Chapter Notes and Summary
इस पाठ के लेखक डॉ. श्यामाचरण दुबे हैं। लेखक इस पाठ में विज्ञापनों की चमक-दमक से प्रभावित होकर सामानों की खरीदारी करने वालों को बताना चाह रहा है‚ कि वस्तु के गुणों पर ध्यान न देकर विज्ञापन से प्रभावित होकर व्यक्ति गलत वस्तुएँ खरीद लेते हैं। बाहरी दिखावे के कारण सब जगह अशांति और विषमता फैलती जा रही है। सभी व्यक्ति सुख प्राप्त करने वाली वस्तुओं को खरीदना चाहते हैं। इस कारण विलासिता की चीजों की बिक्री अधिक हो रही है।
विज्ञापन व्यक्तियों को आकर्षित करते हैं। सौंदर्य प्रसाधन की वस्तुओं के सुंदर एवं आकर्षक विज्ञापनों को देखकर व्यक्ति अपने घरों में सजाते हैं। उच्च वर्ग की महिलाएँ इन पर ` 20-30 हजार खर्च कर इनसे अपनी ड्रेसिंग टेबिल सजाकर रखती हैं‚ जबकि दूसरी ओर पुरुष भी आफ्टर शेव एवं सुंदर महँगी घड़ियों की खरीदारी की होड़ में लगे रहते हैं।
इसी प्रकार परिधान के क्षेत्र में जगह-जगह महँगे बुटीक खुल गए हैं‚ जहाँ नए फैशन के कपड़े मिलते हैं। डिजाइनर घड़ियाँ‚ म्यूजिक सिस्टम‚ कम्प्यूटर आदि फैशन और ऊँची शान का प्रतीक समझा जाने लगा है। शादियाँ पाँच सितारा होटलों में होती हैं‚ महँगे अस्पताल खुल गए हैं। पढ़ाई के लिए भी व्यक्ति एयरकंडीशनर वाले स्कूलों में ही बच्चों को भेजना चाहते हैं।
हमारी परंपराएँ‚ संस्कृति समाप्त होती जा रही हैं। जो आज हो रहा है‚ वह पश्चिमी सभ्यता का अनुकरण करने के कारण ही हो रहा है।
हम पश्चिमी सभ्यता एवं संस्कृति की नकल करते हुए हम बौद्धिक रूप से फिर उनके गुलाम न बन जाएँ। हम आधुनिकता के झूठे मानदंड अपनाकर मान-सम्मान प्राप्त करने की अंधी होड़ में अपनी परंपरा को खोकर दिखावटी आधुनिकता के मोह-पाश में जकड़े जा रहे हैं। इसका परिणाम यह हो रहा है कि सामाजिक संबंधों में दूरियाँ बढ़ रही हैं। हमारे सीमित संसाधनों का अपव्यय हो रहा है। पारस्परिक प्रेम
कम हो रहा है। जीवन-स्तर में उन्नति के कारण समाज के विभिन्न वर्गों में अंतर बढ़ रहा है। इस कारण समाज में विषमता और अशांति फैल रही है। मर्यादाएँ समाप्त हो रही हैं। हमारी संस्कृति लुप्त हो रही है।
हर तरफ से स्वस्थ संस्कृति को अपनाओ परंतु अपनी संस्कृति का त्याग मत करो‚ ऐसा गाँधीजी ने कहा था। यह उपभोक्ता संस्कृति हमारी सामाजिक नींव को हिला रही है। इसलिए हमें इस बड़े खतरे से बचना होगा क्योंकि भविष्य में यह हमारे लिए एक बड़ी चुनौती बन सकती है।