Chapter 12. बालकों में अधिगम की वैकल्पिक संकल्पना; अधिगम प्रक्रिया

अधिगम की संकल्पना

बाल्यावस्या के दौरान बच्चा चलना‚ बोलना‚ सामाजिक समूहों में अन्योन्यक्रिया करना सीखता है और विशेष समुदाय या समाज के रीति रिवाज सीखता है। इनमें अधिकांश व्यवहार या तो स्वभाविक रूप से या फिर प्रेक्षण या अनुकरण से अर्जित किये जाते हैं। इसके परिणामस्वरूप बच्चे परिवेश की अपेक्षाओं के अनुकूल अपने आपको ढालना सीख पाते हैं।
इन्ही गुणों के आधार पर अधिगम की संकल्पना को चार प्रमुख भागों में बाँटा जा सकता है−
1. व्हृावहारवादी संकल्पना – दृष्टव्य व्यवहार पर ध्यान केन्द्रित करना
2. संज्ञानात्मक संकल्पना – मानसिक या तंत्रिका विज्ञानी प्रक्रिया के रूप में अधिगम
3. रचनावादी संकल्पना – व्यक्तिगत अनुभवों पर आधारित ज्ञान निर्माण की प्रक्रिया के रूप में अधिगम 4. सामाजिक संकल्पना – मानव सामाजिक कार्यकलाप से बेहतर सीखता है।
• अधिगम की इन चारों संकल्पनाओं में व्यवहारवादी संकल्पना तथा संज्ञानात्मक संकल्पना अधिगम की परम्परागत संकल्पनाएँ हैं जबकि रचनावादी संकल्पना तथा सामाजिक संकल्पना आधुनिक व वैकल्पिक संकल्पनाएँ हैं। अत: हम यहाँ केवल वैकल्पिक संकल्पनाओं की ही चर्चा करेंगे।
1. अधिगम की रचनावादी संकल्पना− रचनावादी या निर्मितवाद या रचनात्मकवाद संकल्पना वह सिद्धांत है जो अधिगम को सक्रिय प्रक्रिया के रूप में मानता है‚ जिसमें विद्यार्थी नयी संकल्पनाओं‚ विचारों और ज्ञान का विगत ज्ञान और अनुभवों के आधार पर निर्माण करते हैं और उनका अंतरीकरण करते हैं।
यह सिद्धांत दावा करता है कि व्यक्ति जो कुछ पहले से ही जानते हैं और मानते हैं और वे विचार‚ घटनाएँ तथा क्रियाकलाप जिनके वे सम्पर्क में आते हैं‚ के साथ अन्योन्य क्रिया के माध्यम से अपनी समझ और ज्ञान का निर्माण या रचना करते हैं।
रचनावादी परिप्रेक्ष्य के अनुसार अधिगम ज्ञान अर्जित करने की बजाय ज्ञान निर्माण की सक्रिय प्रक्रिया है। इस संकल्पना में व्यवहारवादी परिप्रेक्ष्य से भिन्न अनुकरण या पुनरावृत्ति की बजाय ज्ञान विद्यार्थी की सक्रिय सहभागिता और विषयवस्तु के परिचालन के माध्यम से अर्जित किया जाता है। इसके अनुसार अध्यापन ज्ञान सम्प्रेषण की बजाय ज्ञान निर्माण में सहायता देने की प्रक्रिया है।
रचनात्मकवाद के प्रकार− रचनात्मकवाद के तीन प्रमुख प्रकार हैं−
(i) आभासी रचनात्मकवाद
(ii) प्रजातांत्रिक रचनात्मकवाद
(iii) सामाजिक रचनात्मकवाद
(i) आभासी रचनात्मकवाद− इस सिद्धांत के अनुसार विद्यार्थी सक्रिय रूप से ज्ञान की रचना करता है न कि उसे परिवेश से निष्क्रिय रूप से प्राप्त करता है। इस परिप्रेक्ष्य के अनुसार विद्यार्थी का पूर्व ज्ञान नये ज्ञान की रचना को सुसाध्य बनाने के लिए आवश्यक है और इसका बल ज्ञान की वस्तुपरकता पर है।
(ii) प्रजातांत्रिक रचनात्मकवाद− प्रजातांत्रिक रचनात्मकवाद वस्तुनिष्ठ ज्ञान की सम्भावना को अस्वीकार करते हैं और उनका मानना है कि सभी प्रकार के ज्ञान ज्ञाता के संज्ञानात्मक संरचना पर निर्भर करता है। इनके अनुसार ज्ञान व्यक्तिनिष्ठ होता है क्योंकि प्रत्येक अध्येता अपने अनुसार ज्ञान का निर्माण करता है।
(iii) सामाजिक रचनात्मकवाद− यह सिद्धांत मुख्यत: पियाजे‚ वाइगोत्सकी बु्रनर और वण्डुरा के कार्य से विकसित हुआ है।
रूसी मनोवैज्ञानिक वाइगोत्सकी ने सामाजिक रचनात्मकवाद की नींव रखी जिसमें सामाजिक विकास के लिए सामाजिक−सांस्कृतिक उपागम को महत्त्वपूर्ण माना। यह उपागम इस मान्यता पर आधारित था कि कोई भी कार्य उस सामाजिक वातावरण से अलग नहीं किया जा सकता है जिसमें वह घटित होता है। सामाजिक रचनात्मक मॉडल व्यक्तिगत विकास के मुख्य निर्धारक के रूप में संस्कृति पर बल देता है।
2. अधिगम की सामाजिक संकल्पना− बालक का सामाजिक−सांस्कृतिक संदर्भ महत्त्वपूर्ण है क्योंकि बालक जो कुछ भी सीखता है वह एक विशेष सामाजिक संदर्भ में सीखता है। सामाजिक− सांस्कृतिक परिवेष में एक विशेष जन समूह‚ मूल्य‚ मान्यताएँ‚ आस्थाएँ‚ रीति−रिवाज‚ वेश−भूषा‚ रहन−सहन जैसे व्यवहार शामिल होते हैं। बालक इन सामाजिक−सांस्कृतिक गुणों को स्वीकार करता है।
और सीखता है। यह सीखना दो प्रकार से होता है−
(i) संस्कृतिकरण
(ii) संस्कृति−संक्रमण नोट− इसके बारे में चर्चा पूर्ववत कर दी गयी है।

अधिगम की वैकल्पिक संकल्पना एवं शिक्षा (शिक्षण विधि‚ अधिगमर्ता‚ शिक्षक‚ पाठ्‌यक्रम तथा मूल्यांकन्ा)

वैकल्पिक शिक्षण में ध्यान देने वाली मुख्य बातें− अधिगम की सक्रिय विधियों का चयन‚ निर्णय निर्माण में विद्यार्थियों की सहभागिता‚ छात्र एवं शिक्षक के मध्य अनौपचारिक सम्बन्ध हस्तकौशल का विकास करना‚ सृजनात्मकता के विकास पर बल‚ वैयक्तिक अध्ययन पर बल‚ उदाहरणों के द्वारा शिक्षण‚ रटने की अपेक्षा तर्क एवं समझ पर बल‚ विद्यार्थियों में उत्साह प्यार एवं स्नेह को बढ़ावा देना‚ विद्यार्थियों में वैज्ञानिक चिंतन एवं तर्क का विकास करना‚ मानवता के सम्मान की शिक्षा‚ स्व अधिगम को बढ़ावा देना‚ विद्यार्थियों को अवसर देना कि वे स्व अधिगम के मार्ग का चुनाव करें‚ स्व अनुशासन को उत्पन्न करना इत्यादि बातें वैकल्पिक अधिगम में प्रमुख हैं।
वैकल्पिक अधिगम में शिक्षक की भूमिका− वैकल्पिक अधिगम में शिक्षक पाठ प्रस्तुतकर्ता नहीं बल्कि मित्र‚ सलाहकार एवं सुलभकर्ता या सुगमकर्ता की भूमिका का निर्वहन करता है।
वैकल्पिक विद्यालय− वैकल्पिक विद्यालय इस बात में विश्वास करते हैं कि बच्चे एवं किशोर तभी किसी विषय एवं परियोजना को प्रभावकारी तरीके से सीख सकते हैं जब इसमें उनकी रुचि एवं उसके लिए प्रोत्साहित हों।
इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए विद्यालय सदैव तत्पर रहते हैं।
मूल्यांकन या आकलन− वैकल्पिक अधिगम में निर्माणात्मक आकलन पर जोर दिया जाता है। यहाँ प्रत्येक छात्र की वैयक्तिकता को महत्त्व दिया जात है। निकष संदर्भित आकलन पर जोर दिया जाता है। इसका उद्देश्य विद्यार्थियों में आंतरिक अभिप्रेरणा को बढ़ावा देना है। इसमें आकलन का आधार प्रत्येक छात्र की रुचियाँ अधिगम शैली एवं अधिगम गति है। यहाँ विद्यार्थियों की रिपोर्ट कार्ड‚ पोर्टफोलियों आदि का निर्माण किया जाता है।

अधिगम प्रक्रिया में महत्त्वपूर्ण चरणों के रूप में बालक की त्रुटियों को समझना

प्रत्येक कक्षा−कक्ष में कुछ विद्यार्थी ऐसे होते हैं जो मंद गति से अध्ययन करते हैं या अध्ययन में विभिन्न प्रकार की कठिनाइयों का अनुभव करते हैं। इन कठिनाइयों को दूर करने के लिए शिक्षक शिक्षण की दो नवीन विधियों का प्रयोग करते हैं−
1. निदानात्मक
2. उपचारात्मक शिक्षक पहले निदानात्मक शिक्षण द्वारा छात्रों की कठिनाइयों या त्रुटियों का निदान या पहचान करते हैं। तदुपरान्त वे उनकों अपनी व्यक्तिगत कठिनाइयों से मुक्त करने के लिए उपचारात्मक शिक्षण प्रदान करते हैं।

निदानात्मक शिक्षण का अर्थ एवं परिभाषा

जिस प्रकार डॉक्टर रोगी के लक्षणों को देखकर उसके रोग की पहचान या निदान करता है उसी प्रकार शिक्षक छात्र की विषयगत मन्दता या उसकी अधिगम सम्बन्धी त्रुटियों को देखकर उसकी कठिनाइयों का निदान करता है।
गुड के अनुसार− ‘‘निदान का अर्थ है− अधिगम सम्बन्धी कठिनाइयों और कमियों के स्वरूप का निर्धारण।’’
योकम व सिम्पसन के अनुसार− ‘‘निदान किसी कठिनाई का उसके चिन्हों या लक्षणों से ज्ञान प्राप्त करने की कला या कार्य है। यह तथ्यों के परीक्षण पर आधारित कठिनाई का स्पष्टीकरण है।’’ इस प्रकार हम कह सकते हैं कि निदान द्वारा छात्रों की अधिगम सम्बन्धी त्रुटियों‚ कमियों‚ कठिनाइयों आदि का ज्ञान प्राप्त किया जाता है।
मरसेल के अनुसार− जिस शिक्षण में छात्रों की विशिष्ट त्रुटियों का निदान करने का विशेष प्रयास किया जाता है‚ उसको बहुधा निदानात्मक शिक्षण कहा जाता है।
निदानात्मक शिक्षण के उद्देश्य−
(i) छात्र की पाठ्‌य−विषय से सम्बन्धित जन्मजात अथवा स्वभाविक कठिनाई ज्ञात करना
(ii) छात्र की पाठ्‌य विषय से सम्बन्धित कठिनाई ज्ञात करना निदानात्मक शिक्षण के क्षेत्र− निदानात्मक शिक्षण का प्रयोग साधारणत: आधारभूत विषयों जैसे वाचन‚ लेखन‚ उच्चारण‚ व्याकरण और अंकगणित तक सीमित है।
• छात्र की अधिगम सम्बन्धी कठिनाइयों को समझने के लिए शिक्षक कभी−कभी प्रमापीकृत निदानात्मक परीक्षण का प्रयोग करता है।
कुप्पूस्वामी के अनुसार− ‘‘निदानात्मक परीक्षणों को हमें यह बताना चाहिए कि बालक क्या कर सकता है और क्या नहीं कर सकता है। क्योंकि जब हमको इस बात का ज्ञान हो जायेगा कि उसकी जो रुचियाँ एवं अभिरुचियाँ हैं‚ वे किन बातों में हैं‚ तभी हम उसके प्रति कर्त्तव्यों को पूर्ण कर सकेंगे।’’

उपचारात्मक शिक्षण का अर्थ एवं परिभाषा

उपचारात्मक शिक्षण के द्वारा छात्रों को अधिगम सम्बन्धी दोषों से मुक्त करके उनको ज्ञानार्जन की उचित दिशा की ओर मोड़ने का प्रयास किया जाता है।
योकम व सिम्पसन के अनुसार−‘‘उपचारात्मक शिक्षण उस विधि को खोजने का प्रयत्न करता है‚ जो छात्रों को अपनी कुशलता या विचार की त्रुटियों को दूर करने में सफलता प्रदान करे।’’
ब्लेयर जोन्स व सिम्पसन के अनुसार− ‘‘उपचारात्मक शिक्षण‚ वास्तव में उत्तम शिक्षण है जो छात्र को अपनी वास्तविक स्थिfात का ज्ञान प्रदान करता है और जो सुप्रेरित क्रियाओं द्वारा उसको अपनी कमजोरियों के क्षेत्रों में अधिक योग्यता की दिशा में अग्रसर करता है।’’
उपचारात्मक शिक्षण के उद्देश्य−
विद्यार्थियों के ज्ञान सम्बन्धी त्रुटियों को दूर करना
• विद्यार्थियों के अधिगम सम्बन्धी दोषों को दूर करना
• सब प्रकार की अधिगम सम्बन्धी त्रुटियों को शुद्ध करने के लिए प्रभावशाली विधियों का विकास करना
उपचारात्मक शिक्षण के विषय क्षेत्र−
निदानात्मक शिक्षण की तरह उपचारात्मक शिक्षण के विषय क्षेत्र भी वही हैं क्योंकि आधारभूत विषयों में सफलता प्राप्त न कर सकने के कारण छात्रों के समक्ष अनेक कठिनायाँ उपस्थिति हो सकती हैं।
इसलिए आधारभूत विषयों में उपचारात्मक शिक्षण देना अनिवार्य है।
ये आधारभूत विषय हैं− वाचन‚ लेखन‚ उच्चारण‚ भाषा और अंकगणित।
उपचारात्मक शिक्षण की विधि−
छात्रों की त्रुटियों को यदा−कदा शुद्ध करना
• छात्रों को उनके व्यक्तिगत भिन्नताओं के आधार पर समूहों में बाँटकर शिक्षण प्रदान करना
• छात्रों की आवश्यकताओं के अनुसार समूहों में बाँटकर शिक्षण करना
• व्यक्तिगत रूप से छात्रों के अधिगम−सम्बन्धी दोषों को दूर करना

निर्माणात्मक या रचनात्मक आकलन

बच्चे सीखने के दौरान त्रुटियाँ करते हैं इन त्रुटियों को समझना शिक्षक के लिए आवश्यक होता है क्योंकि बच्चों की त्रुटियाँ एक खिड़की के समान होती है‚ जिसको देखकर‚ समझकर उनको दूर करने का प्रयास करता है। इन त्रुटियों को समझने के लिए तथा त्रुटियों को सुधारने के लिए शिक्षक द्वारा निर्माणात्मक या रचनात्मक आकलन किया जाता है।
निर्माणात्मक आकलन को कई लोग ‘सीखने के लिए आकलन’ भी कहते हैं। इस प्रकार के आकलन का मुख्य प्रयोजन छात्रों को वह रचनात्मक प्रतिक्रिया प्राप्त करने में सक्षम बनाना है जो उन्हें बेहतर सीखने और प्रभावी प्रगति करने में उनकी मदद करेगी।
योगात्मक आकलन− योगात्मक आकलन को ‘सीखने का आकलन’ के नाम से भी जाना जाता है। इस प्रकार के आकलन का प्रयोजन शिक्षक को छात्रों की उपलब्धि और कार्य प्रदर्शन की पहचान करने में सक्षम करना है‚ जिसमें सीखने की अवधि एक सत्र या अवधि हो सकती है।
निर्माणात्मक आकलन द्वारा निम्नलिखित का पहचान किया जाता है−
छात्र क्या कर सकता है और क्या नहीं?
• छात्रों को कठिन क्या लगता है?
• छात्रों को हो सकने वाली गलतफहमियाँ इसमें शामिल होता है−
• सीखने के स्पष्ट लक्ष्यों की चर्चा करते हुए‚ छात्र के साथ संवाद
• छात्र को अपने लष्य की प्राप्ति के लिए सक्रिय होना
• स्वत: और समकक्षीय समीक्षा सहित प्रगति की निगरानी निर्माणात्मक आकलन की मुख्य विशेषताएँ− CBSE–2009 के अनुसार निर्माणात्मक आकलन की निम्नलिखित विशेषताएँ होती हैं−
• निर्माणात्मक आकलन नैदानिक और सुधारात्मक है।
• यह प्रभावी प्रतिक्रिया के लिए प्रावधान करता है।
• यह छात्रों के स्वयं सीखने में उनकी सक्रिय भागीदारी के लिए मंच प्रदान करता है।
• यह शिक्षकों को आकलन के नतीजों को ध्यान में रखते हुए अध्यापन को समायोजित करने में सक्षम करता है।
• यह छात्रों की स्वयं का आकलन करने और सुधार करने के तरीके को समझने में सक्षम होने की जरूरत की पहचान करता है।
• यह छात्रों की प्रतिक्रिया के बाद उनके काम को सुधारने का अवसर प्रदान करता है।
निर्माणात्मक आकलन शिक्षक को वहाँ से आगे बढ़ने का अवसर देता है‚ जहाँ छात्र होता है और छात्र को यह समझने का मौका देता है कि सफल होने के लिए क्या करना है। इसलिए निर्माणात्मक आकलन विद्यार्थी को शामिल करता है और छात्र को उसके सीखने का स्वामित्व प्रदान करता है।

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