Chapter Notes and Summary
रोती-बिलखती स्त्र्यिों के मध्य से निकलते हुए युधिष्ठिर भाइयों एवं श्रीस्रष्ण के साथ धृतराष्ट्र के पास पहुँचे और नम्रतापूर्वक हाथ जोड़कर खड़े हो गए। धृतराष्ट्र ने भीम को अपने पास बुलाया। श्रीस्रष्ण ने धृतराष्ट्र के क्रोध का अनुमान लगाकर एक लौह-मू£त को उनके सामने खड़ा कर दिया। जिसे छाती से लगाते ही धृतराष्ट्र ने चूर-चूर कर दिया। किंतु याद आते ही शोक विह्वल हो उठे। तब श्रीस्रष्ण ने उन्हें
धाीरज बँधाया और सत्य से अवगत कराया।
शोकमग्न युधिष्ठिर ने वन जाने का निश्चय किया। तब सब भाइयों ने युधिष्ठिर को समझाया। ह्रअर्जुन ने गृहस्थ धर्म की श्रेष्ठता पर प्रकाश डाला। भीमसेन ने कटु वचनों से काम लिया। नवुळल ने प्रमाणपूर्वक यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया कि कर्म-मार्ग न केवल सुगम है, बल्कि उचित भी है, जबकि संन्यास-मार्ग कँटीला और दुष्कर है। इस तरह देर तक युधिष्ठिर से वाद-विवाद होता रहा। सहदेव ने नवुळल के पक्ष का समर्थन किया और अंत में अनुरोध किया कि हमारे पिता, माता, आचार्य बंधु सब वुळछ आप ही हैं। हमारी ढिठाई को क्षमा करें। द्रौपदी भी इस वाद-विवाद में पीछे न रही। वह बोली कि अब तो आपका यही कर्तव्य है कि राजोचित धर्म का पालन करते हुए राज्य-शासन करें और चिंता न करें। शासन-सूत्र् ग्रहण करने से पहले युधिष्ठिर भीष्म के पास गए जो युद्धभूमि में शर-श”या पर पड़े हुए मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहे थे। पितामह ने युधिष्ठिर को धर्म का मर्म समझाते हुए विस्तृत उपदेश दिया। धृतराष्ट्र ने भी युधिष्ठिर के पास आकर कहा कि बेटा, तुम्हें इस तरह शोक विह्वल नहीं होना चाहिए। दुर्योधन ने जो मूर्खताएँ की थी, उनको सही समझकर मैंने धोखा खाया। इस कारण मेरे सौ-के-सौ पुत्र् उसी भाँति काल-कवलित हो गए, जैसे सपने में मिला हुआ धन नींद खुलने पर लुप्त हो जाता है। अब तुम्हीं मेरे पुत्र् हो। इस कारण तुम्हें दु:खी नहीं होना चाहिए।