Chapter 10. अधिगम और अध्यापन की बुनियादी प्रक्रियाएँ

अधिगम और अध्यापन की बुनियादी प्रक्रियाएँ

शिक्षण
शिक्षण से तात्पर्य सिखाने की क्रिया से होता है। शिक्षण के अंतर्गत अध्यापक विभिन्न क्रियाकलापों के माध्यम से छात्रों के व्यवहार में परिवर्तन व परिमार्जन करने का प्रयास करता है।
एच सी मौरीसन के अनुसार− ‘‘शिक्षण अधिक परिपक्व व्यक्तित्व तथा कम परिपक्व व्यक्तित्व के बीच एक अंतरंग सम्बन्ध है‚ जिसे बाद वाले की शिक्षा को अग्रसर करने के लिए प्रारूपित किया जाता है।’’
बी.ओ. स्मिथ के अनुसार− ‘‘शिक्षण अधिगम को कराने के निमित्त क्रियाओं की एक प्रणाली है।’’ इन परिभाषाओं से चार बातें स्पष्ट होती हैं−
(i) शिक्षण एक क्रमिक‚ व्यवस्थित व सप्रयास प्रक्रिया है।
(ii) शिक्षण से अपेक्षित परिणाम पूर्व निश्चित व सुपरिभाषित होते हैं।
(iii) शिक्षण का सम्बन्ध विद्यार्थी के व्यवहार परिवर्तन से होत है।
(iv) शिक्षण प्रक्रिया शिक्षा का एक प्रमुख अंग है।
शिक्षण की अवस्थाएँ− शिक्षण की मुख्यत: तीन अवस्थाएँ होती हैं−
(i) पूर्व−सक्रियात्मक अवस्था
(ii) अंत: सक्रियात्मक अवस्था
(iii) पश्च−सक्रियात्मक अवस्था
(i) पूर्व−सक्रियात्मक अवस्था− इसके अंतर्गत शिक्षक शिक्षण का उद्देश्य निर्धारित करता है‚ पाठ्‌यवस्तु का चयन करता है‚ उद्देश्य प्राप्ति में सहायक शिक्षण सामग्री का चयन करता है तथा अंत में पाठ योजना का निर्माण करता है।
(ii) अंत: सक्रियात्मक अवस्था− इसके अंतर्गत शिक्षक पाठ्‌यवस्तु को प्रस्तुत करता है। पाठ्‌यवस्तु को कक्षा में प्रस्तुत करने के लिए इन सोपानों का प्रयोग करता है− प्रस्तुतीकरण‚ प्रश्नोत्तर‚ श्यामपट्ट कार्य प्रदर्शन‚ मूल्यांकन प्रश्न तथा पुनर्बलन।
(iii) पश्च−सक्रियात्मक अवस्था− इसके अंतर्गत शिक्षक‚ शिक्षण का मूल्यांकन‚ शिक्षण में सुधार तथा शिक्षण की प्रतिपुष्टि जैसे सोपानों का अनुसरण करता है।
शिक्षण के स्तर- शैक्षिक उद्देश्यों के आधार पर शिक्षण को तीन स्तरों में विभाजित किया जा सकता है−
(i) स्मृति स्तर शिक्षण/विचारहीन शिक्षण
(ii) अवबोध स्तर शिक्षण
(iii) चिंतन स्तर शिक्षण/सबसे श्रेष्ठ शिक्षण
स्मृति स्तर शिक्षण− इस स्तर के अंतर्गत ज्ञान को स्मरण रखने के लिए शिक्षण प्रदान किया जाता है। ब्लूम के संज्ञानात्मक विकास के ज्ञानात्मक क्षेत्र के ‘ज्ञान’ उद्देश्य की प्राप्ति इस स्तर पर की जाती है‚ जिसके अंतर्गत व्यक्ति आवश्यकतानुसार विभिन्न तथ्यों‚ विधियों‚ प्रविधियों‚ सिद्धांतों आदि का ज्ञान रखना सीख जाता है। यह मुख्यत: रटने के सिद्धांत पर आधारित है।
हरबर्ट का स्मृति स्तर शिक्षण प्रतिमान
स्मृति स्तर के शिक्षण में संकेत अधिगम‚ शृंखला अधिगम उत्तेजना प्रक्रिया पर विशेष महत्त्व दिया जाता है। जर्मनी के प्रसिद्ध शिक्षाशाध्Eाी एवं दार्शनिक जॉन फ्रेडरिक हरबर्ड को इस स्तर के शिक्षण प्रतिमान का प्रवर्तक माना जाता है।
• स्मृति स्तर के शिक्षण प्रतिमान के प्रारूप का वर्णन निम्न सोपानों में किया गया है−
1. उद्देश्य 2. संरचना 3. सामाजिक प्रणाली 4. मूल्यांकन प्रणाली या समर्पित प्रणाली
1. उद्देश्य
(i) ज्ञानात्मक पक्ष को सबल बनाना
(ii) मानसिक पक्ष‚ जैसे− स्मृति‚ संवेग‚ भाव‚ अनुभूति‚ कल्पना इत्यादि को प्रशिक्षित करना।
(iii) तथ्यों‚ सूचनाओं‚ सिद्धांतों‚ को रटने पर बल देना।
(iv) याद रखने पर बल देना।
2. संरचना− हरबर्ट ने स्मृति स्तर के शिक्षण प्रतिमान की संरचना पाँच प्रमुख पदों में की है। जो हरबर्ट पंचपदी प्रणाली के नाम से प्रसिद्ध है। ये पाँच पद निम्न प्रकार हैं−
(i) प्रस्तावना (ii) प्रस्तुतीकरण (iii) स्पष्टीकरण तथा तुलना (iv) सामान्यीकरण (v) प्रयोग
3. सामाजिक प्रणाली− इस व्यवस्था में शिक्षक अधिक क्रियाशील रहता है। इसमें कक्षा का वातावरण नीरस होता है।
4. मूल्यांकन प्रणाली अथवा समर्पित प्रणाली− इसमें केवल ज्ञानात्मक पक्ष की जाँच होती है।_
अवबोध स्तर शिक्षण− इस स्तर को स्मृति और चिंतन स्तर के बीच की कड़ी माना जाता है। इसमें शिक्षक के द्वारा छात्रों को विभिन्न सम्प्रत्यों के परस्पर सम्बन्धों का अवबोध करने‚ नियमों को पहचानने‚ समझने‚ उनका विभिन्न परिस्थिति में अनुप्रयोग करने‚ विषय के गूढ़ भावों तथा तथ्यों को भलीभाँति समझने की क्षमता उत्पन्न की जाती है।
अवबोध स्तर शिक्षण प्रतिमान अवबोध स्तर शिक्षण प्रतिमान के जन्मदाता हेनरी सी मौरीसन हैं। इसलिए इसे मौरीसन का शिक्षण प्रतिमान भी कहा जाता है‚ इस प्रतिमान के निम्न चार तत्त्व हैं−
(i) उद्देश्य
(ii) संरचना
(iii) सामाजिक प्रणाली
(iv) मूल्यांकन प्रणाली या समर्पित प्रणाली
1. उद्देश्य− इस प्रतिमान का उद्देश्य छात्रों द्वारा प्रत्ययों का अधिकार प्राप्त कर लेना है।
2. संरचना− बोध स्तर शिक्षण व्यवस्था को निम्नलिखित सोपानों में विभाजित किया गया है−
(i) अन्वेषण (ii) प्रस्तुतीकरण (iii) आत्मीकरण अथवा परिपाक (iv) व्यवस्था (v) वर्णन अथवा अभिव्यक्तिकरण
3. सामाजिक प्रणाली−
(i) कक्षा का वातावरण पूर्ण रूप से खुला तथा स्वतंत्र होता है।
(ii) क्रियाशील शिक्षण व्यवस्था
(iii) शिक्षक का दृष्टिकोण अधिक लचीला‚ गतिशील व भावात्मक होता है।
(iv) शिक्षक एवं छात्र के मध्य प्रशंसात्मक सम्बन्ध होते हैं।
4. मूल्यांकन प्रणाली− व्यवस्था कालांश के अंत में लिखित परीक्षा तथा अभिव्यक्तिकरण अथवा वर्णन कलांश में मौखिक परीक्षा होती है।
चिंतन स्तर शिक्षण− चिंतन स्तर के शिक्षण के दौरान कक्षा में अधिक सजीव‚ प्रेरणादायी‚ सक्रिय‚ आलोचनात्मक तथा संवेदनशील वातावरण उत्पन्न किया जाता है। चिन्तन स्तर का शिक्षण मुख्यत: समस्या केन्द्रित होता है।
चिंतन स्तर शिक्षण प्रतिमान मौरिस पी हण्ट को चिंतन स्तर के शिक्षण प्रतिमान का जन्मदाता माना जाता है इस प्रतिमान के प्रारूप का अध्ययन निम्न सोपानों में किया जा सकता है−
(1) उद्देश्य (2) संरचना (3) सामाजिक प्रणाली (4) मूल्यांकन प्रणाली
(1) उद्देश्य−
(i) समस्या समाधान की क्षमता उत्पन्न करना।
(ii) स्वतंत्र मौलिक चिंतन उत्पन्न करना।
(iii) क्रियाशील और आलोचनात्मक शक्ति उत्पन्न करना।
(2) संरचना− चिंतन स्तर के शिक्षण की संरचना का स्वरूप समस्या की प्रकृति पर निर्भर करता है−
(i) व्यक्तिगत स्तर की परिस्थिति
(ii) सामाजिक स्तर की परिस्थिति इन समस्याओं को सुलझाने के दो तरीके हैं− प्रथम ड्‌यूवी की समस्यात्मक परिस्थिति द्वितीय कुर्ट लेविन की समस्यात्मक परिस्थिति
(i) ड्‌यूटी की समस्यात्मक परिस्थिति− ⇒अमार्ग अथवा पथरहित परिस्थिति ⇒दो मार्गजन्य परिस्थिति ⇒एक उद्देश्य दो मार्ग ⇒दो उद्देश्य एक मार्ग
(ii) कुर्ट लेविन समस्यात्मक परिस्थिति ⇒तनाव पथ परिस्थिति
(3) सामाजिक प्रणाली− इसमें शिक्षक का स्थान गौण तथा छात्र का स्थान प्रमुख होता है। कक्षा का वातावरण स्वतंत्र होता है।
छात्रों में स्वत: प्रेरणा का अधिक महत्त्व होता है।
(4) मूल्यांकन प्रणाली− छात्रों की अभिवृत्तियों‚ अधिगम क्रियाओं में छात्रों की तल्लीनता‚ आलोचनात्म्क व सृजनात्मक क्षमताओं के विकास का मूल्यांकन किया जाता है।
शिक्षण वातावरण−
शिक्षण की दृष्टि से कक्षा के शैक्षिक वातावरण को तीन भागों में बाँटा जा सकता है।−
1. सत्तात्मक या एकतंत्रीय वातावरण 2. प्रजातांत्रिक वातावरण 3. हस्तक्षेप रहित वातावरण
1. सत्तात्मक या एकतंत्रीय वातावरण− सत्तात्मक वातावरण में कक्षा शिक्षण के दौरान शिक्षक का सम्पूर्ण कक्षा व क्रियाकलापों पर पूर्ण नियंत्रण रहता है। * शिक्षण का वातावरण स्वेच्छाचारी होने के कारण इसे अच्छा शिक्षण नहीं माना जाता है।
2. प्रजातांत्रिक वातावरण− प्रजातांत्रिक वातावरण में शिक्षक तथा शिक्षार्थी सक्रिय रूप से भाग लेते हैं। शिक्षक का शिक्षार्थियों पर कठोर नियंत्रण नहीं होता है वरन वह उनकी जरूरतों व समस्याओं को समझकर उनका मार्गदर्शन करते हुए शिक्षण कार्य सम्पादित करता है।
3. हस्तक्षेप रहित वातावरण− इस वातावरण में शिक्षक का नियंत्रण व हस्तक्षेप नगण्य होता है। सभी विद्यार्थी अपने आप में स्वतंत्र रहते हुए सीखते हैं। इसमें शिक्षक बच्चों की इच्छानुसार शिक्षण वातावरण उत्पन्न करता है।
शिक्षण प्रक्रिया में विभिन्न चर− शिक्षण एक सामाजिक प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया में तीन चर होते हैं−
(1) शिक्षक (2) विद्यार्थी (3) पाठ्‌यक्रम
(1) शिक्षक− इसे स्वतंत्र चर कहा जाता है। यह शिक्षण की व्यवस्था‚ नियोजन तथा उसका परिचालन करता है।
(2) विद्यार्थी− शिक्षण प्रक्रिया में विद्यार्थी को आश्रित चर माना गया है। उसे शिक्षण के नियोजन‚ प्रस्तुतीकरण तथा परिचालन के अनुरूप क्रियाशील रहना पड़ता है।
(3) पाठ्‌यवस्तु या पाठ्‌यक्रम− इसको हस्तक्षेप चर माना गया है। इसके द्वारा शिक्षक व छात्र के मध्य अंत:प्रक्रिया होती है।
शिक्षण−सामग्री का स्वरूप‚ शिक्षण विधियाँ आदि शिक्षक तथा छात्र की अनुक्रियाएँ हस्तक्षेप करती हैं।
अच्छे शिक्षण की विशेषताएँ−
अच्छा शिक्षण सुनियोजित होता है।
• अच्छा शिक्षण तैयारी का एक साधन होता है।
• अच्छे शिक्षण के लिए शिक्षक का विषयवस्तु पर पूर्ण अधिकार होना चाहिए।
• अच्छे शिक्षण में छात्र व शिक्षक के मध्य सम्बन्ध मधुर व स्नेहपूर्ण होने चाहिए।
• शिक्षक को बाल−विकास का पर्याप्त ज्ञान होना चाहिए।
• अच्छे शिक्षण में मनोवैज्ञानिक सिद्धांतों का उपयोग आवश्यक है।
• अच्छा शिक्षण सहयोगी एवं प्रजातांत्रिक होता है।
• अच्छा शिक्षण प्रेरणादायक होता है।
• अच्छा शिक्षण प्रगतिपूर्ण होता है।
• अच्छा शिक्षण सीखने का संगठन करता है।
• अच्छा शिक्षण क्रियाशील‚ गतिशील तथा संघर्षपूर्ण होता है।

शिक्षण का संगठन

मूल्यांकन शिक्षण उपागम− वर्तमान समय में शिक्षण व्यवस्था के लिए प्राय: मूल्यांकन उपागम का अनुसरण किया जाता है। इस उपागम में शिक्षण को त्रिध्रुवीय प्रक्रिया माना जाता है‚ जिसके तीन ध्रुव क्रमश: ‘शिक्षण उद्देश्य’‚ ‘अधिगम अनुभव’ तथा ‘व्यवहार परिवर्तन’ होते हैं।
इस उपागम के अनुसार शिक्षण का आयोजन छात्रों को ऐसे अधिगम अनुभव प्रदान करने के लिए किया जाता है‚ जिनसे वांछित उद्देश्यों की प्राप्ति तथा छात्रों के व्यवहार में अपेक्षित परिवर्तन आ सके।
मूल्यांकन उपागम में शिक्षण सोपान− मूल्यांकन प्रक्रिया के तीन मुख्य सोपान क्रमश: (i) उद्देश्यों का निर्धारण (ii) अधिगम क्रियाओं का आयोजन (iii) मूल्यांकन करना है। परन्तु स्पष्टता व सरलता के लिए इनको कई अन्य सोपानों में बाँटा जा सकता है−
(i) उद्देश्यों का निर्धारण− मूल्यांकन प्रक्रिया का पहला कदम यह ज्ञात करना है कि किसका मूल्यांकन करना है। अर्थात वे कौन से शैक्षिक उद्देश्य हैं जिनकी प्राप्ति वांछनीय है। इसके लिए उद्देश्यों का निर्धारण करना आवश्यक होता है। उद्देश्यों का निर्धारण दो स्तर पर किया जाता है−
(A) सामान्य उद्देश्य− शिक्षण के सामान्य उद्देश्य वास्तव में एक ऐसे व्यापक तथा अंतिम लक्ष्य है जिनकी प्राप्ति किसी अध्यापक का एक सामान्य तथा दूरगामी लक्ष्य होता है। इनकी प्राप्ति किसी विशेष कक्षा शिक्षण से सम्भव नहीं हो पाता है।
(B) विशिष्ट उद्देश्य− विशिष्ट उद्देश्य छात्र में होने वाले सम्भावित व्यवहार परिवर्तन के रूप में लिखे जाते हैं। सामान्य उद्देश्य की अपेक्षा ये संकीर्ण प्रत्यक्ष तथा कार्यपरक होते हैं। इस उद्देश्य की प्राप्ति किसी विशेष कक्षा शिक्षण के उपरान्त की जा सकती है।
(C) शिक्षण बिन्दु− इसके अंतर्गत उन शिक्षण बिन्दुओं को निर्धारित किया जाता है‚ जिनके द्वारा विशिष्ट उद्देश्यों की प्राप्ति की जा सकती है। प्रत्येक शिक्षण बिन्दु अपने आप में शिक्षण की एक संक्षिप्त परन्तु पूर्ण इकाई होती है।
(ii) अधिगम क्रियाओं का आयोजन− अधिगम क्रियाएँ अनेक प्रकार से छात्रों के सम्मुख प्रस्तुत की जा सकती है। कक्षा शिक्षण‚ पुस्तकालय‚ पाठ्‌य−पुस्तकों‚ जनसंचार साधनों‚ रेडियो‚ टेलीविजन‚ चल चित्र‚ प्रयोगशालाओं‚ भ्रमण आदि की सहायता से छात्रों के व्यवहार में वांछित परिवर्तन लाया जा सकता है।
(iii) व्यवहार परिवर्तन− अधिगम क्रियाओं के प्रस्तुतीकरण के बाद छात्रों के व्यवहार में होने वाले परिवर्तनों को ज्ञात करना होता है।
विभिनन प्रकार के व्यवहार परिवर्तनों को मापने के लिए विभिन्न प्रकार की युक्तियों का उपयोग किया जाता है। बुद्धि‚ परीक्षण‚ व्यक्तित्व परीक्षण‚ सम्प्राप्ति परीक्षण‚ निदानात्मक परीक्षण‚ समाजमिति‚ साक्षात्कार‚ अवलोकन‚ प्रयोगात्मक परीक्षा आदि विभिन्न युक्तियों का प्रयोग करके छात्रों के व्यवहार में आये परिवर्तनों को ज्ञात किया जाता है।
(iv) मूल्यांकन− छात्रों के व्यवहार में होने वाले परिवर्तनों को ज्ञात करने के उपरान्त इन व्यवहार परिवर्तनों की वांछनीयता के सापेक्ष व्याख्या की जाती है। यदि आये हुए व्यवहार परिवर्तन‚ अपेक्षित व्यवहार परिवर्तनों के काफी निकट होते हैं तो शिक्षण कार्य को संतोषप्रद कहा जा सकता है।
(v) प्रतिपुष्टि− मूल्यांकन प्रक्रिया का अंतिम सोपान परिणामों को प्रतिपुष्टि के रूप में प्रयोग करना है। यदि मूल्यांकन से ज्ञात होता है कि शिक्षण के विशिष्ट उद्देश्यों की प्राप्ति नहीं हुई है तो वह प्राप्त परिणामों के आधार पर अपने शिक्षण में सुधार करता है। वह नये सिरे से उद्देश्यों को निर्धारित करता है‚ शिक्षण बिन्दुओं का चयन करता है‚ अधिगम क्रियाएँ आयोजित करता है‚ व्यवहार परिवर्तनों का मापन करता है और मूल्यांकन करता है। इस प्रकार वह प्रक्रिया तब तक चलती रहती है जब तक अपेक्षित उद्देश्यों की प्राप्ति नहीं हो जाती।

शिक्षण का नियोजन

शिक्षण में मूल्यांकन उपागम का प्रयोग करते समय शिक्षण के नियोजन पर विशेष बल दिया जाता है। किसी कक्षा में सत्र पर्यंत जिस विषय−वस्तु का ज्ञान‚ बोध व कौशल छात्रों को कराना होता है‚ उसका शैक्षणिक दृष्टि से विश्लेषण किया जाता है। इसके लिए शिक्षण के नियोजन को वार्षिक योजना‚ इकाई योजना तथा पाठ योजना नामक तीन भागों में बाँटा जा सकता है।

शिक्षण नीतियाँ

शैक्षिक प्रक्रिया के तीन महत्त्पूर्ण बिन्दु होते हैं− शिक्षक‚ छात्र तथा पाठ्‌यक्रम। शिक्षण इनके मध्य होने वाली प्रक्रिया का नाम है।
शिक्षण एक सामाजिक तथा सुनियोजित प्रकिया है। पाठ्‌यक्रम को प्रस्तुत करने के लिए शिक्षक को कुछ प्रमुख विधियों‚ प्रविधियों सहायक सामग्री आदि का प्रयोग करना पड़ता है। इसके लिए उसे एक सुव्यवस्थित नीति बनानी पड़ती है। इसी को शिक्षण नीति कहा जाता है।
शिक्षण नीतियों का वर्गीकरण−
शिक्षक के दृष्टिकोण‚ कक्षा की परिस्थितियों तथा कक्षा के वातावरण के आधार पर शिक्षण नीतियों अथवा शिक्षण व्यूह रचनाओं को प्रमुख रूप से दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है−
1. प्रभुत्ववादी शिक्षण नीतियाँ
2. जनतांत्रिक शिक्षण नीतियाँ
1. प्रभुत्ववादी शिक्षण नीतियाँ− यह शिक्षण की परम्परागत नीति है। ये शिक्षक प्रधान होती हैं‚ छात्र का स्थान गौण होता है। इन नीतियों में शिक्षक सक्रिय रहता है छात्र निष्क्रीय बैठे रहते हैं। ये नीतियाँ बालक के मनोवैज्ञानिक सिद्धांतों का पालन नहीं करती है। प्रभुत्ववादी शिक्षण नीतियाँ हैं−
(i) व्याख्या नीति (ii) प्रदर्शन नीति (iii) व्यक्तिगत निदेशन अनुवर्ग नीति (iv) अभिक्रमित अनुदेशन नीति
2. जनतांत्रिक अथवा प्रजातांत्रिक शिक्षण नीतियाँ− ये नीतियाँ बाल−केन्द्रित होती हैं। छात्र स्वयं पाठ्‌यक्रम का निर्धारण करते हैं। शिक्षक का स्थान गौण होता है। ये नीतियाँ बालक के मनोवैज्ञानिक सिद्धांतों का पालन करती है। ये नीतियाँ हैं−
(i) प्रश्नोत्तर (ii) सामूहिक वाद−विवाद (iii) अन्वेषण (iv) ऐतिहासिक खोज (v) समीक्षा‚ अभ्यास एवं कार्य तथा पुनरावृत्तियाँ नीतियाँ (vi) दत्त कार्य (vii) योजना पद्धति (viii) अनुकरणीय नीति या पात्र अभिनय (ix) मस्तिष्क उद्वेलन नीति (x) स्वतंत्र अध्ययन नीति (xi) पथ प्रदर्शक विहीन समूह नीति (xii) संवेदनशील प्रशिक्षण नीति (xiii) कम्प्यूटर द्वारा अनुदेशन नीति यहाँ हम कुछ महत्त्वपूर्ण नीतियों की विस्तृत चर्चा करेंगे
1. व्याख्या नीति− व्याख्यान का तात्पर्य किसी भी पाठ को भाषण के रूप में पढ़ाने से है। शिक्षक किसी विषय विशेष पर कक्षा में व्याख्यान देते हैं और छात्र निष्क्रिय होकर सुनते रहते हैं। यह नीति मुख्यतया शिक्षक की ‘3PS’ पर निर्भर करती है‚ ये ‘PS’ है
(i) Preparation (तैयारी) (ii) Presentation (प्रस्तुतीकरण) (iii) Personality (व्यक्तित्व)
व्याख्या नीति हेतु सुझाव−
(i) पाठ्‌यवस्तु का संगठन व्यवस्थित रूप में करना चाहिए
(ii) भाषा सरल‚ सुबोध‚ सरस तथा मुहावरेदार होनी चाहिए
(iii) व्याख्यान एक निश्चित सीमा के अंदर होनी चाहिए
(iv) व्याख्यान के मध्य अंत:प्रक्रिया अवश्य होनी चाहिए
2. व्यक्तिगत अनुवर्ग नीति− सामूहिक शिक्षण के दोषों को दूर करने के लिए कक्षा के छात्रों को छोटे−छोटे समूहों अथवा अनुवर्गों में बाँट दिया जाता है‚ जिससे शिक्षक व्यक्तिगत शिक्षण द्वारा शिक्षण को सफल एवं सरल बना सके।
डॉ. आर.ए. शर्मा के अनुसार− ‘‘अनुवर्गों का गठन सुधारात्मक दृष्टिकोण हेतु किया जाता है‚ जिससे कि सीखने वाला बालक अपनी व्यक्तिगत समस्याओं का समाधान प्राप्त कर सके।’’
3. अभिक्रमित अनुदेशन− अभिक्रमित अनुदेशन का विकास अमेरिका के प्रसिद्ध शिक्षाशाध्Eाी प्राे. बी.एफ. स्किनर एवं नारमन ए. क्राउडर ने किया था।
अभिक्रमित अनुदेशन शिक्षण की एक ऐसी विधि है‚ जिसमें छात्र अपनी व्यक्तिगत गति से अधिगम करता है तथा अपने अधिगम के साथ ही परिणामों का ज्ञान भी प्राप्त करता है। अभिक्रमित अनुदेशन तीन प्रकार का होता है−
(i) रेखीय अभिक्रमित अनुदेशन (ii) शाखीय अभिक्रमित अनुदेशन (iii) मैथटिक्स या अवरोही शृंखला अभिक्रमित अनुदेशन
4. प्रश्नोत्तर नीति− प्रश्नोत्तर नीति प्राचीन शिक्षण विधि है। इसके जन्मदाता सुकरात माने जाते हैं। रूसो के अनुसार− ‘‘बालक प्रश्न पूछने के बजाय प्रश्न पूछे जाने से अधिक सीखता है।’’
प्रश्न के प्रकार− (i) प्रस्तावना प्रश्न (ii) विकासात्मक प्रश्न (iii) विचारात्मक प्रश्न (iv) तुलनात्मक प्रश्न (v) बोध प्रश्न (vi) पुनरावृत्ति प्रश्न
प्रश्न पूछने के लिए सुझाव−
प्रश्न सरल‚ संक्षिप्त व स्पष्ट भाषा में सम्पूर्ण कक्षा से पूछने चाहिए
• प्रश्नों का वितरण कक्षा में समान रूप से किया जाना चाहिए
• गलत उत्तर आने पर शिक्षक को झुँझलाना नहीं चाहिए उसका समाधान करना चाहिए
• प्रश्नों का स्तर कक्षानुकूल होना चाहिए।
5. अन्वेषण नीति− इस विधि का सबसे पहले प्रयोग प्राे. आर्मस्ट्रांग ने किया।
उन्होंने विज्ञान के विषयों में शिक्षण देने के लिए ह्यूरिस्टिक पद्धति का प्रयोग किया। इनके अनुसार− ‘‘बालक को जितना कम−से−कम सम्भव हो उतना बताया जाय और जितना अधिक से अधिक सम्भव हो उतना खोजने के लिए प्रोत्साहित किया जाय। ‘Heuristic’ शब्द यूनानी भाषा के ‘Heurisco’ शब्द से बना है। जिसका अर्थ है− “I
find out for possible” अन्वेषण नीति में छात्र शारीरिक तथा मानसिक रूप से सक्रिय रहते हुए ज्ञान की खोज करते हैं।
6. ऐतिहासिक खोज नीति− इस नीति के जन्मदाता जे.एस. ब्रूनर हैं। इस नीति में छात्रों को ऐतिहासिक तथ्यों का अवलोकन कराकर तथा वर्णन करके उनसे लिखने को कहा जाता है। शिक्षक कुछ मौलिक तथ्यों पर प्रकाश डालता है। इस प्रकार छात्रों को नये तथ्यों की खोज मौलिक रूप से करनी पड़ती है। इस प्रकार छात्र स्वयं खोज के आधार पर तथ्यों का ज्ञान प्राप्त करते हैं।
7. दत्त कार्य नीति− दत्त कार्य पाठ−योजना का एक महत्त्वपूर्ण अंग है‚ जिसके द्वारा कक्षा की क्रियाएँ संगठित एवं निर्देशित होती हैं। ‘दत्त कार्य शिक्षण की क्रिया में वह समय है जब शिक्षक बालकों की क्रियाओं के विषय में चिंतन करता है तथा क्रियाओं की योजना अध्ययन की तैयारी के लिए बनाता है।’
8. योजना या प्रायोजना नीति− अमेरिका के प्रसिद्ध शिक्षाशाध्Eाी डब्ल्यू.एच. किलपैट्रिक इस विधि के जन्मदाता माने जाते हैं। ये प्रसिद्ध दार्शनिक एवं शिक्षाशाध्Eाी जॉन डिवी के शिष्य थे। किलपैट्रिक के अनुसार− ‘‘प्रायोजना सामाजिक वातावरण में पूर्ण संलग्नता से किया जाने वाला उद्देश्यपूर्ण कार्य है।’’
प्रायोजना नीति के चरण−
1. योजना का चुनाव 2. परिस्थिति को उत्पन्न करना 3. योजना का कार्यक्रम बनाना 4. योजना को क्रियान्वित करना 5. योजना का मूल्यांकन 6. कार्य लेखा
9. मस्तिष्क उद्वेलन नीति (ब्रेन स्टॉर्मिंग नीति)− इसमें छात्रों को एक समस्या दी जाती है और उनसे कहा जाता है कि वे विचार विमर्श करें और जो विचार उनके मस्तिष्क में आये उसको प्रस्तुत करें। इस प्रकार तर्क−वितर्क‚ वाद−विवाद‚ विचार− विमर्श के द्वारा छात्रों के मस्तिष्क में एक हलचल मच जाती है। इसमें वे अपने विचारों को निर्भिकता एवं स्वतंत्रतापूर्वक व्यक्त करते हैं। यह नीति छात्र एवं शिक्षक के मध्य अंत: प्रक्रिया पर विशेष बल देती है।
इस प्रकार विचारों व सुझावों का विश्लेषण‚ संश्लेषण तथा मूल्यांकन किया जाता है। ये नीति उच्च कक्षाओं के लिए विशेष रूप से उपयोगी है।
10. पथ प्रदर्शक विहीन समूह नीति− इस शिक्षण नीति का उद्देश्य छात्रों की समस्याओं को परस्पर सहयोग से विचार−विमर्श‚ वाद−विवाद‚ सुधार तथा आलोचना के द्वारा सुलझाने के लिए प्रोत्साहित करना है। इसमें शिक्षक की भूमिका नगण्य होती है। शिक्षक का कार्य केवल योजना बनाना‚ निर्देश देना व सहायक के रूप में होता है।
11. संवेदनशील प्रशिक्षण नीति− इस नीति में छात्रों के आपसी सम्बन्ध विकसित करके उन्हें किसी समस्या के प्रति संवेदनशील किया जाता है। इस नीति का आधार संवेदनाओं की जागृत है। इससे उनमें अहम्‌ जागृत होता है और वे पूरी शक्ति से उस कार्य को करने में लग जाते हैं। इसका प्रयोग छोटे समूह के प्रशिक्षण के लिए किया जाता है।
12. कम्प्यूटर द्वारा अनुदेशन− कम्प्यूटर द्वारा अनुदेशन का उपयोग अमेरिका में प्रारम्भ हुआ तथा ब्रिटेन में विकसित हुआ।
कम्प्यूटर के आधारभूत तत्व− आई.के. डेवीज ने अपनी पुस्तक ‘सीखने की व्यवस्था’ में लुम्सडेन द्वारा बताये गये शैक्षिक तकनीकी के तीन रूपों का वर्णन किया है‚ यही तनों रूप कम्प्यूटर के आधारभूत तत्त्व हैं−
(i) शैक्षिक तकनीकी प्रथम या कठोर शिल्प उपागम
(ii) शैक्षिक तकनीकी द्वितीय या मृदुल शिल्प उपागम
(iii) शैक्षिक तकनीकी तृतीय या प्रणाली विश्लेषण उपागम
(i) शैक्षिक तकनीकी प्रथम या कठोर शिल्प उपागम− यह उपागम इंजीनियरिंग के सिद्धांत पर आधारित है। इसका प्रारम्भ भौतिक विज्ञान तथा अभियंत्रण तकनीकी का शिक्षा तथा प्रशिक्षण प्रणाली में प्रयोग से हुआ है।
(ii) शैक्षिक तकनीकी द्वितीय या मृदुल शिल्प उपागम− इस तकनीकी का आधार मनोविज्ञान है इसलिए इसे व्यवहार प्रणाली या व्यवहार तकनीकी के नाम से भी जाना जाता है। इसमें मनोवैज्ञानिक सिद्धांतों का प्रयोग किया जाता है‚ जिससे विद्यार्थियों के व्यवहार में अपेक्षित परिवर्तन लाया जा सके।
(iii) शैक्षिक तकनीकी तृतीय या प्रणाली विश्लेषण उपागम− इसमें प्रशासन प्रबन्ध‚ व्यापार तथा सेना आदि से सम्बन्धित समस्याओं के विषय में निर्णय लेने के लिए वैज्ञानिक आधार समाहित रहता है।
कम्प्यूटर द्वारा अनुदेशन में उपर्युक्त दो उपागमों का प्रयोग किया जाता है। कम्प्यूटर के तीन प्रमुख भाग− अदा‚ प्रक्रिया तथा प्रदा होते हैं।

शिक्षक व्यवहार में सुधार

कक्षा अंत:प्रक्रिया विश्लेषण−
शिक्षण‚ शिक्षक एवं शिक्षार्थियों के मध्य होने वाली अंत:क्रिया है।
• डॉ. एन.ए. फ्लैण्डर ने अपने सहयोगियों के साथ मिलकर मिनसोटा विश्वविद्यालय में 1955 से 1960 तक कक्षा व्यवहार मूल्यांकन की दिशा में महत्त्वपूर्ण प्रयास किया जो कि ‘फ्लैंण्डर्स अंत:क्रिया विश्लेषण’ के नाम से जाना जाता है।
• फ्लैण्डर के अनुसार कक्षा में शिक्षक एवं शिक्षार्थी के मध्य अधिकतर व्यवहार शाब्दिक होता है जिसमें या तो शिक्षक या फिर शिक्षार्थी बोलता है।
• इस प्रकार शिक्षण में दो प्रक्रियाएँ होती हैं−
(i) स्वोपक्रम (Initiation)
(ii) अनुक्रिया (Response)
• फ्लैण्डर के अनुसार कक्षा शिक्षण के दौरान शिक्षक अधिकतर स्वोपक्रमकर्ता (Initiators) एवं शिक्षार्थी अधिकतर अनुक्रियाकर्ता (Responder) होता है। लेकिन किन्ही विशेष परिस्थितियों में जैसे− जब विद्यार्थी स्वयं ही प्रश्न पूछता है या कुछ कहने को उत्सुक होता है‚ तो शिक्षार्थी स्वोक्रमकर्ता हो जाता है और शिक्षक स्वयं ही अनुक्रियाकर्ता हो जाता है।
फ्लैण्डर वर्ग− फ्लैण्डर ने कक्षा व्यवहार के अध्ययन एवं मूल्यांकन के लिए इसको कई वर्गों में विभाजित करने का प्रयास किया है− फ्लैण्डर दस वर्ग प्रविधि (Flanders Ten Category Technique)
फ्लैण्डर ने कक्षा के अंतर्गत शिक्षक−छात्र‚ छात्र−छात्र के मध्य होने वाली सभी क्रियाओं व व्यवहारों को तीन भागों में विभाजित किया है−
शिक्षक−अप्रत्यक्ष कथन प्रभाव
(i) शिक्षक कथन
(ii) छात्र कथन
(iii) मौन या विभ्रांति
(i) विचार स्वीकृति− सहज रूप से छात्रों की अनुभूतियों एवं भावनाओं को महत्व देना‚ स्वीकारना। ये विचार नकारात्मक‚ स्वीकारात्मक‚ स्मरण तथा भविष्य कथन के रूप में सहायक हो सकते हैं।
(ii) प्रशंसा या प्रोत्साहन− छात्रों के व्यवहार तथा कार्य की प्रशंसा करना‚ तनाव दूर करने वाले परिहास करना‚ सिर हिलाना‚ हूँ कहना आगे कहो आदि।
(iii) छात्रों के विचारों को स्वीकार करना− छात्रों द्वारा प्रकट विचारों का स्पष्टीकरण विकसित करना‚ पुन: दोहराना।
(iv) प्रश्न पूछना− विषय सम्बन्धी पाठ्‌यवस्तु अथवा प्रक्रिया पर इस आशा से प्रश्न पूछना कि छात्र उत्तर दें।
(v) भाषण− विषय संबंधी सामग्री‚ प्रक्रिया‚ स्वयं के विचार एवं तथ्यों को प्रकट करने के लिए।
(vi) निर्देश
(vii) आलोचना
छात्र कथन या क्रिया
(viii) छात्र क्रिया-अनुक्रिया− शिक्षक के प्रश्न तथा निर्देश के लिए प्रतिक्रिया करना।
(ix) छात्र कथन स्वोपकथन या प्रारम्भिक कथन− छात्र कथन प्रश्न पूछता या स्पष्टीकरण चाहता है।
मौन विभ्रान्ति
(x) मौन विभ्रान्ति− छात्रों का रुकना‚ थोड़े समय के लिए मौन रहना जिसमें पर्यवेक्षक संप्रेषण को समझ नहीं पाता है।
शिक्षण के प्रतिमान−
शिक्षण का मुख्य उद्देश्य छात्रों में व्यवहारगत परिवर्तन लाना है। इन्हीं उद्देश्यों को प्राप्त करने हेतु विभिन्न विधियों‚ प्रविधियों‚ योजनाओं तथा स्वरूपों को प्रयोग में लाया जाता है‚ जिन्हें शिक्षण का प्रतिमान कहते हैं।
शिक्षण प्रतिमान की परिभाषा−
डीसीको एवं क्रोफोर्ड के अनुसार− ‘‘शिक्षण प्रतिमान शिक्षण सिद्धांत का सर्वोच्य प्रतिस्थापन्न है। शिक्षण प्रतिमान बताते हैं कि किस प्रकार अधिगम शिक्षण परिस्थितियाँ परस्पर संबंधित हैं।’’
• बी.आर. जॉयस के अनुसार− ‘‘शिक्षण प्रतिमान अनुदेशन की रूपरेखा माने जाते हैं इसके अंतर्गत विशेष लक्ष्य प्राप्ति हेतु विशिष्ट परिस्थिति का उल्लेख किया जाता है‚ जिसमें शिक्षक व छात्र की अंत:प्रक्रिया इस प्रकार हो कि छात्र के व्यवहार में वांछित परिवर्तन लाया जा सके।’’
शिक्षण प्रतिमान की रूपरेखा− शिक्षण प्रतिमान में शिक्षण की विशिष्ट रूपरेखा का विवरण होता है। इसमें विशेष रूप से छ: क्रियाएँ सम्मिलित रहती हैं−
(i) निष्पत्ति को व्यवहारिक रूप देना। (ii) उद्दीपन का चयन (iii) परिस्थितियों का विशिष्टीकरण (iv) मानदण्ड व्यवहारों को निर्धारित करना (v) अंत:प्रक्रिया विश्लेषण (vi) व्यवहार संशोधन
शिक्षण प्रतिमान के तत्त्व−
(i) उद्देश्य (ii) संरचना (iii) सामाजिक प्रणाली (iv) मूल्यांकन प्रणाली या समर्पित प्रणाली
शिक्षण प्रतिमानों का महत्त्व−
(i) शिक्षण प्रतिमान कुछ विशिष्ट प्रकार के उद्देश्यों की प्राप्ति में सहायक होते हैं।
(ii) ये शिक्षण व निर्देशन के ढाँचे का निर्माण करते हैं।
(iii) इसके द्वारा शिक्षक के व्यक्तित्व की गुणात्मक उन्नति होती है।
(iv) प्रतिमान के द्वारा शिक्षण में सुधार तथा परिवर्तन लाया जा सकता है।
(v) प्रतिमान में अनेक विधियों‚ प्रविधियों तथा युक्तियों को प्रयुक्त किया जाता है।
(vi) यह मूल्यांकन की विशिष्ट कसौटी प्रस्तुत करता है और व्यवहार का मूल्यांकन करता है।
शिक्षण प्रतिमानों के प्रकार− शिक्षण प्रतिमानों को चार भागों में वर्गीकृत किया जाता है−
• ब्रूस आर. जोयस तथा मार्शवेल ने अपनी पुस्तक ‘Models of Teaching’ में सभी शिक्षण प्रतिमानों की समीक्षा करके उन्हें चार भागों में बाँटा है−

शिक्षण अधिगम सामग्री

ऐसे उपकरण‚ साधन या सामग्री जो शिक्षण को सरल‚ सहज तथा बोधगम्य बनाते हैं उन्हें शिक्षाविद्‌ शिक्षण अधिगम सामग्री का नाम देते हैं।
आवश्यकता एवं महत्त्व−
शिक्षण प्रक्रिया में क्रियाशीलता बनी रहती है।
• सीखने में अपेक्षाकृत कम समय लगता है।
• प्राप्त ज्ञान स्थायी होता है।
• कक्षा में नियमित उपस्थिति बढ़ जाती है।
• बच्चों में एक दूसरे का सहयोग करने की भावना बढ़ती है।
• कक्षा नियोजन की प्रक्रिया सरल हो जाती है।
• सीखने की उपलब्धि ज्यादा होती है।
• कक्षा−कक्ष का ध्यानाकर्षित करने में सहायक होती है।
• अधिकतम ज्ञानेन्द्रियों की सक्रियता बढ़ जाती है।
शिक्षण अधिगम सामग्री के प्रकार− स्वरूप के आधार पर शिक्षण अधिगम सामग्री के तीन प्रकार
1. दृश्य सामग्री 2. श्रव्य सामग्री 3. दृश्य−श्रव्य सामग्री

अधिगम

व्यक्ति जिस समय से जन्म लेता है उसी समय से सीखने की प्रक्रिया का आरम्भ होता है और वह जीवन पर्यंत सीखता रहता है।
व्यक्ति के सीखने का कोई निश्चित समय और स्थान नहीं होता है।
वह हर पल कुछ न कुछ सीखता रहता है। इस प्रकार वह आजीवन सीखता हुआ और इसके फलस्वरूप अपने व्यवहार में परिवर्तन करता हुआ जीवन में आगे बढ़ता चला जाता है। इसलिए वुडवर्थ ने कहा है− ‘‘सीखना विकास की प्रक्रिया है।’’
अधिगम की विशेषताएँ−
सीखना सम्पूर्ण जीवन काल तक चलता है।
• *सीखना व्यवहार में अपेक्षाकृत स्थायी परिवर्तन है।
सीखना सार्वभौमिक है।
• *सीखना विकास/अभिवृद्धि है।
सीखना अनुकूलन है।
• सीखना नया कार्य है।
• सीखना अनुभवों का संगठन है।
• *सीखना उद्देश्यपूर्ण/लक्ष्योन्मुखी प्रक्रिया है।
सीखना विवेकपूर्ण है।
• सीखना वातावरण की उपज है।
• सीखना सक्रिय है।
• सीखना खोज करना है।
• सीखना व्यक्तिगत व सामाजिक दोनों है।
अधिगम की प्रभावशाली विधियाँ−
1. करके सीखना 2. निरीक्षण करके सीखना 3. परीक्षण करके सीखना 4. सामूहिक विधियों द्वारा सीखना 5. मिश्रित विधियों द्वारा सीखना 6. सीखने की स्थिति का संगठन करना 7. वाद विवाद द्वारा सीखना 8. सम्मेलन व विचार गोष्ठियों द्वारा सीखना 9. कार्यशाला में सीखना
10. खेल द्वारा सीखना
सामाजिक क्रियाकलाप के रूप में अधिगम−
सामाजिक क्रियाकलाप के रूप में अधिगम के सिद्धांत को मानने वाले मनोवैज्ञानिक में अलबर्ट बण्डूरा और वाइगोत्सकी का नाम प्रमुख है। अत: यहाँ हम इन्हीं मनोवैज्ञानिकों के अधिगम सिद्धांतों की चर्चा करेंगे।

बण्डूरा का सामाजिक अधिगम सिद्धांत

अमेरिका के अल्बर्ट बण्डूरा एक सामाजिक मनोवैज्ञानिक के रूप में जाने जाते हैं। इन्होंने सीखने की प्रक्रिया में अन्यों के व्यवहारों का अवलोकन करने तथा उनकी नकल करके सीखने के महत्त्व पर बल दिया। इसलिए बण्डूरा के अधिगम सिद्धांत को बण्डूरा का सामाजिक अधिगम सिद्धांत के नाम से जाना जाता है।
सामाजिक अधिगम सिद्धांत के अनुसार प्रत्यक्ष अनुभवों पर आधारित अधिगम के स्थान पर अप्रत्यक्ष अनुभवों पर आधारित अधिगम अर्थात्‌ अवलोकनात्मक अधिगम का सीखने की प्रक्रिया में अधिक सार्थक स्थान है।
सामाजिक मनौवैज्ञानिकों के अनुसार बालक दूसरों के व्यवहारों को देखकर‚ सुनकर व समझकर सीखता है। जन्म से ही बालक अपने माता−पिता‚ भाई−बहन आदि आस−पास के लोगों के व्यवहारों का अवलोकन करने लगता है एवं कालान्तर में उनमें से कुछ के व्यवहारों का अनुकरण अपने व्यवहार में करने लगता है।
जिन व्यक्तियों के व्यवहारों का वह अवलोकन करता है उसे निदर्श (Models) तथा इस प्रकार से निदर्श के व्यवहारों का अनुकरण करके किये गये अवलोकनात्म्क अधिगम को निदर्शन कहा जाता है।
बण्डूरा ने इस प्रकार के अधिगम प्रक्रिया में चार सोपान बताये हैं−
1. व्यवहार को जानना तथा उसका प्रत्यक्षण करना
2. व्यवहार का स्मरण करना
3. स्मृति को क्रिया में बदलना
4. अनुकरणित व्यवहार का पुनर्बलन उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट होता है बालक सामाजिक क्रिया− कलाप के रूप में अवलोकन के द्वारा अधिकांश व्यवहार सीखता है।
जैसे− साइकिल चलना‚ तैरना‚ कपड़े पहनना‚ खाने−पीने की आदते आदि।

वाइगोत्सकी का सीखने का सिद्धांत

वाइगोत्सकी के अनुसार अधिगम और विकास की पारस्परिक प्रक्रिया में बालक की सक्रिय भागीदारी होती है‚ जिमसें भाषा का संज्ञान पर सीधा प्रभाव पड़ता है। इनके अनुसार अधिगम और विकास अंतर्सम्बन्धित प्रक्रियाएँ हैं जो छात्र के पहले दिन से प्रारम्भ हो जाती है।
वाइगोत्सकी के अनुसार विभिन्न बालकों के अलग−अलग विकास स्तर पर अधिगम की व्यवस्था समरूप तो हो सकती है किन्तु एक रूप नहीं क्योंकि सभी बच्चों का सामाजिक अनुभव अलग− अलग होता है।
वाइगोत्सकी अपने सामाजिक−सांस्कृतिक सिद्धांत के लिए जाने जाते हैं। इस सिद्धांत के अनुसार सामाजिक अंत:क्रिया ही बालक की सोच व व्यवहार में निरंतर बदलाव लाता है जो एक संस्कृति से दूसरे में भिन्न हो सकता है।
वाइगोत्सकी ने अपने सिद्धांत में संज्ञान और सामाजिक वातावरण का सम्मिश्रण किया। बालक अपने से बड़े और ज्ञानी व्यक्तियों के सम्पर्क में आकर चिंतन और व्यवहार के संस्कृति अनुरूप तरीके सीखते हैं।
वाइगोत्सकी के अनुसार बालक अपने वास्तविक विकास स्तर से आगे जाकर समस्याओं का समाधान कर सकते हैं यदि उन्हें थोड़ा निर्देश मिल जाये। इस स्तर को वाइगोत्सकी ने सम्भावित विकास कहा है।
बालक के वास्तविक विकास और सम्भावित विकास स्तर के बीच के अंतर क्षेत्र को वाइगोत्सकी ने निकटतम्‌ विकास का क्षेत्र कहा है।

अधिगम के सामाजिक सांस्कृतिक संदर्भ

बच्चों के लिए अधिगम का सामाजिक सांस्कृतिक संदर्भ महत्त्वपूर्ण होता है‚ क्योंकि जो कुछ भी वह सीखता है वह एक विशेष सामाजिक संदर्भ में ही सीखता है। बालक दो प्रक्रियाओं के माध्यम से सामाजिक परिवेश में सीखता है− (i) संस्कृतिकरण (ii) संस्कृति संक्रमण
(i) संस्कृतिकरण− संस्कृतीकरण को समाजीकरण की प्रक्रिया के रूप में देखा जा सकता है। बालक प्रारम्भ से ही अपने माता− पिता‚ भाई−बहन‚ समकक्ष समूह‚ समुदाय और फिर विद्यालय और अध्यापकों से अन्योन्यक्रिया द्वारा अपनी संस्कृति या समाज के आधारभूत सिद्धांत सीखता है। इसे ही संस्कृतिकरण के रूप में जाना जाता है। हम संस्कृतिकरण की परिभाषा निम्न प्रकार ऐसी प्रक्रिया जिसमें व्यक्ति अपनी संस्कृति के मूल्यों‚ मान्यताओं‚ परम्पराओं‚ विश्वासों आदि को मान्यता देता है व उनका अनुसरण कर अपने आपको संस्कृति का सक्रिय सदस्य बनाता है‚ संस्कृतिकरण कहा जा सकता है।
विद्यालय औपचारिक रूप से समाज विशेष के मान्यताओं‚ मूल्यों‚ परम्पराओं‚ विश्वासों के अनुसार बच्चे को ढालने का सक्रिय प्रयास करता है। बच्चे सहयोग‚ मित्रता‚ सामाजिक न्याय और समानता‚ सहानुभूति और सहनशीलता के मूल्य परिवार और विद्यालय में समकक्ष समूहों‚ प्रौढ़ों और अध्यापक के माध्यम से सीखता है।
बच्चे अपने संवेगों पर नियंत्रण करना‚ राष्ट्रगान‚ राष्ट्रध्वज के प्रति सम्मान प्रदर्शित करना‚ दूसरों का सहयोग करना आदि विद्यालय में ही सीखते हैं। यह सब संस्कृतिकरण की प्रक्रिया के कारण होता है।
(ii) संस्कृति संक्रमण− जहाँ एक ओर‚ संस्कृतिकरण किसी व्यक्ति द्वारा अपनी ही संस्कृति के उपयुक्त व्यवहारों का अंगीकरण करना होता है वहीं दूसरी ओर संस्कृति संक्रमण किसी दूसरी संस्कृति का अधिगम होता है। यह अपने सांस्कृतिक मूल्यों और मानदण्डों से कोई समझौता किये बिना अन्य संस्कृति के मानदण्डों और परम्पराओं के प्रति अनुकूलन की प्रक्रिया है।
समाजीकरण− समाजीकरण में संस्कृतिकरण और संस्कृति− संक्रमण दोनों प्रक्रियाएँ सम्मिलित हैं। यह ऐसी अधिगम प्रक्रिया है‚ जो जन्म के कुछ देर बाद से ही प्रारम्भ हो जाती है। यह उस प्रक्रिया को घोषित करता है जिसके माध्यम से व्यक्ति वर्तमान सामाजिक मानदण्ड और संरचनाएँ अर्जित करता है‚ और इस प्रकार उस समाज का अंग बन जाता है जिससे वह सम्बद्ध है और साथ ही साथ भिन्न− भिन्न संस्कृतियों और परम्पराओं से समायोजन करना भी सीख जाता है।
सामाजिक संदर्भ में शिक्षण−
अध्यापक को सामाजिक अन्योन्यक्रियाओं को बढ़ावा देना चाहिए ताकि छात्र सामाजिक कौशल सीख सकें।
• अध्यापक को विद्यार्थियों की सांस्कृतिक विविधता की जानकारी होनी चाहिए।
• अध्यापन−अधिगम प्रक्रिया में सांस्कृतिक संदर्भों और उदाहरणों का समावेशन करना चाहिए।
• स्थानीय इतिहास के उदाहरणों का प्रयोग कर उसे क्षेत्रीय व राष्ट्रीय इतिहास से जोड़ना चाहिए।
• सामूहिक क्रिया कलापों को प्रोत्साहन देना चाहिए।
• विद्यार्थियों को वर्तमान सामाजिक मुद्दों से अवगत करना चाहिए।

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