Chapter Notes and Summary
‘दु:ख का अधिकार’ पाठ के लेखक हैं—यशपाल। यशपाल की अधिकांश कहानियाँ सामाजिक समानता के साथ-साथ आर्थिक समानता का पक्ष रखती हैं।
‘दु:ख का अधिकार’ कहानी में यशपाल ने समाज में फैले अंधविश्वास और कुरीतियों के साथ-साथ समाज के उस दोगलेपन को भी उजागर किया है‚ जिसमें अमीर और गरीब के बीच का फर्क स्पष्ट दिखता है। दु:ख और सुख समान रूप से प्रत्येक मनुष्य को प्रभावित करता है‚ परंतु हमारे समाज का एक बड़ा हिस्सा दु:ख और सुख जैसे भावों को भी श्रेणीबद्ध कर देता है। सुख और दु:ख पर केवल धनी वर्ग का ही अधिकार है‚ निर्धन वर्ग का नहीं। ‘दु:ख का अधिकार‘ कहानी इसी विसंगति की ओर संकेत करती है।
लेखक का मानना है कि पोशाकें (वस्त्र) समाज को अलग-अलग वर्गों में बाँटती हैं। अच्छी एवं संभ्रांत पोशाक समाज में सम्मान एवं हैसियत दिलाती है। पोशाकें मनुष्य के मन-मस्तिष्क में इस कदर छाई रहती हैं कि चाहते हुए भी समृद्ध व्यक्ति किसी गरीब-असहाय व्यक्ति के दु:ख को नहीं जान सकता। लेखक के साथ भी यही समस्या है। बाजार में उसने देखा कि एक अधेड़ स्त्री खरबूजे लिए बैठी है। वह स्त्री एक कपड़े से मुँह छिपाए रो रही है। आस-पड़ोस में खड़े लोग उस बूढ़ी स्त्री को हेय दृष्टि से देख रहे हैं। लेखक उस स्त्री के रोने का कारण जानना चाहता है, परंतु वह संकोचवश उस स्त्री के पास जाने से कतराता है। दुकानों से पता चला कि इस बुढ़िया का तेईस बरस का जवान लड़का था। बहू और पोते-पोती से घर पूरा भरा था। लड़का डेढ़ बीघे जमीन पर मौसमी सब्जी-फल उगाकर अपने परिवार की रोजी-रोटी चलाता था। एक दिन लड़का सुबह-सुबह खेत से पके खरबूजे तोड़ रहा था कि अचानक उसका पैर एक जहरीले साँप पर पड़ गया‚ साँप ने उसे डँस लिया।
बूढ़ी स्त्री ने झाड़-फूँक‚ दान-दक्षिणा करवाई‚ पर कोई लाभ न हुआ। अंतत: लड़का
मर गया। गरीब असहाय परिवार का वही तो एक सहारा था। कफन के लिए भी पैसे न थे सो बुढ़िया ने बचे-खुचे गहने बेचकर बेटे का अंतिम संस्कार करवाया। अगले दिन पोता-पोती को भूख से बिलबिलाते और बहू को बुखार से तपते देख बुढ़िया रोती बिलखती खरबूजे की टोकरी उठा‚ बाजार में जा बैठी। बेटे की तेरहवीं सम्पन्न किए बिना बुढ़िया का इस तरह बाजार में आ बैठना वहाँ के लोगों को आपत्तिजनक लगने लगा। बुढ़िया की आर्थिक स्थिति की जाने बिना लोगों का इस तरह उसे दुत्कारना लेखक को अच्छा न लगा।
बूढ़ी स्त्री के पुत्र वियोग के तरीके को तथा लोगों का उसके प्रति घृणात्मक टिप्पणी करते देख लेखक को याद आई अपने पड़ोस की वह संभ्रांत महिला जो पुत्र के निधन पर वह अढ़ाई महीने तक पलंग से न उठी थी। पंद्रह-पंद्रह मिनट पर उस महिला का बेहोश हो जाना पूरे शहर को करुणा से भर गया और इधर यह बूढ़ी स्त्री है जिसके दु:ख को समाज समझ नहीं रहा है। उसे दु:ख मनाने का अधिकार नहीं है क्योंकि वह निर्धन है। यदि वह अमीर होती और उसे भी अपने घर-परिवार के पेट की चिंता न होती‚ तो उसे भी दु:ख मनाने का अधिकार होता और पूरा समाज उसके दु:ख में सम्मिलित होता। प्रस्तुत कहानी समाज की इसी विसंगति की ओर संकेत करती है।