रियापरक शिक्षण उपागम का अर्थ है−छात्र का अपनी स्वयं की क्रिया के द्वारा ज्ञान प्राप्त करना।
छात्र की क्रिया से तात्पर्य है कि जिस क्रिया को छात्र किसी उद्‌देश्य से पूर्ण करता है।
शोइनचेन के अनुसार− ‘‘क्रिया परक विधि का प्रयोग उस समय किया जाता है जब किसी विषय के शिक्षण में लक्ष्यों को आगे बढ़ाने के लिए छात्रों के द्वारा किसी प्रकार की क्रिया की जाती है।
शारीरिक क्रिया− कदमताल‚ पी.टी.‚ उछल कूद आदि।
मानसिक क्रिया− चिंतन‚ मनन‚ तर्क‚ वर्ग पहेली आदि।
उद्‌देश्य-
• बच्चों की रुचियों‚ मनोवृत्तियों व स्तर को समझते हुए शिक्षण करना।
• खेल-खेल में शिक्षण करना।
• बच्चों में सक्रियता का विकास करना।
• शिक्षण को रोचक व प्रभावी बनाना।
गतिविधि आधारित शिक्षण उपागम के लाभ-
• शारीरिक क्षमता का विकास।
• दिशाओं का ज्ञान।
• जोड़ व घटाने का ज्ञान।
• पशु-पक्षी सम्बन्धी भेद ज्ञान।
• पशु-पक्षी के नामों की जानकारी।
गतिविधि आधारित शिक्षण उपागम के प्रयोग में ध्यान देने योग्य मुख्य बातें-
• कक्षा में सभी बच्चों को गतिविधि में भाग लेने के अवसर मिले।
• बच्चों में किसी प्रकार का भय न हो तथा गतिविधि रुचिकर हो।
• गतिविधि बच्चों में प्रतिस्पर्द्धा की भावना उत्पन्न करने वाली हो।
• बच्चों को शारीरिक क्रिया के साथ-साथ मानसिक क्रिया का भी अभ्यास हो।
• गतिविधि के नियम लचीले हों।
गतिविधियाँ कराने के ढंग शिक्ष क तीन प्रकार की गतिविधियों (यथा ज्ञान प्राप्त करने वाली‚ ज्ञान व्यक्त करने वाली तथा अनुभव करने वाली) के द्वारा रोचकतापूर्ण वातावरण का सृजन करके सीखने की क्रिया को सहजता प्रदान कर सकता है। ये गतिविधियाँ लिखित‚ मौखिक‚ एकल‚ सामूहिक‚ सामग्री के साथ या सामग्री के बिना किसी भी रूप में करायी जा सकती हैं।
गतिविधि आधारित शिक्षण विधि की विशेषताएँ –
• स्वयं करके सीखने पर बल।
• मनोरंजक व रुचिपूर्ण।
• बालकेन्द्रिता पर बल।
• हस्तकौशल का विकास।
• वास्तविक परिस्थिति में ज्ञानार्जन पर बल।
3. रुचिपूर्ण/आनन्ददायी शिक्षण उपागम-
• रुचिपूर्ण शिक्षण से आशय ऐसी विधा से है जो बालक की अभिरुचियों को ध्यान में रखते हुए उनके सर्वांगीण विकास हेतु विकसित की गयी है।
• रुचिपूर्ण शिक्षण एक समयबद्ध कार्यक्रम तथा सुविचारित रणनीति है‚ यह बालकों को शिक्षा देने हेतु आकर्षक एवं बाल केन्द्रित प्रणाली है‚ जिसमें बालकों को आनन्दित करने वाले क्रिया-कलाप शामिल होते हैं।
उद्‌देश्य-
• बालकों का नामांकन‚ ठहराव तथा गुणात्मक शिक्षा की सम्प्राप्ति।
• शिक्षक को एक मित्र व सहयोगी के रूप में कल्पित करना।
• अपव्यय व अवरोधन को रोकना।
• वैयक्तिक भिन्नताओं को महत्व देना।
रुचिपूर्ण शिक्षण में सीखने-सिखाने हेतु किए जाने वाले
क्रिया-कलाप् गीत‚ कविता‚ कहानी-चित्रण‚ खेल‚ अभिनय‚ नाटक‚ भ्रमण‚ निरीक्षण‚ पहेली‚ वार्तालाप आदि।
रुचिपूर्ण शिक्षण की विशेषताएँ-
• बच्चों का सर्वांगीण विकास करना।
• रुचिपूर्ण व आनन्दायी शिक्षण पद्धति का प्रयोग करना।
• क्रियाशीलता पर बल देना।
• रोचक वातावरण का निर्माण करना।
4. सहभागी शिक्षण उपागम्ा सहभागी शिक्षण का सामान्य अर्थ शिक्षक एवं शिक्षार्थी की सहभागिता से लिया जाता है। श्रीमती आर. के. शर्मा सहभागी शिक्षण के अर्थ को स्पष्ट करते हुए लिखा है−‘‘जिस शिक्षण प्रक्रिया में शिक्षार्थी का सहयोग प्राप्त करके उसे यह अनुभव कराया जाता है कि वह इस शिक्षण प्रक्रिया का महत्वपूर्ण पक्ष है‚ सहभागी शिक्षण कहलाता है।’’
उद्‌देश्य-
• शिक्षक व छात्र दोनों को क्रियाशील बनाना।
• छात्रों को स्थायी ज्ञान प्रदान करना।
• विषय-वस्तु की प्रस्तुति को सरल व रुचिकर बनाना।
• सहयोग एवं सहकारिता की भावना विकसित करना।
• छात्रों में चिंतन‚ मनन‚ कल्पना‚ तर्क‚ जिज्ञासा आदि प्रवृत्तियों का विकास करना।
सहभागी शिक्षण हेतु किये जाने वाले क्रिया-कलाप-
• प्रस्तुतीकरण के पश्चात्‌ कठिन शब्दों का उच्चारणाभ्यास कराना।
• छात्रों के द्वारा अपने अनुभव की अभिव्यक्ति कराना।
• श्यामपट्‌ट पर शब्दों का मिलान कराना‚ चित्र बनवाना आदि।
• समूह में बाँटकर विषयगत जानकारी प्राप्त करना।
• कहानी‚ नाटक का मंचन छात्रों की सहभागिता से कराना।
5. दक्षता आधारित शिक्षण उपागम दक्ष ता आधारित शिक्षण से तात्पर्य है दक्ष अध्यापकों द्वारा ऐसा शिक्षण जो छात्रों को ज्ञान प्राप्ति में दक्ष बना सके। दक्षताओं का विकास तभी सम्भव है जब शिक्षार्थी किसी ज्ञान की इकाई को इस सीमा तक सीख लें कि वह उसके जीवन का अंग बन जाए। दक्षता आधारित शिक्षण को ‘मास्टरी लर्निंग’ अथवा ऑप्टिमम लर्निंग कहा जाता है।
उद्‌देश्य-
• छात्रों को दक्ष बनाना।
• प्रतिस्पर्द्धा की भावना विकसित करना।
• ज्ञान को स्थायित्व प्रदान करना।
• शिक्षण के प्रति रुचि विकसित करना।
• सहयोग की भावना विकसित करना।
दक्षता आधारित शिक्षण के सोपान-
पूर्व तैयारी−उद्देश्य निर्धारण‚ सहायक सामग्री।
• विषय-वस्तु का प्रस्तुतीकरण।
• नियम-निर्णय का समन्वयीकरण‚ सूचीकरण।
• अभ्यास।
• अभ्यास कार्य के मध्य की गयी त्रुटियों का शुद्धिकरण।
• प्रयोग
दक्षता आधारित शिक्षण में ध्यान रखने वाली मुख्य बातें-
• दक्षता कार्यक्षेत्र छात्रों के स्तरानुकूल होना चाहिए।
• अभ्यास कार्य के समय बालकों की थकान का विशेष ध्यान रखा जाय।
• दक्षता को उनके जीवन से सम्बन्धित किया जाना चाहिए।
• छात्रों को आवश्यक मार्गदर्शन दिया जाय।
• शिक्षकों और छात्रों को धैर्य के साथ मिलकर कार्य करना चाहिए।
• शिक्षण में टी.एल.एम. व अन्य शैक्षिक सामग्रियों का प्रयोग करके तथा छात्रों के ज्ञान में वृद्धि करके दक्षता बढ़ायी जा सकती है।
6. उपचारात्मक शिक्षण-
योकम व सिम्पसन के अनुसार−‘‘उपचारात्मक शिक्षण उस विधि को खोजने का प्रयत्न करता है‚ जो छात्र को अपनी कुशलता या विचार की त्रुटियों को दूर करने में सफलता प्रदान करे।’’ उपचारात्मक शिक्षण का अभिप्राय उस शिक्षण से है जिसकी व्यवस्था छात्रों की कमियों/दुर्बलताओं/अशुद्धियों को दूर करने के लिए की जाती है। उनकी दुर्बलताओं को जानकर शिक्षा का ऐसा कार्यक्रम बनाया जाता है‚ जिससे उनकी विशिष्ट कठिनाइयों‚ बुरी आदतों व नकारात्मक मनोवृत्तियों को दूर करके सीखने के दूषित प्रभावों को नष्ट किया जा सकता है और गलत ढंग से सीखी गयी बातों में सुधार किया जा सकता है।
उपचारात्मक शिक्षण निदानात्मक परीक्षण के बाद आता है।
उपचारात्मक शिक्षण का महत्व-
• छात्रों की प्रकरण सम्बन्धी कठिनाइयों का पता चलता है।
• छात्रों की सामान्य व विशिष्ट कठिनाइयों का निराकरण हो जाता है।
• छात्रों की क्षमताओं को उचित दिशा में मोड़ने में सहायता मिलती है।
• छात्रों के व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास होता है।
• छात्रों द्वारा की जाने वाली त्रुटियों में सुधार के साथ-साथ भविष्य में होने वाली त्रुटियों से भी बचाव होता है।
• उपचारात्मक शिक्षण से बालकों को अपने वातावरण से अनुकूलन करने में सहायता मिलती है।
उपचारात्मक शिक्षण के समय ध्यान देने वाली मुख्य बातें-
• छात्रों की कठिनाइयों की प्रकृति भली प्रकार समझ लेनी चाहिए कि वे सामान्य हैं या विशिष्ट।
• शिक्षण छात्रों के स्तर‚ रुचि‚ आवश्यकता केन्द्रित हो।
• विषय-वस्तु सीखने में जिस स्थल पर बच्चों को कठिनाई हो‚ वहीं से उपचारात्मक शिक्षण प्रारम्भ करना चाहिए।
• व्यक्तिगत भिन्नता के आधार पर छात्रों को दिये जाने वाले कार्यों में समय-समय पर परिवर्तन किया जाना चाहिए।
• अभ्यास कार्य व अन्य कार्यों का सतत्‌ मूल्यांकन किया जाये।
• छात्रों को समय-समय पर उनकी प्रगति से अवगत कराया जाना चाहिए।
उपचारात्मक शिक्षण प्रदान करने की विधियाँ-
• व्यक्तिगत शिक्षण • सामूहिक शिक्षण
• साधारण अभ्यास कार्य • विशिष्ट अभ्यास कार्य
• समूह चर्चा • वाद-विवाद
• प्रोजेक्ट कार्य • पुनरावृत्ति कार्य
• सहपाठी अध्ययन समूह • समस्त कार्यों का सतत मूल्यांकन
शिक्षक छात्रों की कठिनाइयों को कैसे जानें?
• कक्षा कार्य या अभ्यास कार्य द्वारा
• गृह कार्य/प्रोजेक्ट कार्य द्वारा
• सत्र परीक्षा के परिणाम द्वारा
• मासिक/अर्द्धवार्षिक/वार्षिक परीक्षाओं के परिणाम द्वारा
• कक्षा में छात्रों से पूछे जाने वाले प्रश्न के प्राप्त उत्तरों द्वारा
• छात्रों के व्यवहार‚ प्रतिक्रियाओं के सतत निरीक्षण/अवलोकन द्वारा
7. बहुकक्षा एवं बहुस्तरीय शिक्षण उपागम-
बहुकक्षा शिक्षण का अर्थ –
• बहुकक्षा शिक्षण का अर्थ है एक शिक्षक द्वारा एक से अधिक कक्षाओं को एक साथ पढ़ाना। इस शिक्षण व्यवस्था के अन्तर्गत शिक्षक की श्रम शक्ति‚ सूझ-बूझ और समय का अधिक उपयोग होता है।
• बहुकक्षा शिक्षण को प्रभावी ढंग से संचालित करने के लिए शिक्षक को पाठ्‌यक्रम‚ पाठ्‌यपुस्तकों‚ संदर्शिकाओं‚ समय विभाजन चक्र‚ समूह नायक‚ मॉनीटर‚ बैठक व्यवस्था‚ बच्चों के विषयवार समूह को सही रूप में संचालित करना होता है।
इसमें शिक्षक को एक से अधिक कक्षाओं के बच्चों को एक साथ बैठाकर शिक्षण कार्य करना होता है।
• बच्चों को छोटे-छोटे समूहों में बाँटकर उन्हें समूह-कार्य दिया जाता है‚ जिससे बच्चों को एक-दूसरे के साथ चर्चा करते हुए तथा एक-दूसरे को सहयोग देते हुए विषय को समझने का अवसर मिल जाता है।
बहु कक्षा शिक्षण की आवश्यकता-
• वर्तमान में प्राथमिक विद्यालयों में शिक्षकों की कमी को देखते हुए यह शिक्षण बहुत ही उपयोगी है।
• भाषा‚ गणित‚ पर्यावरणीय अध्ययन‚ कला और कार्यानुभव में उपयोगी।
• संज्ञानात्मक विकास के साथ-साथ सह-संज्ञानात्मक विकास में उपयोगी।
• गीत‚ लोकगीत‚ नाटक‚ अंत्याक्षरी आदि में उपयोगी।
• बहुकक्षा शिक्षण में ‘मॉनीटर प्रणाली’ तथा ‘प्रोजेक्ट प्रणाली’ का विशेष महत्व होता है।
बहुकक्षा शिक्षण में ध्यान देने वाली मुख्य बातें-
• शिक्षकों एवं कक्षा कक्षों की संख्या की जानकारी।
• कक्षा-कक्ष में बैठने की स्थिति की जानकारी।
• समय-विभाजन चक्र प्रबन्धन की जानकारी।
• स्थान प्रबन्धन की जानकारी।
• पाठ्‌य-वस्तु प्रबन्धन।
• शिक्षण सामग्री प्रबन्धन।
बहुस्तरीय शिक्षण का अर्थ-
• मानसिक स्तरीय शिक्षण ही बहुस्तरीय शिक्षण कहलाता है। एक ही कक्षा में अलग-अलग तरीके से व अलग-अलग गति से सीखने वाले छात्र होते हैं। जब एक शिक्षक एक ही समय में कक्षा के प्रत्येक बच्चे को उसके स्तर के आधार पर समूहों में बाँटकर शिक्षण कार्य करता है तो वह बहुस्तरीय शिक्षण कहलाता है।
• जैसे किसी कक्षा में गणित विषय में तेज‚ मध्यम तथा धीमी गति से सीखने वाले बच्चे हैं‚ उन्हें क्रमश: कठिन‚ मध्यम एवं सरल प्रश्न देकर हल कराना बहुस्तरीय शिक्षण कहलाता है।
बहुस्तरीय शिक्षण की आवश्यकता-
• बच्चों की उपलब्धि स्तर का अलग होना।
• बच्चों में सीखने की गति का अलग होना।
8. शिक्षण का रचनात्मक उपागम-
• रचनात्मक शिक्षण अधिगम में विद्यार्थियों को सक्रिय शिक्षार्थी समझा जाता है और अध्यापक विद्यार्थियों द्वारा ज्ञान की रचना करने की प्रक्रिया को सुगम बनाता है। यह विद्यार्थी केन्द्रित उपागम होता है अत: इसमें विद्यार्थियों को अधिकतम स्वतंत्रता दी जाती है।
• इसमें सम्पूर्ण प्रक्रिया ज्ञान सृजन के उद्‌देश्यों पर आधारित होती है।
• शिक्षण और अधिगम का रचनावाद उपागम जिस सिद्धान्त पर आधारित है उसे रचनावादी अधिगम सिद्धान्त कहते हैं।
• इसके अनुसार ज्ञान का निर्माण अधिगमकर्ता के पूर्व ज्ञान पर आधारित होता है। विद्यार्थी वस्तुओं एवं उन्हें प्रस्तुत की गयी गतिविधियों से ही सक्रिय रूप से पुराने अनुभवों को नये विचारों से जोड़ते हुए ज्ञान का सृजन करता है।
रचनावाद
• रचनावाद दर्शनशास्त्र का एक स्कूल है जो अठारहवीं शताब्दी के पूर्व में इटालियन दर्शनशास्त्री Giambattist a Vico से सम्बन्धित है‚ जहाँ आनुवांशिकी का अध्ययन किया जाता था।
• वर्तमान में यह स्विस मनोवैज्ञानिक जीन पियाजे एवं रसियन मनोवैज्ञानिक लेव वाइगोत्सकी के योगदान से बहुत विस्तृत रूप में शिक्षा दर्शन के रूप में विकसित हो चुका है।
• रचनावाद पियाजे के संज्ञानात्मक विकास पर आधारित है।
इसके अनुसार ज्ञान अधिगमकर्ता द्वारा सक्रिय रहकर सृजन होता है न कि निष्क्रिय रहकर वातावरण द्वारा प्राप्त किया जाता है। ‘जानने के लिए आना’ अपनाने की एक प्रक्रिया है जो कि बालक के अनुभविक संसार एवं उसमें निरंतर सुधारों पर आधारित है।
• वाइगोत्सकी ने समाज रचनावाद से प्रभावित संज्ञानात्मक विकास पर कार्य किया जो कि व्यक्तिगत रूप से सामाजिक अनुक्रिया की सहायता से वातावरण द्वारा ज्ञान के निर्माण पर बल देता है।
रचनावादी उपागम की विशेषताएँ-
• विद्यार्थी अधिगम प्रक्रिया में सक्रिय रूप से सम्मिलित होता है।
• वातावरण प्रजातांत्रिक होता है।
• गतिविधियाँ अंतर्क्रियात्मक एवं विद्यार्थी केन्द्रित होती हैं।
• अध्यापक सुलभकर्ता के रूप में होता है।
• विद्यार्थियों के विचारों‚ भावनाओं‚ उत्तरों आदि का सम्मान किया जाता है।
• विद्यार्थी अपने अनुभवों से सीखते हैं।
• प्रक्रिया भी उत्पाद जितनी ही महत्वपूर्ण होती है।

सूक्ष्म शिक्षण

सूक्ष्म शिक्षण का अर्थ व परिभाषाएँ
सूक्ष् म शिक्षण से तात्पर्य है−शिक्षण का लघु रूप। शिक्षण की जटिल प्रक्रिया को सरलतम्‌ ढंग से छोटे-छोटे सोपानों में प्रशिक्षुओं के सामने प्रस्तुत करने की एक रुचिपूर्ण प्रक्रिया है‚ सूक्ष्म शिक्षण।
सूक्ष्म शिक्षण के अन्तर्गत प्रशिक्षुओं को शिक्षण कौशल की बारीकियों से अवगत कराया जाता है।
मैकनाइट के अनुसार−‘‘सूक्ष्म शिक्षण वह सूक्ष्म पदीय परिस्थितियाँ हैं जिनका आयोजन पुराने कौशलों में सुधार एवं नवीन कौशलों में विकास के लिए किया जाता है।’’
डॉ. डब्ल्यू एलन के अनुसार−‘‘यह शिक्षण का लघुरूप होता है इसमें कक्षा का आकार तथा समय भी कम होता है।’’
क्लिफ्ट एवं उनके सहयोगी के अनुसार−‘‘सूक्ष्म शिक्षण‚ शिक्षक प्रशिक्षण की वह विधि है जो शिक्षण अभ्यास को किसी कौशल विशेष तक सीमित करके तथा कक्षा के आकार एवं शिक्षण अवधि को घटाकर शिक्षण को अधिक सरल एवं नियंत्रित करती है।’’
बी. के. पासी के अनुसार−‘‘सूक्ष्म शिक्षण एक प्रशिक्षण तकनीकी है जो प्रशिक्षण प्राप्त करने वाले शिक्षकों से यह अभिलाषा रखती है कि किसी तथ्य को थोड़े से छात्रों को‚ थोड़े समय में एक विशिष्ट शिक्षण कौशल के माध्यम से शिक्षण दे।’’
सूक्ष्म शिक्षण में-
• कक्षा-कक्ष का आकार छोटा होता है।
• पाठ्‌य वस्तु सीमित होती है।
• पढ़ाने की अवधि 6−10 मिनट होती है।
• छात्रों (प्रशिक्षु) की संख्या 5−10 होती है।
• एक शिक्षण कौशल पर ही बल दिया जाता है।
आवश्यकता एवं महत्व-
• सूक्ष्म शिक्षण की प्रक्रिया द्वारा छात्राध्यापकों को वास्तविक शिक्षण के लिए तैयार किया जाता है।
• परम्परागत शिक्षण को सरल बनाकर प्रशिक्षुओं को समझाया जाता है।
• इसके द्वारा सीमित समय व संसाधनों में शिक्षण कार्य का अनुभव प्राप्त होता है और एक-एक कौशल को क्रमश: सीखते हुए शिक्षण कला में दक्षता प्राप्त होती है।
• प्रशिक्षु पढ़ाने के बाद स्वयं शीघ्र ही पर्यवेक्षकों की सलाह पर अपने शिक्षण काय का मूल्यांकन करते हैं व सुधार करते हैं।
सूक्ष्म शिक्षण चक्र; सूक्ष्म शिक्षण में एक निश्चित चक्र का अनुसरण किया जाता है−
1. *पाठ योजना− किसी एक शिक्षण कौशल और पाठ्‌यवस्तु की इकाई पर एक सूक्ष्म पाठ योजना तैयार की जाती है।
2. शिक्षण− पाठ योजना के आधार पर पाँच से दस मिनट तक पाँच से दस छात्रों की कक्षा को पढ़ाया जाता है। प्रशिक्षु द्वारा दिये गये पाठ को वीडियो टेप या साधारण कैसेट पर टेप किया जाता है।
3. प्रतिपुष्टि− प्रत्येक प्रशिक्षु को व्यक्तिश: तत्कालीन प्रतिपुष्टि प्रदान करना अति आवश्यक होता है। प्रतिपुष्टि के लिए सामान्यत: 5 से 6 मिनट का समय दिया जाता है।
4. पुन:नियोजन− प्राप्त प्रतिपुष्टि या पृष्ठ पोषण के आधार पर प्रशिक्षु सुझाव संकेतों को अपनाते हुए अपने सूक्ष्म पाठ का पुन:नियोजन करता है।
5. पुन: शिक्षण− पुन: निर्मित पाठ योजना को प्रशिक्षु पढ़ाता है।
6. पुन: प्रतिपुष्टि −इस सोपान पर भी प्रशिक्षु को पुन: प्रतिपुष्टि प्राप्त होती है।
सूक्ष्म शिक्षण के मुख्य सिद्धान्त-
1. अभ्यास का सिद्धान्त− सूक्ष्म शिक्षण में छोटी-छोटी इकाई में अभ्यास कराया जाता है ताकि प्रशिक्षु कक्षागत समस्याओं से अवगत हो सके।
2. निरन्तरता का सिद्धान्त− यह प्रक्रिया तब तक चलती रहती है जब तक शिक्षण कौशल में परिपक्वता नहीं आ जाती है।
3. प्रबलन व मूल्यांकन का सिद्धान्त− इस प्रक्रिया में प्रशिक्षु पाठ नियोजन‚ शिक्षण पर्यवेक्षक के निर्देशन में करते हैं और कमियों में सुधार करते हैं। शिक्षण का व्यवहारिक ज्ञान प्राप्त करते हैं‚ प्रतिपोषण प्राप्त करते हैं। इस विधि में प्रशिक्षुओं के लिए स्वमूल्यांकन का अवसर ज्यादा रहता है एतएव अभिप्रेरणा मौजूद रहने से शिक्षण कार्य रुचिपूर्ण लगने लगता है।

शिक्षण कौशल

शिक्षण कौशल का अर्थ-
प्रो. एन. एल. गेज के अनुसार−‘‘शिक्षण-कौशल वह विशिष्ट अनुदेशन प्रक्रिया है जिसे शिक्षक अपने कक्षा-शिक्षण में प्रयोग करता है। यह शिक्षण क्रम की विभिन्न क्रियाओं से सम्बन्धित होता है‚ जिन्हें शिक्षक अपने कक्षा अंत:प्रक्रिया में लगातार प्रयोग करता है।’’
इण्डियन इन्स्टीट्‌यूट फॉर टीचर-एजुकेशन के अनुसार− ‘‘प्रमुख रूप से वे शिक्षण क्रियाएँ जो कि छात्रों में अपेक्षित परिवर्तन लाने में प्रभावी हैं‚ शिक्षण कौशल कहलाते हैं।’’
बी. के पासी के अनुसार−‘‘शिक्षण-कौशल वह विशिष्ट अनुदेशन प्रक्रिया है जिसे शिक्षक अपने कक्षा-शिक्षण में प्रयोग करता है। यह शिक्षण क्रम की विभिन्न क्रियाओं से सम्बन्धित होता है‚ जिन्हें शिक्षक अपने कक्षा अंत:प्रक्रिया में लगातार प्रयोग करता है।’’
शिक्षण कौशलों की विशेषताएँ-
• शिक्षण कौशल शिक्षा के उद्‌देश्यों को प्राप्त करने में सहायक होते हैं।
• शिक्षण कौशल कक्षा अंत:प्रक्रिया की परिस्थिति उत्पन्न करते हैं।
• शिक्षण कार्य को आधार प्रदान करते हैं।
• सीखने में सहायक होते हैं।
• शिक्षण को प्रभावी बनाने में सहायक होते हैं।
एलन तथा रायन ने 14 शिक्षण कौशलों को प्रमुख माना है।
1. पाठ प्रस्तावना कौशल किसी भी शिक्षण की शुरुआत का प्रथम चरण प्रस्तावना होती है।
प्रस्तावना से आशय भूमिका या विषय-वस्तु की सामान्य जानकारी से है। प्रस्तावना कौशल के प्रयोग में सर्वप्रथम शिक्षक पढ़ाये जाने वाले पाठ के बारे में छात्रों की जानकारी लेने के लिए प्रश्न करता है।
तदनुसार उनके पूर्व ज्ञान को नयी जानकारी से जोड़ते हुए शिक्षण करता है।
प्रस्तावना कौशल के घटक-
1. कथनों एवं प्रश्नों का छात्रों के पूर्व ज्ञान से सम्बन्ध
2. कथनों एवं प्रश्नों का मूलपाठ तथा उसके उद्‌देश्यों से सम्बन्ध
3. विचारों‚ कथनों एवं प्रश्नों में शृंखलाबद्धता
4. पाठ उद्‌देश्य एवं छात्र स्तर के उपयुक्त उपकरणों एवं साधनों का चयन एवं प्रयोग
5. उपयुक्त एवं समुचित अवधि विस्तार
6. छात्र ध्यान एवं रुचि आकर्षण
7. छात्रों को अभिप्रेरित करने की क्षमता
8. अध्यापक में उत्साह एवं सजगता
पाठ प्रस्तावना के विविध तरीके-
• पूर्व ज्ञान पर प्रश्न पूछकर
• कहानी या कविता सुनाकर
• उदाहरण या घटना बताकर
• प्रदर्शन या प्रयोग द्वारा‚ चार्ट‚ चित्र मॉडल के प्रयोग द्वारा
2. उद्‌देश्य लेखन कौशलराल्फ टायलर और रॉबर्ट गैने के अनुसार व्यवहारिक उद्‌देश्यों की निमनलिखित तीन उपयोगिताएँ हैं−
(i) शिक्षक शिक्षण आरम्भ करने के पूर्व यह निश्चित कर लेता है कि छात्र शिक्षणोपरांत किस प्रकार के कार्य का प्रतिपादन कर सकेंगे। छात्रों को किसी कार्य को करने के योग्य बनाने के लिए शिक्षक को विभिन्न क्रियाओं को करने में सहायता मिलती है।
(ii) कार्य मूल्यांकन में सहायता मिलती है।
(iii) छात्रों को यदि उद्‌देश्य की जानकरी रहती है तो वे उद्‌देश्य प्राप्त करने के लिए वांछित व्यवहार की दिशा में प्रयास करते हैं।
इसके अलावा इसकी निम्न उपयोगिता है−
(i) शिक्षार्थी की पाठ में रुचि जागृत होती है।
(ii) शिक्षण में स्पष्टता आती है।
(iii) शिक्षण अधिगम के प्रति क्रियाशीलता बढ़ती है।
उद्‌देश्य लेखन कौशल के घटक-
1. उद्‌देश्यों को छात्र व्यवहारपरक बनाना।
2. उद्‌देश्यों को निरीक्षण योग्य व्यवहार के रूप में व्यक्त करना।
3. व्यवहार किस परिस्थिति में होगा इसका स्पष्ट संकेत करना।
4. छात्रों के कार्य का न्यूनतम स्तर निर्धारित करना।
5. विषय-वस्तु के साथ उद्‌देश्यों का सार्थक सम्बन्ध बनाना।
3. प्रश्न कौशल शिक्ष ण कार्य‚ प्रश्नों की शृंखला में अग्रसर होता है। पाठ का उत्तरोत्तर विकास शिक्षण में प्रश्नों के द्वारा ही होता है। एतएव प्रश्न पूछने का कौशल शिक्षक में होना जरूरी है।
थ्रिंग के अनुसार− ‘‘शिक्षण का अर्थ कुशलता से प्रश्न करना है‚ यह शिक्षण का उत्तम साधन है।’’ बंकन के अनुसार−‘‘प्रश्न कौशल जिज्ञासा के साथ ज्ञान को स्वयं अन्वेषित करने की ओर प्रेरित करने वाला होना चाहिए।
जिज्ञासा ज्यों-ज्यों गहरी होती जाती है ज्ञान भी बढ़ता जाता है।’’
प्रश्न पूछने के उद्‌देश्य-
• प्रश्न पूर्व ज्ञान को नवीन ज्ञान से जोड़ते हैं।
• रुचि व जिज्ञासा को जागृत करते हैं।
• अधिगम समस्यों का ज्ञान होता है।
• क्रियाशीलता में वृद्धि होती है।
• पाठ शिक्षण को क्रमबद्ध बनाते हैं।
प्रश्नों के प्रकार-
• प्रस्तावना प्रश्न • विकासात्मक प्रश्न • समस्यात्मक प्रश्न • बोध प्रश्न • पुनरावृत्ति प्रश्न
प्रश्न कौशल के घटक-
1. संकेत तकनीकी का प्रयोग 2. विस्तृत सूचना प्राप्ति तकनीक का प्रयोग 3. पुन: केन्द्रीयकरण तकनीक का प्रयोग 4. पुन: प्रेक्षण तकनीकी का प्रयोग 5. आलोचनात्मक सजगता
प्रश्न कौशल से सम्बन्धित मुख्य बातें-
• प्रश्न स्पष्ट व सरल हो • प्रश्न प्रासंगिक हो • प्रश्न स्तरानुकूल हो • प्रश्नों में विविधता हो • भाषा बोधगम्य हो
• प्रश्न क्रमबद्ध हो
4. व्याख्या कौशल-
इस कौशल के प्रयोग में शिक्षक विविध प्रकरणों‚ तथ्यों को समझाने के लिए सरल से सरल भाव‚ विचार‚ उदाहरण के द्वारा क्रमिक व तार्किक रूप से विषय-वस्तु का प्रकटन करता है। इस कौशल की सफलता इस बात में निहित है कि शिक्षक पाठ का सम्पूर्ण व गहन ज्ञान रखता हो।
कौशल के घटक-
1. प्रारम्भिक कथनों का स्पष्टता से प्रयोग
2. निष्कर्षात्मक कथन स्पष्ट करना
3. भाषा में प्रवाह होना
4. उपयुक्त शब्दों का प्रयोग
5. कथनों में तारतम्यता होना
6. असम्बद्ध कथनों की अनुपस्थिति
7. विचारों को परस्पर जोड़ने वाले शब्दों का प्रयोग
5. दृष्टांत कौशल-
व्याख्या कौशल की एक प्रमुख विधि है उदाहरण द्वारा स्पष्टीकरण‚ इस दक्षता को ही दृष्टांत कौशल कहा जाता है। इस कौशल के प्रयोग में आगमन विधि का संयोजन किया जाता है।
लेण्डन के अनुसार− ‘‘उदाहरणों में न केवल स्पष्ट करने की क्षमता होती है‚ बल्कि यह ज्ञान को स्थायित्व प्रदान करने में भी मददगार है।’’ दृष्टान्त कौशल को बोधगम्य बनाने के उपाय-
• दृष्टांत सरल व स्पष्ट हो
• पाठ्‌यवस्तु से सम्बद्ध हो
• रुचिपूर्ण हो
• छात्रों के स्तानुकूल हो
• पाठ विकास में सहायक हो
कौशल के घटक-
1. सरल उदाहरणों का चयन
2. प्रासंगिक उदाहरण
3. उदाहरणों की व्याख्या का उचित माध्यम
4. उदाहरण में आगमन/निगमन विधि का उपयोग
5. उदाहरणों की उपयुक्त संख्या
6. छात्र सहभागिता कौशल् बाल केन्द्रित शिक्षण में छात्र सहभागिता जरूरी है। इस कौशल का मुख्य लक्ष्य छात्रों के सहयोग से‚ प्रतिक्रिया से पाठ का क्रमश: विकास करना है।
छात्र सहभागिता कौशल का प्रयोग कैसे करें-
• प्रश्न पूछकर
• चित्र बनवाकर
• रिक्त स्थान भरवाकर
• वाक्य अधूरे छोड़कर
• खेल‚ गीत‚ कविता‚ नाटक आदि द्वारा
कौशल के घटक-
1. प्रश्न पूछना 2. अनुशीलन प्रश्न पूछना 3. पुनर्बलन प्रयोग 4. विराम कौशल प्रयोग 5. छात्रों की शाब्दिक अनुक्रियाएँ 6. छात्रों द्वारा किये गये कार्य
7. उद्‌दीपन परिवर्तन कौशल छात्रों का ध्यान आकर्षित करने के लिए तथा ध्यान को पाठ में लगाये रखने के लिए शिक्षक अपने व्यवहार में जानबूझकर जो परिवर्तन लाता है उसे उद्‌दीपन परिवर्तन कौशल कहते हैं।
टेबर‚ ग्लेसर एवं सेफर के अनुसार−‘‘कोई परिस्थिति‚ घटना अथवा वातावरण में परिवर्तन से यदि छात्रों के व्यवहार में परिवर्तन होता है तो उसे उद्‌दीपन परिवर्तन कहते हैं।’’
उद्‌दीपन परिवर्तन कौशल के घटक- 1. यथोचित शरीर संचालन 2. हाव-भाव‚ भाव-भंगिमा का प्रयोग 3. भावों का केन्द्रीकरण 4. स्वरों में उतार-चढ़ाव 5. शिक्षक-शिक्षार्थी वार्तालाप में परिवर्तन 6. मौन
8. पुनर्बलन कौशल पुनर्ब लन से तात्पर्य ऐसे उद्‌दीपनों से है‚ जिनके प्रस्तुतीकरण या हटाने से क्रिया-अनुक्रिया के होने की सम्भावना अधिक हो जाती है।
स्किनर के अनुसार शिक्षक द्वारा विद्यार्थियों की प्रशंसा करना‚ उत्तर को स्वीकार करना या सिर हिलाने मात्र से ही विद्यार्थी पुनर्बलित हो जाता है।
पुनर्बलन का सकारात्मक प्रयोग छात्रों के वांछित व्यवहारों को प्रबल बनाने के लिए किया जाता है और ऋणात्मक पुनर्बलन द्वारा अवांछित व्यवहारों की पुनरावृत्ति को रोकने का प्रयास किया जाता है।
पुनर्बलन कौशल के घटक-
• प्रोत्साहन देने वाले कथनों का प्रयोग
• छात्र प्रतिक्रिया का आदर
• हाव-भाव व अन्य शाब्दिक संकेतों का प्रयोग
• नकारात्मक शाब्दिक संकेतों का प्रयोग
• नकारात्मक अशाब्दिक संकेतों का प्रयोग
• छात्रों के सही उत्तर को श्यामपट्‌ट पर लिखना
हल के अनुसार−‘‘पुनर्बलन एक प्रकार का पारितोषिक है। यह एक उद्‌दीपक है‚ जो विशेष अनुक्रियाओं की सम्भावनाओं को परिवर्तित करने की क्षमता रखता है।’’
• पुनर्बलन का प्रत्यय स्किनर के क्रियाप्रसूत अनुबंधन सिद्धान्त का केन्द्र बिन्दु है।
9. श्यामपट्‌ट लेखन कौशल प्रत्येक शिक्षक के लिए अनिवार्य है कि उसे श्यामपट्‌ट लेखन में दक्षता प्राप्त हो। श्यामपट्‌ट प्रयोग से श्रवणेन्द्रिय और नेत्रेन्द्रिय दोनों में सक्रियता रहती है‚ जिससे विषय-वस्तु की बोधगम्यता बढ़ जाती है। इसे शिक्षण का विकासात्मक कौशल भी कहते हैं।
श्यामपट्‌ट कार्य की सावधानियाँ-
1. श्यामपट्‌ट लेख सुन्दर‚ आकर्षक तथा स्पष्ट होना चाहिए।
2. विशिष्ट बिन्दुओं को दर्शाने के लिए रंगीन चाक का प्रयोग करना चाहिए।
3. चित्र‚ रेखाचित्र आदि अभ्यास के बाद स्पष्ट रूप से बनाये जायें।
4. श्यामपट्‌ट सार मुख्य-मुख्य बिन्दुओं के रूप में दिया जाना चाहिए।
5. श्यामपट्‌ट पर लिखी सामग्री क्रमबद्ध होनी चाहिए।
6. शिक्षक को श्यामपट्‌ट के एक ओर खड़ा होकर लिखना चाहिए ताकि छात्र श्यामपट्‌ट को पूर्णत: देख सकें।
7. श्यामपट्‌ट पर अनावश्यक बिन्दु न लिखें।
8. श्यामपट्‌ट पर लिखते समय चॉक की आवा़ज नहीं होनी चाहिए।
9. प्रयोग के बाद चॉक और डस्टर को यथास्थान रख देना चाहिए।
श्यामपट्‌ट का महत्व-
• प्रारम्भिक सूचना देने में सहायक
• विषय की व्याख्या व विश्लेषण में सहायक
• चित्र-मानचित्र‚ रेखाचित्र बनाकर समझ बढ़ाने में सहायक
• समूह शिक्षण में उपयोगी
• शिक्षण की गुणवत्ता में वृद्धि
10. पुनरावृत्ति कौशल् शिक्ष ण कार्य कितना सफल रहा इसका मापन अभ्यास प्रश्नों द्वारा किया जाता है‚ इसे ही पुनरावृत्ति कौशल कहा जाता है। इस कौशल के प्रयोग में पढ़ाये गये पाठों‚ प्रसंगों‚ तथ्यों को दोहरवाया जाता है‚ जिससे अधिगम स्थायी होने के साथ-साथ त्रुटि रहित भी होता है।
पुनरावृत्ति कौशल को स्थायीकरण कौशल भी कहते हैं।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *