अध्याय 6 सामाजिक अध्ययन का अधिगम स्रोत प्राथमिक एवं द्वितीयक

स्रोत का अर्थ
• कोई वस्तु, स्थान, पुस्तक या व्यक्ति जो ज्ञान को वास्तविक आधार प्रदान करते हैं उस आधार को स्रोत कहा जाता है। स्रोत का अर्थ होता है – मूल।
• विशय का ज्ञान प्राप्त करने के लिए किसी अन्य द्वारा बताए गए अनुभवों की अपेक्षा प्रत्यक्ष अनुभव अधिक लाभदायक होते हैं।
• मूल साधनों के प्रयोग से सामाजिक अध्ययन जैसी विषय का ज्ञान अन्य विधियों की अपेक्षा अच्छे प्रकार से होता है। इसे सामाजिक अध्ययन एवं अध्यापन की स्रोत विधि कहते हैं।

स्रोतों के प्रकार
सा्रेत मुख्यत: दो प्रकार के होते हैं-
1. प्राथमिक स्रोत
2. द्वितीयक स्रोत प्राथमिक स्रोत: अपने मूल रूप में पाये जाने वाले स्रोत को प्राथमिक स्रोत कहते हैं, इसे मूल स्रोत भी कहा जाता है। प्राथमिक स्रोत तीन प्रकार के होते हैं –
1. सामग्री सम्बन्धी या भौतिक स्रोत: स्मारक, प्रतिमा, अस्त्र-शस्त्र, मूर्ति, भग्नावशेष, यंत्र आदि।
2. मौखिक विवरण: लोकगीत, दंत कथाएं, कहानियां, विवरण, रीति-रिवाज आदि।
3. लिखित अथवा मुद्रित स्रोत: प्राचीन ग्रंथ, पाण्डुलिपि, रिपोर्ट डायरी, पत्र, संधियाँ, नियमावली आदि। सामाजिक अध्ययन के लिए मुख्यत: लिखित अथवा मुद्रित स्रोत की आवश्यकता पड़ती है। महात्मा बुद्ध के शब्द, ह्वेनसांग अथवा जहाँगीर का वर्णन तथा 1858 की शाही घोषणा के मूल वाक्य से जैसी वास्तविकता प्राप्त कर सकते हैं, उसे अप्रत्यक्ष अध्ययन से प्राप्त नहीं किया जा सकता है। अत: मूल विवरण अधिक प्रमाणिक और सामाजित तथ्यों को समझने के लिए प्रभावशाली होते हैं।

द्वितीयक स्रोत: वे सभी स्रोत जो प्राथमिक स्रोतों की व्याख्या या विश्लेषण करते हैं उसे द्वितीयक स्रोत कहा जाता है। वास्तव में ये प्राथमिक स्रोतों का क्रमबद्ध अध्ययन है। दूसरे शब्दों में, द्वितीयक स्रोत प्राथमिक स्रोतों का चित्रात्मक वर्णन होता है। आत्मकथाएँ, पाठ्य-पुस्तकें, विश्व-कोष आदि द्वितीयक स्रोतों के उदाहरण हैं। सांस्कृतिक स्रोत किसी स्थान, संस्कृति या संगठन को दर्शाने वाले चित्र, मूर्ति या कोई अन्य चिह्न होते हैं।

समाजिक अध्ययन शिक्षण में स्रोतों का उपयोग
• प्राय: विद्यार्थियों को स्रोत ज्ञात करने की विधि तथा उसकी उपयोगिता का ज्ञान नहीं होता है। अत: अध्यापक का कर्त्तव्य है कि वह विद्यार्थियों को स्रोत-सामग्री से परिचित कराए तथा उन्हें इसका विवरण दे।
• मूल स्रोतों की उपयोगिता में विश्वास करने वाले अध्यापक विद्यार्थियों के सम्मुख स्रोतों के उपयोग का प्रदर्शन करके उन्हें यह बता सकता है कि विश्वसनीय ज्ञान के अर्जन में ये स्रोत किस प्रकार से उपयोगी हैं।
• मूल स्रोतों का चयन करते समय विशिष्ट अनुच्छेदों के रोचक एवं विषय से संबंधित अनुच्छेदों का पठन करना चाहिए।
• स्रोतों की सहायता से बालक अपनी पाठ्यपुस्तकों या अन्य प्रकार की सामग्री में पायी जाने वाली किसी अशुद्धि को भी ठीक कर सकते हैं। इससे छात्रों को तर्कशक्ति के विकास में सहायता मिलती है।
• मूल स्रोतों की सहायता से समस्याओं का सर्वोत्तम समाधान किया जाता है।
• स्रोतों के प्रयोग से अर्जित ज्ञान में विश्वसनीयता आती है और विद्यार्थियों को पाठ्य सामग्री के अन्वेषण एवं परीक्षण की आदत पड़ती है।

मूल स्रातों के प्रयोग में कठिनाइयाँ
• पाठ्य सामग्री से जुड़े ऐसे मूल स्रोत जो शिक्षार्थियों को पाठ को समझने में मदद कर सकते हैं, अल्प मात्रा में उपलब्ध हैं। ऐसे स्रोत भिन्न-भिन्न स्थानों पर बिखरे पड़े हैं। इन्हें विद्यालय-स्तर पर उपलब्ध करना कठिन कार्य है।
• प्राथमिक स्रोतों के प्रयोग में शिक्षार्थियों को भाषा-संबंधी कठिनाई आती है। ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्त्व की लगभग सारी मूल सामग्री ऐसी भाषा में उपलब्ध है, जिसका अध्ययन कर पाना काफी कठिन है।
• विद्यार्थियों से इस बात की आशा नहीं की जा सकती है कि वे अंग्रेजी, संस्कृत, पाली, अरबी और फारसी आदि भाषाओं में उपलब्ध बड़े-बड़े अनुच्छेदों वाले मूल सामग्री को समझ लेंगे।
• एक ही समय के लेखकों का आपस में विरोधी मत अथवा वैचारिक टकराहट की वजह से मूल सामग्री में भी त्रुटियाँ, रुचियां और पूर्वाग्रह आदि हो सकते हैं।
• विभिन्न लेखक एक ही समय की घटनाओं अथवा आंदोलनों का वर्णन अपने-अपन े दृष्टिकोण से भिन्न-भिन्न रूप मे ं करते है,ं जिससे विद्यार्थी एक ही घटना की अनेक व्याख्या में उलझ सकता है।

स्रोत विधि के लाभ
• उच्च कक्षाओं में मूल सामग्री के सा्रेत की जाँच द्वारा पाठ्य सामग्री की विश्वसनीयता सिद्ध होती है। इससे विद्यार्थी को विश्वसनीय एवं नकल मुक्त सामग्री प्रस्तुत करने की प्रेरणा मिलती है।
• चूंकि स्रोतों से विश्वसनीय प्रमाण की प्रकृति स्पष्ट होती है। अत: मूल सामग्री का प्रयोग करने वाले विद्यार्थी अनुमान तथा वास्तविकता में अंतर समझने लग जाते हैं।
• विद्यार्थी केवल कही-सुनी बातों पर ही विश्वास न करके प्रमाणित सामग्री को एकत्रित करने की कोशिश करते हैं। इससे विद्यार्थियों में प्रामणिक बातों को पहचानने की क्षमता विकसित होती है।
• मूल स्रोतों के प्रयोग से वास्तविकता की भावना पैदा होती है। इसके द्वारा विद्यार्थियों में प्रमाणों पर आधारित तथ्यों को ग्रहण करने की आदत का विकास होता है।
• मूल स्रोतों के प्रयोग से विद्यार्थियों में आलोचनात्मक क्षमता का विकास होता है। जिससे मानसिक शक्ति में वृद्धि होती है।
• प्रसंग सहित प्राप्त किया हुआ ज्ञान विद्यार्थियों को रूचिकर लगता है और यह जीवन में उनके काम आता है। इससे पढ़ाई में कमजोर विद्यार्थी भी विषय में रुचि लेना प्रारंभ कर देते हैं।

’प्राथमिक और द्वितीयक स्रोत’ विषय पर

स्कैन करें।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *