Chapter Notes and Summary
पांडव समस्त राज्य के स्वामी बन गए थे। राजकाज का भार सँभालने के बाद भी वे सुख और संतोष की अनुभूति नहीं कर पा रहे थे।
युद्ध में मारे गए अपनों का दु:ख उन्हें पीड़ा पहुँचाता था।
युधिाञ्रि के आदेश से धृतराष्ट्र व गांधारी का सभी लोग विशेष धयान रखते थे। उनकी सुख-सुविधा में पांडव लगे रहते थे। प्रयास यह रहता था कि वृद्ध धृतराष्ट्र को अपने पुत्रें का अभाव न हो। धृतराष्ट्र भी पांडवों से स्नेह करते थे।
इसके बाद भी भीमसेन का व्यवहार यदा-कदा अप्रिय लगने लगता था। वह धृतराष्ट्र व गांधारी को सुनाते हुए ऐसी बात कह देता था कि जो इस वृद्ध-दम्पत्ति को अच्छी नहीं लगती थीं। दुर्योधान व दु:शासन के अत्याचार व उनसे मिले अपमान को भीम भुला नहीं पा रहा था। वह धृतराष्ट्र के आदेशों का पालन नहीं होने देता था। भीमसेन का यह व्यवहार धाृतराष्ट्र के हृदय पर तीखी चोट करता था।
युधिाष्ठिर ने धाृतराष्ट्र के लिए हर प्रकार के आराम की व्यवस्था कर रखी थी। फिर भी धृतराष्ट्र का मन सुख-भोग में नहीं लगता था।
गांधारी तो सदैव पति का अनुसरण करती रही। संसार से दूर जाने की इच्छा से एक दिन धृतराष्ट्र धार्मराज के भवन में गए और उनसे बोले कि तुम तो शास्त्रें के ज्ञाता हो और यह भी जानते हो कि हमारे वंश की परम्परागत प्रथा के अनुसार हम वृद्धों को वल्कल धारण करके वन में जाना चाहिए।
इसके अनुसार ही मैं अब तुम्हारी भलाई की कामना करता हुआ वन में जाकर रहना चाहता हूँ। तुम्हें इस बात की अनुमति मुझे देनी ही होगी। युधिाञ्रि यह सुनकर बहुत दु:खी हुए और बोले कि आप चाहें अपने पुत्र् युयुत्सु को गद्दी पर बैठाएँ, किसी और को राजा बनाएँ अथवा आप स्वयं शासन अपने हाथ में लें। मैं वन चला जाऊँगा।
यह सुनकर धृतराष्ट्र बोले कि कुन्ती-पुत्र्! मेरे मन में वन में जाकर तपस्या करने की इच्छा बड़ी प्रबल हो रही है। तुम्हारे साथ में इतने वर्षों तक सुखपूर्वक रहा और तुम्हारे भाई सभी मेरी सेवा-सुश्रूषा करते रहे। वन में जाने का मेरा ही समय है, तुम्हारा नहीं। इस कारण वन में जाने की अनुमति तुम्हें देने का सवाल ही नहीं उठता। यह अनुमति तो तुमको देनी ही होगी। युधिाञ्रि हाथ जोड़कर चुप खड़े हो गए तब धृतराष्ट्र आचार्य स्रप एवं विदुर से बोले कि भैया विदुर और आचार्य! आप लोग महाराज युधिाञ्रि को समझा-बुझाककर मुझे वन में जाने की अनुमति दिलाइए। युधिाञ्रि को अनुमति देनी पड़ी। धृतराष्ट्र व गांधारी वन के लिए चल दिए। उनके साथ राजमाता कुन्ती भी चल पड़ी। धृतराष्ट्र ने गांधारी के कन्धो का सहारा लिया और गांधारी ने कुन्ती के कन्धो को थाम लिया। युधिाञ्रि ने कुन्ती को रोकना चाहा किन्तु वह नहीं मानी।
धृतराष्ट्र, गांधारी और कुन्ती ने तीन वर्ष तक वन में तपस्वियों का-सा जीवन व्यतीत किया। संजय भी उनके साथ था।