जल की उपलब्धता एवं तथ्य
पृथ्वी के 3/4 भाग लगभग 71 प्रतिशत हिस्से पर जलमंडल का विस्तार है। पृथ्वी पर जल की अधिकांश मात्रा महासागरों के रूप में मौजूद है, जो खारा होता है। कुल जलराशि का मात्र 2.5 प्रतिशत भाग ही स्वच्छ जल या पीने योग्य है। महासागरीय जल के दो महत्वपूर्ण गुण तापमान एवं लवणता हैं। सामान्यत: महासागरीय जल का तापमान लगभग 5 डिग्री सेल्सियस से 33 डिग्री सेल्सियस के बीच रहता है। जल हाइड्रोजन एवं ऑक्सीजन के मिलने से बनता है। जल अलग-अलग परिस्थितियों में अपनी अवस्था में परिवर्तन लाता है।
यह ठोस, द्रव एवं गैस तीनों में पाया जाता है। अपनी इन्हीं विशेषताओं के कारण ‘जल-चक्र’ पूरा करने में सफल हो पाता है।
जल-चक्र
पृथ्वी पर मौजूद जल के विभिन्न श्रोतों, भंडारों एवं जलराशियों से जल सूर्य के ताप के कारण वाष्पित होकर जलवाष्प में परिवर्तित हो जाता है तथा यह ऊपर उठकर संघनित हो बादल का रूप ग्रहण करता है। तत्पश्चात् वर्षा के रूप में पुन: धरती पर वही जल वापस आ जाता है।
यह चक्र अनवरत रूप से चलता रहता है, इसे ही ‘जल-चक्र’ कहते हैं।
धरती पर मौजूद अधिकांश जल खारा है। महासागरीय जल भी खारा होता है। सोडियम क्लोराइड की वजह से समुद्र का जल खारा होता है। इसका उपयोग नमक के रूप में करते हैं। अलवणीय जल के मुख्य श्रोत नदी, ताल, झरने, हिमनद आदि हैं।
लवणता
महासागरीय जल के प्रति 1000 ग्राम में मौजूद नमक की मात्रा को लवणता कहते हैं। महासागरीय जल की औसत लवणता 35 भाग प्रति हजार ग्राम होती है। इजराइल के मृत सागर की लवणता सर्वाधिक है जो 45 भाग प्रति हजार ग्राम है। लवण की अधिकता की वजह से इसमें कोई तैराक डूबता नहीं है, वह तैरता रहता है। अलवणीय जल का लगभग 70 प्रतिशत भाग अंटार्कटिका, ग्रीनलैंड और पर्वतीय क्षेत्रों में बर्फ की चादरों और हिमनदों के रूप में मौजूद है। विश्व में होने वाली वर्षा का केवल 4 प्रतिशत वर्शा भारत में होती है। प्रति व्यक्ति प्रतिवर्ष जल उपलब्धता के संदर्भ में विश्व में भारत का 133वां स्थान है। भारत में नवीकरणीय जल संसाधन 1897 वर्ग किमी. प्रतिवर्ष अनुमानित है।
2025 तक भारत के बड़े भू-भाग में जल की नितांत कमी होने का अनुमान है। इन परिस्थितियों से उबरने के लिए जल का विवेकपूर्ण उपयोग, जल-संरक्षण एवं जल-स्तर में वृद्धि के उपायों पर बल देने की जरूरत है। जल की कमी का मुख्य कारण इसकी असमान उपलब्धता एवं वितरण तथा अत्यधिक प्रयोग है। जनसंख्या वृद्धि का असर भी जल की उपलब्धता पर पड़ा है। जनसंख्या वृद्धि से जल के उपयोग में भी वृद्धि होती है तथा लोगों की जरूरतों की पूर्ति करने वाले साधन जैसे अनाज, कपड़े, मकान आदि के सृजन में भी जल की खपत होती है। उद्योग-धंधों में भी जल का बड़े स्तर पर प्रयोग हो रहा है जिससे जल प्रदूषण की समस्या भी बढ़ रही है।
शहरी जनसंख्या के बढ़ने तथा केन्द्रीकरण की प्रवृत्ति ने जल-संकट की समस्या उत्पन्न कर दी है जिससे जल-संरक्षण की आवश्यकता महसूस होती है।
22 मार्च को ‘विश्व जल दिवस’ के रूप में मनाया जाता है। जब जल संरक्षण की विभिन्न विधियों को प्रचलित किया जाता है।
महासागरीय परिसंचरण एवं ज्वार भाटा
महासागरों में विभिन्न प्रकार की गतियाँ होती हैं। जैसे- तरंगे, ज्वार-भाटा एवं धाराएँ।
तरंग
महासागर में जल लगातार ऊपर-नीचे के क्रम में गतिशील रहता है, इसे तरंग कहते हैं। कई बार समुद्र के अंदर भूकंप, ज्वालामुखी विस्फोट के कारण बड़ी मात्रा में जल विस्थापित होता है जिससे बड़ी-बड़ी लहरें उठती हैं और काफी तेजी से आसपास के इलाकों में फैलती हैं। इन लहरों की ऊँचाई 45 मी. तक की हो सकती है। इन विशाल ज्वारीय तरंगों को सुनामी कहते हैं। सुनामी (Tsunami) शब्द जापानी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है पोताश्रय तरंगे होता है क्योंकि सुनामी आने पर पोताश्रय नष्ट हो जाते हैं। समुद्र के किनारे बहने वाली हवाएँ समुद्री तरंगों को प्रभावित करती हैं। जितनी तेज पवन बहती है, तरंगे भी उतनी ही बड़ी होती जाती हैं।
ज्वार-भाटा
चन्द्रमा एवं सूर्य की आकर्षण शक्तियों के कारण सागरीय जल के ऊपर उठने तथा गिरने को ज्वार-भाटा कहते हैं। सागरीय जल के ऊपर उठकर आगे बढ़ने को ज्वार (Tide) तथा सागरीय जल के नीचे गिरकर पीछे लौटने को भाटा (Ebs) कहते हैं। ज्वार उत्पादन के लिए सूर्य की अपेक्षा चन्द्रमा के नजदीक होने के कारण यह अधिक प्रभावशाली होता है। अमावस्या और पूर्णिमा के दिन चन्द्रमा, सूर्य एवं पृथ्वी एक सीध में होते हैं। अत: इस दिन उच्च ज्वार उत्पन्न होता है। इसे वृहत्-ज्वार भी कहते हैं। ज्वार प्रतिदिन दो बार आते हैं। एक बार चन्द्रमा के आकर्षण से और दूसरी बार पृथ्वी के अपकेन्द्रीय बल के कारण। उच्च ज्वार नौका-संचालन एवं मछली पकड़ने में सहायक होते हैं। क्योंकि ये बड़ी मात्रा में जलराशि को तटीय भागों में पहुँचाते हैं जिससे नाव एवं मछलियाँ भी किनारे पहुँच जाती हैं।
महासागरीय धाराएँ
किसी निश्चित दिशा में बहुत अधिक दूरी तक महासागरीय जल के प्रवाह को ‘महासागरीय जलधारा’ कहते हैं। ये धाराएँ दो प्रकार की होती हैं- गर्म जलधारा एवं ठंडी जलधारा।
(1) गर्म जलधारा: निम्न अक्षांशों के ऊष्ण कटिबंधों से उच्च समशीतोष्ण और उपधु्रवीय कटिबंधों की ओर बहने वाली जलधाराओं को गर्म जलधारा कहते हैं। ये प्राय: भूमध्य रेखा से धु्रवों की ओर चलती हैं। अलास्का की जलधारा, गल्फ स्ट्रीम जलधारा, फ्लोरिडा जलधारा आदि प्रमुख गर्म जलधाराएँ हैं।
(2) ठंडी जलधारा: उच्च अक्षांशों से निम्न अक्षांशों की ओर बहने वाली जलधारा को ठंडी जलधारा कहते हैं। ये प्राय: धु्रवों से भूमध्य रेखा की ओर बहती हैं। उत्तरी गोलार्द्ध की जलधाराएँ अपने दायीं ओर तथा दक्षिणी गोलार्द्ध की जलधाराएँ अपने बायीं ओर प्रवाहित होती हैं। यह ‘कॉरिओलिस बल’ के प्रभाव से होता है। महासागरीय जलधाराओं के संचरण की सामान्य व्यवस्था का एकमात्र प्रसिद्ध अपवाद हिन्द महासागर के उत्तरी भाग में पाया जाता है। इस भाग में धाराओं के प्रवाह की दिशा मानसूनी पवन की दिशा के साथ बदल जाती है। गर्म जलधाराएँ ठंडे सागरों की ओर और ठंडी जलधाराएँ गर्म सागरों की ओर बहने लगती हैं।
प्रमुख ठंडी जलधारा
कैलीफोर्निया, अंटार्कटिका, लेब्राडोर, कनारी, फॉकलैंड, क्यूराइल आदि प्रमुख ठंडी जलधाराएँ हैं। महासागरीय धाराएँ किसी क्षेत्र के तापमान को प्रभावित करती हैं। गर्म धाराओं से स्थलीय सतह का तापमान गर्म हो जाता है। जिस स्थान पर गर्म एवं शीत जलधाराएँ मिलती हैं, वह स्थान विश्वभर में सर्वोत्तम मत्स्य क्षेत्र माना जाता है। जापान के आसपास तथा उत्तरी अमेरिका के पूर्वी तट इसके उदाहरण हैं। जहाँ गर्म एवं ठंडी जलधाराएँ मिलती हैं, वहाँ कुहरे वाला मौसम बनता है। इसके फलस्वरूप नौका-संचालन में बाधा उत्पन्न होती है।