एक समस्या−समाधानकर्ता के रूप में बालक
शिक्षा का रचनावादी सिद्धांत बालक को एक अन्वेषक के रूप में देखता है। इस सिद्धांत के अनुसार बालक अपने ज्ञान का निर्माण स्वयं करते हैं। वे अपनी समस्या का समाधान करने के लिए चिंतन करते हैं और चिंतन के द्वारा समस्या का समाधान करते हैं। इस सम्प्रत्यय को समझने के लिए समस्या समाधान के सम्प्रत्यय को समझ लेना आवश्यक है।
समस्या समाधान
समस्या समाधान का अर्थ एवं परिभाषा− समस्या समाधान से तात्पर्य मार्ग में आने वाली कठिनाइयों पर विजय प्राप्त करके लक्ष्यों को प्राप्त कर लेने से है। वस्तुत: समस्या समाधान चिंतन का ही एक विशिष्ट रूप है। समस्या उस परिस्थिति को कहते हैं जिसके लिए व्यक्ति के पास पहले से तैयार कोई समाधान नहीं होता है। ऐसे परिस्थिति का सामना करने के लिए एवं उसका समाधान खोजने के लिए व्यक्ति को चिंतन व तर्क का सहारा लेना पड़ता है।
• स्किनर के अनुसार− ‘‘समस्या समाधान लक्ष्य की प्राप्ति में बाधक प्रतीत होने वाली कठिनाइयों पर विजय प्राप्त करने की प्रक्रिया है।’’
• वुडवर्थ तथा मार्क्विस के अनुसार− ‘‘समस्या−समाधान व्यवहार ऐसी नवीन या कठिन परिस्थितियों में होता है‚ जिनमें काफी समान परिस्थितियों में पूर्व अनुभवों के आधार पर प्रतिपादित प्रत्ययों तथा सिद्धांतों को प्रयुक्त करने के लिए आदतन विधियों से समाधान नहीं होत पाता है।’’
समस्या−समाधान के सोपान−
जॉन ब्रान्सफोर्ड तथा वेरी स्टीन ने समस्या समाधान व्यवहार के पाँच सोपानों को ‘IDEAL’ के कूटनाम से निम्नवत् प्रस्तुत किया है−
1. समस्या को पहचानना
2. समस्या को परिभाषित तथा प्रस्तुत करना
3. सम्भावित व्यूहरचनाओं का अन्वेषण करना
4. व्यूह रचनाओं पर कार्य करना
5. किये गये कार्य को देखना तथा क्रियाकलापों के प्रभावों का मूल्यांकन करना।
समस्या−समाधान की विधि−
1. अनसीखी विधि− इस विधि का प्रयोग निम्न कोटि के प्राणियों द्वारा अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करने के लिए किया जाता है। यह जन्मजात प्रवृत्तियों पर आधारित है।
2. प्रयास एवं त्रुटि विधि− इस विधि में प्राणी अपनी समस्या का समाधान प्रयास एवं त्रुटि द्वारा करता है। प्राणी तब तक प्रयास करता रहता है जब तक कि उसके समस्या का समाधान नहीं हो जाता है। इस विधि का प्रयोग निम्न कोटि व उच्च कोटि दोनों प्रकार के प्राणियों द्वारा किया जाता है।
3. अंतर्दृष्टि विधि− इस विधि में प्राणी अपने सम्मुख उपस्थित समस्यात्मक परिस्थिति पर पूर्ण रूपेण विचार करके अथवा उसे अच्छी तरह से समझकर अंतर्दृष्टि या सूझ के द्वारा समस्या का समाधान खोजता है। इस विधि का प्रयोग उच्च कोटि के प्राणी करते हैं।
4. वैज्ञानिक विधि− वैज्ञानिक विधि में तर्क पूर्ण चिंतन के द्वारा समस्या का समाधान किया जाता है। जॉन डीवी ने अपनी पुस्तक ‘How we think’ में वैज्ञानिक विधि के निम्नलिखित पाँच सोपानों की चर्चा की है−
1. समस्या को समझना
2. परिकल्पना का निर्माण करना
3. तथ्यों का संकलन‚ व्यवस्थापन तथा विश्लेषण करना
4. निष्कर्ष प्राप्त करना
5. परिकल्पना का विशिष्ट परिस्थिति में परीक्षण करना।
एक समस्या समाधानकर्ता के रूप में बालक
स्कूली जीवन में एक बच्चों के समक्ष अनेक समस्याएँ आती हैं तथ उनका समाधान भी उन्हें ही ढूढ़ना होता है। बच्चों को इस योग्य बनाने के लिए आवश्यक है कि उनका व्यक्तिगत विकास किया जाय जिससे कि वे सभी प्रकार की परिस्थितियों का सही ढंग से सामना कर सके।
बालक को समस्या समाधानकर्ता के रूप में बनाने के लिए निम्नलिखित गुणों का विकास किया जा सकता है−
• बच्चे में आत्म पहचान का गुण विकसित करके
• अपनी कमियों को स्वीकार करना तथा दूर करना सिखाकर
• बच्चे को स्वावलम्बी बनाने के लिए प्रोत्साहित करके
• बच्चे में भाषा का विकास करके
• बच्चे में अंतर्दृष्टि को विकसित करके
• बच्चे को प्रयास करने के लिए पे्ररित करके
वैज्ञानिक अन्वेषक के रूप में बालक
जब बालक अपने ज्ञान और अनुभव के माध्यम से किसी समस्या के प्रत्येक पहलू को जानने लगता है तथा स्वयं ही समस्या का समाधान खोज लेता है तब उसमें में एक वैज्ञानिक अन्वेषक के गुण आने लगते हैं तथा वह अपनी समस्याओं का स्वयं समाधान करने लगता है।
बच्चों को वैज्ञानिक अन्वेषक के रूप में विकासित करने के लिए निम्नलिखित उपाय किये जा सकते हैं−
• बच्चों के समक्ष छोटी−छोटी समस्याएँ रखकर− बच्चों में एक वैज्ञानिक अन्वेषक के गुण विकसित करने के लिए आवश्यक है कि उसे यह जानकारी हो कि समस्या क्या है? इसके लिए बच्चों के समक्ष छोटी−छोटी समस्याओं को रखकर उनसे समस्या के विषय में पूछा जा सकता है।
• बच्चों को समस्या समाधान के लिए प्रेरित करके− बच्चों को समस्या देकर उसका समाधान ढूढ़ने के लिए प्रेरित करना चाहिए ताकि वे स्वयं चिंतन एवं तर्क की सहायता से समस्या का समाधान कर सके।
• समस्या−समाधान से प्राप्त परिणामों का परीक्षण करके− बच्चों द्वारा बताये गये समाधान का विभिन्न परिस्थितियों में परिक्षण किया जाना चाहिए तथा उसके गुणों और दोषों को स्पष्ट करके छात्रों को अवगत कराना चाहिए।