बोध
बोध का अर्थ− बोध या समझ को स्मृति तथा चिंतन के बीच की कड़ी कहा जा सकता है। इसे स्मृति के विचारहीन व रटन्त स्मरण पर आधारित संज्ञानात्मक क्रिया एवं चिंतन के विचारयुक्त व सृजनात्मकता पर आधारित संज्ञानात्मक क्रिया के मध्य का संज्ञानात्मक क्रिया कहा जाता है।
इसमें शिक्षक के द्वारा छात्रों को विभिन्न सम्प्रत्यों के परस्पर सम्बन्धों का अवबोध करने‚ नियमों को पहचानने‚ समझने‚ उनका विभिन्न परिस्थितियों में अनुप्रयोग करने‚ विषय के गूढ़ भावों तथा तथ्यों को भली भाँति समझने की क्षमता उत्पन्न की जाती है।
बोध को अर्थ ग्रहण करना‚ विचार को ग्रहण करना‚ समझना‚ किसी वस्तु से पूर्ण परिचित होना‚ किसी वस्तु की विशेषता अथवा प्रकृति से परिचित होना‚ भाषा में किसी शब्द के अर्थ‚ प्रस्तुत सन्दर्भ में समझना‚ किसी तथ्य को स्पष्ट रूप से जानना तथा ग्रहण करना आदि के रूप में परिभाषित किया जा सकता है।
बोध तथा शिक्षण− बोध स्तर के शिक्षण में शिक्षक का प्रयास होता है कि वह छात्रों के बौद्धिक व्यवहार व तार्किक स्वरूप को विकसित करने के लिए अधिक से अधिक अवसर प्रदान करे।
इसमें शिक्षक तथा छात्र दोनों सक्रिय होते हैं तथा शिक्षक छात्रों के सामने तथ्यों व सिद्धांतों के परस्पर सम्बन्ध तथा सामान्य सिद्धांतों के वर्जन से अवबोध को ग्रहण कराता है।
स्पष्ट है कि ‘‘बोध स्तर का शिक्षण वह शिक्षा है जो कि छात्रों में सामान्य एवं विशेष अर्थात सिद्धांतों एवं तथ्यों के बीच के सम्बन्धों का ज्ञान कराने का प्रयास करता है और उन अनुप्रयोगों को विकसित करता है जिनमें उन सिद्धांतों का प्रयोग किया जा सकता है।
संवेदना
संवेदना का अर्थ एवं परिभाषा−
संवेदना को ‘ज्ञान का द्वार’ कहा जाता है। संवेदना मस्तिष्क की एक सामान्य तथा सरलतम् प्रतिक्रिया है। जब बालक का जन्म होता है‚ तब वह अपने वातावरण के बारे में कुछ नहीं जानता है।
धीरे−धीरे उसकी ज्ञानेन्द्रियाँ कार्य करना प्रारम्भ कर देती हैं तथा वह अपनी ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा अपने वातावरण का ज्ञान प्राप्त करने लगता है। ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा व्यक्ति पर होने वाले प्रभाव को संवेदना कहते हैं। संवेदना का पूर्व ज्ञान अथवा अनुभव से कोई सम्बन्ध नहीं होता है।
हमें बाह्य संसार का सब ज्ञान‚ ज्ञानेन्द्रियों द्वारा प्राप्त होता है।
इसलिए इनकों ‘ज्ञान का द्वार’ कहा जाता है। संवेदना सबसे साधारण मानसिक प्रक्रिया है। यह ज्ञान−प्राप्ति की पहली सीढ़ी है।
• डगलस व हालैण्ड के अनुसार− ‘‘संवेदना शब्द का प्रयोग सब−चेतना अनुभवों में सबसे सरलतम का वर्णन करने के लिए किया जाता है।’’
• जलोटा के अनुसार−‘‘संवेदना एक साधारण ज्ञानात्मक अनुभव है।’’
• जेम्स के अनुसार− ‘‘संवेदनाएँ ज्ञान के मार्ग में पहली वस्तुएँ हैं।’’ संवेदना के लिए निम्नलिखित बातों का होना आवश्यक है−
(i) उद्दीपक की उपस्थिति
(ii) ज्ञानेन्द्रिय क्रियाशीलता
(iii) बोध-स्नायु द्वारा उद्दीपक का समाचार मस्तिष्क तक पहुँचना
(iv) मस्तिष्क द्वारा उद्दीपक की उपस्थिति का अनुभव
(v) मस्तिष्क द्वारा संवेदना के अर्थ का अज्ञात होना।
संवेदना के प्रकार−
1. ज्ञानेन्द्रियों के आधार पर संवेदना के प्रकार हैं−
2. मांसपेशीय या स्नायविक आधार पर-
3. आंगिक संवेनदनशीलता के आधार परसंवेदना की विशेषताएँ−
(i) गुण− संवेदना के प्रकार उसके गुण पर ही निर्भर करते हैं। वस्तुत: प्रत्येक संवेदना में एक विशेष गुण पाया जाता है। गुणों के आधार पर संवेदनाओं को सात भाँगों में बाँटा गया है− दृष्टि‚ श्रवण‚ घ्राण‚ स्वाद‚ स्पर्श‚ दिशा तथा संतुलन। इसी कारण सभी संवेदनाएँ एक दूसरे से भिन्न होती हैं।
(ii) तीव्रता− भिन्न−भिन्न संवेदनाओं की तीव्रता भी भिन्न−भिन्न होती हैं। कोई संवेदना कितनी तीव्र है यह उसके उद्दीपन पर निर्भर करता है।
(iii) व्यापकता− संवेदना में व्यापकता पायी जाती है। जिस उत्तेजना या उद्दीपन से ज्ञानेन्द्रियों का जितना क्षेत्र उत्तेजित होता है‚ संवेदना की व्याप्ति उतनी ही अधिक होती है।
(iv) अवधि− संवेदनाओं में अवधि का गुण पाया जाता है।
कुछ संवेदनाएं क्षणिक होती हैं‚ कुछ स्थिर होती हैं। जितनी देर तक कोई उत्तेजना ज्ञानेन्द्रिय को प्रभावित करती है उतनी ही देर तक संवेदना रहती है।
(v) स्पष्टता− संवेदना की पाँचवी विशेषता उसकी स्पष्टता है।
कुछ संवेदनाएँ ज्यादा स्पष्ट होती हैं कुछ कम। किसी संवेदना की स्पष्टता उसकी ओर दिये गये ध्यान पर निर्भर करती हैं।
(vi) स्थानीय चिन्ह− प्रकृति द्वारा विभिन्न प्रकार की संवेदनाओं के लिए विभिन्न ज्ञानेन्द्रियाँ निश्चित कर दी गयी हैं।
इसलिए प्रत्येक संवेदना में अपने स्थानीय संवेदना चिन्ह की विशेषता पायी जाती है।
संवेदना का शिक्षा में महत्त्व−
• प्रारम्भिक ज्ञान के उपरान्त वस्तु के गुण समझना।
• वस्तु की सत्ता का ज्ञान होना।
• अर्थज्ञान के लिए पृष्ठभूमि तैयार करना।
• माण्टेसरी एवं किण्डरगार्टन जैसी शिक्षण पद्धतियों का ज्ञान।
• ज्ञानेन्द्रियों का उचित प्रयोग।
संवेदना के लिए ज्ञानेन्द्रियों की शिक्षा−
• ज्ञानेन्द्रिय शिक्षा का मूल उद्देश्य नि:सन्देह ज्ञानेन्द्रियों को इस प्रकार से प्रशिक्षित करना है कि बालकों को सही ढंग से अनुभव तथा निरीक्षण करना आ जाये‚ जिससे बालक अपनी ज्ञानेन्द्रियों का सही उपयोग करना सीख जाये।
• दोषयुक्त ज्ञानेन्द्रियों वाले बालकों जैसे− अंधे‚ बहरे‚ गूंगे बालकों को विशेष प्रशिक्षण द्वारा अन्य ज्ञानेन्द्रिय से संवेदनाएँ प्राप्त करने के योग्य बनाया जा सकता है।
• मैडम मारिया माण्टेसरी ने छोटे−छोटे बालकों को शिक्षा प्रदान करने में ज्ञानेन्द्रिय शिक्षा पर विशेष जोर दिया है।
• बालकों की ज्ञानेन्द्रियों के विकास के लिए यह आवश्यक है कि उन्हें उचित क्रियाशील वातावरण उपलब्ध कराया जाय।
• ज्ञानेन्द्रियों के दोषों को दूर करने के लिए चिकित्सीय परामर्श लिया जाना चाहिए।
संवेग
संवेग का अर्थ एवं परिभाषा− ‘संवेग’ शब्द अंग्रेजी के शब्द ‘इमोशन’ (Emotion) का समानार्थी है। ‘इमोशन’ शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के ‘इमोवेयर’ (Emovere) से हुई है‚ जिसका शाब्दिक अर्थ है ‘उत्तेजित होना’। इस प्रकार संवेग को व्यक्ति की उत्तेजित दशा कहा जा सकता है।
• वुडवर्थ के अनुसार− ‘‘संवेग व्यक्ति की उत्तेजित दशा है।’’
• किम्बल यंग के अनुसार− ‘‘संवेग प्राणी की उत्तेजित मनोवैज्ञानिक और शारीरिक दशा है‚ जिसमें शारीरिक क्रियाएँ और शक्तिशाली भावनाएँ किसी निश्चित उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए स्पष्ट रूप से बढ़ जाती हैं।’’
• जरसील्ड के अनुसार− ‘‘किसी भी प्रकार के आवेश आने पर भड़क उठने तथा उत्तेजित हो जाने की अवस्था को संवेग कहते हैं।’’ इस प्रकार संवेग की उत्पत्ति से व्यक्ति की आन्तरिक तथा बाह्य क्रियाओं में परिवर्तन आ जाता है।
संवेग के प्रकार− मैक्डूगल महोदय ने मूल प्रवृत्तियों के आधार पर संवेग को 14 प्रकारों में विभक्त किया है−
1. भय 2. क्रोध 3. घृणा 4. वात्सल्य 5. करूणा व दु:ख 6. खâामुकता 7. आश्चर्य 8. आत्महीनता 9. आत्माभिमान
10. एकाकीपन 11. भूख 12. अधिकार भावना 13. कृति भाव 14. आमोद
संवेग की विशेषताएँ− संवेग की निम्नलिखित विशेषताएँ हो सकती हैं−
1. तीव्रता− संवेग में तीव्रता पायी जाती है। यह संवेग की तीव्रता व्यक्ति की परिपक्वता से प्रभावित होती है।
2. व्यापकता− संवेग सभी प्राणियों में समान रूप से पायी जाती है।
3. वैयक्तिकता− संवेग में वैयक्तिकता होती है। अर्थात् एक ही संवेग के प्रति भिन्न−भिन्न प्राणी भिन्न−भिन्न प्रतिक्रिया करते हैं।
4. संवेगात्मक मनोदशा− स्टाउट के अनुसार− ‘‘एक निश्चित संवेग उसके समरूप संवेगात्मक मनोदशा का निर्माण करता है।’’
5. सुख या दुख की भावना− संवेग में अपने विशिष्ट भावना के अलावा सुख या दु:ख की भावना होती है।
6. व्यवहार में परिवर्तन− संवेग के उत्पन्न होने से व्यक्ति के व्यवहार में परिवर्तन हो जाता है।
7. मानसिक दशा में परिवर्तन− संवेग के कारण व्यक्ति के मानसिक दशा में निम्नलिखित परिवर्तन होत हैं− (i) किसी वस्तु या स्थिति का ज्ञान‚ स्मरण या कल्पना (ii) ज्ञान के कारण सुख या दु:ख की अनुभूति (iii) अनुभूति के कारण उत्तेजना (iv) उत्तेजना के कारण कार्य करने की प्रवृत्ति।
8. आंतरिक शारीरिक परिवर्तन− भय या क्रोध के कारण कई आंतरिक ग्रन्थियाँ दाावित होने लगती हैं जिससे जी मिचलाना‚ पसीना छूटना‚ पेट से सम्बन्धित समस्याएँ उत्पन्न हो जाती हैं‚ इसके अतिरिक्त रक्त संचार का बढ़ना भी संवेग के उत्पन्न होने का परिणाम होता है।
9. बाह्य शारीरिक परिवर्तन− भय के समय काँपना‚ रोंगटे खड़े होना‚ मुख सूख जाना‚ इसी प्रकार क्रोध व प्रसन्नता के समय भी कई बाह्य शारीरिक परिवर्तन देखने में आते हैं।
संवेगात्मक बुद्धि
संवेगात्मक बुद्धि का अर्थ एवं परिभाषा− संवेगात्मक बुद्धि को विकसित करने का श्रेय डेनियल गोलमैन को दिया जाता है।
इन्होंने वर्ष 1995 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘Emotional
Intelligence– Why it can matter more than IQ’ में संवेगात्मक बुद्धि के सम्प्रत्यय का प्रतिपादन किया।
संवेगात्मक बुद्धि से तात्पर्य संवेगों से सही ढंग से निबटने की संज्ञानात्मक क्षमता से होता है। इसमें व्यक्ति के स्वयं के संवेगों तथा दूसरों के संवेगों को जानने‚ समझने व प्रबन्धन करने की समग्र योग्यता समाहित रहती है।
• पीटर सेलवे तथा जॉन मेयर के अनुसार−‘‘संवेगात्मक बुद्धि संवेग का प्रत्यक्षीकरण करने‚ संवेग का एकीकरण करके विचार को सुलभ बनाने‚ संवेगों को समझने तथा संवेगों को नियंत्रित करके वैयक्तिक प्रगति को बढ़ाने वाली योग्यता है।’’ संवेगात्मक बुद्धि की योग्यताएँ− संवेगात्मक बुद्धि की चार प्रमुख योग्यताएँ हैं−
(i) संवेगों का प्रत्यक्षीकरण करने की योग्यता
(ii) संवेगों का उपयोग करने की योग्यता
(iii) संवेगों का अवबोधन करने की योग्यता
(iv) संवेगों का प्रबन्धन करने की योग्यता
संवेगात्मक बुद्धि के घटक−
1. स्व सतर्कता− इसके अंतर्गत व्यक्ति अपनी आंतरिक स्थितियों‚ पसन्दों‚ संसाधनों‚ अपने संवेगों की पहचान‚ अपनी सीमाओं को समझना‚ अपनी क्षमताओं व महत्त्व को समझना‚ अंत: प्रेरणाओं आदि को शामिल किया जाता है।
2. स्वनियमितीकरण− इसके अंतर्गत व्यक्ति अपनी आंतरिक स्थितियों तथा संसाधनों का प्रबन्धन करता है। जैसे− आत्मनियंत्रण‚ ईमानदारी तथा सत्यनिष्ठा‚ चेतनानुभूति‚ अनुकूलन तथा नवीन विचारों को स्वीकार करना आदि।
3. अभिप्रेरणा− अभिप्रेरणा के अंतर्गत व्यक्ति लक्ष्यों की प्राप्ति में सहायक संवेगात्मक प्रवृत्तियों की पहचान करता है।
4. अननुभूति− अननुभूति के अंतर्गत व्यक्ति अन्यों की भावनाओं‚ जरूरतों तथा परिप्रेक्ष्यों के प्रति जागरूकता लाता है। जैसे− अन्यों को समझना‚ अन्यों का विकास करना‚ सेवा अनुस्थापना‚ राजनैतिक जागरूकता आदि।
5. सामाजिक कौशल− सामाजिक कौशल के अंतर्गत व्यक्ति दूसरों के वांछनीय प्रतिक्रियाओं को समाहित करता है। जैसे प्रभाव‚ सम्प्रेषण‚ द्वन्द्व प्रबन्धन‚ नेतृत्व‚ उत्प्रेरक अनुबन्ध निर्माण‚ सहभागिता व सहयोग‚ दल समर्थन आदि गुण समाहित करने का प्रयास करता है।
संवेगात्मक बुद्धि का महत्त्व−
(i) संवेगात्मक बुद्धि व्यक्ति को उसके कार्य निष्पादन में सकारात्मक ढंग से सहायता करती है।
(ii) व्यक्ति को तनाव मुक्ति के लिए संवेगात्मक बुद्धि की महती आवश्यकता होती है।
(iii) संवेगात्मक बुद्धि व्यक्ति को मानसिक रूप से स्वस्थ्य रखने में सहायक होती है।
(iv) व्यक्ति संवेगात्मक बुद्धि के द्वारा अपने सामाजिक सम्बन्धों को बेहतर बना सकता है।
संवेगों का शिक्षा में महत्त्व−
• विद्यार्थियों के संवेगों को सही दिशा देकर उनके व्यवहार को सकारात्मक ढंग से प्रभावित किया जा सकता है।
• विद्यार्थियों के संवेगों को जागृत करके उनकी पाठ में रुचि को जागृत किया जा सकता है।
• विद्यार्थियों को संवेगों पर नियंत्रण करने की विधियों के द्वारा शिष्ट बनाया जा सकता है।
• शिक्षक बालकों के भय‚ क्रोध आदि अवांछित संवेगों को मार्गान्तरीकरण करके उनको अच्छे कार्यों के लिए प्रेरित कर सकता है।
• बच्चों के संवेगों का वांछनीय विकास करके उनमें कला‚ संगीत‚ साहित्य और अन्य सुन्दर वस्तुओं के प्रति प्रेम उत्पन्न किया जा सकता है।
• विद्यार्थियों के संवेगों का उचित विकास करके उनमें उत्तम विचारों‚ आदर्शों‚ गुणों और रुचियों का निर्माण किया जा सकता है।