वायुमंडल एवं भूमण्डलीय तापन
पृथ्वी के चारों ओर वायु का एक आवरण फैला हुआ है, जिसे ‘वायुमंडल’ कहते हैं। वायुमंडल की ऊपरी परत के अध्ययन को वायुविज्ञान (Aerology) और निचली परत के अध्ययन को ऋतु-विज्ञान
(Meteorology) कहते हैं। वायुमंडल में विभिन्न गैसों का मिश्रण है। ये वायुमंडल में विभिन्न स्तर पर परत बनाती हैं। जिससे सूर्य से आने वाली खतरनाक विकिरणों से हमारी रक्षा होती है। वायुमंडल में (तीस मील के अन्दर) गैसों के मिश्रण में गैसों की सहभागिता इस प्रकार है – नाइट्रोजन 78.07 प्रतिशत, ऑक्सीजन 20.93 प्रतिशत, कार्बन डाई-ऑक्साइड 0.03 प्रतिशत और आर्गन 0.93 प्रतिशत तथा शेश अन्य गैसें हैं। इन्हीं उपलब्ध गैसों से हम सांस के रूप में ऑक्सीजन ग्रहण करते हैं और कार्बन-डाई-ऑक्साइड छोड़ते हैं।
वायुमंडल में पायी जाने वाली गैसों की विशेषताएँ
1. नाइट्रोजन: वायुमंडल में सर्वाधिक मात्रा में नाइट्रोजन गैस पायी जाती है। इस गैस का कोई रंग, गंध, स्वाद नहीं होता। पेड़-पौधों में प्रोटीन का निर्माण वायुमंडल में नाइट्रोजन की उपस्थिति की वजह से संभव हो पाता है। नाइट्रोजन चीजों को जल्दी जलने में अवरोधक का काम करती है। पृथ्वी पर होने वाले विभिन्न वायुमंडलीय घटनाक्रम वायुदाब, पवनों की शक्ति तथा प्रकाश के परावर्तन आदि नाइट्रोजन से प्रभावित होते हैं। यह गैस वायुमंडल में 128 किलोमीटर की ऊँचाई तक फैली है।
2. ऑक्सीजन: यह जीवनदायी गैस है। इसके बगैर धरती पर जीवन संभव नहीं है। ऑक्सीजन के अभाव में हम ईंधन नहीं जला सकते। अत: यह ऊर्जा का मुख्य स्रोत है। यह गैस वायुमंडल में 64 किलोमीटर की ऊँचाई तक फैली हुई है, परन्तु 16 किलोमीटर से ऊपर जाकर इसकी मात्रा बहुत कम हो जाती है।
3. कार्बन-डाई-ऑक्साइड (CO2): यह गैस अपनी प्रवृत्ति में भारीपन लिये हुए है। भारी होने की वजह से यह वायुमण्डल की सबसे निचली परत में मिलती है। 32 किमी. की ऊँचाई तक यह गैस पायी जाती है। यह गैस सूर्य से आने वाली विकिरण के लिए पारगम्य और पृथ्वी से परावर्तित होने वाले विकिरण के लिए अपारगम्य है। अत: यह ग्रीन-हाऊस गैस के लिए भी उत्तरदायी है। यह वायुमंडल की निचली परत को गर्म रखती है।
4. ओजोन (O3): ओजोन ऑक्सीजन का ही एक विशेष रूप है। यह सूर्य से आने वाली पराबैंगनी किरणों (Ultraviolet rays) को अवशोषित कर लेती है। यह वायुमंडल में बहुत कम मात्रा में उपलब्ध है। इसका क्षेत्र, ओजोन परत जो 10 से 50 किमी. तक फैला है, में पाया जाता है। ओजोन परत में छिद्र या नुकसान होने से कैंसर जैसी खतरनाक बीमारियों का खतरा बना रहता है।
ग्रीन हाऊस प्रभाव एवं गैस
कार्बन-डाई-ऑक्साइड वायुमंडल में फैलकर पृथ्वी से विकिरित ऊष्मा को पृथ्वी पर रोककर ‘ग्रीन हाऊस प्रभाव’ पैदा करती है। इसलिए इसे ‘ग्रीन हाऊस गैस’ भी माना जाता है। इसके अतिरिक्त CFC (क्लोरो-फ्लोरो कार्बन), सल्फर डाई-ऑक्साइड, शीशा (pb) आदि भी ग्रीन हाऊस प्रभाव के लिए उत्तरदायी हैं।
CO2 के अभाव में धरती ठण्डी हो जाएगी और यहाँ जीवन संभव नहीं हो पाएगा। प्रदूषण से वायुमंडल का तापमान बढ़ता है, जिससे पृथ्वी का तापमान भी बढ़ जाता है। इसे भूमण्डलीय तापन (ग्लोबल वार्मिंग) कहते हैं। ग्लोबल वार्मिंग के परिणामस्वरूप ग्लेशियर के रूप संचित विशाल जल राशि पिघल समुद्र में मिल रहे हैं, जिससे समुद्र का स्तर बढ़ रहा है और तटीय क्षेत्र में बाढ़ तथा विलुप्त होने का खतरा बना रहता है। पृथ्वी पर ऑक्सीजन और कार्बन डाई-ऑक्साइड क्रमश: जीव-जन्तुओं तथा पेड़-पौधों के द्वारा सांस के रूप में ग्रहण किया जाता है। जीव-जन्तु या पेड़-पौधों के अत्यधिक नुकसान से यह संतुलन बिगड़ सकता है जिससे पृथ्वी पर गर्मी बढ़ेगी और बढ़ा हुआ CO2 का आयतन पृथ्वी पर मौसम तथा जलवायु को प्रभावित करता है।
वायुमंडल की संरचना
हमारे वायुमंडल में कुछ-कुछ खास दूरी/ऊँचाई के अंतर पर अलग-अलग परत होती है। ये परत विभिन्न वायुमण्डलीय प्रक्रियाओं के संचालन में मददगार होती हैं। हमारा वायुमंडल पांच परतों में विभाजित है, जो पृथ्वी की सतह से आरम्भ होता है। ये परत हैं: क्षोभमण्डल, समतापमण्डल, मध्यमण्डल, बाह्य वायुमण्डल एवं बर्हिमण्डल।
क्षोभमण्डल (Troposphere)
यह मण्डल धरती की सतह से शुरू होता है। यह वायुमंडल की सबसे नीचे वाली परत है। इसकी ऊँचाई धु्रवों पर 8 किमी. तथा विषुवत् रेखा पर लगभग 18 किमी. है तथा औसत ऊंचाई 13 किमी. है।
क्षोभमण्डल में तापमान की गिरावट की दर प्रति 165 मी. की ऊँचाई पर 1 डिग्री सेल्सियस अथवा 1 किमी. की ऊँचाई पर 6.4 डिग्री सेल्सियस होती है। मौसम एवं जलवायु से संबंधित सभी मुख्य वायुमंडलीय घटनाएँ, जैसे – बादल, आंधी एवं वर्षा इसी मंडल में होती हैं। इस मंडल को संवहन मंडल कहते हैं क्योंकि संवहन धाराएँ इसी मंडल की सीमा तक सीमित होती हैं। इसे ‘अधो मंडल’ भी कहते हैं।
समतापमण्डल (Stratosphere)
समतापमण्डल, क्षोभमण्डल के ऊपर की परत है। इसकी ऊँचाई 18 से 32 किमी. तक फैली है। (अधिकतम 50 किमी.) जैसा कि नाम से विदित है इस परत का (सम+ताप यानी समान तापमान) तापमान हमेशा समान रहता है। इन स्थितियों की वजह से ही यह मंडल वायुयान उड़ाने के लिए आदर्श माना जाता है। इसमें मौसमी घटनाएँ जैसे आंधी, बादलों की गरज, बिजली की कड़क, धूल-कण एवं जलवाष्प आदि कुछ नहीं होती हैं। समताप मंडल की मोटाई धु्रवों पर सबसे अधिक हाती है, कभी-कभी विषुवत् रेखा पर इसका लोप हो जाता है। कभी-कभी इस मंडल में विशेष प्रकार के मेघों का निर्माण होता है, जिन्हें मूलाभ मेघ (Mother of pearl cloud) कहते हैं। ओजोन परत की उपलब्धता इसी मण्डल में है, जो सूर्य से आने वाली हानिकारक किरणों से हमारी रक्षा करती है। ओजोन परत की मोटाई नापने में डाबसन इकाई का प्रयोग किया जाता है।
मध्यमण्डल
यह वायुमण्डल की तीसरी परत है, यह समतापमण्डल के ठीक ऊपर होती है। यह लगभग 80 किमी. की ऊँचाई तक फैली है। अन्तरिक्ष में प्रवेश करने वाले उल्का पिण्ड इस परत में आने पर जल जाते हैं।
बाह्यमण्डल
वायुमंडल में ऊँचाई के साथ-साथ तापमान भी बढ़ता जाता है। आयनमंडल इस परत का एक भाग है। रेडियो संचार के लिए इस परत का उपयोग होता है। आयनमंडल कम वायुदाब तथा पराबैंगनी किरणों द्वारा आयनीकृत होता रहता है। इस मंडल में सबसे नीचे स्थित डी-लेयर (D-layer) से लॉन्ग रेडियो वेव (long radio waves) एवं E1, E2 और F1, F2 परतों से शॉर्ट रेडियो वेव (short radio waves) परावर्तित होती हैं। जिसके फलस्वरूप पृथ्वी पर रेडियो, टेलीविजन, टेलीफोन एवं रडार आदि की सुविधा प्राप्त होती है। संचार उपग्रह इसी मंडल में अवस्थित होते हैं।
बर्हिमण्डल
बर्हिमण्डल वायुमंडल की सबसे बाहरी एवं पतली परत है। हाइड्रोजन, हीलियम जैसी गैसें यहां तैरती पायी जाती हैं।
मौसम और जलवायु
थोड़े समय के लिए किसी स्थान की वायुमण्डल की अवस्थाओं
(तापमान, वायुदाब, आर्द्रता, वर्षा एवं हवाओं) के कुल योग को मौसम
(Weather) कहा जाता है। मौसम निरन्तर व प्रतिदिन परिवर्तनशील रहता है। इन बदलती हुई मौसम की अवस्थाओं की औसत दशा को ‘जलवायु’ कहा जाता है। जलवायु को प्रभावित करने वाले कारक अक्षांश, समुद्र तल से ऊँचाई, पर्वतों की दिशा, समुद्री प्रभाव, पवनों की दिशा आदि हैं।
जलवायु का वर्गीकरण
”धरातल के उस प्रदेश को जहाँ प्रतिवर्ष ऋतु विशेष की औसत दशाएँ समान रहती हों, जलवायु क्षेत्र कहते हैं। जलवायु क्षेत्रों का वर्गीकरण तापमान के आधार पर किया गया है, अत: इन्हें ‘ताप कटिबंधों’ के नाम से जाना जाता है। ये हैं: (i) ऊष्ण कटिबंध, (ii) शीतोष्ण कटिबंध, (iii) शीत कटिबंध।
तापमान
वायु में मौजूद ताप एवं शीतलता के परिमाण का तापमान कहते हैं। वायुमण्डल का तापमान मौसम के अनुसार बदलता रहता है। फलस्वरूप अलग-अलग ऋतुओं के तापमान भी अलग-अलग होते हैं।
सूर्यातप (Insolation)
सूर्य से पृथ्वी तक पहुँचने वाली सौर विकिरण ऊर्जा को ‘सूर्यातप’ कहते हैं। यह ऊर्जा लघु तरंगों के रूप में सूर्य से पृथ्वी पर पहुँचती है। किसी भी सतह को प्राप्त होने वाली सूर्यातप की मात्रा एवं उसी सतह से परावर्तित की जाने वाली सूर्यातप की मात्रा के बीच का अनुपात ‘एल्बिडो’ कहलाता है।
आतपन
आतपन एक महत्त्वपूर्ण कारक है, जो तापमान के वितरण को प्रभावित करता है। सूर्य से आने वाली वह ऊर्जा जिसे पृथ्वी रोक लेती है, आतपन कहलाती है। आतपन की मात्रा भूमध्य रेखा से धु्रवों की ओर घटती है। इसलिए तापमान उसी प्रकार घटता जाता है।
वायुदाब
सामान्य दशाओं में समुद्रतल पर वायुदाब पारे के 76 सेमी. या 760 मिमी. ऊँचे स्तम्भ द्वारा पड़ने वाला दाब होता है। वायुदाब ”बैरोमीटर“ से मापा जाता है। वायुमंडलीय दाब को मौसम के पूर्वानुमान के लिए एक महत्त्वपूर्ण सूचक माना जाता है। वायुमंडलीय दाब की इकाई बार (bar) है। (1 bar = 05N/m2)
अन्य शब्दों में, पृथ्वी की सतह पर वायु के भार द्वारा लगाया गया दाब, वायुदाब कहलाता है। वायुमंडल में ऊपर की ओर जाने पर दाब तेजी से गिरने लगता है। समुद्र स्तर पर वायुदाब सर्वाधिक होता है और ऊँचाई पर जाने पर यह घटता जाता है। वायुदाब का क्षैतिज वितरण किसी स्थान पर उपस्थित वायु के ताप द्वारा प्रभावित होता है। अधिक तापमान वाले क्षेत्रों में वायु गर्म होकर ऊपर उठती है। यह निम्न दाब क्षेत्र बनाता है। निम्न दाब, बादलयुक्त आकाश एवं नम मौसम के साथ जुड़ा होता है। कम तापमान वाले क्षेत्रों की वायु ठण्डी होती है। इसके फलस्वरूप यह भारी होती है। भारी वायु निमज्जित होकर उच्च दाब क्षेत्र बनाती है। उच्च दाब के कारण स्पष्ट एवं स्वच्छ आकाश होता है। वायु सदैव उच्च दाब से निम्न दाब क्षेत्र की ओर गमन करती है। चाँद पर वायु नहीं है, अतएव वहाँ वायुदाब भी नहीं है। अन्तरिक्ष यात्री जब चाँद पर जाते हैं, तो वे विशेष रूप से सुरक्षित हवा से भरी हुई अन्तरिक्ष पोशाक पहनते हैं। यदि वे इस अन्तरिक्ष पोशाक को न पहनें तो अंतरिक्ष यात्रियों के शरीर द्वारा विपरीत बल लगने के कारण उनकी रक्त शिराएँ फट सकती हैं।
पवन
उच्च दाब से निम्न दाब क्षेत्र की ओर वायु की गति को ‘पवन’ कहते हैं। ऊर्ध्वाधर दिशा में गतिशील हवा को ‘वायुधारा’ (Air current) कहते हैं। पवनों के नाम का निर्धारण उनकी आने की दिशा के आधार पर होता है। उदाहरण – पश्चिम से आने वाली हवा को पश्चिमी (पछुआ) पवन कहते हैं। पवनों का वर्गीकरण तीन वर्ग में किया गया है –
(1) स्थायी या प्रचलित पवन: पृथ्वी के विस्तृत क्षेत्र पर एक ही दिशा में वर्षभर चलने वाली पवन को प्रचलित पवन या स्थायी पवन कहते हैं। स्थायी पवनें एक वायु-भार कटिबंध से दूसरे वायु-भार कटिबंध की ओर नियमित रूप से बहा करती है। जैसे – पछुआ पवन, व्यापारिक पवन, धु्रवीय पवन।
• पछुआ पवन: दोनों गोलार्द्धों में उपोष्ण उच्च वायुदाब कटिबंधों से उपधु्रवीय निम्न वायुदाब कटिबंधों की ओर बहने वाली स्थायी हवा को, इनकी पश्चिम दिशा के कारण, पछुआ पवन कहा जाता है।
• व्यापारिक पवन: लगभग 300 उत्तरी और दक्षिणी अक्षांशों के क्षेत्रों या उपोष्ण उच्च वायुदाब कटिबंधों से भूमध्य रेखीय निम्न वायुदाब कटिबंधों की ओर दोनों गोलार्द्धों में वर्षभर निरन्तर प्रवाहित होने वाली पवन को व्यापारिक पवन कहा जाता है।
• धु्रवीय पवन: धु्रवीय उच्च वायुदाब की पेटियों से उपधु्रवीय निम्न वायुदाब की पेटियों की ओर प्रवाहित पवन को धु्रवीय पवन के नाम से जाना जाता है।
(2) मौसमी पवनें: मौसम या समय के परिवर्तन के साथ जिन पवनों की दिशा बदल जाती है, उन्हें मौसमी पवन कहा जाता है। जैसे – मानसूनी पवन।
(3) स्थानीय समीर: ये पवनें किसी छोटे क्षेत्र में वर्ष या दिन के किसी विशेष समय में बहती है। जैसे- स्थल एवं समुद्री समीर।
आर्द्रता
जब जल पृथ्वी एवं विभिन्न जलाशयों से वाष्पित होता है, तो वह जलवाष्प बन जाता है। वायु में किसी भी समय जलवाष्प की मात्रा को ‘आर्द्रता’ कहते हैं। जब वायु में जलवाष्प की मात्रा अत्यधिक होती है तो उसे हम आर्द्र दिन कहते हैं। जैसे-जैसे वायु गर्म होती जाती है, इसकी जलवाष्प धारण करने की क्षमता बढ़ती जाती है और इस प्रकार यह और अधिक आर्द्र हो जाती है। आर्द्र दिन में, कपड़े सूखने से काफी समय लगता है एवं पसीना भी आसानी से नहीं सूखता एवं हम असहज महसूस करते हैं। जब जलवाष्प ऊपर उठती है तो यह ठण्डी होना शुरू हो जाती है। जलवाष्प संघनित व ठण्डी होकर जल की बूंदें बनाती हैं। बादल इन बूंदों का समूह होता है। यही बूंदें भारीपन की वजह से वर्षा के रूप में नीचे आती हैं। क्रियाविधि के आधार पर वर्षा के तीन प्रकार हैं:
(1) संवहनीय वर्षा
(2) पर्वतीय वर्षा
(3) चक्रवर्ती वर्षा