Chapter Notes and Summary
प्रस्तुत पाठ वास्तव में ‘तीसरी कसम के शिल्पकार शैलेंद्र’ को एक साथ कवि-गीतकार शैलेंद्र‚ शोमैन राजकपूर तथा फिल्म ‘तीसरी कसम’ को स्मृति में लाने का माध्यम है। हिंदी फिल्मों का इतिहास लंबा है‚ लगभग सौ वर्षों के सफर में इसने कई किंवदंतियाँ दी हैं। ऐसी ही एक किंवदंती ‘तीसरी कसम’ फिल्म बन गई। इस फिल्म का निर्माण प्रसिद्ध गीतकार शैलेंद्र ने फणीश्वरनाथ रेणु की अमर कृति ‘तीसरी कसम उर्फ मारे गए गुलफाम’ कहानी के आधार पर किया था।
‘तीसरी कसम’ फिल्म की पटकथा रेणु ने ही लिखी थी।
हिंदी फिल्मों का अत्यधिक विस्तार हुआ है। ऐसा शायद ही कोई शुक्रवार हो जब कोई-न-कोई नई हिंदी फिल्म सिनेमा हॉल तक न पहुँचती हो‚ किंतु कम ही फिल्में यादगार बन पाती हैं। जब भी कोई फिल्मकार किसी साहित्यिक कृति को ईमानदारी के साथ सैल्यूलाइड पर उतारता है‚ तब वह फिल्म यादगार तथा मनोरंजक बनने के साथ बेहतर संदेश के संप्रेषण में भी कामयाब रहती है।
शैलेंद्र ने ‘तीसरी कसम’ का निर्माण किया। यह उनकी पहली और अंतिम फिल्म थी‚ जिसका उन्होंने निर्माण किया। इस फिल्म का निर्माण शैलेंद्र ने किसी व्यावसायिकता के लोभ में नहीं किया बल्कि उनकी आत्म-चेतना ने उन्हें ऐसा करने को मजबूर किया।
‘तीसरी कसम’ एक यादगार फिल्म थी‚ जिसमें शोमैन राजकपूर ने अपने जीवन की बेहतरीन अदाकारी प्रस्तुत कर दुनिया को चमत्कृत कर दिया था।
शोमैन का व्यक्तित्व ‘हीरामन’ पर हावी ही नहीं हो पाया‚ बल्कि राजकपूर ने ‘हीरामन’ चरित्र को ‘तीसरी कसम’ फिल्म में जिया है। कजरी नदी के तट पर उकड़ूँ बैठा हीरामन एक गँवार गाड़ीवान लगता है‚ विराट फिल्मी व्यक्तित्व नहीं।
फिल्म की हीरोइन वहीदा रहमान ने भी वैसा ही अभिनय कर दिखाया‚ जैसी उनसे उम्मीद थी। छींट की सस्ती साड़ी में लिपटी ‘हीराबाई’ ने वहीदा रहमान की प्रसिद्धियों को पीछे छोड़ दिया था। जब ‘हीराबाई’ जुबान से नहीं आँखों से बोलती है तो दुनियाभर के शब्द उस भाषा में अभिव्यक्त हो जाते हैं।
शैलेंद्र ने सिनेमा की चकाचौंध के बीच रहते हुए धन-लिप्सा तथा व्यावसायिकता से दूरी बना ली थी। गीतों में तो उनकी जिंदगी ही उभरकर सामने आती है। हिंदी फिल्मों का ‘दुखांत’ दर्शकों का भावनात्मक शोषण करता है। ‘तीसरी कसम’ भी एक दुखांत फिल्म है‚ किंतु इस फिल्म का दुख‚ दुख को भी सहज भाव में जीवन सापेक्ष प्रस्तुत करता है।
शैलेंद्र ने फिल्म-निर्माण के जोखिम को उठाते हुए भावनात्मकता की जगह जीवन को फिल्मों में महत्त्व देने का सुंदर संदेश दिया। ‘तीसरी कसम’ उन चंद फिल्मों में से एक है‚ जिन्होंने साहित्यिक रचना के साथ शत-प्रतिशत न्याय किया है।