प्राकृतिक संसाधन की अवधारणा
हमारे पर्यावरण में उपलब्ध प्रत्येक वह वस्तु ‘संसाधन’ है जो हमारी आवश्यकताओं को पूरा करने में प्रयुक्त की जा सकती है और जिससे अन्य वस्तुओं को बनाने के लिए प्रौद्योगिकी का प्रयोग होता है तथा जो अधिक रूप से सम्भाव्य और सांस्कृतिक रूप से मान्य है। संसाधन मानवीय क्रियाओं का परिणाम है। मानव स्वयं संसाधनों का महत्वपूर्ण हिस्सा है। वह पर्यावरण में पाये जाने वाले पदार्थों को संसाधनों में परिवर्तित करता है तथा उन्हें प्रयोग करता है।
संसाधनों के प्रकार
(i) उत्पत्ति के आधार पर:
• जैव संसाधन: इन संसाधनों की प्राप्ति जीवमंडल से होती है। इनमें जीवन व्याप्त है, जैसे- मनुष्य, वनस्पति, जन्तु, मत्स्य जीवन, पशुधन आदि।
• अजैव संसाधन: वे सारे संसाधन जो निर्जीव वस्तुओं से बने हैं, अजैव संसाधन कहलाते हैं। उदाहरण- चट्टानें और धातुएँ आदि।
(ii) समाप्यता के आधार पर: नवीकरण योग्य संसाधन: वे संसाधन जिन्हें भौतिक, रासायनिक या यान्त्रिक प्रक्रियाओं द्वारा नवीकृत या पुन: उत्पन्न किया जा सकता है। जैसे- सौर तथा पवन ऊर्जा, वन व वन्य जीवन आदि।
अनवीकरण योग्य संसाधन: इन संसाधनों का विकास एक लम्बे भू-वैज्ञानिक अंतराल में होता है। खनिज और जीवाश्म ईंधन इस प्रकार के संसाधन हैं।
विकास स्तर पर संसाधन
(i) सम्भावी संसाधन: वह संसाधन हैं जो किसी प्रदेश में विद्यमान होते हैं परंतु इनका उपयोग नहीं किया जाता है। उदाहरण के तौर पर पश्चिमी भाग, विशेषकर राजस्थान और गुजरात में पवन और सौर ऊर्जा संसाधनों की अपार सम्भावना है।
(ii) विकसित संसाधन: वह संसाधन जिसका सर्वेक्षण किया जा चुका है और उनके उपयोग की गुणवत्ता और मात्रा निर्धारित की जा चुकी है।
(iii) भण्डार: पर्यावरण में उपलब्ध वे पदार्थ जो मानव की आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकते हैं परंतु उपयुक्त प्रौद्योगिकी के अभाव में उसकी पहुँच से बाहर हैं। उदाहरण के लिए, जल दो ज्वलनशील गैसों, हाइड्रोजन और ऑक्सीजन का यौगिक है और यह ऊर्जा का मुख्य श्रोत बन सकता है।
(iv) संचित कोष: यह संसाधन भण्डार का ही हिस्सा है, जिन्हें उपलब्ध तकनीकी ज्ञान की सहायता से प्रयोग में लाया जा सकता है परन्तु इनका उपयोग अभी आरम्भ नहीं हुआ है। नदियों के जल से विद्युत उत्पन्न करना, परंतु वर्तमान में इसका उपयोग सीमित पैमाने पर हो रहा है। वैश्विक पारिस्थितिकी संकट जैसे भूमण्डलीय ताप, ओजोन परत इत्यादि।
स्वामित्व आधार पर संसाधन
(i) व्यक्तिगत संसाधन: संसाधन निजी व्यक्तियों के स्वामित्व में भी होते हैं। बहुत से किसानों के पास सरकार द्वारा आवंटित भूमि होती है जिसके बदले में वे सरकार को लगान चुकाते हैं। बाग, चरागाह, तालाब और कुओं का जल आदि संसाधनों के निजी स्वामित्व के कुछ उदाहरण हैं।
(ii) सामुदायिक स्वामित्व वाले संसाधन: ये संसाधन समुदाय के सभी सदस्यों को उपलब्ध होते हैं। जैसे- चारण भूमि, श्मशान भूमि, तालाब, सार्वजनिक पार्क, पिकनिक स्थल इत्यादि।
(iii) राष्ट्रीय संसाधन: तकनीकी तौर पर देश में पाये जाने वाले सारे संसाधन राष्ट्रीय संसाधन कहलाते हैं। देश की सरकार को कानूनी अधिकार होता है कि वह व्यक्तिगत संसाधनों को भी आम जनता के हित में अधिग्रहित कर सकती है। जैसे- खनिज पदार्थ, जल संसाधन, वन्य जीवन इत्यादि।
(iv) अन्तर्राष्ट्रीय संसाधन: कुछ अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाएँ संसाधनों को नियंत्रित करती है। तट रेखा से 200 किमी. की दूरी से परे खुले महासागरीय संसाधनों पर किसी भी देश का अधिकार नहीं होता है। इन संसाधनों को अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं की सहमति के बिना उपयोग नहीं किया जा सकता है।
संसाधनों का विकास एवं पृथ्वी सम्मेलन
संसाधन जिस प्रकार मनुष्य के जीवन यापन के लिए अति आवश्यक है, उसी प्रकार जीवन की गुणवत्ता बनाए रखने के लिए भी महत्वपूर्ण है। ऐसा विश्वास किया जाता था कि संसाधन प्रकृति की देन हैं। परिणामस्वरूप मानव ने इनका अंधाधुंध उपयोग किया है जिससे निम्नलिखित समस्याएँ उत्पन्न हो गई हैं- कुछ व्यक्तियों के लालचवश संसाधनों का हस हुआ है। संसाधन समाज के कुछ लोगों के हाथ में आ गए हैं जिससे समाज के दो भाग हो गये हैं। समाज अमीर और गरीब में बँट गया है। संसाधनों के दोहन से वैश्विक संकट पैदा हो गया है। जैसे- भूमण्डलीय ताप, ओजोन परत क्षरण, पर्यावरण प्रदूषण आदि।
पृथ्वी सम्मेलन
(i) सतत् पोषणीय विकास: इसका अर्थ है कि विकास पर्यावरण को बिना नुकसान पहुँचाए हो और वर्तमान विकास की प्रक्रिया के दौरान भविष्य की पीढ़ियों की आवश्यकताओं को ध्यान में रखा जाये।
(ii) रियो डी जेनेरिओ पृथ्वी सम्मेलन: जून 1992 में 100 से भी अधिक देशों के राष्ट्राध्यक्ष ब्राजील के रियो डी जेनेरिओ शहर के प्रथम अंतर्राष्ट्रीय पृथ्वी सम्मेलन में एकत्रित हुए। सम्मेलन का आयोजन विश्व स्तर पर उभरते पर्यावरण संरक्षण और सामाजिक, आर्थिक विकास की समस्याओं का हल ढूंढ़ने के लिए किया गया था। इस सम्मेलन में एकत्रित नेताओं ने भूमण्डलीय जलवायु परिवर्तन और जैविक विविधता पर एक घोषणा पत्र पर हस्ताक्षर किये थे। रियो सम्मेलन में भूमण्डलीय वन सिद्धांतों पर सहमति जताई गयी और 21वीं शताब्दी में सतत् पोषणीय विकास के लिए एजेण्डा-21 को स्वीकृति प्रदान की। एजेण्डा-21 एक कार्य सूची है जिसका उद्देश्य समान हितों, पारस्परिक क्षति, गरीबी और रोगों से निपटना है।
संसाधन नियोजन एवं उसकी प्रक्रिया
संसाधनों के विवेकपूर्ण उपयोग के लिए नियोजन एक सर्वमान्य रणनीति है। इसलिए भारत जैसे देश में जहाँ संसाधनों की उपलब्धता में बहुत अधिक विविधता है। यहाँ ऐसे प्रदेश भी हैं, जहाँ संसाधनों की प्रचुरता है, परंतु दूसरे तरह के संसाधनों की कमी है। संसाधन नियोजन एक जटिल प्रक्रिया है, जिसमें निम्नलिखित सोपान होते हैं-
1. देश के विभिन्न प्रदेशों में संसाधनों की पहचान करना। इस कार्य में क्षेत्रीय सर्वेक्षण, मानचित्र बनाना और संसाधनों का गुणात्मक एवं यात्रात्मक अनुमान लगाना व मापन करना शामिल होता है।
2. संसाधन विकास योजनाएँ लागू करने के लिए उपयुक्त प्रौद्योगिकी, कौशल और संस्थागत नियोजन ढांचा तैयार करना।
3. संसाधन विकास योजनाओं और राष्ट्रीय विकास योजना में समन्वय स्थापित करना।
4. किसी क्षेत्र के विकास के लिए संसाधनों की उपलब्धता एक आवश्यक शर्त है। परंतु प्रौद्योगिकी और संस्थाओं में परिवर्तनों के अभाव में मात्र संसाधनों की उपलब्धता से ही विकास संभव नहीं है।
5. देश के बहुत से क्षेत्र हैं जो संसाधन समृद्ध होते हुए भी आर्थिक रूप से पिछड़े देशों की श्रेणी में आते हैं। कुछ ऐसे प्रदेश भी हैं जो संसाधनों की कमी होते हुए भी आर्थिक रूप से विकसित हैं।
भू-संसाधन एवं उसका संरक्षण
हम भूमि पर रहते हैं, इसी पर अनेकों आर्थिक क्रियाकलाप करते हैं और विभिन्न रूपों में इसका उपयोग करते हैं। अत: भूमि एक बहुत महत्वपूर्ण प्राकृतिक संसाधन है।
संसाधनों का संरक्षण
संसाधन किसी भी तरह के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता हैं। परंतु संसाधनों का विवेकहीन उपयोग और अति उपयोग के कारण कई सामाजिक-आर्थिक और पर्यावरणीय समस्याएँ पैदा हो सकती हैं।
1. इन समस्याओं के बचाव के लिए विभिन्न स्तरों पर संसाधनों का संरक्षण आवश्यक है। भूतकाल से ही संसाधनों का संरक्षण बहुत से नेताओं और चिन्तकों का विषय रहा है।
2. प्राकृतिक वनस्पति, वन्य जीवन, मानव जीवन, आर्थिक क्रियाएं, परिवहन तथा संचार व्यवस्थाएँ भूमि पर ही आधारित हैं परन्तु भूमि एक सीमित संसाधन है। इसलिए उपलब्ध भूमि का विभिन्न उद्देश्यों के लिए उपयोग सावधानी और योजनाबद्ध तरीके से होना चाहिए।
3. भारत में भूमि पर विभिन्न प्रकार की भू-आकृतियाँ जैसे-पर्वत, पठार, मैदान और द्वीप पाये जाते हैं। लगभग 43 प्रतिशत भू-क्षेत्र मैदान है। जो कृषि और उद्योगों के विकास के लिये सुविधाजनक है।
4. भू-उपयोग, भू-संसाधनों का उपयोग निम्नलिखित उद्देश्यों के लिये किया जाता है।
5. वन
6. कृषि के लिए अनुपलब्ध भूमि: बंजर तथा कृषि अयोग्य भूमि गैर-कृषि प्रयोजनों में लगाई गई भूमि। जैसे- इमारतों, सड़क इत्यादि
7. परती भूमि के अतिरिक्त अन्य कृषि अयोग्य भूमि: स्थायी चरागाहे तथा अन्य गोचर भूमि विविध वृक्षों, वृक्ष फसलों के अधीन भूमि कृषि योग्य बंजर भूमि जहाँ पांच से अधिक वर्षों से खेती न की गई हो
8. परती भूमि: वर्तमान परती वर्तमान परती भूमि के अतिरिक्त अन्य परती भूमि
भारत में भू-उपयोग प्रारूप
भू-उपयोग को निर्धारित करने वाले तत्वों में भौतिक कारक जैसे भू-आकृति, जलवायु और मृदा के प्रकार तथा मानवीय कारक जैसे जनसंख्या घनत्व, प्रौद्योगिक क्षमता, संस्कृति और परम्पराएँ इत्यादि शामिल हैं।
1. भारत का कुल भौगोलिक क्षेत्रफल 32.8 लाख वर्ग किमी. है, परंतु इसके 93 प्रतिशत भाग के ही भू-उपयोगी आंकड़े उपलब्ध हैं क्योंकि पूर्वोत्तर प्रांतों में असम को छोड़कर अन्य प्रांतों के सूचित क्षेत्र के बारे में जानकारियाँ उपलब्ध नहीं है।
2. स्थायी चरागाहों के अंतर्गत भी भूमि कम हुई है।
3. वर्तमान परती भूमि के अतिरिक्त अन्य परती भूमि अनुपजाऊ है और इस पर फसलें उगाने के लिए कृषि लागत बहुत ज्यादा है। अत: इस भूमि को दो या तीन वर्षों में एक या दो बार बोया जाता है।
4. शुद्ध बोये गये क्षेत्र का प्रतिशत भी विभिन्न राज्यों में भिन्न-भिन्न है।
5. हमारे देश में राष्ट्रीय वन नीति (1952) द्वारा निर्धारित वनों के अंतर्गत 39 प्रतिशत भौगोलिक क्षेत्र वांछित है। जिसकी तुलना में वन के अंतर्गत क्षेत्र काफी कम है।
6. भू-उपयोग का एक भाग बंजर भूमि और दूसरा गैर-कृषि प्रयोजनों में लगाई गई भूमि कहलाता है।
भूमि निम्नीकरण और संरक्षण उपाय
भूमि एक ऐसा संसाधन है जिसका उपयोग हमारे पूर्वज करते आए हैं तथा भावी पीढ़ी भी इसी भूमि का उपयोग करेगी। हम भोजन, मकान और कपड़े जैसी अपनी मूल आवश्यकताओं का 95 प्रतिशत भाग भूमि से ही प्राप्त करते हैं। इस समय भारत में लगभग 13 करोड़ हेक्टेयर भूमि निम्नीकृत है। इसमें से लगभग 28 प्रतिशत भूमि निम्नीकृत वनों के अन्तर्गत है। 56
प्रतिशत जल अपरदित है और शेष क्षेत्र लवणीय एवं क्षारीय है। कुछ मानव क्रियाओं जैसे वनोन्मूलन, अति पशुचारण, खनन ने भी भूमि के निम्नीकरण में मुख्य भूमिका निभाई है।
खनन के कारण झारखण्ड, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और ओडिशा जैसे राज्यों में वनोन्मूलन भूमि निम्नीकरण का कारण बना है। गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में अति पशुचारण भूमि निम्नीकरण का मुख्य कारण है। अति सिंचन से उत्पन्न जलाक्रान्तता भी भूमि निम्नीकरण के लिए उत्तरदायी है जिससे मृदा में लवणीयता और क्षारीयता बढ़ जाती है। भूमि निम्नीकरण की समस्याओं में वनारोपण और चरागाहों का उचित प्रबंधन इसमें कुछ हद तक मदद कर सकता हैं।
मृदा के प्रकार एवं मृदा अपरदन
मृदा के प्रकार
• जलोढ़
• लाल तथा पीली
• मरुस्थलीय
• पीटमत्र एवं जैव
• काली
• लैटराइट
• क्षारीय
• वन मृदाएँ मृदा अपरदन के प्रकार
परत अपरदन: जब मृदा की ऊपरी परत को जल बहा ले जाता है या वायु उड़ा ले जाती है तो उसे परत अपरदन कहते हैं। यह प्रक्रिया उन क्षेत्रों में होती है जहाँ भूमि सामान्य ढाल वाली हो, वर्षा बौछारों में हो तथा वनस्पति का अभाव होता है। यह प्रक्रिया राजस्थान, पंजाब, हरियाणा तथा हिमाचल क्षेत्र में होती है। नालीदार अथवा अवनालिका अपरदन: तीव्र ढाल तथा भारी वर्षा वाले क्षेत्रों में तीव्र गति से बहता हुआ जल जब मिट्टी में कटाव करके नालियाँ बना देता है तो उसे नालीदार अपरदन कहते हैं। चम्बल नदी की घाटी में इस प्रकार का अपरदन देखने को मिलता है।
मृदा अपरदन के कारण
• नदी
• भूमि की ढाल
• वनस्पति का नाश
• कृषि
• मूसलाधार वर्षा
• वायु
• पशु चारण
• मनुष्य तथा जीव-जन्तु
न संसाधन एवं वन्य जीव संरक्षण
भारत जैव विविधता के सन्दर्भ में विश्व के सबसे समृद्ध देशों में से एक है। यहाँ विश्व की सारी जैव उपजातियों की 8 प्रतिशत संख्या (लगभग 16 लाख) पाई जाती है। ये अभी खोजी जाने वाली उपजातियों से दो या तीन गुना है।
यह सभी विविध वनस्पति प्रजातियाँ और जीव जंतु हमारे हर रोज के जीवन में इतने गुंथे हुए हैं कि हम इसकी कद्र नहीं करते हैं परंतु पर्यावरण के प्रति हमारी असंवेदना के कारण पिछले कुछ समय से इन संसाधनों पर भारी दबाव बढ़ा है। भारत में 10 प्रतिशत वन्य वनस्पति प्रजातियाँ और 20 प्रतिशत स्तनधारियों की प्रजातियों के लुप्त होने का खतरा है। भारत में बड़े प्राणियों में से स्तनधारियों की 79 प्रजातियाँ, पक्षियों की 44 प्रजातियाँ, सरीसृपों की 15 और जल स्थलचरों की 3 प्रजातियों के लुप्त होने का खतरा बना हुआ है। आज लगभग 15,000 वनस्पतिक प्रजातियाँ एवं 75,000 जीव प्रजातियाँ मानवीय क्रियाकलापों के दबाव से लुप्त हो चुकी हैं।
लुप्तप्राय जीव-जन्तु
• नीली भेड़
• एशियाई हाथी
• गंगा नदी की डॉल्फिन
संकटग्रस्त जीव-जन्तु
• काला हिरण
• मगरमच्छ
• भारतीय जंगली गधा
• गैण्डा
• संगाई (मणिपुरी हिरण)
खनिज तथा ऊर्जा संसाधन
भू-पर्पटी (पृथ्वी की ऊपरी परत) विभिन्न खनिजों से बनी चट्टानों से निर्मित है। इन खनिजों का उपयुक्त शोधन करके इनसे धातुएँ का निश्कर्शण किया जाता है।
खनिज क्या है?
भू-वैज्ञानिकों के अनुसार, यह प्राकृतिक रूप से विद्यमान समरूप तत्व है जिसकी एक निश्चित आन्तरिक संरचना है। खनिज प्रकृति में अनेक रूपों में पाए जाते हैं जिसमें कठोर हीरा से लेकर नरम चूना तक सम्मिलित है। चट्टानें खनिजों के समरूप तत्वों के यौगिक हैं। कुछ चट्टानें जैसे- चूना पत्थर केवल एक ही खनिज से बनी हैं लेकिन चट्टानें विभिन्न अनुपातों के अनेक खनिजों का योग हैं। अभी तक 2000 से अधिक खनिजों की पहचान की जा चुकी है।
खनिजों का वर्गीकरण
खनिज
धात्विक अधात्विक ऊर्जा खनिज
लौह धातु अलौह बहुमूल्य खनिज अभ्रक, नमक कोयला
लौह अयस्क ताँबा सोना पौटाश पैट्रोलियम
मैंगनीज सीसा चाँदी सल्फर प्राकृतिक गैस
निकल जस्ता प्लेटिनम चूना पत्थर
कोबाल्ट बॉक्साइट संगमरमर
बलुआ पत्थर
प्रमुख खनिज एवं लौह अयस्क
लौह अयस्क
लौह अयस्क धात्विक खनिजों के कुल उत्पादन मूल्य के तीन-चौथाई भाग का योगदान करते हैं। भारत अपनी घरेलू मांग को पूरा करने के पश्चात् बड़ी मात्रा में धात्विक खनिजों का निर्यात करता है।
• लौह अयस्क एक आधारभूत खनिज है तथा औद्योगिक विकास की रीढ़ है।
• मैग्नेटाइट सर्वोत्तम प्रकार का लौह अयस्क है जिसमें 70 प्रतिशत लोहा पाया जाता है। इसमें सर्वश्रेष्ठ चुम्बकीय गुण होते हैं।
मैंगनीज
• मैंगनीज मुख्य रूप से इस्पात के विनिर्माण में प्रयोग किया जाता है।
• एक टन इस्पात बनाने में लगभग 10 किग्रा. मैंगनीज की आवश्यकता होती है। इसका उपयोग ब्लीचिंग पाउडर, कीटनाशक दवाएं एवं पेंट बनाने में किया जाता है।
• भारत में ओडिशा मैंगनीज का सबसे बड़ा उत्पादक राज्य है।
अलौह खनिज
ताँबा
भारत में तांबे के भण्डार व उत्पादन क्रान्तिक रूप से न्यून हैं। आघातवर्ध्य, तन्य और ताप सुचालक होने के कारण तांबे का उपयोग मुख्यत: बिजली के तार बनाने, इलेक्ट्रॉनिक्स और रसायन उद्योगों में किया जाता है। मध्य प्रदेश की बालाघाट खदानें देश का लगभग 52
प्रतिशत तांबा उत्पन्न करती हैं। झारखंड का सिंहभूम जिला तांबे का मुख्य उत्पादक है।
बॉक्साइट
यद्यपि अनेक अयस्कों में एल्युमीनियम पाया जाता है परंतु सबसे अधिक एल्यूमिना क्ले जैसे दिखने वाले पदार्थ बॉक्साइट से ही प्राप्त किया जाता है। एल्युमीनियम एक महत्वपूर्ण धातु है क्योंकि यह लोहे जैसी शक्ति के साथ-साथ अत्यधिक हल्का एवं सुचालक भी होता है। इसकी आघातवर्ध्यनीयता अधिक होती है। ओडिशा भारत का सबसे बड़ा बॉक्साइट उत्पादक राज्य है।
अधात्विक खनिज
अभ्रक
अभ्रक एक ऐसा खनिज पदार्थ है जो प्लेटों अथवा पत्रण क्रम में पाया जाता है। इसका चादरों में विपटन आसानी से हो सकता है। अभ्रक अपारदर्शी, काले, हरे, लाल, पीले अथवा भूरे रंग का हो सकता है। परावैद्युत शक्ति, ऊर्जा हस का निम्न गुणांक एवं इलेक्ट्रॉनिक उद्योगों में प्रयुक्त होने वाले खनिजों में से एक है।
चट्टानी खनिज
चूना पत्थर
चूना पत्थर कैल्शियम या कैल्शियम कार्बोनेट तथा मैग्नीशियम कार्बोनेट से बनी चट्टानों में पाया जाता है। चूना पत्थर सीमेंट उद्योग का एक आधारभूत कच्चा माल होता है और लौह प्रगलन की भट्टियों के लिए अनिवार्य है।
परम्परागत ऊर्जा के श्रोत: कोयला, पेट्रोलियम, विद्युत एवं परमाणु ऊर्जा कोयला
भारत में कोयला बहुतायत में पाया जाने वाला ईंधन है। यह देश की ऊर्जा आवश्यकताओं का महत्वपूर्ण भाग प्रदान करता है। इसका उपयोग ऊर्जा उत्पादन तथा घरेलू जरूरतों के लिए ऊर्जा की आपूर्ति के लिए किया जाता है। भारत अपनी वाणिज्यिक ऊर्जा आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु मुख्यत: कोयले पर निर्भर है। कोयले का निर्माण पादप पदार्थों के लाखों वर्षों तक सम्पीड़न से हुआ है। इसीलिए सम्पीडन की मात्रा, गहराई और दाब की समयावधि के आधार पर कोयला अनेक रूपों में पाया जाता है। लिग्नाइट यह एक निम्न कोटि का भूरा कोयला होता है। यह मुलायम होने के साथ अधिक नमीयुक्त होता है। लिग्नाइट के भण्डार तमिलनाडु के नवैली में हैं। गहराई में दबे तथा अधिक तापमान से प्रभावित कोयले को बिटुमिनस कोयला कहा जाता है। यह वाणिज्यिक प्रयोग में सर्वाधिक लोकप्रिय है। एन्थ्रेसाइट सर्वोत्तम गुण वाला कठोर कोयला है।
पेट्रोलियम
भारत में कोयले के पश्चात् ऊर्जा का दूसरा प्रमुख साधन पेट्रोलियम या खनिज तेल है। यह ताप व प्रकाश के लिए ईंधन, मशीनों को स्नेहक और अनेक विनिर्माण उद्योगों को कच्चा माल प्रदान करता है। भारत में अधिकांश पेट्रोलियम टरशियरी युग की शैल संरचनाओं की अपनति व भ्रंश टैम्प में पाया जाता है। भारत में कुल पेट्रोलियम उत्पादन का 63 प्रतिशत भाग मुम्बई से, 18 प्रतिशत गुजरात से और 16 प्रतिशत असोम से प्राप्त होता है। अंकलेश्वर गुजरात का सबसे महत्वपूर्ण तेल क्षेत्र है।
विद्युत
आधुनिक विश्व में विद्युत के अनुप्रयोग इतने ज्यादा विस्तृत हैं कि इसके प्रति व्यक्ति उपभोग को विकास का सूचकांक माना जाता है। विद्युत मुख्यत: दो प्रकार से उत्पन्न की जाती है: प्रवाह जल से जो हाइड्रो-टरबाइन चलाकर जल विद्युत उत्पन्न करता है। अन्य ईंधन जैसे- कोयला, पेट्रोलियम व प्राकृतिक गैस को जलाने से टरबाइन चलाकर ताप विद्युत उत्पन्न की जाती है। तेज बहते जल से जल विद्युत उत्पन्न की जाती है जो एक नवीकरण योग्य संसाधन है। भारत में अनेक बहु-उद्देशीय परियोजनाएँ हैं जो विद्युत ऊर्जा उत्पन्न करती है, जैसे- भाखड़ा नांगल, दामोदर घाटी कॉर्पोरेशन और कोपिली हाइडल परियोजना आदि।
परमाणु ऊर्जा
परमाणु ऊर्जा अथवा आण्विक ऊर्जा अणुओं की संरचना को बदलने से प्राप्त की जाती है। जब ऐसा परिवर्तन किया जाता है तो ऊष्मा के रूप में काफी ऊर्जा विमुक्त होती है और इसका उपयोग विद्युत ऊर्जा उत्पन्न करने में किया जाता है। यूरेनियम और थोरियम का प्रयोग परमाणु अथवा आण्विक ऊर्जा के उत्पादन में किया जाता है यह झारखण्ड और राजस्थान की अरावली पर्वत शृंखलाओं में पाये जाते हैं।
प्राकृतिक गैस एवं बायो गैस
प्राकृतिक गैस बायो गैस
प्राकृतिक गैस एक महत्त्वपूर्ण स्वच्छ ऊर्जा संसाधन है जो पेट्रोलियम के साथ अथवा अलग भी पाई जाती है। ग्रामीण इलाकों में झाड़ियों, कृषि अपशिष्ट, पशुओं और मानव जनित अपशिष्ट के उपयोग से घरेलू उपयोग हेतु बायो गैस उत्पन्न की जाती है। इसे ऊर्जा के एक साधन के रूप में तथा पेट्रो रसायन उद्योग के औद्योगिक कच्चे माल के रूप में प्रयोग किया जाता है। जैविक पदार्थों के अपघटन से गैस उत्पन्न होती है, जिसकी तापीय सक्षमता मिट्टी के तेल, उपलों व चारकोल की अपेक्षा अधिक है।
प्राकृतिक गैस बायो गैस
कार्बनडाई ऑक्साइड के कम उत्सर्जन के कारण प्राकृतिक गैस को पर्यावरण के अनुकूल माना जाता है इसलिए यह वर्तमान शताब्दी का ईंधन है। बायोगैस संयंत्र नगरपालिका, सहकारिता तथा निजी स्तर पर लगाए जाते हैं। बायो गैस पशुओं के गोबर के प्रयोग से ऊर्जा उत्पन्न करने में दक्ष है।
गैर-परम्परागत ऊर्जा के साधन
ऊर्जा के बढ़ते उपभोग ने देश को कोयला, तेल और गैस जैसे जीवाश्म ईंधनों पर अत्यधिक निर्भर बना दिया है। गैस व तेल की बढ़ती कीमतों तथा इनकी सम्भाव्य कमी ने भविष्य में ऊर्जा आपूर्ति की सुरक्षा के प्रति अनिश्चितताएँ उत्पन्न कर दी हैं। इसके राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की वृद्धि पर गंभीर प्रभाव पड़े हैं। अत: नवीकरण योग्य ऊर्जा संसाधनों, जैसे- सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा, ज्वारीय ऊर्जा के उपयोग की बहुत जरूरत है।
सौर ऊर्जा
भारत एक ऊष्ण-कटिबन्धीय देश है। यहाँ सौर ऊर्जा के दोहन की असीम सम्भावनाएँ हैं। फोटोवोल्टाइक प्रौद्योगिकी द्वारा धूप को सीधे विद्युत में परिवर्तित किया जाता है। भारत का सबसे बड़ा सौर ऊर्जा संयंत्र भुज के निकट माधापुर में स्थित है।
पवन ऊर्जा
भारत को अब विश्व में ‘पवन महाशक्ति’ का दर्जा प्राप्त है। भारत में पवन ऊर्जा फार्म के विशालतम पेटी तमिलनाडु में नागरकोल से मदुरई तक अवस्थित है।
ज्वारीय ऊर्जा
महासागरीय तरंगों का प्रयोग विद्युत उत्पादन के लिए किया जा सकता है। संकरी खाड़ी के आर-पार बाढ़ द्वारा बना कर बांध बनाये जाते हैं। बाढ़ द्वार के बाहर ज्वार उतरने पर, बाँध के पानी को इसे रास्ते के पाइप द्वारा समुद्र की तरफ बहाया जाता है। जो इसे ऊर्जा उत्पादक टरबाइन की ओर ले जाता है।
भू-तापीय ऊर्जा
पृथ्वी के आंतरिक भागों से ताप का प्रयोग कर उत्पन्न की जाने वाली विद्युत को भू-तापीय ऊर्जा कहते हैं। भू-तापीय ऊर्जा के अस्तित्व का कारण यह है कि गहराई बढ़ने पर पृथ्वी प्रगामी ढंग से तप्त होती जाती है।
ऊर्जा संसाधनों का संरक्षण
आर्थिक विकास के लिए ऊर्जा एक आधारभूत आवश्यकता है। राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के प्रत्येक सेक्टर कृषि, उद्योग, परिवहन, वाणिज्य व घरेलू आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए ऊर्जा में निवेश की आवश्यकता है। ऊर्जा के सतत् पोषणीय मार्ग के विकसित करने की तुरंत आवश्यकता है। ऊर्जा संरक्षण की प्रोन्नति और नवीकरणीय ऊर्जा संसाधनों का बढ़ता खतरा प्रयोग सतत् पोषणीय ऊर्जा के आधार हैं।
मानव संसाधन
मानव भी महत्वपूर्ण संसाधन है, जो पृथ्वी के संसाधनों का उत्पादन एवं उपभोग करता है। इसलिए यह जानना आवश्यक है कि एक देश में कितने लोग निवास करते हैं, वे कहाँ एवं कैसे रहते हैं। एक निश्चित समयान्तराल में जनसंख्या की आधिकारिक गणना ‘जनगणना’ कहलाती है।
जनसंख्या
जनसंख्या के अध्ययन के लिए तीन बिंदुओं का अध्ययन आवश्यक है:
• जनसंख्या के आकार एवं वितरण से यह पता चलता है कि लोगों की संख्या कितनी है तथा वे कहाँ निवास करते हैं।
• जनसंख्या वृद्धि एवं जनसंख्या परिवर्तन की प्रक्रिया से यह पता चलता है कि समय के साथ जनसंख्या में वृद्धि एवं इसमें परिवर्तन कैसे हुआ है।
• जनसंख्या के गुण या विशेषताओं से लोगों की आयु, लिंगानुपात, साक्षरता स्तर, व्यावसायिक संरचना तथा स्वास्थ्य की अवस्था के बारे में पता चलता है।
जनसंख्या की विशेषताएँ: लिंग अनुपात एवं साक्षरता दर
लिंग अनुपात: प्रति 1000 पुरुषों पर महिलाओं की संख्या को लिंग अनुपात कहा जाता है। यह जानकारी किसी दिये गये समय में, समाज में पुरुषों एवं महिलाओं के बीच समानता की सीमा मापने के लिए एक महत्वपूर्ण सामाजिक सूचक है। साक्षरता दर: साक्षरता किसी जनसंख्या का बहुत ही महत्वपूर्ण गुण है। केवल एक शिक्षित और जागरुक नागरिक ही बुद्धिमत्तापूर्ण निर्णय ले सकता है तथा शोध एवं विकास के कार्य कर सकता है। साक्षरता दर में कमी आर्थिक प्रगति में एक गम्भीर समस्या है। 2011 की जनगणना के अनुसार एक व्यक्ति जिसकी आयु 7 वर्ष या उससे अधिक है जो किसी भी भाषा को समझकर लिख या पढ़ सकता है उसे साक्षर की श्रेणी में रखा जाता है। सर्वाधित साक्षरता स्त्री दर वाला राज्य केरल (91.98 प्रतिशत) एवं सबसे कम स्त्री साक्षरता दर वाला राज्य राजस्थान (52.66 प्रतिशत) है।
क्रियाशील जनसंख्या की संरचना: उत्पादन, उपभोग, स्वास्थ्य एवं किशोर जनसंख्या
व्यावसायिक संरचना: आर्थिक रूप मे क्रियाशील जनसंख्या का प्रतिशत, विकास का एक महत्वपूर्ण सूचक होता है। विभिन्न प्रकार के व्यवसायों के अनुसार किये गये जनसंख्या के वितरण को व्यावसायिक संरचना कहा जाता है। स्वास्थ्य: स्वास्थ्य जनसंख्या की संरचना का एक महत्त्वपूर्ण घटक है जो कि विकास की प्रक्रिया को प्रभावित करता है। सरकारी कार्यक्रमों के निरन्तर प्रयास के द्वारा भारत की जनसंख्या के स्वास्थ्य स्तर में महत्वपूर्ण सुधार हुआ है। जनसंख्या के स्वास्थ्य स्तर में महत्वपूर्ण सुधार बहुत से कारकों जैसे- जन स्वास्थ्य, संक्रामक बीमारियों से बचाव एवं रोगों के इलाज में आधुनिक तकनीकों के प्रयोग के परिणामस्वरूप हुआ है। किशोर जनसंख्या: भारत की जनसंख्या का सबसे महत्वपूर्ण लक्षण इसकी किशोर जनसंख्या का आकार है। यह भारत की कुल जनसंख्या का पांचवां भाग है। किशोर प्राय: 10 से 19 वर्ष की आयु वर्ग के होते हैं। वे भविष्य के सबसे महत्वपूर्ण मानव संसाधन हैं। किशोरों के लिए पोषक तत्वों की आवश्यकताओं बच्चों तथा वयस्कों से अधिक होती है।