Chapter Notes and Summary
सृष्टि का निर्माण केवल मनुष्य के लिए नहीं हुआ था। मनुष्य के इस धरती पर आने से लाखों वर्ष पूर्व प्रकृति के विभिन्न रूपों का उद्भव हो चुका था।
पशु-पक्षियों तथा पेड़ों ने पृथ्वी को मनुष्य के अनुकूल बनाया‚ किंतु मनुष्य ने धरती को अपनी जागीर समझ ली और अन्य जीवधारियों को दर-बदर कर दिया।
कई जीवधारियों की नस्लें समाप्त हो गईं और वे इस धरती से विदा हो गए। कई जीवधारियों को अपने निवासस्थल बदलने पड़े। इस बदलाव ने उन्हें दुखी तथा खामोश कर दिया है।
मनुष्य यहीं तक नहीं रुका। जीवों का सब कुछ समेटने के बाद उसकी नजर खुद मनुष्यों पर भी है। अब लोग न दूसरों की चिंता करते हैं‚ न उनके सुख-दुख का ख्याल करते हैं। सहारा या सहयोग की मंशा समाप्त हो गई है। कमजोर तथा वंचित लोगों को दबाकर शक्तिशाली बनने की प्रक्रिया की प्रतिक्रिया ही ‘आतंकवाद’‚ ‘हिंसा’ तथा ‘नक्सलवाद’ है। उधर प्रकृति भी अपना गुस्सा विनाशलीला के विभिन्न रूपों से निकालती है जो मानव जाति पर आज भी भारी पड़ता है।
प्रस्तुत पाठ ‘अब कहाँ दूसरे के दुख से दुखी होने वाले’ मनुष्य की स्वार्थवशता तथा प्रकृति के प्रति दुराग्रह के कारण तथा परिणाम को सामने लाने का प्रयास है। लेखक ने सोलोमेन (सुलेमान)‚ लशकर (नूह) तथा अपनी माता के दया-भाव तथा अन्य जीवधारियों के दु:ख से दु:खी होने वाली चेतना को सामने रखा है। बढ़ती आबादी से प्रसारित होते शहरों के कारण प्रकृति के विभिन्न आयामों का नाश हुआ है। पेड़ों को काटा गया है तथा समुद्रों को पाटा गया है।
सिमटते समुद्र ने अपना गुस्सा दिखा दिया है।
लेखक विज्ञान के विकास का विरोधी नहीं है किंतु वह जीवधारियों के संरक्षण तथा प्रकृति के सामंजस्य को बनाए रखने पर बल देता है। यदि मनुष्यता को विनाश-लीलाओं से बचाना है तो प्रकृति के साथ सह-अस्तित्व की प्रक्रिया को भी उत्प्रेरित करना होगा। पेड़ लगाने होंगे तथा परिंदों को जगह देनी होगी।
मनुष्य को यह मानकर चलना होगा कि धरती पर सबका अधिकार है और धरती सबकी है‚ केवल मनुष्य जाति की नहीं।