Chapter Notes and Summary
‘मैं क्यों लिखता हूँ?’ एक आत्मपरक निबंध है। इसमें नई कविता के प्रवर्तक अज्ञेय ने अपने लेखन की मूल प्रेरणा पर प्रकाश डाला है। लिखने की प्रेरणा का सवाल जितना सीधा प्रतीत होता है उतना है नहीं। इस प्रश्न का संबंध कवि के अंतर्मन से है। अत: इसे संक्षेप में कहना संभव नहीं है। इस बारे में औरों के लिए जितना उपयोगी है उतना ही कहा जा सकता है। लेखक जानना चाहता है कि वह क्यों लिखता है क्योंकि लिखे बिना उसे इस प्रश्न का उत्तर नहीं मिल पाता। वह लिखकर ही अपनी आंतरिक प्रेरणा को समझ पाता है और तभी उसे मुक्ति मिलती है। लेखक के अनुसार‚ सभी कृतिकार आंतरिक प्रेरणा से लिखते हैं। यद्यपि कुछ लेखक बाहरी विवशता से भी लिखते हैं—संपादकों के आग्रह से‚ प्रकाशकों के तकाजों से‚ आर्थिक जरूरतों के कारण। परंतु ईमानदार रचनाकार स्वयं जानता है कि उसकी कौन-सी कृति भीतरी प्रेरणा का फल है और कौन-सी बाहरी प्रेरणा का। कुछ आलसी लेखक बिना किसी बाहरी दबाव के लिख ही नहीं पाते। जहाँ तक लेखक की बात है‚ उसके जीवन में ऐसी कोई बाधा नहीं। लिखने की भीतरी विवशता को समझाना कठिन है। लेखक विज्ञान का नियमित छात्र रहा है। अत: उसने अणु‚ रेडियोधर्मी तत्व तथा अणु-भेदन की बातों को समझा था। उसे रेडियोधर्मिता के प्रभाव का पुस्तकीय ज्ञान तो था लेकिन जब जापान में अणु बम गिरा तो उसके परवर्ती प्रभावों का ज्ञान भी उसे हुआ। उसके मन में विज्ञान के दुरुपयोग के प्रति बौद्धिक विद्रोह तो था किंतु वह अनुभूति के स्तर पर अपना स्वरूप ग्रहण नहीं कर पाया था। इसलिए उसने इस विषय में कोई
कविता नहीं लिखी। एक बार युद्ध के समय उसने पूर्वी सीमा पर सैनिकों को ब्रह्मपुत्र नदी में बम फेंककर हजारों मछलियाँ मारते देखा था‚ उसी से उसे ज्ञान हुआ कि जापान में किस प्रकार हिरोशिमा या नागासाकी में परमाणु बमों द्वारा लाखों जीवों का व्यर्थ ही नाश हुआ था। कवि को जापान जाने का अवसर मिला तब उसने हिरोशिमा का वह अस्पताल देखा जहाँ रेडियम पदार्थ से पीड़ित लोग कष्ट पा रहे थे। इस प्रत्यक्ष अनुभव से भी अनुभूति नहीं जागी। रचनाकार के लिए अनुभूति की गहराई का महत्व है। अनुभव‚ घटित घटना का होता है किंतु अनुभूति कल्पना और संवेदना के सहारे उसी सत्य की होती है‚ जो घटित न होते हुए भी रचनाकार की आत्मा में प्रकाशित होती है। कवि ने हिरोशिमा में सब कुछ देखकर भी‚ तत्क्षण कुछ नहीं लिखा। एक दिन वहीं सड़क पर घूमते हुए उसने एक चट्टान पर पिघले हुए मानव की छाया देखी। शायद विस्फोट के समय कोई मानव चट्टान के पास खड़ा होगा। विस्फोट के कारण बिखरी हुई रेडियोधर्मी किरणें उसमें रुद्ध हो गई होंगी। इस कारण उस चट्टान पर उस मनुष्य की छाया प्रत्यक्ष लिखी गई। उस छाया को देखकर लेखक को एक चोट-सी लगी। मानो उसके मन में एक सूर्य-सा उगा और डूब गया। यही अनुभूति प्रत्यक्ष थी। इसी क्षण वह हिरोशिमा के विस्फोट का भोक्ता बन गया। इसी से कविता लिखने की प्रेरणा जागी। मन की आकुलता बुद्धि से आगे बढ़कर संवेदना का विषय बनी। धीरे-धीरे कवि ने स्वयं को उस अनुभव से अलग किया और एक दिन हिरोशिमा पर कविता लिख डाली। यह कविता जापान में नहीं‚ भारत लौटकर रेलगाड़ी में बैठे-बैठे लिखी गई। कवि को कविता के अच्छे-बुरे होने से कोई मतलब नहीं है। कविता उसके अनुभवों का परिणाम है जो कवि के लिए महत्वपूर्ण है।