लिंग बोध या जेंडर
हमारे अपने परिवार या समाज से लिंग बोध/जेंडर की समझ बनती है। समाज या परिवार में पहले से ही पुरुषों और स्त्रियों के कार्य व स्वभाव पहले से ही तय होते हैं। ये समस्याएँ अलग-अलग धर्मों, समुदाय में भिन्न-भिन्न प्रकार की होती हैं। जिस समाज में हम बड़े होते हैं वह हमें सिखाता है कि लड़के और लड़कियों को कैसा व्यवहार स्वीकार करने योग्य है। जो कार्य स्त्रियाँ करती हैं उन्हें पुरुषों के कार्यों की तुलना में कम महत्त्व दिया जाता है। लड़कियों को शिक्षा के अवसर प्राप्त नहीं होते हैं और न ही उसे अधिक शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार होता है। यह समस्या भी समुदायों के अनुसार भिन्न-भिन्न होती है। लड़कियों को बहुत छोटी उम्र में ही घरेलू कार्यों का प्रशिक्षण दिया जाता है, उनके खिलौने भी घरेलू वस्तुओं से संबंधित होते हैं।
महिलाओं का काम और समानता
महिलाओं को आमतौर पर अधिक परिश्रम व समय वाले काम दिये जाते हैं परन्तु इसके विपरीत अगर हम देखें तो महिलाओं को कमजोर व कोमल स्वभाव की माना जाता है। समानता हमारे संविधान का महत्त्वपूर्ण सिद्धांत है। संविधान कहता है कि स्त्री या पुरुष होने के आधार पर भेदभाव नहीं किया जा सकता परन्तु वास्तविकता में लिंगभेद किया जाता है। सरकार इसके कारणों को समझने के लिए और इस स्थिति का सकारात्मक निदान ढूँढ़ने के लिए वचनबद्ध है। उदाहरण के लिए सरकार जानती है कि बच्चों की देखभाल और घर के काम का बोझ महिला और लड़कियों पर पड़ता है। स्वाभाविक रूप से इसका असर लड़कियों की शिक्षा पर पड़ता है। महिलाओं के लिए रोजगार के अवसर भी पुरुषों की तुलना में उपलब्ध नहीं होते। यदि उन्हें रोजगार उपलब्ध भी हो जाता है तो रोजगार पर जाने से पहले वह अपना घरेलू कार्य करके फिर अपने रोजगार के स्थान पर जाती है तथा रोजगार से आकर भी उनको अपने परिवार व अपने भोजन की व्यवस्था स्वयं करनी पड़ती है।
लैंगिक मुद्दे और राजनीति
लैंगिक असमानता का आधार स्त्री और पुरुष की शारीरिक बनावट नहीं बल्कि रूढ़िवादी धारणाएँ हैं। लैंगिक मुद्दे को राजनीतिक संदर्भ में देखें तो राजनीति में गोलबंदी ने सार्वजनिक जीवन में औरतों की भूमिका को बढ़ाने में मदद की। वर्तमान समय में हम वैज्ञानिक, डॉक्टर, इंजीनियर, प्रबंधक, महाविद्यालय और विश्वविद्यालयी शिक्षक जैसे पेशों में बहुत सी औरतों को उच्च पद पर नियुक्त पाते हैं जबकि इससे पर्व इन कार्यों में महिलाओं को काबिल नहीं माना जाता था। भारत में अधिकतर हिस्सों में विशेश रूप से गाँव-देहातों में लड़कियों की अपेक्षा लड़कों की चाहत रखने वाले अधिक होते हैं। इसलिए लड़कियों को जन्म से पहले ही खत्म कर दिया जाता है। इसके लिए सरकार ने लिंग परीक्षण पर प्रतिबंध लगा दिया है।
महिलाओं का राजनीतिक प्रतिनिधित्व
औरतों के अधिकारों के संबंध में समाज में जागरूकता बढ़ाना भी महिला आंदोलन का एक प्रमुख कार्य है। महिला सशक्तिकरण के लिए 1991 एवं 1992 में संविधान के 73वें एवं 74वें संशोधनों द्वारा पंचायतों और नगरपालिकाओं में महिलाओं के लिए एक तिहाई सीटें आरक्षित की गयी हैं। संसद एवं राज्य विधायिकाओं में इसी के तहत आरक्षण का प्रस्ताव किया गया है। महिलाओं को अपनी आजीविका के साधन एवं पुरुशों की तरह समान कार्य के लिए समान वेतन का अवसर प्राप्त करने का अधिकार है। महिला कामगारों को स्वास्थ्य-सुविधा एवं प्रसूति के दौरान अवकाश की सुविधा भी प्राप्त है।