बाल-विकास की प्रकृति
प्राणी के गर्भ में आने से लेकर पूर्ण प्रौढ़ता प्राप्त होने की स्थिति तक बाल विकास है। बालक का विकास अनेक कारकों द्वारा होता है।
जिनमें दो प्रमुख कारक हैं−जैविक एवं सामाजिक। जैविक विकास का दायित्व माता-पिता पर होता है और सामाजिक विकास का वातावरण पर। जन्म से सम्बन्धित विकास को जैविक या वंशानुक्रम तथा समाज से सम्बन्धित विकास को वातावरण कहते हैं। इसे प्रकृति (Nature)
तथा पोषण (Nurture) भी कहा जाता है। वुडवर्थ का कथन है कि एक पौधे का वंशक्रम उसके बीज में निहित है और उसके पोषण का दायित्व उसके वातावरण पर है।
वंशानुक्रम
वंशानुक्रम का अर्थ व परिभाषाएँ पूर्व जों के द्वारा हस्तांतरित किये गये गुणों के मिश्रित समूह को ही वंशानुक्रम कहा जाता है। अत: वंशानुक्रम जन्मजात गुणों का योगफल है। विद्वानों द्वारा दी गयी विभिन्न परिभाषाएँ निम्न हैं−
• वुडवर्थ के अनुसार−‘‘वंशानुक्रम में वे सभी बातें समाहित रहती हैं जो जीवन का प्रारम्भ करते समय‚ जन्म के समय नहीं वरन् जन्म से लगभग नौ माह पूर्व गर्भाधान के समय व्यक्ति में उपस्थित थी।’’
• बी. एन. झा के अनुसार−‘‘वंशानुक्रम‚ व्यक्ति की जन्मजात विशेषताओं का पूर्ण योग है।’’
• जेम्स ड्रेवर के अनुसार−‘‘शारीरिक तथा मानसिक विशेषताओं का माता-पिता से संतानों को हस्तान्तरण होना वंशानुक्रम है।’’
• रूथ बैनेडिक्ट के अनुसार−‘‘वंशानुक्रम माता-पिता से संतान को प्राप्त होने वाले गुणों का नाम है।’’
• जे. ए. थाम्पसन के अनुसार−‘‘वंशानुक्रम‚ क्रमबद्ध पीढ़ियों के बीच उत्पत्ति सम्बन्धी‚ सम्बन्ध के लिए सुविधाजनक शब्द है।’’
वंशानुक्रम की प्रक्रिया मानव शरीर कोषों (Cells) का योग होता है। शरीर का आरम्भ केवल एक कोष से होता है‚ जिसे संयुक्त कोष (Zygote) कहते हैं।
यह कोष 2, 4, 8, 16, 32 और इसी क्रम में आगे बढ़ता है। संयुक्त कोष दो उत्पादक कोषों का योग होता है। इनमें से एक कोष पिता का होता है‚ जिसे पितृकोष (Sperm) और दूसरा माता का होता है‚ जिसे मातृकोष (Ovum) कहते हैं। उत्पादक कोष भी संयुक्त कोष के समान संख्या में बढ़ते हैं।
पुरुष और स्त्री के प्रत्येक कोष में 23-23 गुणसूत्र होते हैं। इस प्रकार संयुक्त कोष में गुणसूत्रों के 23 जोड़े होते हैं। गुणसूत्रों के सम्बन्ध में मन ने लिखा है−‘‘हमारी सब असंख्य परम्परागत विशेषताएँ इन 46 गुणसूत्रों में निहित रहती हैं। ये विशेषताएँ गुणसूत्रों में विद्यमान पित्रैक (Genes) में होती हैं।’’ संयुक्त कोष (Zygote)–ये गाढ़े एवं तरल पदार्थ साइटोप्लाज्म का बना होता है। साइटोप्लाज्म के अन्दर एक नाभिक होता है‚ जिसके भीतर गुणसूत्र (क्रोमोसोम्स) होते हैं।
गुणसूत्र− प्रत्येक कोशिकाओं के नाभिक में डोरों के समान रचना पायी जाती है‚ जिनको क्रोमोसोम्स या गुणसूत्र कहा जाता है। ये गुणसूत्र सदैव जोड़ों में पाये जाते हैं। एक संयुक्त कोष में गुणसूत्रों के 23 जोड़े होते हैं‚ जिनमें आधे पिता द्वारा प्राप्त होते हैं और आधे माता द्वारा। प्रत्येक गुणसूत्र में छोटे-छोटे तत्व होते हैं‚ जिनको ‘जीन्स’ कहते हैं।
पित्रैक या जीन्स− एक गुणसूत्र के अन्दर वंशानुक्रम के अनेक निश्चयात्मक तत्व पाये जाते हैं‚ जिनको पित्रैक (Gene) कहा जाता है। जैसा कि एनास्टासी ने लिखा है− ‘‘पित्रैक वंशानुक्रम की विशेषताओं का वाहक है‚ जो किसी न किसी रूप में सदैव हस्तान्तरित होता है।’’
वंशानुक्रम के नियम और सिद्धान्त-
1. बीजकोष की निरन्तरता का नियम− इस नियम के अनुसार बालक को जन्म देने वाला बीजकोष कभी नष्ट नहीं होता है। इस नियम के प्रतिपादक बीजमैन का कथन है−‘‘बीजकोष का कार्य केवल उत्पादक कोषों का निर्माण करना है‚ जो बीजकोष बालक को अपने माता-पिता से मिलता है‚ उसे वह अगली पीढ़ी को हस्तान्तरित कर देता है। इस प्रकार बीजकोष पीढ़ी दर पीढ़ी चलता रहता है।’’ किन्तु इस सिद्धान्त की आलोचना बाे.एन. झा ने यह कहते हुए की है कि − ‘‘इस सिद्धान्त के अनुसार माता-पिता‚ बालक के जन्मदाता न होकर केवल बीजकोष के संरक्षक हैं‚ जिसे वे अपनी सन्तान को देते हैं। बीजमैन का यह सिद्धान्त न तो वंशानुक्रम की सम्पूर्ण प्रक्रिया की व्याख्या करता है और न संतोषजनक ही है।’’
2. समानता का नियम− इस नियम के अनुसार जैसे माता-पिता होते हैं वैसी ही उनकी सन्तान होती हैं। सोरेन्सन ने लिखा है− ‘‘बुद्धिमान माता-पिता के बच्चे बुद्धिमान‚ साधारण माता-पिता के बच्चे साधारण होते हैं। इसी प्रकार शारीरिक रचना की दृष्टि से भी समान होते हैं।
3. विभिन्नता का नियम− इस नियम के अनुसार बालक अपने माता-पिता के बिल्कुल समान न होकर कुछ भिन्न होते हैं। इस नियम के प्रतिपादकों में डार्विन व लैमार्क प्रमुख हैं।
4. प्रत्यागमन का नियम− इस नियम के अनुसार बालक में अपने माता-पिता के विपरीत गुण पाये जाते हैं। इस नियम के संदर्भ में विद्वानों ने निम्न धारणाएँ प्रस्तुत की हैं−
• यदि वंश सूत्रों का मिश्रण सही ढंग से नहीं हो पाता है तो विपरीत विशेषताओं वाले बालक विकसि होते हैं।
• जागृत और सुषुप्त दो प्रकार के गुण वंश को निश्चित करते हैं। विपरीत विशेषताएँ सुषुप्त गुणों का परिणाम होती हैं।
5. अर्जित गुणों के संक्रमण का नियम− लैमार्क ने इस नियम का समर्थन करते हुए लिखा है−‘‘व्यक्तियों द्वारा अपने जीवन में जो अर्जित किया जाता है‚ वह उनके द्वारा उत्पन्न किये जाने वाले व्यक्तियों को संक्रमित करता है।’’
6. मेंडल का नियम− इस नियम के अनुसार वर्णसंकर प्राणी या वस्तुएँ अपने मौलिक या सामान्य रूप की ओर अग्रसर होती हैं।
इस नियम को चेकोस्लोवाकिया के मेण्डल नामक पादरी ने प्रतिपादित किया था। मेंडल ने मटर और चूहों पर किये गये प्रयोगों के आधार पर निम्न निष्कर्ष प्राप्त किए−
• मेंडल का नियम प्रत्यागमन को स्पष्ट करता है।
• बालक में माता-पिता की ओर से एक-एक गुणसूत्र आता है।
• गुणसूत्र की अभिव्यक्ति संयोग पर निर्भर करती है।
• एक ही प्रकार के गुणसूत्र अपने ही प्रकार की अभिव्यक्ति करते हैं।
• जागृत गुणसूत्र अभिव्यक्ति करता है‚ सुषुप्त नहीं।
• कालान्तर में यह अनुपात 1:2, 2:4, 1:2, 1:2 हो जाता है।
वंशानुक्रम विशेषक-
वंशानुगत विशेषकों या विशेषताओं को निम्न चार वर्गों में विभाजित किया जा सकता है−
1. संरचनात्मक विशेषक− इसके अन्तर्गत शारीरिक संरचना से सम्बन्धित विशेषक आते हैं जैसे−शरीर अथवा अंगों की माप व आकृति‚ बालों का रंग‚ बालों की आकृति‚ बालों का विन्यास‚ नेत्रों का रंग‚ त्वचा का रंग व दशा‚ दाँत के डेनटीन व एनेमल‚ बौनापन‚ युक्तांगुलिता‚ लघुअंगुलिता आदि।
2. क्रियात्मक विशेषक− इसके अन्तर्गत व्यक्ति के शरीर की क्रिया प्रणालियों से सम्बन्धित लक्षण आते हैं। स्वास्थ्य‚ शारीरिक शक्ति‚ दीर्घायु‚ प्रजनन क्षमता रुधिर वर्ग तथा रोगों के प्रति संवेदनशीलता आदि क्रियात्मक विशेषक हैं।
3. मानसिक विशेषक− इसके अन्तर्गत मानसिक योग्यताओं तथा व्यक्तित्व से सम्बन्धित लक्षण आते हैं। जैसे−बुद्धि‚ साहित्यिक प्रकृति‚ गणितीय क्षमता‚ वैज्ञानिक‚ संज्ञानात्मक योग्यताएँ‚ स्वामिभक्ति‚ स्वाभिमान आदि।
4. असाधारण विशेषक− इसके अन्तर्गत असाधारण लक्षणों अथवा रोगों को रखा जाता है जैसे−बहुअंगुलिता‚ गंजापन‚ वर्णान्धता‚ अधिरक्तदााव‚ रंजकहीनता‚ मिरगी‚ हँसियाकार- रुधिराणु एनीमिया‚ फीनाइलकीटोनूरिया‚ एल्कैप्टोनूरिया आदि असाधारण रोगों के उदाहरण हैं।
बाल विकास पर वंशानुक्रम का प्रभाव-
वंशानुक्रम निम्नलिखित प्रकार से बाल-विकास को प्रभावित करता है−
1. तंत्रिका तंत्र की बनावट− तंत्रिका तंत्र में प्राणी की वृद्धि‚ सीखना‚ आदतें‚ विचार और आकांक्षाएँ आदि केन्द्रित रहते हैं।
तंत्रिका तंत्र बालक में वंशानुक्रम से ही प्राप्त होता है। इससे ही ज्ञानेन्दियां‚ पेशियाँ तथा ग्रंथियाँ आदि प्रभावित होती हैं।
2. बुद्धि पर प्रभाव− बुद्धि को जन्मजात माना जाता है। बालक की बुद्धि वंशानुक्रम से ही निश्चित होती हैं।
3. मूल-प्रवृत्तियों पर प्रभाव− मूल प्रवृत्ति बालक के व्यवहार को शक्ति प्रदान करती हैं। ये मूल प्रवृत्तियाँ वंशानुक्रम से प्रभावित होती हैं।
4. स्वभाव पर प्रभाव− बालक का स्वभाव उनके माता-पिता के स्वभाव के अनुकूल होता है। शैल्डन ने मानव स्वभाव को तीन भागों में विभाजित किया है−
(i) विसेरोटोनिया− इस स्वभाव के व्यक्ति समाजप्रिय‚ आरामपसन्द‚ हँसमुख और स्वादिष्ट भोजन में रुचि रखने वाले होते हैं।
(ii) सोमेटोटोनिया− इस प्रकार के स्वभाव के व्यक्ति महत्वाकांक्षी‚ क्रोधी‚ निर्दयी‚ सम्मानप्रिय और दृढ़प्रतिज्ञ आदि विशेषताओं वाले होते हैं।
(iii) सेरेब्रोटोनिया− इस स्वभाव के व्यक्ति चिंतनशील‚ एकान्तप्रिय‚ नियंत्रण पसन्द एवं विचारशील होते हैं।
5. शारीरिक गठन पर प्रभाव− बालक का शारीरिक गठन एवं शरीर की बनावट उसके वंशानुक्रम पर निर्भर करती है। क्रेशमर ने शारीरिक गठन के आधार पर सम्पूर्ण मानव जाति को तीन भागों में विभाजित किया है−
(i) पिकनिक− इस प्रकार का व्यक्ति शरीर से मोटा‚ कद में छोटा‚ गोल-मटोल और अधिक चर्बीयुक्त होता है। उसका सीना चौड़ा लेकिन दबा हुआ तथा पेट निकला हुआ होता है।
(ii) एथलेटिक− इस प्रकार का व्यक्ति शारीरिक क्षमताओं के आधार से युक्त होता है जैसे−सिपाही‚ खिलाड़ी
(iii) एस्थेनिक− इस प्रकार का व्यक्ति दुबला-पतला और शक्तिहीन शरीर का होता है तथा यह संकोची स्वभाव का होता है।
6. व्यवसायिक योग्यता पर प्रभाव− बालकों में माता-पिता की व्यवसायिक कुशलता भी हस्तान्तरित होती है।
7. सामाजिक स्थिति पर प्रभाव− जो लोग वंश से अच्छा चरित्र‚ गुण या सामाजिक स्थिति सम्बन्धी विशेषताओं को लेकर उत्पन्न होते हैं‚ वे ही सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त करते हैं। विनसिप के अनुसार−‘‘गुणवान एवं प्रतिष्ठित माता-पिता की संतान ही प्रतिष्ठा प्राप्त करती है।’’
वातावरण (पारिवारिक‚ सामाजिक‚ विद्यालयी‚ संचार माध्यम)
वातावरण का अर्थ एवं परिभाषा- वातावरण को पर्यावरण भी कहा जाता है। पर्यावरण दो शब्दों से मिलकर बना है−‘परि’+‘आवरण’। परि का अर्थ है चारों ओर एवं आवरण का अर्थ है−‘ढकने वाला’ इस प्रकार पर्यावरण या वातावरण वह वस्तु है जो चारों ओर से ढके हुए हैं। अत: हम कह सकते हैं कि व्यक्ति के चारों ओर जो कुछ है‚ वह उसका वातावरण है। इसमें वे सभी तत्व सम्मिलित हैं‚ जो मानव के जीवन व व्यवहार को प्रभावित करते हैं।
• वुडवर्थ के अनुसार−‘‘वातावरण में सब वाह्य तत्व आ जाते हैं जिन्होंने व्यक्ति को जीवन आरम्भ करने के समय प्रभावित किया है।’’
• रॉस के अनुसार−‘‘वातावरण वह बाहरी शक्ति है‚ जो हमें प्रभावित करती है।’’
• एनास्टासी के अनुसार−‘‘वातावरण वह प्रत्येक वस्तु है‚ जो व्यक्ति के जीन्स के अतिरिक्त प्रत्येक वस्तु को प्रभावित करती है।’’
• जिस्बर्ट के अनुसार−‘‘वातावरण वह हर वस्तु है‚ जो किसी अन्य वस्तु को घेरे हुए है और उस पर सीधे अपना प्रभाव डालती है।’’
बाल-विकास पर वातावरण का प्रभाव् बालक के व्यक्तित्व के प्रत्येक पहलू पर भौगोलिक‚ सामाजिक और सांस्कृतिक वातावरण का प्रभाव पड़ता है।
1. मानसिक विकास पर प्रभाव− गोर्डन का मत है कि उचित सामाजिक और सांस्कृतिक वातावरण न मिलने पर मानसिक विकास की गति धीमी हो जाती है।
2. शारीरिक अंतर पर प्रभाव− फ्रेंच बोन्स का मत है कि विभिन्न प्रजातियों के शारीरिक अंतर का कारण वंशानुक्रम न होकर वातावरण है।
3. व्यक्तित्व विकास पर प्रभाव− कूले का मत है कि व्यक्तित्व के निर्माण में वंशानुक्रम की अपेक्षा वातावरण का अधिक प्रभाव पड़ता है।
4. शिक्षा पर प्रभाव− बालक की शिक्षा‚ बुद्धि‚ मानसिक प्रक्रिया आदि सुन्दर वातावरण पर निर्भर करती है। अत: शिक्षा के क्षेत्र में बालकों का सही विकास उपयुक्त शैक्षिक वातावरण पर ही निर्भर करता है।
5. सामाजिक गुणों पर प्रभाव− बालक का समाजीकरण उसके सामाजिक विकास पर निर्भर होता है। समाज का वातावरण उसे सामाजिक गुण एवं विशेषताओं को धारण करने के लिए उन्मुख करते हैं। न्यूमैन‚ फ्री मैन एवं होलिंजगर ने इस पर विशेष अध्ययन किया है।
6. बालक पर बहुमुखी प्रभाव− वातावरण बालक के शारीरिक‚ मानसिक‚ सामाजिक‚ संवेगात्मक आदि पक्षों को प्रभावित करता है। बालक का सर्वांगीण विकास तभी सम्भव है जब उसे अच्छे वातावरण में रखा जाये।
बालक के विकास को प्रभावित करने वाले वातावरणीय कारक
बालक के विकास को प्रमुख रूप से आनुवांशिकता तथा वातावरण प्रभावित करते हैं। इसी प्रकार कुछ विभिन्न कारक और भी हैं‚ जो बालक के विकास में या तो बाधा पहुँचाते हैं या विकास को अग्रसर करते हैं−
1. बालकों के लालन-पालन या संरक्षण की दशाएँ−
बालक के विकास पर उसके लालन-पालन तथा माता-पिता की आर्थिक स्थितियाँ प्रभाव डालती हैं।
• रूसों के अनुसार−‘‘बालक की शिक्षा में परिवार का महत्वपूर्ण स्थान है। परिवार ही बालक को सर्वोत्तम शिक्षा दे सकता है। यह एक ऐसी संस्था है जो मूल रूप से प्राकृतिक है।’’
• फ्रॉबेल के अनुसार−‘‘माताएँ आदर्श अध्यापिकाएं हैं और घर द्वारा दी जाने वाली अनौपचारिक शिक्षा ही सबसे अधिक प्रभावशाली और स्वाभाविक है।’’
• माण्टेसरी के अनुसार−‘‘सीखने का प्रथम स्थान माँ की गोद है। बालक की सभी मूल प्रवृत्तियों का शोधन धीरे-धीरे परिवार के सदस्यों द्वारा ही होता रहता है।’’
• परिवार बालक के सामाजीकरण का आधार है। बालक स्वयं सामाजिक जीवन की क्रियाओं तथा सामाजिक गुणों को यहीं से सीखता है।
• बालक को व्यवहारिक जीवन की शिक्षा परिवार से ही मिलती है। इस प्रकार बालक के लालन-पालन में परिवार का योगदान सराहनीय है।
2. सामाजिक वातावरण एवं उसका प्रभाव−
सामाजिक वातावरण का बालक के व्यवहार क्रियाकलाप‚ विचार आदि पर प्रभाव पड़ता है। वैसे वातावरण का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है‚ किन्तु हम इसे दो भागों में बाँट सकते हैं−
(i) आंतरिक वातावरण− आंतरिक वातावरण जन्म से पूर्व ही अपना प्रभाव डालना प्रारम्भ कर देता है। गर्भावस्था बालक के विकास की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण समय है।
(ii) वाह्य वातावरण− बालक के वाह्य वातावरण के अन्तर्गत जाति‚ समाज राष्ट्र तथा उसकी संस्कृति को लिया जा सकता है। इस प्रकार के वातावरण की परिस्थितियाँ प्रत्येक देश में प्रत्येक काल में एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तान्तरित होती रहती है। परिवार में यह कार्य माता-पिता अपने बालकों को पूर्ववत चले आये रीति-रिवाज‚ भाषा‚ संस्कृति‚ साहित्य जातीय जीवन दर्शन आदि का पाठ व्यवहार द्वारा सीखाते हैं‚ जबकि विद्यालय बालकों में राष्ट्रीयता एवं मूल्यों का विकास आदि के भाव विकसित करती है।
3. विद्यालय की आंतरिक स्थितियों का प्रभाव−
बालक के विकास को प्रभावित करने वाले विद्यालयी कारक निम्नलिखित हैं−• विद्यालय का वातावरण−शिक्षकों का व्यवहार बालकों के प्रति सरल‚ सौम्य एवं स्नेहमयी होना चाहिए जिससे बालक को घर की याद न आये। विद्यालय का भवन साफ‚ स्वच्छ तथा सुविधाओं से युक्त होना चाहिए। एक शिक्षक पर 20−25 तक बालकों की संख्या होनी चाहिए। एक अच्छे विद्यालय में पठनपाठ न की सामग्री‚ बालकों के खेलने के सुन्दर खिलौने‚ बाग बगीचे आदि भौतिक संसाधन होने चाहिए जिससे बालक विद्यालय के प्रति आकर्षित हो सकें।
• समय विभाजन चक्र−विद्यालय में बड़े छात्रों की अपेक्षा छोटे आयु वर्ग के छात्रों के समय विभाजन चक्र में अधिक अन्तर रहता है। छोटे बच्चों की पाठशाला 9.30 से 12.30 तक ही संचालित करना चाहिए। इस अवधि में भोजन‚ विश्राम‚ स्वास्थ्य निरीक्षण तथा प्रार्थना आदि के लिए समय नियत किया जाना चाहिए।
• शिशु क्रीड़ा केन्द्र−शिशु क्रीड़ा केन्द्र बालकों को प्रथामिक शिक्षा प्राप्त करने के लिए तैयार करते हैं जिससे बालक विद्यालय के वातावरण से परिचित हो जाते हैं। ये केन्द्र बालकों के शारीरिक‚ मानसिक एवं संवेगात्मक विकास में सहायक होते हैं। ये केन्द्र बालकों में स्वस्थ आदतों का निर्माण कर खेल-खेल में आत्म निर्भरता‚ कलात्मकता तथा सृजनात्मकता जैसे गुणों का विकास करते हैं।
4. संचार माध्यमों का प्रभाव−
जब एक व्यक्ति या अनेक व्यक्तियों के द्वारा सूचनाओं के आदान-प्रदान का कार्य व्यापक स्तर पर होता है तब यह प्रक्रिया ‘जनसंचार’ कहलाती हैं। संचार एवं जन-संचार में मुख्य अन्तर यह है कि जब एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष माध्यम से सूचनाओं का आदान-प्रदान करता है तो वह संचार कहलाता है जबकि जब वही व्यक्ति रेडियो‚ टेलीविजन या अन्य माध्यम से अपनी बात असंख्य लोगों तक पहुँचाता है तो इसे जन-संचार कहते हैं।
जन-संचार के माध्यम− इसके अन्तर्गत रेडियो‚ टेलीविजन‚ सिनेमा‚ समाचार-पत्र और विज्ञापन आदि को शामिल किया जाता है।
कक्षा में जन-संचार माध्यमों की उपयोगिता− कक्षीय परिस्थितियों में अधिकतम् शिक्षण अधिगम की प्रभावशाली परिस्थितियाँ उत्पन्न करने के लिए शिक्षा तकनीकी के जन-संचार माध्यमों का प्रयोग एक उत्तम साधन है। हमारे देश के विद्यालयों में कुछ नवीन विधियों जैसे− फिल्म‚ फिल्म-पटि्टकाएँ‚ प्रोजेक्टर‚ रेडियो आदि का प्रयोग किया जाने लगा है।
(i) रेडियो का प्रभाव− रेडियो संचार माध्यमों के अन्तर्गत एक प्रभावशाली श्रव्य साधन है। रेडियो पर शैक्षिक पाठों के प्रसारण से दूर-दराज के बालकों को अत्यधिक लाभ पहुँचाता है।
(ii) दूरदर्शन का प्रभाव− यह एक प्रभावशाली श्रव्य-दृश्य संचार माध्यम है। शैक्षिक दूरदर्शन‚ छात्रों को प्रेरित करने में‚ उनकी सृजनात्मक क्षमता को बढ़ाने में तथा उच्च स्तरीय शिक्षण प्रदान करने में सहायता प्रदान करता है।
(iii) कम्प्यूटर का प्रभाव− इसके द्वारा जन शिक्षा‚ स्वास्थ्य‚ राष्ट्रीय एकता की शिक्षा आदि को सफलतापूर्वक प्रदान किया जा रहा है। कम्प्यूटर के माध्यम से सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में क्रान्तिकारी परिवर्तन सम्भव हो पाया है।
इन्हें भी जानें−वंशानुक्रम व वातावरण का सम्बन्ध
• लैण्डिस के अनुसार−‘‘वंशक्रम हमें विकसित होने की क्षमताएँ प्रदान करता है। इन क्षमताओं के विकसित होने के अवसर हमें वातावरण से मिलते हैं। वंशक्रम हमें कार्यशील पूँजी देता है और परिस्थिति हमें इसको निवेश करने के अवसर प्रदान करती है।’’
• वुडवर्थ तथा मारेक्विस के अनुसार−‘‘व्यक्ति वंशक्रम तथा वातावरण का योग नहीं‚ गुणनफल है।’’ इस प्रकार मानव विकास में इन दोनों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।