हिलगॉर्ड ने अपनी पुस्तक में 10 से भी अधिक सीखने के सिद्धान्तों का वर्णन किया है‚ जिसमें से कुछ प्रमुख सिद्धान्त निम्नलिखित हैं−
थॉर्नडाइक का सीखने का सिद्धान्त
इस सिद्धान्त को *‘प्रयत्न व भूल का सिद्धान्त’ या ‘प्रयास व त्रुटि का सिद्धान्त’ या उद्दीपक-अनुक्रिया सिद्धान्त‚ सम्बन्धवाद या बन्धन सिद्धांत भी कहा जाता है। इ.एल. थॉर्नडाइक ने प्रयत्न व भूल के इस सिद्धान्त के बारे में बताते हुए कहा कि‚ जब व्यक्ति कोई कार्य सीखता है तब उसके सामने एक विशेष स्थिति या उद्दीपक
(Stimulus) होता है‚ जो उसे विशेष प्रकार की प्रतिक्रिया करने के लिए प्रेरित करता है। इस प्रकार एक विशिष्ट उद्दीपक का एक विशिष्ट अनुक्रिया (Response) से सम्बन्ध स्थापित हो जाता है तो उसे उद्दीपक−अनुक्रिया सम्बन्ध कहते हैं। यह उद्दीपक-अनुक्रिया सम्बन्ध अधिगमकर्ता द्वारा किये गये प्रतिक्रिया के परिणामों पर निर्भर करता है।
थॉर्नडाइक का प्रयोग−
थॉर्नडाइक अमेरिका के एक प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक थे। इन्होंने बिल्ली‚ चूहे‚ मुर्गी आदि पशु-पक्षियों पर प्रयोग करके यह निष्कर्ष निकाला कि पशु-पक्षी व बच्चे प्रयत्न व भूल द्वारा सीखते हैं। अपने एक प्रयोग में इन्होंने एक भूखी बिल्ली को पिंजड़े में बंद कर दिया और पिंजड़े के बाहर भोज्य सामग्री रख दी। बिल्ली के लिए भोजन उद्दीपक था।
उद्दीपक के कारण उसमें प्रतिक्रिया आरम्भ हुई। बिल्ली ने बाहर निकलकर भोजन प्राप्त करने के लिए कई प्रयत्न किये और पिंजड़े के चारों ओर घूमकर कई पंजे मारे और प्रयत्न करते-करते उस लिवर को दबा दिया‚ जिससे पिंजड़े का दरवाजा खुलता था। दोबारा फिर बंद करने पर बाहर उसे आने के लिए पहले से कम समय में ही सफलता मिल गयी। तीसरे और चौथे प्रयास में और भी कम प्रयत्नों में सफलता मिल गयी और एक परिस्थिति आई‚ जब एक बार में ही वह दरवाजा खोलकर बाहर आने लगी।
थॉर्नडाइक के प्रयोग का रेखाचित्रीय निरूपण थॉर्नडाइक ने बिल्ली के द्वारा सीखने की इस प्रक्रिया का विश्लेषण किया तथा सीखने के लिए दो बातों को अत्यन्त महत्वपूर्ण माना−(i) बिल्ली भूखी होनी चाहिए अर्थात् सीखने के लिए अभिप्रेरणा का होना आवश्यक है तथा (ii) बिल्ली की भूख को संतुष्ट करने के लिए भोजन का होना जरूरी है जो पुनर्बलन का कार्य कर सके। दूसरे शब्दों में सीखने के लिए पुनर्बलन केन्द्रीय तत्व है तथा अनुक्रिया का संतोषजनक परिणाम ही उद्दीपक-अनुक्रिया बन्धन को सुदृढ़ कर सकता है।
थार्नडाइक के प्रयोग के आधार पर कहा जा सकता है कि बिल्ली द्वारा पिंजरा खोलना सीखने की प्रक्रिया में निम्न सोपान आते हैं−
(i) चालक (Drive)– इस प्रयोग में भूख ने चालक का कार्य किया जिसे पिंजरे के बाहर रखे भोजन ने अधिक सक्रिय किया।
(ii) लक्ष्य− पिंजरे से बाहर आकर भोजन प्राप्त करना ही बिल्ली का लक्ष्य था।
(iii) अवरोध− पिंजरे में बंद करके रखना ही बिल्ली के लक्ष्य की प्राप्ति में अवरोध था।
(iv) अनियमित क्रियाएँ− पिंजरा खोलने का तरीका जाने बिना बिल्ली ने अनियमित क्रियाएँ करके बाहर आने का प्रयास किया।
(v) संयोगवश सफलता− लगातार किये गये तरह−तरह के प्रयासों के दौरान संयोगवश बिल्ली पिंजरे का दरवाजा खोलने में सफल हो गयी।
(vi) सही अनुक्रिया का चयन− धीरे−धीरे बिल्ली ने खटके को दबाने के सही ढंग को पहचान लिया।
(vii) दृढ़ीकरण− अंत में बिल्ली ने गलत अनुक्रियाओं का त्याग करते हुए खटके को दबाकर खोलने के ढंग को सीख लिया एवं केवल सही अनुक्रिया को सुदृढ़ किया।
इसी प्रकार मैक्डूगल ने भी कई प्रयोग किये और इन्होंने भी यही निष्कर्ष निकाला कि पशु या मनुष्य जितनी बार प्रयत्न करता है‚ उतनी ही उसकी भूलें कम होती जाती है और वह सफल क्रिया करना सीख लेता है।
प्रयास व त्रुटि के सिद्धान्त का शिक्षा में महत्व-
• इस विधि से अनुभव से लाभ उठाने की क्षमता का विकास होता है।
• भाषा में शुद्ध उच्चारण बालक इस विधि से सीख सकता है।
• यह सिद्धान्त करके सीखने पर बल देता है‚ जो कि आधुनिक समय में बहुत उपयोगी है।
• यह सिद्धान्त बड़े व मंद बुद्धि बालकों के लिए बहुत उपयोगी है।
• इस विधि से सीखने सिखाने की क्रिया सरल हो जाती है।
• इस सिद्धान्त से परिश्रम व धैर्य के गुणों का विकास होता है।
• साइकिल चलाना गणित के प्रश्न हल करना‚ कलाकृतियाँ बनाना आदि सभी में इस सिद्धान्त का विशेष महत्व है।
प्रयास व त्रुटि सिद्धान्त के मुख्य बिन्दु
(i) अधिगम में प्रयास व त्रुटि समाहित रहती है।
(ii) अधिगम सम्बन्धों या बन्धनों के बनने का परिणाम है।
(iii) अधिगम सूझ या अंतर्दृष्टि से नहीं होता है।
(iv) अधिगम संज्ञान पर आधारित न होकर प्रत्यक्ष होता है।
(v) अधिगम में पुनर्बलन केन्द्रिय तत्व है।
पॉवलव का सम्बद्ध प्रतिक्रिया सिद्धान्त
इस सिद्धान्त का प्रतिपादन इवान पी. पॉवलन ने किया था। इस सिद्धान्त को ‘क्लासिकल अनुबंधन सिद्धान्त’‚ अनुकूलित अनुक्रिया सिद्धान्त या अनुबन्धित अनुक्रिया सिद्धान्त भी कहते हैं। इन्होंने सबसे पहले उद्दीपन और अनुक्रिया के सम्बन्ध को अनुबंध द्वारा व्यक्त किया।
पॉवलव का प्रयोग−
पॉवलव रूस के शरीरशास्त्री थे। इन्होंने अपना प्रयोग कुत्ते पर किया। कुत्ते को एक निश्चित समय पर भोजन दिया जाता था‚ जिसे देखते ही उसके मुँह से लार टपकने लगता था। कुछ दिनों बाद भोजन देने से पहले घण्टी बजायी जाने लगी। इन्होंने स्वभाविक उद्दीपक (भोजन) को कृत्रिम उद्दीपक (घण्टी की आवाज) के साथ जोड़ दिया‚ जिसके फलस्वरूप कुत्ता घंटी बजते ही लार टपकाने लगता था। कुछ दिनों बाद उन्होंने घंटी तो बजायी किन्तु भोजन नहीं दिया इसके बावजूद कुत्ते ने लार टपकायी। इस प्रकार कृत्रिम उद्दीपक
(घंटी की आवाज) और स्वभाविक अनुक्रिया (लार) के मध्य सम्बन्ध स्थापित हो गया‚ जिसे उन्होंने सम्बद्ध प्रतिक्रिया कहा।
स्वभाविक उद्दीपक (UCS) (भोजन)– स्वभाविक अनुक्रिया (UCR) (लार)
कृत्रिम उद्दीपक + स्वभाविक उद्दीपक (घंटी की आवाज) + (भोजन)– स्वभाविक अनुक्रिया (लार)
कृत्रिम उद्दीपक (घंटी की आवाज) या अनुबंधित उद्दीपक (C.S.) – स्वभाविक अनुक्रिया (लार) या अनुबंधित अनुक्रिया (C.R.)
UCS → Unconditioned Stimulus
UCR → Unconditioned Response
CS → Conditioned Stimulus
CR → Conditioned Response
सम्बन्ध प्रतिक्रिया सिद्धान्त का शिक्षा में महत्व-
• इससे अच्छे आचरण व अनुशासन की भावना का विकास किया जा सकता है।
• यह सीखने की स्वभाविक विधि है।
• इसकी सहायता से बुरी आदतों और भय सम्बन्धी रोगों का उपचार कर सकते हैं।
• अनुकूल कार्य करवाने में इस सिद्धान्त का प्रयोग करना चाहिए।
दूसरे शब्दों में‚ * इस सिद्धांत का प्रयोग करके व्यवहार को अनुकूलित किया जा सकता है।
• यह सिद्धान्त बालकों के सामाजीकरण करने व वातावरण से सामंजस्य स्थापित करवाने में सहायक है।
• यह सिद्धान्त उन विषयों की शिक्षा में उपयोगी है‚ जिनमें चिंतन की आवश्यकता नहीं होती है‚ जैसे सुलेख‚ अक्षर विन्यास आदि।
अनुबंधित अनुक्रिया के अंग (i) उत्तेजना (ii) विलोपन (iii) स्वत: पुनर्लाभ (iv) उद्दीपक सामान्यीकरण (v) उद्दीपक विभेदन (vi) वाह्य अवरोध (vii) कालिक क्रम (viii) द्वितीय कोटि अनुबंधन (ix) पुनर्बलन
स्किनर का क्रियाप्रसूत अनुबंधन सिद्धान्त
• सीखने के क्रिया प्रसूत अनुबंध सिद्धान्त के प्रवर्तक प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक स्कीनर थे। स्किनर ने अधिगम के क्षेत्र में अनेक प्रयोग करते हुए यह निष्कर्ष निकाला कि व्यवहार की पुनरावृत्ति तथा परिमार्जन उसके परिणामों के द्वारा निर्देशित होता है। व्यक्ति व्यवहार का संचालन करता है‚ जबकि इसको बनाये रखना इसे प्राप्त परिणामों पर निर्भर करता है। स्किनर के द्वारा इस प्रकार के व्यवहार को क्रियाप्रसूत व्यवहार एवं इस प्रकार के व्यवहार को सीखने की प्रक्रिया को क्रियाप्रसूत अनुबंधन के नाम से सम्बोधित किया गया। प्रयोज्य की अनुक्रियाओं का पुनर्बलन के लिए अनुबंधन का एक निमित्त (Instrumental) होने के कारण * इस सिद्धांत को नैमित्तिक या यांत्रिक या साधनात्मक अनुबन्धन सिद्धांत (Instrumental Conditioning Theory) के नाम से भी संबोधित किया जाता है।
स्किनर का प्रयोग
स्किनर ने ‘स्किनर बाक्स’ में एक भूखे चूहे को बंद कर दिया। कुछ देर उछलने-कूदने के बाद चूहे के पैर से लीवर दब गया जिससे घंटी की आवाज के साथ भोजन तस्तरी में भोजन का टुकड़ा गिर गया। भोजन देखकर चूहा उसे खा लेता है। इस प्रकार के कुछ प्रयासों के बाद चूहा लीवर दबाकर तश्तरी में भोजन गिराना सीख लेता है।
• इसी प्रकार इन्होंने कबूतर पर भी कई प्रयोग किया और निष्कर्ष निकाला कि अनुक्रियाएँ दो प्रकार की होती हैं−(i) प्रतिवादित व्यवहार या अनुक्रिया‚ (ii) क्रिया प्रसूत व्यवहार या अनुक्रिया।
• प्रतिवादित व्यवहार को उद्दीपन प्रसूत व्यवहार भी कहते हैं तथा इस प्रकार के अनुक्रिया ज्ञात उद्दीपकों के नियंत्रण में रहते हैं तथा इनकी प्रकृति अनैच्छिक होती है जैसे−प्रकाश पड़ने पर आँखों का झपकना‚ भोजन देखकर मुँह में लार आना‚ पिन चुभने पर दर्द होना आदि।
• क्रिया प्रसूत व्यवहार उद्दीपकों के नियंत्रण में नहीं रहती है।
वस्तुत: क्रियाप्रसूत व्यवहार का कारण महत्वपूर्ण नहीं होता है वरन् प्राणी के व्यवहार का परिणाम महत्वपूर्ण होता है।
पुनर्बलन− पुनर्बलन से तात्पर्य किसी अपेक्षित अनुक्रिया के प्रतिफल के रूप में किसी ऐसे सुखकारी उद्दीपक की प्रस्तुति है जो प्राणी को अपेक्षित अनुक्रिया बार-बार करने के लिए प्रेरित करता है। पुनर्बलन देने वाले उद्दीपक को पुनर्बलक कहते हैं।
पुनर्बलक− पुनर्बलक वह उद्दीपक है जिसकी प्रस्तुति अथवा विलगता से अनुक्रिया के दोहराये जाने की प्रायिकता बढ़ जाती है।
धनात्मक पुनर्बलक− धनात्मक पुनर्बलक की प्रस्तुति में अनुक्रिया के दोहराये जाने की प्रायिकता बढ़ जाती है जैसे−भोजन‚ पानी‚ प्रशंसा आदि।
ऋणात्मक पुनर्बलक− ऋणात्मक पुनर्बलक के हटाये जाने पर अनुक्रिया के दोहराये जाने की प्रायिकता बढ़ जाती है जैसे−तेज शोर‚ विद्युताघात‚ निन्दा आदि।
• स्किनर के क्रियाप्रसूत अनुबंधन सिद्धान्त में पुनर्बलन का विशेष महत्व है।
• स्किनर ने ‘दण्ड’ को पुनर्बलक की श्रेणी में नहीं माना है।
क्रिया प्रसूत अनुबंधन का शिक्षा में महत्व-
• इसका प्रयोग बालकों के शब्द भण्डार में वृद्धि के लिए किया जाता है।
• यह सिद्धान्त जटिल व्यवहार वाले तथा मानसिक रोगियों को वांछित व्यवहार के सीखने में विशेष रूप से सहायक होता है।
• यह सिद्धान्त अच्छे कार्य अथवा अर्जित सफलता अथवा वांछनीय व्यवहार के लिए तत्काल पुनर्बलन पर बल देता है।
• इस सिद्धान्त के द्वारा माता-पिता व अध्यापकों के द्वारा बालकों में अच्छी आदतों का निर्माण किया जा सकता है।
• अभिक्रमित अधिगम का प्रतिपादन तथा शिक्षण मशीन का विकास इस सिद्धान्त के व्यावहारिक उपयोग का ही परिणाम है।
• यह सिद्धान्त किये गये कार्य के परिणाम की जानकारी यथाशीघ्र देने पर बल देता है।
• गणित में पहाड़े‚ भाषा में वर्तनी‚ विलोम‚ मुहावरे आदि याद करते समय इस सिद्धान्त का प्रयोग किया जा सकता है।
अधिगम के सिद्धान्त एवं प्रतिपादक
1. उद्दीपक−अनुक्रिया सिद्धान्त – इ. एल. थॉर्नडाइक
2. क्लासिकल अनुबंधन सिद्धान्त – इवान पी0 पॉवलव
3. क्रियाप्रसूत अनुबंधन सिद्धान्त – बी0 एफ0 स्किनर
4. सीखने का प्रबलन सिद्धान्त – क्लॉर्क एल0 हल
5. समीपता अनुबंधन सिद्धान्त – एडविन रे गुथरी
6. अंतर्दृष्टि अधिगम सिद्धान्त – वोल्फगैंग कोहलर
7. चिन्ह अधिगम सिद्धान्त – एडवर्ड चेस टालमैन
8. अधिगम का क्षेत्र सिद्धान्त – कुर्ट लेविन
9. सामाजिक अधिगम सिद्धान्त – अल्बर्ट बण्डूरा
10. मानवतावादी अधिगम सिद्धान्त – अब्राहम मैस्लो
11. सूचना प्रक्रिया अधिगम सिद्धान्त – कार्ल रोजर्स
12. संज्ञानात्मक अधिगम सिद्धान्त – जीरोम ब्रुनर
13. आधुनिक संज्ञानात्मक सिद्धान्त – डेविड आसूबेल
14. अनुकरण अधिगम सिद्धान्त – मिलर डोलार्ड
15. निर्माणिक अधिगम सिद्धान्त – सिमोर पेपर्ट
कोहलर का सूझ या आंतर्दृष्टि का सिद्धान्त
सीखने के इस सिद्धान्त को गेस्टाल्ट सिद्धान्त या समग्र सिद्धान्त के नाम से भी जाना जाता है। इस सिद्धान्त के प्रतिपादकों में जर्मनी के चार प्रमुख मनोवैज्ञानिक− मैक्स वर्दाइमर‚ वोल्फगैंग कोहलर‚ कुर्ट कोफ्का तथा कुर्ट लेविन प्रमुख थे। इस सिद्धान्त के अनुसार सीखने का केन्द्रिय बिन्दु सूझ होता है। सूझ द्वारा सीखने से तात्पर्य परिस्थिति को पूर्णतया समझकर सीखना है। यह सूझ प्राय: अचानक
(अकस्मात) तथा स्वत: स्फूर्त ढंग से आती है इसके लिए अभ्यास की आवश्यकता नहीं होती है।
गुड के अनुसार− ‘‘सूझ वास्तविक स्थिति का आकस्मिक और तत्कालिक ज्ञान है।
कोहलर का प्रयोग−
कोहलर ने सुल्तान नामक चिंपांजी पर अपना प्रयोग किया।
पहले प्रयोग में कोहलर ने सुल्तान को एक पिंजरे में बंद कर दिया जिसकी छत पर केला लटका था और कमरे में एक बॉक्स रखा था।
कुछ देर उछल-कूद करने के बाद वह बॉक्स पर चढ़कर केला प्राप्त कर लेता है। इसी प्रकार कई अन्य प्रयोग करके कोहलर ने यह निष्कर्ष निकाला कि समस्या के आने पर व्यक्ति को अपनी मानसिक शक्ति द्वारा पूर्ण परिस्थिति का बोध हो जाता है और सूझ द्वारा अचानक उसका हल निकल आता है।
सूझ की विशेषताएँ-
• *सीखने की प्रकृति संज्ञानात्मक होती है।
• सूझ अचानक पैदा होती है।
• सीखने की प्रकृति लगभग स्थायी होती है।
• सूझ के लिए समस्यात्मक परिस्थिति का होना अनिवार्य है।
• सीखने की प्रक्रिया यंत्रवत नहीं होती है।
• सीखने की प्रक्रिया में सूझ स्वत: स्फूर्त होती है।
• सूझ प्राणी के लक्ष्य और समाधान के बीच एक स्पष्ट सम्बन्ध की सूचक होती है।
• सूझ में समस्या का समाधान स्वत: मानसिक चिंतन करने से मिल जाता है।
सूझ या अंतर्दृष्टि का शिक्षा में महत्व-
• यह सिद्धान्त रचनात्मक कार्यों के लिए उपयोगी है।
• इस सिद्धान्त से तर्क‚ कल्पना व चिंतन शक्ति का विकास होता है।
• विज्ञान‚ गणित जैसे विषयों के शिक्षण में यह बहुत उपयोगी है।
• साहित्य‚ संगीत कला आदि की शिक्षा के लिए बहुत उपयोगी है।
• यह सिद्धान्त बालकों को स्वयं खोज करके ज्ञान अर्जित करने के लिए प्रेरित करता है।
• विद्यालय में बालक के समस्या समाधान पर आधारित अधिकांश सीखने में यह विधि उपयोगी है।
पियाजे का सिद्धान्त
स्विस मनोवैज्ञानिक पियाजे के अनुसार‚ जैसे-जैसे बच्चे की आयु बढ़ती है‚ उसका कार्य क्षेत्र बढ़ता जाता है। वैसे-वैसे उसकी बुद्धि का विकास भी होता जाता है। उन्होंने स्पष्ट किया कि पहले बच्चा सरल प्रत्ययों के माध्यम से सीखता है। परन्तु जैसे-जैसे बच्चा बड़ा होता है। कठिन से कठिनतम् प्रत्ययों को ग्रहण करने लगता है।
इसके लिए उपयुक्त वातावरण की आवश्यकता होती है।
इन्होंने कहा‚ सीखना कोई यांत्रिक क्रिया नहीं है बल्कि एक बौद्धिक प्रक्रिया है‚ एक सम्प्रत्यय निर्माण की प्रक्रिया है। और यह सम्प्रत्यय निर्माण बालक की आयु के अनुसार होता है।
पियाजे ने अपने सिद्धान्त में निम्नलिखित पदों पर बल दिया−
1. संगठन (Organization)–संगठन से तात्पर्य प्राप्त नवीन सूचनाओं को बौद्धिक संरचनाओं में व्यवस्थित करने से होता है।
2. संज्ञानात्मक या बौद्धिक संरचना (Cognitive Structure)–बच्चे के मानसिक संगठन या क्षमताओं को बौद्धिक संरचना कहते हैं।
3. अनुकूलन (Adaptation) – अनुकूलन वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यक्ति अपने पूर्व ज्ञान तथा नवीन अनुभवों के मध्य संतुलन स्थापित करता है।
4. आत्मसातकरण (Assimilation) – आत्मसात्करण से तात्पर्य नवीन अनुभवों को पूर्ववर्ती विद्यमान बौद्धिक संरचनाओं में यथावत् व्यवस्थित करने से है।
5. समाविष्टीकरण (Accomodation) – समाविष्टीकरण से तात्पर्य नवीन अनुभवों की दृष्टि से पूर्ववर्ती बौद्धिक संरचनाओं में सुधार करने‚ विस्तार करने या परिवर्तन करने से है।
6. साम्यधारण (Equilibration) – साम्यधारण एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा बालक आत्मसात्करण तथा समायोजन की प्रक्रियाओं के बीच एक संतुलन कायम करता है।
7. मानसिक क्रिया (Mental Operation)–जब व्यक्ति किसी कार्य को करने के लिए चिंतन करता है तो उसे मानसिक क्रिया कहते हैं।
8. स्कीमा (Schema) – स्कीमा एक प्रकार का सूचनाओं या अनुभवों का ढाँचा होता है। व्यक्ति किसी वस्तु या विचार के प्रति इसी ढाँचे के अनुसार प्रतिक्रिया करता है।
9. स्कीम्स (Schemes) – किसी काम को करने के लिए हमारे पास विभिन्न प्रकार के तथ्य होते हैं‚ उसे स्कीम्स कहते हैं।
10. संरक्षण (Conservation)– किसी वस्तु के रूप-रंग में परिवर्तन को उस वस्तु के तत्व में परिवर्तन से अलग करने की क्षमता को संरक्षण कहते हैं। यह मूर्त संक्रियात्मक अवस्था की मुख्य विशेषता है।
11. पलटावी या विचारों की विलोमीयता (Reversibility)– पलटावी से तात्पर्य मानसिक क्रम के प्रारम्भिक बिन्दु पर पुन: लौट पाने की समर्थता से है। यह मूर्त संक्रियात्मक अवस्था की विशेषता है।
12. विकेन्द्रीकरण (Decentering)–किसी वस्तु की एक ही विशेषता के बारे में न सोचकर उसके अलग-अलग पहलुओं के बारे में सोचना विकेन्द्रीकरण कहलाता है। यह औपचारिक संक्रिया अवस्था की मुख्य विशेषता है। पियाजे ने संज्ञानात्मक विकास की चार अवस्थाएँ बतायी−
(i) संवेदी पेशीय अवस्था (ii) प्राक् संक्रियात्मक अवस्था (iii) मूर्त संक्रिया की अवस्था (iv) औपचारिक संक्रिया की अवस्था
पियाजे के सीखने के सिद्धान्त की विशेषताएँ-
• सीखना एक क्रमिक एवं आरोही प्रक्रिया है।
• पीयाजे के अनुसार बच्चों में चिंतन एवं खोज करने की शक्ति उसकी जैविक परिपक्वता‚ अनुभव एवं इन दोनों के अंतर्क्रिया पर निर्भर करता है।
• बालक के अमूर्त चिंतन पर उसकी शिक्षा का प्रभाव पड़ता है।
निम्न स्तर पर अमूर्त चिंतन कम व उच्च शिक्षा स्तर पर अधिक होता है।
• पियाजे के अनुसार सीखने का पर्यावरण और क्रिया मूल आवश्यकताएँ हैं।
पियाजे के सिद्धान्त का शिक्षा में उपयोग-
• यह सिद्धान्त बालकों द्वारा स्वक्रिया पर बल देता है।
• सीखने में प्रगति न करने वालों को दण्ड नहीं देना चाहिए।
• इस सिद्धान्त के अनुसार शिक्षक को खेल व अनुकरण द्वारा सिखाना चाहिए।
• इस सिद्धान्त के अनुसार विभिन्न आयु वर्ग के लिए विभिन्न प्रकार के पाठ्यक्रम का निर्माण करना चाहिए।
वाइगोत्सकी का सिद्धान्त
वाइगोत्सकी ने संज्ञानात्मक विकास में सामाजिक अंतर्क्रिया पर अधिक बल दिया और कहा कि समुदाय का सीखने में बहुत महत्व है। इनके अनुसार सामाजिक अधिगम की प्रक्रिया विकास के पहले ही आरम्भ हो जाती है।
• वाइगोत्सकी के अनुसार बालक जिस आयु में भी कोई संज्ञानात्मक कौशल सीखता है‚ उसका अधिगम इस बात पर निर्भर करता है कि उसकी संस्कृति में वह कौशल कितना स्वीकार्य है। उनके मतानुसार संज्ञानात्मक विकास एक अंतर्वैयक्तिक सामाजिक परिस्थिति में सम्पन्न होता है।
• सम्भावित विकास का क्षेत्र (ZPD)–बालक द्वारा बिना सहायता के किये जाने वाले कार्य और कुशल व्यक्ति की सहायता से किये जाने वाले कार्य के मध्य के अन्तर को सम्भावित विकास का क्षेत्र (Zone of Proximal Development) कहा गया।
• ढाँचा निर्माण (Scaffolding)–ढाँचा निर्माण विकास के सम्भावित क्षेत्रों से सम्बन्धित प्रत्यय है। वाइगोत्सकी के अनुसार संवाद ढाँचा निर्माण का महत्वपूर्ण औ़जार है। बच्चों के पास अव्यवस्थित तथा असंगठित सम्प्रत्यय होते हैं जबकि कुशल व्यक्ति के पास संगठित तथा व्यवस्थित सम्प्रत्यय होते हैं। इन दोनों के मध्य संवाद के परिणामस्वरूप बच्चे के विचार भी क्रमबद्ध तथा संगठित हो जाते हैं‚ यही ढाँचा निर्माण कहलाता है।
• भाषा और विचार−वाइगोत्सकी के अनुसार बच्चे भाषा का प्रयोग न केवल सामाजिक सम्प्रेषण अपितु स्व-निर्देशित तरीके से कार्य करने के लिए‚ अपने व्यवहार हेतु योजना बनाने‚ निर्देश देने व मूल्यांकन करने में भी करते हैं। इसे निज भाषा या आंतरिक भाषा कहा जाता है।
वाइगोत्सकी के सिद्धान्त की मुख्य विशेषताएँ-
• संस्कृति संज्ञानात्मक विकास को दिशा देती है।
• संज्ञानात्मक विकास में सामाजिक कारक का बहुत महत्व है।
• सीखने में शिक्षक का महत्वपूर्ण स्थान होता है।
• ज्ञान सामाजिक सन्दर्भ में होता है।
• बच्चे ज्ञान का सृजन करते हैं।
• संज्ञानात्मक विकास में भाषा का महत्वपूर्ण योगदान है।
वाइगोत्सकी के सिद्धान्त का शिक्षा में महत्व-
• निजी भाषा के विकास के लिए उपयुक्त वातावरण व सहयोग उपलब्ध कराना चाहिए।
• संवाद और चर्चा का उपयोग करते हुए बालक को समस्या समाधान के लिए मौखिक संकेतों और संरचनाओं का उपयोग करते हुए मदद प्रदान करना चाहिए।
• पारस्परिक शिक्षण को बढ़ावा देना चाहिए।
• सहयोगी अधिगम के लिए छात्रों को प्रेरित करना चाहिए।
सीखने के वक्र
सीखने के वक्र का अर्थ एवं परिभाषा सीखने की मात्रा तथा समय अथवा अभ्यास के परस्पर सम्बन्ध को चित्रांकित करने पर जो वक्र रेखा प्राप्त होती है उसे अधिग वक्र रेखा कहा जाता है। दूसरे शब्दों में सीखने का वक्र सीखने में होने वाली उन्नति या अवनति को व्यक्त करता है। अधिगम वक्र से समय के साथ सीखने में होने वाली सफलता का ज्ञान होता है।
• गेट्स व अन्य के अनुसार− *‘‘सीखने के वक्र अभ्यास द्वारा सीखने की मात्रा‚ गति और उन्नति की सीमा का ग्राफ पर प्रदर्शन करते हैं।’’
सीखने के वक्र के प्रकार-
अधिगम वक्र मुख्यत: चार प्रकार के होते हैं−
(i) सरल रेखीय वक्र (Straight line Curve)
(ii) उन्नतोदर वक्र (Convex Curve)
(iii) नतोदर वक्र (Concave Curve)
(iv) मिश्रित वक्र (Combination type Curve)
(i) सरल रेखीय वक्र− इसे समान निष्पादन वक्र अथवा रेखीय त्वरण वक्र भी कहते हैं। जब समय के साथ-साथ अधिगम की मात्रा में समान रूप से वृद्धि होती है तब सरल रेखीय वक्र प्राप्त होता है।
(ii) उन्नतोदर वक्र− इस वक्र में समय अथवा प्रयासों के साथ अधिगम की मात्रा धीरे-धीरे कम होने लगती है तथा अन्त में वक्र एक क्षैतिज रेखा अथवा पठार के रूप में हो जाता है‚ जो इंगित करता है कि अब अभ्यास करने पर भी सीखने की मात्रा में कोई उन्नति करना सम्भव नहीं है। इसे नकारात्मक गति वक्र भी कहा जाता है।
(iii) नतोदर वक्र− नतोदर वक्र में समय अथवा प्रयासों के साथ अधिगम की मात्रा में अधिक वृद्धि हो जाती है। इसे सकारात्मक गति वक्र भी कहा जाता है।
(iv) मिश्रित प्रकार का वक्र− वास्तव में नतोदर तथा उन्नतोदर वक्र का मिला-जुला रूप मिश्रित प्रकार का वक्र में होता है। इसे S प्रकार का वक्र भी कहते हैं।
सीखने के वक्र की विशेषताएँ-
1. सीखने में उन्नति− सीखने के वक्र को हम मोटे तौर पर तीन अवस्थाओं में बाँट सकते हैं−प्रारम्भिक‚ मध्य व अन्तिम। सीखने की गति समान नहीं होती‚ अन्तिम अवस्था की तुलना में प्रारम्भिक अवस्था में उन्नति बहुत तीव्र होती है।
2. प्रारम्भिक अवस्था− प्रारम्भिक अवस्था में सीखने की गति में तीव्रता होती है‚ परन्तु यह सार्वभौम विशेषता नहीं है।
3. मध्य अवस्था− जैसे-जैसे व्यक्ति अभ्यास करता जाता है‚ वैसे- वैसे वे सीखने में उन्नति करता जाता है। परन्तु उन्नति का रूप स्थायी नहीं होता‚ कभी-कभी उन्नति तीव्र होती है कभी कम।
4. अन्तिम अवस्था− जैसे-जैसे सीखने की अंतिम अवस्था आती है वैसे-वैसे सीखने की गति धीमी पड़ जाती है और एक अवस्था ऐसी आती है‚ जब व्यक्ति सीखने की सीमा पर पहुँच जाता है।
5. सीखने की गति अनेक बातों पर निर्भर करती है जैसे सीखने वाले की रुचि‚ प्रेरणा‚ जिज्ञासा‚ उत्साह‚ कार्य की सरलता या जटिलता आदि।
6. सीखने के वक्र में चार भाग होते हैं−प्रारम्भिक स्फुरण‚ मध्य स्फूरण‚ पठार‚ तथा अंतिम स्फूरण एवं शारीरिक सीमा।
सीखने में पठार
अधिगम वक्रों में कभी कभी देखा जाता है कि अधिगम वक्र का कुछ भाग अत्यन्त कम उन्नति को प्रदर्शित करता है। नगण्य उन्नति को प्रदर्शित करने वाले इस प्रकार के भाग अधिगम के पठार कहलाते हैं। दूसरे शब्दों में सीखने के दौरान जब कुछ प्रयासों के बाद अधिगम की मात्रा स्थिर हो जाती है‚ चाहे अभ्यास कितना भी बढ़ाया जाय तो इसे ही सीखने में पठार कहते हैं। इसका चित्र इस प्रकार होगा−
सीखने में पठार के कारण-
• प्रेरणा का अभाव
• रुचि में कमी
• शारीरिक सीमा
• सीखने की अनुचित विधियाँ
• कार्य की गहनता
• पुरानी आदतों व नयी सीखी आदतों में संघर्ष
• प्राप्त ज्ञान को स्थायी बनाने के लिए
• अन्य कारण जैसे−थकान‚ निराशा‚ उदासीनता‚ जिज्ञासा व उत्साह में कमी‚ अस्वस्थता‚ वातावरणीय व्यवधान व पारिवारिक कठिनाइयाँ आदि।
पठार को दूर करने के उपाय
शिक्षक को पठार को दूर करने के लिए निम्नलिखित उपाय करने चाहिए−
• सीखने वाले को प्रेरणा देना।
• नवीन प्रणालियों का प्रयोग।
• कार्य के बीच-बीच में विश्राम देना।
• सीखने की उचित विधियों का प्रयोग।
• बच्चों के व्यक्तिगत भेदों पर ध्यान देकर उनकी क्षमता के अनुसार सीखने की सुविधा प्रदान करना।
• बच्चों का उत्साहवर्द्धन करना।
• उपयुक्त वातावरण का निर्माण करना।
सीखने का स्थानान्तरण
अधिगम स्थानान्तरण का अर्थ एवं परिभाषाएँ जब कोई एक सीखा हुआ कार्य दूसरे सीखने के कार्य को प्रभावित करता है‚ तो उसे सीखने का स्थानांतरण कहते हैं।
• बी. जे. अण्डरवुड के अनुसार−‘‘वर्तमान क्रियाओं पर पूर्व अनुभवों का प्रभाव ही अधिगम स्थानान्तरण है।’’
• क्रो एवं क्रो के अनुसार−‘‘जब शिक्षण के एक क्षेत्र में प्राप्त विचार‚ अनुभव के कार्य की आदत‚ ज्ञान निपुणता को दूसरी परिस्थिति में प्रयोग किया जाता है‚ तो वह शिक्षण का स्थानान्तरण कहलाता है।’’
• ई. आर. हिलगॉर्ड के अनुसार−‘‘अधिगम स्थानान्तरण में एक क्रिया का प्रभाव दूसरी क्रिया पर पड़ता है।’’
अधिगम स्थानान्तरण के प्रकार-
अधिगम स्थानान्तरण मुख्यत: दो प्रकार के होते हैं−
(i) सकारात्मक या धनात्मक स्थानान्तरण− जब पूर्व ज्ञान‚ अनुभव या प्रशिक्षण नये प्रकार के कार्य को सीखने में सहायता देता है तो उसे सकारात्मक स्थानान्तरण कहते हैं जैसे−स्कूटर चलाने वाले व्यक्ति को मोटरबाइक चलाने में कोई कठिनाई नहीं होती है।
(ii) नकारात्मक या ऋणात्मक स्थानातरण− जब पूर्व ज्ञान‚ अनुभव या प्रशिक्षण नये प्रकार के कार्य को सीखने में कठिनाई उत्पन्न करते हैं‚ तो उसे नकारात्मक स्थानान्तरण कहते हैं जैसे− साइकिल के मेकेनिक को स्कूटर ठीक करने में कठिनाई होती है।
(iii) शून्य स्थानान्तरण− जब किसी कार्य को करने की योग्यता अथवा ज्ञान का अन्य कार्यों को करने की योग्यता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है तब उसे शून्य स्थानान्तरण कहते हैं। स्पष्ट है कि शून्य स्थानान्तरण में पूर्ववर्ती ज्ञान का किसी अन्य परिस्थिति में कोई स्थानान्तरण या उपयोग नहीं होता है। इसके अलावा सीखने के स्थानान्तरण को अन्य तीन भागों में बाँटा जा सकता है−
(i) क्षैतिज स्थानान्तरण (ii) उर्ध्व स्थानान्तरण (iii) द्विपार्श्विक स्थानान्तरण
(i) क्षैतिज स्थानान्तरण− जब किसी परिस्थिति में अर्जित ज्ञान‚ अनुभव अथवा प्रशिक्षण का प्रयोग व्यक्ति उसी प्रकार की लगभग समान परिस्थिति में करता है तो इसे सीखने का क्षैतिज स्थानान्तरण कहते हैं जैसे गणित के जोड़-व-घटाना के प्रश्नों को हल करने के ज्ञान का उपयोग उसी प्रकार के अन्य प्रश्नों को हल करने में करना।
(ii) उर्ध्व स्थानान्तरण− जब किसी परिस्थिति में अर्जित ज्ञान‚ अनुभव अथवा प्रशिक्षण का उपयोग प्राणी के द्वारा उच्च स्तरीय परिस्थितियों के अध्ययन में किया जाता है तब इसे सीखने का उर्ध्व स्थानान्तरण कहते हैं जैसे बाइक चलाने के अनुभव का प्रयोग कार चलाने में करना।
(iii) द्विपार्श्विक स्थानान्तरण− जब मानव शरीर के एक भाग को दिये गये प्रशिक्षण का स्थानान्तरण दूसरे भाग में होता है तो इसे द्विपार्श्विक स्थानान्तरण कहते हैं जैसे दाँये हाथ से लिखने की योग्यता का लाभ बायें हाथ से लिखने में करना।
अधिगम स्थानान्तरण के सिद्धान्त-
1. मानसिक शक्तियों का सिद्धान्त− इस सिद्धान्त के अनुसार मन की शक्तियों (तर्क‚ ध्यान‚ स्मृति‚ कल्पना आदि) को शिक्षण के द्वारा विकसित किया जा सकता है। इस विकास का प्रभाव बिना किसी प्रयास के आगे सभी कार्यों पर पड़ता है।
2. समान तत्वों का सिद्धान्त− इस सिद्धान्त के प्रतिपादक थॉर्नडाइक हैं। इस सिद्धान्त के अनुसार‚ एक कार्य का दूसरे कार्य पर कितना स्थानान्तरण होगा‚ यह इस बात पर निर्भर करता है कि दोनों कार्यों में साहचार्यात्मक तत्वों की कितनी समानता है। जितनी अधिक समानता होगी‚ उतना ही अधिक वे एक-दूसरे के अध्ययन में सहायक होंगे।
3. सामान्यीकरण का सिद्धान्त− इस सिद्धान्त के अनुसार यदि एक व्यक्ति अपने किसी कार्य‚ ज्ञान या अनुभव से कोई सामान्य नियम निकाल लेता है‚ तो वह दूसरी परिस्थिति में भी उसी नियम का प्रयोग कर सकता है। इस सिद्धान्त का प्रतिपादन साे. एच. जुड के द्वारा किया गया था।
4. सामान्य से विशिष्ट तत्वों का सिद्धान्त− इस सिद्धान्त के प्रतिपादक स्पीयरमैन हैं। इनके अनुसार बुद्धि मुख्यत: दो प्रकार की होती है−सामान्य एवं विशिष्ट स्थानान्तरण केवल सामान्य योग्यता का होता है। विशिष्ट योग्यता का स्थानान्तरण नहीं होता है।
अधिगम में स्थानान्तरण का महत्व-
• अधिगम स्थानान्तरण के द्वारा किसी कार्य का अभ्यास करने से प्राप्त होने वाले प्रशिक्षण का दूसरी परिस्थितियों में प्रयोग किया जा सकता है।
• दो विषयों में समानता होने पर स्थानान्तरण अत्यधिक होता है।
• स्थानान्तरण से मानसिक शक्तियों का विकास होता है‚ जिसका प्रयोग हम अन्य कार्यों में करते हैं।