Chapter 15. अधिगम में योगदान देने वाले कारक

अधिगम एक प्रक्रिया है इस प्रक्रिया की सफलता केवल प्रभावशाली शिक्षण पर ही नहीं वरन्‌ अनेक सामूहिक कारकों पर निर्भर करती है। शिक्षार्थी‚ शिक्षक‚ पाठ्‌यवस्तु‚ अधिगम व्यवस्था‚ वातावरण इत्यादि से सम्बन्धित अनेक कारक अधिगम की मात्रा स्वरूप एवं गति के निर्धारक के रूप में उत्तरदायी होते हैं। ये कारक मुख्य रूप से पाँच है।
1. शिक्षक से सम्बन्धित कारक
2. शिक्षार्थी से सम्बन्धित कारक
3. पाठ्‌य−वस्तु से सम्बन्धित कारक
4. अधिगम व्यवस्था से सम्बन्धित कारक
5. वातावरण से सम्बन्धित कारक

1. शिक्षक से सम्बन्धित कारक-

I. विषय का ज्ञान− अध्यापक को अपने विषय का पूर्ण ज्ञान है तो वह आत्मविश्वास के साथ छात्रों को नवीन ज्ञान देने में सक्षम होगा तथा उसका शिक्षण प्रभावी होगा।
II. शिक्षक का व्यवहार− अध्यापक के व्यवहार में सहानुभूति सहयोग‚ समानता शिक्षण कला में निपुणता‚ मृदुभाषी‚ संयत आदि गुण हैं तो छात्र कक्षा वातावरण में सहज रूप से सब कुछ सीख सकेगा।
III. मनोविज्ञान का ज्ञान− अध्यापक को बाल विकास प्रक्रिया‚ वंशानुक्रम‚ व्यक्तिगत विभेद‚ प्रेरणा‚ सीखने के सिद्धांत आदि का ज्ञान अतिआवश्यक है आधुनिक शिक्षा में मनोविज्ञान की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है।
IV. शिक्षण विधि− प्रत्येक अध्यापक द्वारा पढ़ाने का तरीका भिन्न होता है शिक्षण विधि जितनी अधिक वैज्ञानिक एवं प्रभावशाली होगी उतनी सीखने की प्रक्रिया सरल एवं लाभप्रद होगी।
V. व्यक्तिगत भेदों का ज्ञान− अध्यापक को तीन प्रकार के छात्रों का सामना करना पड़ता है− मेधावी‚ सामान्य तथा पिछड़े हुए बालक इन्हीं के अनुरूप शिक्षण व्यवस्था करनी होती है‚ व्यक्तिगत भेद का ज्ञान छात्र को समझने में अध्यापक का सहयोग करते हैं।
VI. वैयक्तिक− छात्र जाने अनजाने शिक्षक के व्यवहार से प्रभावित हो बहुत सी बातें सीख लेते हैं इस दृष्टि से एक अध्यापक को आत्मविश्वासी‚ दृढ़इच्छा शक्ति‚ कर्त्तव्यनिष्ठ‚ निरोगी‚ श्रेष्ठ रुचियों तथा क्षमताओं एवं स्तर के अनुकूल होना चाहिए।
VII. बाल केन्द्रित शिक्षा− आधुनिक युग में शिक्षक के लिए यह आवश्यक है कि वह जो भी ज्ञान छात्रों को प्रदान करे वह उनकी रुचियों‚ क्षमताओं एवं स्तर के अनुकूल होना चाहिए।
VIII. समय−सारणी− समय सारणी बनाते समय मौसम‚ बालकों की योग्यता‚ रुचि एवं व्यक्तिगत विभेदों पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए।
IX. पाठ्‌य सहभागी क्रियायें− शिक्षा में मनोविज्ञान के योगदान के रूप में आज पाठ्‌यक्रम में अनेक महत्त्वपूर्ण सहभागी क्रियाओं को स्थान दिया जाता है‚ जैसे वाद−विवाद‚ निबन्ध‚ लेख कहानी‚ कविता‚ अन्ताक्षरी‚ भ्रमण‚ छात्रसंघ‚ खेलकूल‚ अभिनय‚ संगीत आदि।
X. अनुशासन− मनोवैज्ञानिक परीक्षण यह सिद्ध करते हैं छात्र अपराध करने पर दण्ड से डरता नहीं इसका यह अर्थ नहीं कि छात्र को मनमानी करने दी जाए उसे अपराध के अनुकूल दण्ड दिया जाए।

2. शिक्षार्थी से सम्बन्धित कारक-

I. बालक− बालक शिक्षण अधिगम प्रक्रिया का आधार है इसलिए उसके आभाव में अधिगम की कल्पना नहीं की जा सकती।
II. *सीखने की इच्छा− बालकों में सीखने के प्रति जिज्ञासा उत्पन्न की जाए जिससे बालक कठिन तथ्यों को भी आसानी से समझ सके।
III. शैक्षिक पृष्ठभूमि− छात्र की एक विषय में शैक्षिक योग्यता सामान्य से अधिक है तो छात्र उस विषय में नया ज्ञान सुगमता से सीख लेगा।
IV. शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य− सीखने से पहले बालक का स्वस्थ्य रहना जरूरी है‚ क्योंकि किसी भी प्रकार की मानसिक विकृति‚ शारीरिक रुग्णता तथा मानसिक तनाव का प्रत्यक्ष प्रभाव बालकों के अधिगम पर प्रतिकूल पड़ता है। अस्वस्थ्य बालक शीघ्र थक जाते हैं।
V. परिपक्वता− बहुत सी चीजें बालक तभी सीख पाता है।
जब उसमें परिपक्वता आ जाती है चाहे हम उसे कितना भी प्रशिक्षण दें।
VI. *अभिप्रेरणा− अभिप्रेरणा उत्पन्न करने के लिए यह आवश्यक है कि बालक को उसका लक्ष्य स्पष्ट कर दिया जाये‚ किसी नये कार्य को सीखने के लिए यदि प्रेरित नहीं किया जायेगा तो वह उस क्रिया में रुचि नहीं लेगा।
VII. सीखने वाले की अभिवृत्ति− सीखने वाले की किसी कार्य की नकारात्मक या सकारात्मक अभिवृत्ति उस कार्य की प्रगति पर निर्भर करती है।
VIII. सीखने का समय तथा अवधि− छात्र किसी कार्य को देर तक करता है तो उसमें थकान उत्पन्न हो जाती है। थकान होने से अधिगम प्रक्रिया में शिथिलता आ जाती है।
IX. बुद्धि− बालक की तीव्र या मन्द बुद्धि किसी कार्य को सीखने में सरलता या बाधा उत्पन्न करता है।
X. अधिगम प्रक्रिया− यह सच है कि बालक किसी भी कार्य को अपने ढंग से सीखता है चाहे प्रक्रिया किसी भी ढंग से क्यों न सम्पादित की जाये।

3. पाठ्‌य वस्तु से सम्बन्धित कारक-

I. विषय का स्वरूप− वस्तु की प्रकृति निर्भर करता है कि सिखायी जाने वाली वस्तु सरल है या कठिन। यह बालक को सीखने में सरलता या कठिनाई उत्पन्न करता है।
II. विषय वस्तु का आकार− विस्तृत विषय वस्तु से वह शीघ्र ही ऊब जाता है व छोटे पाठों को वह जल्दी ही ग्रहण कर लेता है।
III. विषय वस्तु का क्रम− विषय वस्तु को छात्रों के समक्ष प्रस्तुत करने का क्रम सीखने की प्रक्रिया को पर्याप्त रूप से प्रभावित करता है। अर्थात्‌ क्रम ‘सरल से कठिन की ओर होना चाहिए’।
IV. उदाहरण प्रस्तुतीकरण− पढ़ाते समय शिक्षकों को बालक के दैनिक जीवन से सम्बन्धित उदाहरणों का प्रयोग करने से प्रत्ययों का स्पष्टीकरण आसानी से हो जाता है।
V. भाषा−शैली− विषय वस्तु को सरल भाषा में बालकों के समक्ष प्रस्तुत किया जाए तो वह सरलता से उसे सीख लेता है।
VI. दृश्य−श्रव्य सामग्री− कठिन से कठिन पाठ्‌यवस्तु को भी दृश्य श्रव्य सामग्री के उपयोग से सरल व सुगम बनाया जा सकता है।
VII. रुचिकर विषय वस्तु− शिक्षक को अपनी सूझ−बूझ से विषय वस्तु को रोचक बनाने के प्रयास करना चाहिए जिससे बालक खूब मन लगाकर सीखते हैं।
VIII. विषय वस्तु की उद्देश्यपूर्णता− विषयवस्तु बालकों को पढ़ाने से पूर्व अध्यापक को उससे जुड़े उद्देश्यों एवं उपयोगिता को स्पष्ट करना चाहिए क्योंकि उपयोगी वस्तु बालक जल्दी सीखता है।
IX. विभिनन विषयों का कठिनाई स्तर− प्रत्येक विषय की प्रकृति अनूठी होती है‚ उसी आधार पर बालक उसमें रुचि व अरुचि दिखाता है व उसी आधार पर सीखता है।

4. अधिगम−व्यवस्था से सम्बन्धित कारक−

I. सम्पूर्ण बनाम खण्ड विधि− इसकी मुख्य विशेषता यह है कि इससे विद्यार्थी अपनी स्मरण शक्ति बढ़ा सकता है।
II. उप−विषय बनाम सकेन्द्रीय विधि− बालक का मानसिक स्तर और आयु के अनुसार उपविषय पढ़ाये जाते हैं व उसी कक्षा में पूर्ण कर दिए जाते हैं। सकेन्द्रीय विधि में उपविषय को उसी कक्षा में समाप्त नहीं किए जाते बल्कि आयु व स्तर बढ़ने के अनुसार उस विषय को पुन: पढ़ाया जाता है।
III. संकलित बनाम वितरित विधि− संकलित विधि में सम्पूर्ण विषय वस्तु को एक ही सत्र में समाप्त कर दिया जाता है।
जबकि वितरित विधि में विषय वस्तु अंतराल देकर समाप्त की जाती है।
IV. आयोजित बनाम प्रासंगिक विधि− इस विधि का सिद्धांत यह है कि ज्ञान एक ईकाई है‚ इसके भिन्न−भिन्न अंग नहीं है ज्ञान ईकाई के रूप में दिया जाना चाहिए। अत: विद्यार्थी ज्ञान के सभी अंगों से परिचित हो सकेगा।
V. सक्रिय बनाम निष्क्रिय विधि− सक्रिय विधि के अंतर्गत विद्यार्थी पाठ को जोर−जोर से या धीरे−धीरे बोल कर याद करता है जबकि निष्क्रिय विधि के अंतर्गत विद्यार्थी पाठ को मन ही मन पढ़कर याद करता है‚ दोनों विधि अपने आप में महत्त्वपूर्ण है विद्यार्थी अपनी अभिवृत्ति के अनुरूप नवीन ज्ञान को सीखने में इनमें से किसी एक का चयन करता है।

5. वातावरण से सम्बन्धित कारक−

I. वंशानुक्रम− बालक में अस्सी प्रतिशत योग्याएँ एवं क्षमतायें उसके वंशानुक्रम की ही देन है। रॉस ‘‘बालक जो कुछ भी है और जिस रूप में विकसित होता है‚ वह वंशक्रम की ही देन है। व्यक्ति का जीवन सुखमय या दुखमय होना भी उसके वंशक्रम से प्राप्त गुणों पर निर्भर करता है।
II. सामाजिक वंशक्रम का ज्ञान− बालक पूर्वजों के आदर्शों से बहुत कुछ सीखता है तथा उनके चरित्र को अपना आदर्श मानकर तदनुसार कार्य करके महान बनने का प्रयास करता है।
III. वातावरण का प्रभाव− बालक के लिए वातावरण का उचित होना वंशानुक्रम के विकास के लिए एक अनिवार्य शर्त है।
अत: व्यक्ति वंशानुक्रम की आधारभूत मान्यताओं को विकसित करने के लिए वातावरण को उपयोगी बनाने में विश्वास करता है।
IV. व्यक्तित्व का विकास− वंशानुक्रम तथा वातावरण के ज्ञान से व्यक्ति मानवीय मूल्यों के विकास में रुचि लेने लगता है।
वंशानुक्रम के प्रति आस्था व्यक्ति के सांवेगिक तथा सामाजिक विकास में विशेष योग देती हैं तथा सामाजिक व्यक्तित्व समाज के लिए उपयोगी सिद्ध होता है।
V. शिक्षा के अनौपचारिक साधन− बालक दो प्रकार के साधनों द्वारा शिक्षा प्राप्त करता है‚ औपचारिक तथा अनौपचारिक।
दोनों ही प्रकार के साधनों का बालकों के अधिगम पर गहन प्रभाव पड़ता है।
VI. परिवार का वातावरण− परिवार के वातावरण का प्रभाव बच्चों की अधिगम प्रक्रिया पर पड़ता है यदि परिवार में कलह होती है तो बालक के मस्तिष्क पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है वो उदास खिन्न रहने लगते हैं।
VII. कक्षा का भौतिक वातावरण− कक्षा में छात्रों को भौतिक वातावरण जैसे− प्रकाश‚ वायु‚ कोलाहल आदि की समुचित व्यवस्था नहीं मिलती तो ऐसी स्थिति में छात्रों का मन अधिगम से उचाट हो जाता है।
VIII. मनोवैज्ञानिक वातावरण− छात्रों में एक दूसरे के प्रति सहयोग और सहानुभूति की भावना होती है उनमें आपस में मधुर सम्बन्ध होता है तो सीखने की प्रक्रिया सुचारु रूप से आगे बढ़ती है।
IX. सामाजिक एवं सांस्कृतिक वातावरण− सांस्कृतिक वातावरण वह है जो व्यक्ति द्वारा निर्मित या प्रभावित उन समस्त नियमों‚ विचारों‚ विश्वासों एवं भौतिक वस्तुओं की पूर्णता से है जो जीवन को चारों ओर से घेरे रहते हैं। सामाजिक वातावरण वह है जो रीतिरिवाज‚ मान्यताएँ‚ आदर्श मूल्य एवं स्वयं व्यक्ति की समाज में स्थिfात आती है। ये सभी व्यक्ति के अधिगम को प्रभावित करते हैं।
X. सम्पूर्ण परिस्थिति− विद्यालय का सम्पूर्ण व्यवहार परिवेश इस प्रकार से निर्मित किया जाता है‚ जो विद्यार्थी को पूर्ण संतुष्टि प्रदान करे व शैक्षिक उपलब्धि स्तर को ऊँचा उठाने के साथ−साथ उसके मनोबल को बनाये रखे। सम्पूर्ण परिस्थिति का संतोषप्रद होना अधिगम की अनिवार्य शर्त है।

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