Chapter Notes and Summary
युद्ध की तैयारी में पांडव पक्ष ने सात व कौरव पक्ष ने ग्यारह अक्षौहिणी सेना तैयार कर ली। युद्ध रोकने के प्रयास में युधिाञ्रि ने पांचाल नरेश के पुरोहित को राजदूत बनाकर हस्तिनापुर भेजा। दूत ने महाराज धाृतराष्ट्र से कहा कि युधिाञ्रि लड़ना नहीं चाहते। वे समझौते के अनुसार अपना हिस्सा चाहते हैं।
भीष्म ने दूत के कथन का समर्थन किया किन्तु कर्ण ने विरोधा करते हुए-पांडव अज्ञातवास की अवधिा समाप्त होने से पहले ही पहचाने गए हैं। अत: उनको पुन: बारह वर्ष के लिए वनवास में जाना होगा। भीष्म ने कर्ण को फटकारते हुए युद्ध के दुष्परिणाम-सभी की मृत्यु की बात कही।
इस सब को सुनकर धाृतराष्ट्र ने संजय को दूत बनाकर युधिाष्ठिर के पास भेजा। संजय ने धाृतराष्ट्र का संदेश युधिाष्ठिर को सुनाते हुए कहा-महाराज ने आपका कुशलक्षेम पूछा है। वह आपकी मित्र्ता चाहते हैं। उनके पुत्र् अपने पिता व पितामह भीष्म की बात पर धयान नहीं
देते। आप युद्ध की चाह न करें।
युधिाञ्रि को यह बात अच्छी लगी। हमें तो अपना राज्य मिलना चाहिए। हम श्रीस्रष्ण की सलाह का पालन करेंगे। श्रीस्रष्ण ने कहा कि मैं स्वयं हस्तिनापुर जाकर संधिा की बात करूँगा। युधिाञ्रि ने संजय से कहा-महाराज धाृतराष्ट्र से कहना, वे हमें पाँच गाँव ही दे दें। हम उन पर ही संतोष करके संधिा कर लेंगे।
संजय ने हस्तिनापुर जाकर युधिाञ्रि का संदेश दिया। तब भीष्म ने धाृतराष्ट्र से कहा-राजन् आपके पुत्र् को यह कर्ण बरगला रहा है।
इसकी युद्ध कुशलता गंधार्वों के साथ तथा विराटनगर में देख ली है। यह पांडवों के सोलहवें हिस्से के बराबर भी नहीं है। धाृतराष्ट्र ने भीष्म की बात का समर्थन करते हुए संधिा करना उचित बताया।
दुर्योधान ने संधिा की बात को नकारते हुए कहा कि पांडव हमारी ग्यारह अक्षौहिणी सेना से डरकर ही पाँच गाँव पर आ गए हैं। मैं तो सुई की नोक के बराबर जमीन भी देने को तैयार नहीं हँू। दुर्योधान इतना कहकर सभा भवन से चला गया।
इधार युधिाञ्रि ने श्रीस्रष्ण से कहा कि भले ही मैंने पाँच गाँव माँगे हैं परन्तु दुर्योधान इस बात को स्वीकार नहीं करेगा। श्रीस्रष्ण ने कहा-मैं
स्वयं हस्तिनापुर जाकर युद्ध टालने का पूरा प्रयास करूँगा। युधिाञ्रि ने उनको वहाँ जाने के लिए इस कारण मना किया कि दुर्योधान उन पर ही प्रहार न कर दे। तब श्रीस्रष्ण बोले कि धार्मपुत्र्! मैं दुर्योधान से भली-भाँति परिचित हँू। फिर भी हमें प्रयत्न करना ही चाहिए। किसी के यह कहने की गुंजाइश मैं नहीं रखना चाहता कि मुझे शांति स्थापित करने का जो प्रयास करना चाहिए था, वह नहीं किया। इसलिए मेरा तो जाना ही ठीक होगा। इतना कहकर श्रीस्रष्ण हस्तिनापुर के लिए विदा हुए।