परिपृच्छा एवं अन्वेषण
परिपृच्छा का शाब्दिक अर्थ होता है – पूछताछ। इस प्रक्रिया में ज्ञान बढ़ाना या किसी संदेह अथवा समस्या का समाधान करना है। चिन्तन प्रक्रिया का यह एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा होता है। अन्वेषण का शाब्दिक अर्थ है – खोज। विद्यार्थियों में तार्किक चिंतन का विकास एवं अधिगम हेतु अन्वेषण एक महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया है। अन्वेषण पद्धति की विशेषता यह है कि विद्यार्थी को अपने निरीक्षण तथा प्रयोग से स्वयं खोजना होता है। अध्यापक विद्यार्थी को बहुत से क्रियाकलाप बताते हैं। फिर विद्यार्थी स्वयं प्रयोग करके निष्कर्ष निकालता है। अन्वेषण कार्य में अध्यापक विद्यार्थियों को समय-समय पर अपनी समस्याओं के हल ढूँढने में कुशल मार्गदर्शक की भूमिका निभाता है। परिपृच्छा के प्रतिपादक सचमैन हैं। उनके अनुसार, ”पृच्छा प्रशिक्षण के प्रतिमान का लक्ष्य, आंकड़ों की खोज, संसाधन से संबंधित ज्ञानात्मक कौशलों का विकास, तर्क के सम्प्रत्यायों एवं कार्य-कारण संबंधों की समझ का विकास करना है।
परिपृच्छा के उद्देश्य
• छात्रों में तार्किक चिंतन शक्ति का विकास करना।
• छात्रों के ज्ञानात्मक कौशल को विकसित करना।
• छात्रों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास करना, ताकि वह प्रत्ययों की तार्किक ढंग से व्याख्या कर सके।
• छात्रों में जिज्ञासा की अभिवृत्ति को बढ़ावा देना।
• समस्यामूलक प्रत्यय की वैविध्यपूर्ण व्याख्या करना।
परिपृच्छा की संरचना
परिपृच्छा एक क्रमबद्ध प्रक्रिया है जिसकी संरचना विवेकपूर्ण ढंग से किया जाना आवश्यक है। इसकी संरचना का क्रम है –
1. समस्या का प्रस्तुतीकरण: इस प्रक्रिया में समस्या को छात्रों के सम्मुख चुनौती के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। इससे छात्रों में समस्या के हल हेतु उत्तेजना बढ़ती है।
2. खोजबीन: समस्या की चुनौती को स्वीकार कर छात्र विभिन्न विधियों का प्रयोग कर प्रत्यय (समस्या) के हल हेतु खोज में जुट जाता है।
3. सूचनाओं को एकत्रित करना: छात्र खोजबीन के दौरान सूचनाओं को संगठित करता है एवं एकत्रित परिणाम की व्याख्या भी करता है।
4. पूछताछ प्रक्रिया: इसमें छात्र एकत्रित परिणाम का विश्लेषण कर प्राप्त सूचनाओं का मूल्यांकन करता है। तदोपरांत वह किसी निष्कर्ष पर पहुँचता है।
परिपृच्छा की विशेषताएँ
• परिपृच्छा के दौरान छात्र किसी वैज्ञानिक की तरह व्यवहार करता है। उनमें वैज्ञानिक अभिवृत्ति का विकास होता है।
• परिपृच्छा में आपसी सहयोग और कठिन श्रम की आवश्यकता होती है।
• कक्षा एकांगी व्याख्यान मात्र न होकर, वार्तालाप के माध्यम से संवाद धर्मी होती है।
• विद्यार्थियों में जिज्ञासा की प्रवृत्ति का विकास होता है।
• परिपृच्छा लोकतांत्रिक माहौल को बढ़ावा देती है। छात्रों द्वारा चुनौती के समाधान के माध्यम से छात्रों में समाजीकरण का विकास होता है।
• इससे व्यवहारिक ज्ञान को बल मिलता है।
• छात्र प्रयोग धर्मी कौशल के माध्यम से अधिगम करता है।
अनुसंधान/अन्वेषण की अवधारणा
• अन्वेषण से तात्पर्य उस प्रक्रिया से है जिसके माध्यम से विद्यार्थी नवीन ज्ञान अर्जित करने हेतु किसी विशेष विधि का सहारा लेते हैं।
• इस विधि के जन्मदाता प्रो. एच.ई. आर्मस्ट्राँग हैं।
• अन्वेषण को अंग्रेजी में ह्यूरिस्टि ;भ्मूतपेजपबद्ध कहते हैं।
‘ह्यूरिस्टिक’ एक ग्रीक शब्द है। इसका अर्थ है – ”मैं खोज करता हूं।“
• जेम्स ड्रेवर ने अनुसंधान को इस रूप में परिभाषित किया है – ”किसी भी क्षेत्र में ज्ञान की खोज तथा पुष्टि के लिए क्रमबद्ध तरीके से की जाने वाली क्रिया ही अनुसंधान है।“
• इस प्रक्रिया में शिक्षक अपनी ओर से कम से कम बोलता है, जबकि विद्यार्थियों को अधिक से अधिक बोलने का अवसर देता ह।ै
• अनुसंधान स्वयं खोज करने की विधि है। इसमें विद्यार्थियों को तथ्यों का अध्ययन, अवलोकन और निरीक्षण करने का अवसर दिया जाता है।
अनुसंधान के गुण
• इस विधि में विद्यार्थी सर्वदा क्रियाशील रहता है तथा समस्याओं को हल करने के लिए खुले मन से सोचता है। दूसरों के विचारों का सम्मान करता है तथा अपने विचारों में परिवर्तित परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तन करने के लिए सदा तत्पर रहता है।
• इसके द्वारा छात्रों में स्वाध्याय की प्रवृत्ति का विकास होता है।
• इस विधि से शिक्षण के अवसरों से विद्यार्थियों में मनोवैज्ञानिक अभिवृत्तियाँ विकसित होती हैं। उनमें प्रेक्षण की क्षमता का विकास होता है।
• इसमें अधिगमकर्ता व्यावहारिक रूप से परीक्षण प्राप्त करता है।
• इसमें विद्यार्थी को अपनी गति एवं क्षमता के अनुरूप सीखने की स्वतंत्रता हे।
• इस विधि से शिक्षण करने से अध्यापक को गृह कार्य नहीं देना पड़ता है। वह इस अतिरिक्त कार्यभार से मुक्त हो जाता है।
• इस शिक्षण विधि से कक्षा एवं विद्यालय में अनुशासन संबंधी समस्या नहीं आती, क्योंकि प्रत्येक अपने कार्यों में ही व्यस्त होता है।
अनुसंधान के दोष
• छोटी कक्षाओं एवं माध्यमिक कक्षाओं के लिए यह विधि उपयुक्त नहीं है, क्योंकि इन कक्षाओं में पढ़ने वाले विद्यार्थियों का मानसिक विकास इतना अधिक नहीं होता है कि वे एक अन्वेषणकर्ता के रूप में कार्य कर सकें।
• अनुसंधान के अन्तर्गत शिक्षण कार्य धीमा हो जाता है। अत: इस विधि से किसी सत्र में निर्धारित पाठ्यचर्या को पूरा करना संभव नहीं है।
• इसमें अधिगमकर्ता को विद्यार्थी नहीं, अपितु एक मौलिक अनुसंधानकर्ता माना गया है जो मनोविज्ञान के शिक्षण सिद्धांतों के प्रतिकूल हैं।
• चूँंकि माध्यमिक कक्षाओं में इस विधि को ध्यान में रखते हुए पाठ्य-पुस्तकें तैयार नहीं की गई हैं, अत: कक्षा में इस विधि के प्रयोग करने में काफी कठिनाइयाँ होती है, क्योंकि इसमें बहुत समय लगता है तथा कभी-कभी विद्यार्थी तथ्यों को खोजने में हतोत्साहित हो सकते हैं। निरन्तर असफलता उनको मानसिक रूप से निराशा प्रदान कर सकती है।
• किशोरावस्था में बालकों में परिपक्वता का अभाव होता है। अत: उसका अधिगम त्रुटिपूर्ण रह सकता है।
• यह विधि अधिक खर्चीली है क्योंकि इसके लिए अच्छी प्रयोगशाला एवं पुस्तकालय होने चाहिए जो प्राय: स्कूलों में अनुपलब्ध हैं।
अनुभवजन्य साक्ष्य
• प्रयोग अथवा परीक्षा द्वारा प्राप्त ज्ञान ‘अनुभव’ कहलाता है। विद्यार्थी विभिन्न घटना एवं कार्य को सम्पन्न करता है अथवा सम्पन्न होते हुए देखता है। इन साक्ष्यों से उसे जो ज्ञान प्राप्त होता है, उसे उस विद्यार्थी द्वारा प्राप्त अनुभव कहते हैं।
• अनुभव स्वयं के प्रत्यक्ष ज्ञान अथवा बोध पर आधारित होता है।
• तर्क संग्रह के अनुसार ज्ञान के दो भेद हैं – स्मृति और अनुभव। संस्कार मात्र से उत्पन्न ज्ञान को ‘स्मृति’ और इससे भिन्न ज्ञान को ‘अनुभव’ कहते हैं।
• बालक समाज की विभिन्न गतिविधियों के माध्यम से ज्ञान प्राप्त करता है।
• अनुभव के भी दो भेद किए जा सकते हैं – यथार्थ अनुभव और अयथार्थ अनुभव।
• यथार्थ अनुभव के चार भेद हैं – प्रत्यक्ष, अनुमिति, उपमिति और शब्द।
• अनुभवजन्य विधि के द्वारा सामाजिक मनोविज्ञान के तथ्यों का अध्ययन किया जाता है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। अपनी विविध आवश्यकताओं के लिए मनुष्य दूसरे व्यक्तियों से, समूहों से, समुदायों से अन्त: क्रियात्मक संबंध स्थापित करता है। सीखने की प्रक्रिया में प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से अपने अनुभवों द्वारा ज्ञान प्राप्त किया जाता है। यह ज्ञान तार्किक दृष्टि से उपयुक्त नहीं होता है। बालक अनुभव के द्वारा ज्ञान तो प्राप्त कर लेता है परन्तु तार्किक रूप से उसे प्रमाणित नहीं कर पाता है।
• अनुभवजन्य साक्ष्य ऐसे छात्रों के ज्ञान को पुष्ट एवं गहन आधार प्रदान करता है।
• अनुभवजन्य साक्ष्य का परीक्षण अनुभव के माध्यम से किया जाता है।
• अनुभवजन्य साक्ष्यों के द्वारा विद्यार्थियों में नवीन ज्ञान का प्रसार होता है। इससे विषय से संबंधित पुराने ज्ञान को मजबूत आधार मिलता है।
अनुभवजन्य साक्ष्य का महत्त्व
• अनुभवजन्य साक्ष्य विद्यार्थी के किताबी ज्ञान को वास्तविक ज्ञान द्वारा पुष्ट करता है।
• चूंकि इसमें विद्यार्थी स्वयं कर्त्ता एवं भोगी होता है, अत: अनुभवजन्य साक्ष्य ज्ञान या विचार की पुष्टि स्वयं करता है।
• इसमें पाठ्य-पुस्तक से संबंधित तथ्यों का अनुभव प्राप्त करने हेतु बल होता है। प्रत्यक्ष अनुभव द्वारा बालक साक्ष्य से रूबरू होता है।
• इससे छात्रों में मौलिकता, सत्यता एवं ज्ञान की भावना पैदा होती है। साथ ही प्रश्नों के माध्यम से छात्रों के पूर्व ज्ञान एवं मनोदशा का अन्वेषण करने हेतु उनकी समस्याओं का समाधान किया जाता है।
• अनुभवजन्य साक्ष्यों से छात्रों में नवीन ज्ञान का प्रसार होता है।
अनुभवों का नियोजन एवं समाधान
• शिक्षक को चाहिए कि वह विद्यार्थियों के अनुभवों के नियोजन हेतु एक मार्गदर्शक बने ताकि विद्यार्थी समाज की विकृत एवं नकारात्मक प्रत्ययों के प्रति अपना सकारात्मक दृष्टिकोण विकसित कर सकें।
• शिक्षक यह सुनिश्चित करें कि सभी छात्रों को सीखने की प्रक्रिया में पूरी तरह भाग लेने के अवसर मिलें। ऐसा तभी संभव होगा यदि संसाधनों का प्रबंधन प्रभावी ढंग से और सीखने की प्रक्रिया को सुधारने के स्पष्ट प्रयोजन के साथ किया जाए।
• छात्रों के सीखने एवं अनुभव प्राप्त करने की प्रक्रिया में सुधार हेतु उपयुक्त भौतिक संसाधनों का प्रबंधन किया जाना चाहिए ताकि उनका प्रभावी ढंग से उपयोग किया जा सके।
• समाज में अनुभव की अनन्त शाखाएं उपलब्ध हैं जिसके कारण विद्यार्थियों के मन में कौतुहल उत्पन्न होता है। शिक्षक उन प्रश्नों की पहचान कर सकते हैं जिनका उत्तर विद्यार्थी चाहते हैं।
• शिक्षक पाठ्यपुस्तक की जानकारी को उपलब्ध सामाजिक संसाधनों एवं तथ्यों से जोड़कर अनुभव को पुष्ट एवं गहन बना सकते हैं।
• बच्चों के मस्तिष्क पर नकारात्मक प्रभाव डालने वाले तथ्य एवं घटनाओं से बच्चों को यथासंभव दूर रखने का प्रयास किया जाना चाहिए।
• अनुभवों के नियोजन में सरल एवं सटीक भाषा का प्रयोग किया जाना चाहिए।