Chapter Notes and Summary
हजारीप्रसाद द्विवेदी द्वारा रचित पाठ ‘एक कुत्ता और एक मैना’ में पशु-पक्षियों के प्रति मानवीय प्रेम को दर्शाया गया है।
गुरुदेव का स्वास्थ्य बहुत अच्छा नहीं था। शायद इसीलिए वे शांति-निकेतन छोड़कर श्री निकेतन के तिमंजिले मकान में रहने के लिए चले गए थे।
छुट्टियों का समय था। इस कारण अधिकांश लोग आश्रम से बाहर गए हुए थे और मैं सपरिवार गुरुदेव से मिलने के लिए पहुँच गया। मुझे देखकर गुरुदेव मुस्कराकर कहते थे‚ ‘‘एक भद्र लोक आपनार दर्शनेर जन्य ऐसे छेऩ’’।
श्री निकेतन में शांतिपूर्ण वातावरण था। गुरुदेव बाहर एक कुर्सी पर बैठकर डूबते हुए सूरज को देख रहे थे। मुझे देखकर मुस्कराए और बच्चों के साथ छेड़-छाड़ की‚ कुछ प्रश्न पूछे‚ फिर शांत भाव से बैठ गए। इसी बीच एक कुत्ता दुम हिलाता हुआ आ गया। गुरुदेव ने उसकी पीठ पर हाथ फेरा‚ तो कुत्ते ने आँखें बंद कर लीं मानो उसका रोम-रोम स्नेह रस से भर गया हो। किसी ने भी कुत्ते को रास्ता नहीं बताया था‚ फिर भी वह श्री निकेतन पहुँच गया। इसी कुत्ते को लक्ष्य कर उन्होंने आरोग्य में इस भाव की कविता लिखी। इस वाक्यहीन प्राणी लोक में सिर्फ यही एक जीव है जो अच्छा-बुरा सबको भेदकर संपूर्ण मनुष्य को देख सकता है।
आश्चर्य की बात तो यह है कि जब गुरुदेव की चिताभस्म कलकत्ते से आश्रम लायी गयी‚ तब उस समय भी न जाने किस सहज बोध के बल पर वह कुत्ता आश्रम के द्वार तक आया और चिताभस्म के साथ अनन्य आश्रमवासियों के साथ उत्तरायण तक गया। वह चिताभस्म के कलश के पास थोड़ी देर शांत भाव से बैठा रहा।
कुछ पहले की घटना है कि गुरुदेव बगीचे में एक-एक फूल-पत्ते को ध्यान से देखते जा रहे थे और अध्यापक महाशय से बात भी कर रहे थे। अचानक उन्होंने कहा कि ‘‘आज-कल’ कौवे कहाँ चले गए हैं? मैं तो कौवों को सर्वव्यापी समझता था।’’
उसी दिन बातों के माध्यम से मुझे पता चला कि कौवे भी प्रवास को जाते हैं। एक हफ्ते बाद पुन: कौवे दिखाई देने लगे।
दूसरी बार जब मैं सुबह-सुबह गुरुदेव के पास गया। उस समय वहाँ एक लँगड़ी मैना फुदक रही थी। गुरुदेव ने कहा ‘‘देखते हो‚ यह यूथभ्रष्ट है। रोज फुदकती है‚ ठीक यहीं आकर। मुझे इसकी चाल में एक करुण भाव दिखाई देता है। लेखक तीन-चार वर्षों से एक नए मकान में रहने लगा था। वहाँ की दीवारों में सुराख थे।
मैना दंपति उसमें तिनकों और चीथड़ों से अपनी गृहस्थी बना डालते थे। दोनों के नाच-गाने से सारा मकान गुंजित हो उठता था। गुरुदेव के बताने पर ही लेखक मैना के कर्म के भाव को समझ सका।
मैना करुण भी हो सकती है‚ यह बात लेखक को गुरुदेव की बात को ध्यान से सोचने समझने के बाद ही समझ में आयी।
मैना के मुख पर करुण भाव हैं‚ क्यों वह अपने दल से अलग होकर अकेली रहती है। वह संगीहीन होकर कीड़े का शिकार करती है। नाच-गाना उसे अच्छा नहीं लगता‚ क्यों? पहले तो यह फुदकती रहती थी। क्या इसे समाज ने दंडित किया है? इसकी चाल में वैराग्य का गर्व भी नहीं है। दो आग-सी जलती आँखें भी नहीं दिखाई देती हैं।
जब लेखक गुरुदेव की इस कविता को पढ़ता है‚ तो मैना की करुण मूर्ति उसके सामने स्पष्ट हो जाती है। कवि की आँखें उस बेचारी के मर्मस्थल तक पहुँच जाती हैं।
एक दिन वह मैना उड़ गई। शाम को कवि ने देखा तो वह नहीं थी।