अध्याय 4. पेड़−पौधे एवं जीव−जन्तु

पेड़−पौधे

पेड़−पौधे पादप (Plantae) जगत के अन्तर्गत आते है। किसी भी जगह के पेड़−पौधे के समूह को फ्लोरा (Flora) कहते हैं। पेड़−पौधे हमारे पर्यावरण के अभिन्न अंग है। अगर पेड़− पौधे न हो तो हमारा पर्यावरण सजीव रहित हो जाएगा। पेड़−पौधे हमें कई प्रकार से लाभ पहुँचाते हैं। इनसे हमें छाया मिलती है। इनकी लकड़ियाँ हमारे दैनिक जीवन के बहुत सारे कामो में प्रयोग होती है। पेड़−पौधे हमारे वातावरण को स्वच्छ बनाते हैं। ये वातावरण से कार्बन डाई ऑक्साइड (CO2) लेकर हमें ऑक्सीजन देते हैं। जो हमारे जीवन के लिए आवश्यक है। इसका उपयोग हम सॉस लेने में करते हैं।
हमें जीवित रहने के लिए भोजन और पानी की आवश्यकता होती है। पेड़−पौधों को भी जीवित रहने के लिए पानी‚ धूप‚ खाद की आवश्यकता होती है। इसके लिए पौधों को समय−समय पर पानी देना चाहिए। इनमें निश्चित समय पर खाद डालनी चाहिए। पेड़− पौधों के आस−पास‚ घास−फूस को हटाते रहना चाहिए।
पेड़−पौधों की देखभाल न की जाए तो ये सूख जाते हैं। इसका हमारे पर्यावरण पर बुरा असर पड़ता है। पर्यावरण के लिए पेड़−पौधों को सुरक्षित रखना आवश्यक है। इसलिए हम सभी को इनकी नियमित देखभाल करनी चाहिए।
पौधों के लिए आवश्यक पोषक तत्व− पौधों के लिए 16 पोषक तत्व आवश्यक होते हैं जो हवा‚ पानी एवं मृदा से प्राप्त होते हैं। मृदा से प्राप्त होने वाले पोषक तत्त्वों में 6 वृहद पोषक तत्त्व एवं 7 सूक्ष्म पोषक तत्व होते हैं।
वृहद पोषक तत्व− नाइट्रोजन‚ फॉस्फोरस‚ पोटैशियम‚ कैल्शियम‚ मैग्नीशियम‚ सल्फर आदि।
सूक्ष्म पोषक तत्व− आयरन‚ मैंगनीज‚ बोरॉन‚ जिंक‚ कॉपर‚ मॉलिब्डेनम क्लोरीन आदि।
पौधे के विभिन्न भागों की रचना एवं कार्य−

जड़ (Root)

जड़ भूमि के नीचे पाई जाती है। इसकी सतह पर छोटे−छोटे रोएँ पाए जाते हैं‚ जिन्हें मूलरोम कहते हैं। मूलरोम द्वारा जड़े मिट्टी से जल एवं पोषक तत्त्व अवशोषित करते हैं। जड़ पौधे की भूमि में जमाए रखती हैं।
इन मुख्य कार्यो के अतिरिक्त कुछ पौधों में जड़ भोजन संचित करने तथा सहारा देने का कार्य भी करती है। गाजर शलजम मूली आदि पौधों में खाया जाने वाला भाग इनकी जड़ होती है। इन पौधों में पत्तियों द्वारा बनाया गया भोजन इनकी जड़ों में एकत्र हो जाता है।
भोजन एकत्र हो जाने के कारण ये जड़े फूल कर मोटी और विशेष आकार वाली हो जाती हैं।
जड़ के प्रकार− जड़े तीन प्रकार के होते हैं।
मूसला जड़ (Tap Root)– प्राथमिक मूल एवं इसकी शाखाएँ मिलकर मूसला मूलतंत्र बनाती है‚ जैसे− सरसों का पौधा।
रेशेदार या झकड़ा जड़− जब प्राथमिक जड़ें अल्पजीवी होती है तो वे पतली जड़ो द्वारा प्रतिस्थापित हो जाती है। ये जड़े तने के आधार से निकलती है। जैसे− गेहूँ का पौधा।
अपस्थानिक जड़े− इसमें मूल मूलांकुर के बजाए पौधों के अन्य भागों से निकलती है। जैसे− घास‚ बरगद।
जड़ का रूपान्तरण− कुछ पादपों में जड़े जल तथा खनिज के अवशोषण के अतिरिक्त अन्य कार्य भी करती हैं। इस दौरान उनके आकार एवं संरचना में परिवर्तन हो जाता है।
मूसला जड़ों का रूपान्तरण− भोज्य पदार्थ के संचय के लिए
• तर्करूप (Fusiform)– मूली
कुंभीरूप (Napiform)– शलजम
शंक्वाकार (Conical)– गाजर
गाँठदार (Tuberous)– मिराबिलिस‚ शकरकंद
अपस्थानिक जड़ों का रूपान्तरण (कार्य के आधार पर)
भोज्य पदार्थ के संचय के लिए−
• कंदिल जड़े (Tuberous Roots)– शकरकंद
• पुलकित जड़े (Fasciculated Roots)– डहेलिया‚ शतावर
• ग्रंथिल जड़े (Nodulose Roots)– अम्बा‚ हल्दी
• मणिकामय जड़े (Moniliform Roots)– अंगूर‚ करेला।
यांत्रिक सहारा प्रदान करने के लिए−
स्तम्भ मूल − बरगद
• अवस्तम्भ मूल − मक्का‚ गन्ना
• आरोही मूल – पान
अन्य जैविक क्रियाओं के लिए−
चूषण मूल− अमरबेल
• श्वसनी मूल − राइजोफोरा
• अधिपादप मूल − आर्किड
• स्वांगीकरण मूल − सिंघाड़ा कुछ पेड़−पौधे स्वयं को शुष्क वातावरण के प्रति अनुकूलित कर लेते हैं। ऐसे पौधे मरूद्‌भिद (Xerophytes) कहे जाते हैं। इन पेड़−पौधें की पत्तियाँ काँटेदार‚ जड़े अत्यधिक लम्बी और गहरी तथा तने या पत्तियाँ मांसल हो जाते हैं जिससे जल की हानि न्यूनतम होती है। कुछ पौधे स्वयं को जलीय पारितंत्र के प्रति अनुकूलित कर लेते हैं। जिन्हें जलोद्‌भिद (Hydrophytes) तथा कुछ पौधे लवणीय पारितंत्र के प्रति अनुकूलित हो जाते हैं जिन्हें लवण मृदोदभिद (Halophytes) कहते हैं।

तना (Stem)

तना जमीन के ऊपर पाया जाने वाला पौधे का मुख्य भाग है। तने से शाखाएँ निकलती हैं। इन शाखाओं पर पत्तियाँ‚ फूल एवं फल उगते हैं। तने के अंदर छोटी−छोटी नलिकाएँ पाई जाती हैं।
तने के कार्य− तने का प्रमुख कार्य शाखाओं को फैलाना तथा पत्ती‚ फूलों एवं फलों को सँभाले रखना है। यह जल खनिज‚ लवण तथा प्रकाश संश्लेषी पदार्थों का संवहन करता है। कुछ तने भोजन संग्रह करने सहारा व सुरक्षा प्रदान करने तथा कायिक प्रवर्धन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
• कुछ पौधों में तने से निकली शाखाएँ भूमि के अन्दर धँस जाती हैं। भोजन संचित कर ये शाखाएँ सिरों पर फूल जाती हैं। इन्हें भोजन संचित करने वाले भूमिगत तने कहते हैं। जैसे− आलू अदरक हल्दी आदि। भूमिगत तने का रूपान्तरण निम्न भागों में होता है−
प्रकन्द (Rhizome) – हल्दी‚ अदरक।
कंद (Tubers) – आलू
शल्क कंद (Bulb)– प्याज‚ लहसुन
घनकंद (Corn)– जमीकंद‚ अरबी।

पत्ती (Leaf)

भूमि के अन्दर पाए जाने वाले पौधे के भागों में पत्ती एक महत्त्वपूर्ण भाग है। पौधे की शाखाओं पर पत्तियाँ लगी रहती हैं। अधिकांश पौधों की पत्तियाँ हरे रंग की होती हैं। पत्तियों का हरा रंग पर्णहरित (Chlorophyll) नामक वर्णक के कारण होता है। पत्ती का हरा चपटा भाग पर्णफलक (Lamina) कहलाता है।
इसकी दो सतहें होती हैं‚ ऊपरी तथा निचली। इन सतहों पर छोटे− छोटे छिद्र पाए जाते हैं जिन्हें पर्णरन्ध्र (Stomata) कहते हैं। निचली सतहों पर इन छिद्रों की संख्या बहुत अधिक होती है। इन्हीं छिद्रों द्वारा पत्तियाँ वातावरण से गैसों का आदान−प्रदान करती हैं। इन्हीं के माध्यम से पत्तियाँ अपने सभी कार्य करती हैं।
पत्ती के कार्य−
• प्रकाश संश्लेषण (Photosynthesis)– जिस प्रकार रसोईघर में भोजन बनाया जाता है‚ उसी प्रकार हरी पत्तियाँ पौधों के लिए भोजन बनाती हैं। इसीलिए पत्ती को पौधे का रसोईघर कहते हैं।
पत्तियाँ सूर्य के प्रकाश की उपस्थिति में जल क्लोरोफिल और कार्बन डाई ऑक्साइड की सहायता से भोजन (कार्बोहाइड्रेट− ग्लूकोज) बनाती हैं। जड़ द्वारा अवशोषित जल तनों द्वारा पत्तियों तक पहुँचता है। सूर्य के प्रकाश में भोजन बनाने की इस क्रिया को प्रकाश संश्लेषण कहते हैं। प्रकाश संश्लेषण एक जैविक क्रिया है। यह क्रिया केवल दिन में होती हैं। प्रकाश संश्लेषण के लिए पर्णहरित की उपस्थिति आवश्यक है।
• प्रकाश संश्लेषण की क्रिया लाल रंग के प्रकाश में सबसे अधिक तथा बैंगनी रंग में सबसे कम होता है।
• प्रकाश संश्लेषण का अन्तिम उत्पाद ग्लूकोज है जो शीघ्र ही मंड में बदल जाता है।
• हम साँस लेते हैं तो हवा में उपस्थित ऑक्सीजन अंदर लेते हैं और उसके बदले कार्बन−डाई ऑक्साइड गैस को प्रकाश संश्लेषण की क्रिया में अंदर लेती है और बदले में ऑक्सीजन गैस बाहर निकलती है। इस प्रकार प्रकाश संश्लेषण की क्रिया द्वारा पौधों से निकली ऑक्सीजन हमारे वातावरण को शुद्ध करती है।
• कैक्टस (नागफनी) पौधे में प्रकाश संश्लेषण उसके हरे तने में होता है क्योंकि पत्तियाँ काँटों का रूप ले लेती है।
वाष्पोत्सर्जन (Transpiration)– जड़ द्वारा अवशोषित अतिरिक्त जल पत्तियों से वाष्प के रूप में बाहर निकलता रहता है। इस क्रिया को वाष्पोत्सर्जन कहते हैं। यह क्रिया पर्णरन्ध्रों (Stomata) के माध्यम से होती है।
• वाष्पोत्सर्जन (Transpiration) की दर को पोटोमीटर यंत्र द्वारा मापा जाता है।
श्वसन (Respiration)– हमारी तरह पौधें भी साँस लेते रहते हैं। साँस लेने की इस क्रिया को श्वसन कहते हैं। पौधे पर्णरन्ध्रों द्वारा श्वसन क्रिया में ऑक्सीजन गैस बाहर निकालते हैं। यह क्रिया दिन−रात होती है।

फूल (Flower)

फूल‚ पौधे का सबसे सुन्दर व आकर्षक भाग होता है। फूल के निम्नलिखित प्रजनन अंग होते हैं−
वाह्य दल (Sepals)– फूल के सबसे बाहर की हरी पंखुड़ियों को वाह्य दल कहते हैं। ये फूल के अन्य भागों की रक्षा करते हैं।
दल (Petals)– फूल की रंगीन पंखुड़ियों को दल कहते हैं। यह फूल का सबसे आकर्षक भाग होता है।
पुंकेसर (Stamen)– फूल की पंखुड़ियों (दल) के बीच में कुछ लम्बी−लम्बी पतली रचनाएँ होती हैं। इसका ऊपरी सिरा थोड़ा फूला हुआ होता है। इसे पुंकेसर कहते हैं। पुंकेसर पौधे का नर भाग होता है‚ जिसमें पराग/परागकण होते हैं।
स्त्रीकेसर (Pistill)– फूल के ठीक मध्य में एक कीप जैसी संरचना होती है। इस संरचना को स्त्रीकेसर कहते हैं। ये पौधे का मादा भाग होता है‚ जिसमें अण्डाशय और बीजाण्ड पाये जाते हैं।

फल (Fruit)

निषेचन के बाद अंडाशय से बनने वाली संरचना को फल कहते हैं। फल के तीन भाग होते हैं− वाह्यफल भित्ति‚ मध्य फल भित्ति और अन्त: फल भित्ति।
• जब फल का विकास केवल पुष्प के अण्डाशय से होता है तब उसे सत्य फल (True fruit) कहते हैं। जैसे− रतालु एवं सिंघाड़ा आदि।
• जब फल के निर्माण में अण्डाशय के अतिरिक्त पुष्प के अन्य भाग‚ जैसे− पुष्पासन‚ वाह्यदल‚ दल इत्यादि भी भाग लेते है।
तब इसे कूट या आभासी फल (False fruit) कहते हैं। जैसे− सेब‚ नाशपाती‚ कटहल‚ एवं शहतूत आदि।
• जब फल का निर्माण बिना निषेचन के होता है तो ऐसे फल को अनिषेक फल (Parthenocarpic fruit) कहते हैं। जैसे− केला‚ पपीता‚ अंगूर इत्यादि।
फल खाने योग्य भाग

फल खाने योग्य भाग
सेब‚ नाशपाती पुष्पासन
अमरूद‚ अंगूर‚ टमाटर फलभित्ति‚ बीजांडासन
पपीता‚ आम मध्य फलभित्ति
नारियल भ्रूणपोष
केला मध्य एवं अंत: भित्ति
गेहूँ भ्रूणपोष एवं भ्रूण
काजू पुष्पवृंत बीजपत्र
लीची एरिल
चना‚ मूँगफली बीजपत्र एवं भ्रूण
शहतूत रसीले परिदल पुंज
अनान्नास परिदल पुंज
नारंगी जूसी हेयर
भिण्डी सम्पूर्ण भाग
खीरा‚ तरबूज अन्त: भित्ति
आलू तना
गाजर‚ चुकन्दर‚ शलजम एवं मूली जड़
कुनैन प्राप्त होता है सिनकोना के छाल से
लौंग प्राप्त होता है पुष्पकली से
इन्सुलिन प्राप्त होता है डाहेलिया के जड़ों से
कॉफी प्राप्त होता है बीज से
दालचीनी प्राप्त होता है पौधों के छाल से
हेरोइन प्राप्त होती है अफीम पोस्ता से
कपास के रेशे प्राप्त होते हैं पौधे के फल से
कल्म (Culm) का उदाहरण है बाँस
Drupe फल का उदाहरण है आम‚ नारियल‚ जामुन
Beri फल का उदाहरण है टमाटर‚ बैंगन‚ अमरूद‚ अंगूर
Pepo फल का उदाहरण है कद्दू‚ करैला‚ खीरा
Pome फल का उदाहरण है सेब‚ नाशपाता

बीज (Seed)

पुष्प के अण्डाशय में विकसित होने वाला निषेचित एवं परिपक्व बीजाण्ड बीज कहलाता है।बीज दो प्रकार के होते हैं−
एकबीज पत्री‚ जैसे− प्याज‚ गेहूँ‚ मक्का‚ चावल आदि।
द्विबीज पत्री‚ जैसे− मूली‚ सरसों‚ इमली‚ संतरा‚ टमाटर आदि।
पौधों में पोषण (Nutrition in plant)– केवल पादप ही ऐसे ही जीव हैं जो जल‚ कार्बन डाइऑक्साइड एवं खनिज की सहायता से अपना भोजन बना सकते हैं। ये सभी पदार्थ उनके परिवेश में उपलब्ध होते हैं। सजीवों द्वारा भोजन ग्रहण करने एवं इसके उपयोग की विधि को पोषण कहते हैं। पोषण की वह विधि जिसमें जीव अपना भोजन स्वयं संश्लेषित करते हैं‚ स्वपोषण कहलाती है।
अत: ऐसे पादपों को स्वपोषी कहते हैं। जन्तु एवं अधिकतर अन्य जीव पादपों द्वारा संश्लेषित भोजन ग्रहण करते हैं। उन्हें विषमपोषी कहते हैं।
स्वपोषण– इस प्रकार के पोषण में हरे पौधे क्लोरोफिल तथा सूर्य के प्रकाश की उपस्थिति में प्रकाश संश्लेषण द्वारा स्वयं भोजन का निर्माण करते हैं।
विषमपोषण− इस प्रकार के पोषण में पौधे अपना भोजन स्वयं नहीं बनाते हैं।
भोजन के दोत के आधार पर विषम पोषक पादप निम्न चार प्रकार के होते हैं−
मृतोपजीवी− वे पौधे जो अपना पोषण मृत एवं सड़े−गले पदार्थों से प्राप्त करते हैं‚ मृतोपजीवी कहलाते हैं। इनमें क्लोरोफिल अनुपस्थित होता है। अत: ये प्रकाश संश्लेषण द्वारा भोजन का संश्लेषण नहीं कर सकते। जैसे− एगैरिकस (छत्रक)
परजीवी− ये ऐसे पौधे है जो दूसरे पौधे से अपना पोषण प्राप्त करते हैं। पोषण प्राप्त करने वाला पौधा परजीवी तथा जिससे पोषण प्राप्त किया जाता है वह पोषक (Host) कहलाता है। इस प्रकार के पोषण की दो विधि होती है−
पूर्ण परजीवी पोषण− इस विधि में पौधे जीवन भर परजीवी ही बने रहते हैं। जैसे− अमरबेल‚ ओरोबैंकी‚ रैफ्लीसिया‚ बैलेनोफोरा‚ कैसिथा आदि।
आंशिक वैकल्पिक परजीवी− इस प्रकार के परजीवी सामान्यत: किसी जीवित पोषक पौधों पर परजीवी होते हैं‚ किन्तु जब इन्हें जीवित पोषक पौधा नहीं मिल पाता है‚ तब यह मृतोपजीवी पोषण प्राप्त करने लगता है। जैसे− मोनोट्रोपा‚ लोरेन्थस‚ चन्दन आदि।
सहजीवी पोषण− कुछ जीव एक−दूसरे के साथ रहते हैं तथा अपना आवास एवं पोषण तत्त्व एक−दूसरे के साथ बाँटते हैं।
इसे सहजीवी सम्बन्ध कहते हैं। इस प्रकार के सम्बन्ध को सहजीवी पोषण कहते हैं। जैसे− लाइकेन कहे जाने वाले कुछ जीवों में दो भागीदार होते है। इनमें से एक शैवाल होता है तथा दूसरा कवक। शैवाल में क्लोरोफिल उपस्थित होता है‚ जबकि कवक में क्लोरोफिल नहीं होता। कवक शैवाल को रहने का स्थान (आवास) जल एवं पोषक तत्त्व उपलब्ध कराता है तथा बदले में शैवाल प्रकाश संश्लेषण द्वारा संश्लेषित खाद्य पदार्थ कवक को देता है।
कीटभक्षी या मांसाहारी पोषण− इस प्रकार के पोषण में पौधे प्रकाश संश्लेषण के द्वारा भोज्य पदार्थों का निर्माण करते हैं।
किन्तु अपने लिये आवश्यक नाइट्रोजन की पूर्ति के लिए उन जगहों में पाये जाते हैं जहाँ की भूमि दलदली हो जिसमें N2 की कमी होती है।
उदाहरण− ड्रोसेरा या सनड्‌यू‚ डायोनिया‚ वीनस फ्लाई ट्रैप यूट्रीकुलेरिया (Bladder wort), नीपेन्थीज या घटपर्णी।
नीपेन्थिस/घटपर्णी− यह एक कीट भक्षी (कीड़े−मकोड़े) को खाने वाला पौधा है। इसमें प्रकाश संश्लेषण होता है परन्तु नाइट्रोजन प्राप्त करने के लिए यह कीड़े−मकोड़े एवं अन्य छोटे जीवों का शिकार करता है। यह लम्बे घड़े जैसे होता है‚ जिसके ऊपर पत्तीनुमा ढक्कन लगा होता है। इसमें से खास खुशबू निकलती है‚ जिससे कीड़े−मकोड़े इसकी ओर आकर्षित होकर इसके घड़े में फस जाते हैं और इसका शिकार बन जाते हैं। यह भारत (मेघालय)‚ ऑस्ट्रेलिया‚ एवं इंडोनेशिया में पाया जाता है।

पादप हार्मोन (Plant Hormones)

पादप हार्मोन पौधों की जैविक क्रियाओं के बीच समन्वय स्थापित करने वाले रासायनिक पदार्थ होते है। ये पौधे की वृद्धि एवं अनेक उपापचयी क्रियाओं को नियंत्रित व प्रभावित करते हैं।
वृद्धि प्रवर्द्धक हॉर्मोन (Growth stimulator Hormone)– ये हॉर्मोन वृद्धि दर को बढ़ाते हैं। जैसे− ऑक्सिन‚ जिबरेलिन्स‚ साइटोकाइनिन।
वृद्धि निरोधक हॉर्मोन (Growth Inhibitor Hormone)– ये वृद्धि दर को कम करते हैं। जैसे− एब्सिसिक अम्ल‚ एथिलीन।
ऑक्सिन (Auxins)– ऑक्सिन सबसे महत्त्वपूर्ण पादप हॉर्मोन है। ये पौधों के ऊपरी सिरों पर बनते हैं। ये कोशिकाओं के दीर्घाकरण (Elongation) द्वारा वृद्धि को नियंत्रित करते हैं।
• ऑक्सिन कायिक जनन में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। जैसे गुलाब के कलम से नया पौधा तैयार करना।
• ऑक्सिन का प्रयोग खेतों में छिड़काव करके खर−पतवार को नष्ट करने में किया जाता है।
• ऑक्सिन कुछ पौधों में पुष्पन को प्रेरित करते हैं।
जिबरेलिन्स (Gibberellins)– यह भी एक पादप हॉर्मोन है।
ये हॉर्मोन पौधों की लम्बाई में वृद्धि करते हैं और उनकी जरावस्था को रोकते हैं ताकि फल पेड़ पर अधिक समय तक लगे रह सकें। जिबरेलिन्स हॉर्मोन का प्रयोग करके बीजरहित फलो का उत्पादन किया जाता है। जिबरेलिन्स हॉर्मोन बीजों के अंकुरण में भाग लेते हैं।
साइटोकाइनिन (Cytokinin)– साइटोकाइनिन क्षारीय प्रकृति का हॉर्मोन है। साइटोकाइनिन का संश्लेषण जड़ों के अग्र सिरों पर होता है‚ जहाँ कोशिका−विभाजन होता है। साइटोकाइनिन कोशिका विभाजन के लिए एक आवश्यक हॉर्मोन है। साइटोकाइनिन बीजों के अंकुरण को प्रेरित करते हैं।
ऐब्सिसिक अम्ल (Abscisic Acid)− यह एक वृद्धिरोधी हार्मोन है। यह पौधों की वृद्धि को रोकता है। यह अम्ल पौधों से फूलों एवं फलों के पृथक्करण की क्रिया का भी नियंत्रण करता है।
यह कोशिका विभाजन को रोकता है।
एथिलीन (Ethylene)− ये गैसीय अवस्था में पाया जाने वाला हॉर्मोन है। इस हार्मोन का निर्माण पौधे के प्रत्येक भाग में होता है।
इसका सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य कच्चे फलों को पकाना है। फलों के पकते समय इसकी सान्द्रता बढ़ जाती है। यह वृद्धि अवरोधक हार्मोन है।
फ्लोरिजेन (Florigen or Flowering Hormone)– यह एक ऐसा हॉर्मोन है जो पादपों में पुष्पन को प्रेरित करता है। इसका निर्माण पत्तियों में होता है। यह हॉर्मोन फूलों को खिलने में मदद करते है। इसलिए इस हॉर्मोन को फूल खिलाने वाला हॉर्मोन भी कहते है।
पादप हार्मोन (Phytohormones) तथा उनके कार्य हार्मोन का नाम खोजकर्ता कार्य

हार्मोन का नाम खोजकर्ता कार्य
ऑक्सिन डार्विन (1880) कोशिका विवर्धन‚ जड़ निर्माण‚ विलगन (Abscission) पर रोक‚ खरपतवार का नाश आदि।
जिबरेलिन कुरोसावा (1926) बौनी जातियों के तने को लम्बा करना‚ बीजों की प्रसुप्ति समाप्त कर अंकुरण में सहायक‚ पुष्पन तथा फल निर्माण पर नियंत्रण आदि।
साइटोकाइनिन मिलर (1955) कोशिका विभाजन को प्रेरित करना‚ जीर्णता‚ विलम्बन। (Delay in senescence) प्रसुप्त ऊतकों का जागरण आदि।
एब्सिसिक अम्ल की वृद्धि रोकना कार्न्स तथा एडिकोट (1961- 65) बीजों को सुप्तावस्था में रखना पत्तियों का विलगम तथा पुष्पन में बाधक आदि।
एथिलीन वर्ग (1962) फलों को पकाना‚ मादा पुष्प के विकास को प्रेरित करना।

पौधों में जनन (Reproduction in plants)

पौधों में जनन दो प्रकार से होता है। अलैंगिक जनन एवं लैंगिक जनन।
अलैंगिक जनन (Asexual Reproduction)– इसमें पादप बिना बीज के नए पादप को उत्पन्न करता है। अलैंगिक जनन निम्न विधियों जैसे कायिक प्रवर्धन‚ मुकुलन‚ खण्डन एवं बीजाणु निर्माण से होता है।
कायिक प्रवर्धन (Vegetative Amplification)– इसमें पादप के मूल‚ तने‚ पत्ती एवं कली से नया पौध प्राप्त किया जाता है।
उदाहरण− ब्रायोफिलम‚ बिग्नोनिया के पत्तियों के किनारे छोटे−छोटे कलिकाएँ होती हैं। ये कलिकाएँ मृदा में गिरकर नये पौधे को जन्म देते हैं।
मुकुलन (Budding)– यीस्ट (कवक) में जनन मुकुलन विधि से होता है। यीस्ट कोशिका से छोटी−छोटी कलिका की तरह अभार या मुकुल बनते हैं जो कोशिका से अलग होकर नई यीस्ट कोशिकाएँ बनाते हैं।
खंडन (Fragmentation)– शैवाल में खंडन के द्वारा जनन होता है। जल और पोषक तत्त्वों के उपलब्ध होने पर‚ शैवाल वृद्धि करते हैं एवं तेजी से खंडन द्वारा गुणन करते हैं। शैवाल दो या अधिक खंडों में विभाजित हो जाते हैं तथा ये खंड नए जीवों के रूप में वृद्धि करते जाते हैं।
बीजाणु निर्माण (Spore formation)– कवक में जनन बीजाणु निर्माण के द्वारा होता है। कम विकसित पौधों में दृढ़ आवरण वाली विशेष एककोशिक रचनाएँ पाई जाती हैं। जिन्हें बीजाणु कहते हैं।
ये प्रतिकूल वातावरण में सुरक्षित रहते हैं एवं अनुकूल परिस्थिति आने पर अंकुरित होकर नए पादप बनते हैं। मॉस (moss) एवं फर्न जैसे पादपों में भी जनन बीजाणुओं द्वारा होता है।
लैंगिक जनन (Sexual Reproduction)– लैंगिक जनन में बीजों से नए पादप उत्पन्न होते हैं। लैंगिक जनन दो विधियों− परागण एवं निषेचन के द्वारा होता है। अधिकतर पौधे उभयलिंगी होते हैं। पादपों का जनन भाग पुष्प होता है। पुष्प के विभिन्न भाग होते हैं− बाह्य दल (sepals), दल (Petals), पुंकेसर (Stamen), अंडप (Carpel)। पुष्प में पुंकेसर एवं अंडप जनन अंग होते हैं। प्रत्येक पुंकेसर में एक वृंत जिसे तंतु (filament)
कहते हैं। तथा एक चपटा शीर्ष पराग कोष (Anther) पाया जाता है। परागकणों की उत्त्पत्ति परागकोष में होती है। प्रत्येक परागकण से दो नर युग्मक बनते हैं। यदि किसी उभयलिंगी पुष्प में पुमंग और जायांग अलग−अलग समय पर परिपक्व होते हैं तो इसे भिन्नकालपक्वता कहते हैं।
अंडप के तीन प्रमुख भाग हैं− अंडाशय (Ovary), वर्तिका (Style), वर्तिकाग्र (Stigma)। अंडाशय में बीजाण्ड होते हैं एवं प्रत्येक बीजांड में एक अंड होता है जो मादा युग्मक है।
परागण (Pollination)– जब परागकण परागकोष से वर्तिकाग्र तक स्थानांतरित होते हैं तो उसे परागण कहते हैं। परागकणों का स्थानांतरण बहुत से माध्यमों‚ जैसे− वायु‚ जल‚ कीट तथा अन्य कारकों से होता है। परागकण दो प्रकार के होते हैं−
1. स्व−परागण एवं 2. पर−परागण।
स्व−परागण (Self-Pollination)– जब किसी पुष्प के परागकोष से उसी पुष्प के अथवा उस पौधे के अन्य पुष्प के वर्तिकाग्र तक‚ परागकणों का स्थानांतरण होता है तो उसे स्व− परागण कहते हैं।
पर−परागण (Cross-Pollination)– जब एक पुष्प के परागकोष से उसी जाति के दूसरे पौधे के पुष्प के वर्तिकाग्र तक परागकणों का स्थानांतरण होता है तो उसे पर−परागण कहते हैं।
क्षेत्र के आधार पर पौधों के प्रकार
• मरुदभिद्‌− ये पौधे मरुस्थल (रेगिस्तान) जैसे क्षेत्रों में पाये जाते हैं। इनकी जड़े लम्बी होती हैं। इनमें पत्तियाँ छोटी−छोटी होती हैं या फिर पत्तियाँ काँटों का रूप ले लेती हैं जिससे वाष्पोत्सर्जन कम हो या न हो। नागफनी (कैक्टस) एक मरुदिभद्‌ पौधा है जिसमें तना हरा एवं गूदेदार होता है और मोमी परत से ढका होता है। इसमें तना ही प्रकाश संश्लेषण करता है। इसके अन्य उदाहरण बबूल‚ कीकर आदि हैं।
समोद्‌भिद− ये पौधे खेती योग्य जमीन में पाये जाते हैं। इनमें तना ठोस एवं शाखायुक्त होता है। इनके पत्ते साधारणतया बड़े‚ चौड़े‚ पतले एवं विभिन्न आकार के होते हैं। इसके उदाहरण मक्का‚ टमाटर‚ गेहूँ‚ धान आदि हैं।
जलोद्‌भिद पौधा− ये जलीय पौधे हैं जो तालाबों में पाये जाते हैं। इनके जड़ तंत्र कम विकसित होते हैं। इनके तने‚ लम्बे‚ पतले‚ मुलायम व हल्के होते हैं जिसमें वायु भरी होती है। वायु भरी होने के कारण ये हल्के व मुलायम होते हैं और पानी में तैरते रहते हैं। इनकी पत्तियाँ हरी और चपटी होती हैं। इनकी सतह मोम जैसी चिकनी होती हैं जिस कारण इन पर पानी नहीं रुकता और ये सड़ती नहीं हैं। उदाहरण− कमल‚ जलकुम्भी‚ कुमुदनी आदि।
लवणोद्‌भिद− ये पौधे दलदली क्षेत्र में पाये जाते हैं जहाँ पर लवण की सान्द्रता अधिक होती है। इस प्रकार के पौधों में वायुमण्डलीय (श्वसनी) जड़े पायी जाती हैं। उदाहरण− मैंग्रोव
महत्त्वपूर्ण औषधीय पादप (Important Medical Plants)

सामान्य नाम उपयोगी भाग औषधीय उपयोगिता
बैलाडोना (Belladona) सूखी पत्तियाँ व जड़ एट्रोपन एवं हायोसाइमस एल्केलॉयड प्राप्त होता है जो केन्द्रीय नाड़ी तंत्र (CNS) के दर्द को कम करती है।
धतूरा (Datura) फल का रस बालों को साफ रखने (Dandruf हटाने) व गले के रोगों में काम आता है।
आँवला (Avla) फल मूत्र अधिक लाने के लिए‚ पेट साफ करने के लिए‚ हेमरेज में प्रयोग‚ खून के दस्त में व प्रसिद्ध आयुर्वेदिक दवाई च्यवनप्राश बनाने में प्रयोग होता है।
एफेड्रा तना एफेड्रिन दवाई प्राप्त होती है जो खाँसी के उपचार हेतु प्रयुक्त होती है।
सर्पगंधा (Sarpgandha) जड़ की छाल रेसरपीन एल्केलॉयड जो उच्च रक्तचाप‚ साँप के काटने तथा मानसिक रोगों में दवाई के रूप में किया जाता है।
अश्वगंधा जड़ स्त्री रोगों‚ गठिया रोग व जोड़ो की सूजन के उपचार में।
कुचला (Kuchla) जड़ स्ट्रिकनन (Strichnun) नामक एल्केलॉयड निकाला जाता है‚ जो अर्द्धांग (Paralysis) व दिमाग के रोगों के निदान में प्रयोग में आता है।
अफीम (Opium) कैप्सूल फल मोरफीन‚ कोडीन‚ थिबेनीन‚ नार्सीइन तथा नाजकेपीन नामक दवाइयाँ प्राप्त की जाती हैं‚ जो दर्द−निवारक है।
कुनैन (Quinine) छाल मलेरिया की दवाई कुनैन प्राप्त की जाती है।

सब्जियों के रंग/स्वाद/गंध का कारण (Causes of Colour/Taste/Odour of Vegetables)

पीपर में गंध ओजिलयोरेसिन
आलू का हरा रंग (हरापन) सोलेनिन
टमाटर का लाल रंग लाइकोपिन
प्याज में पीला रंग क्वेरसिटीन
प्याज में लाल रंग कैप्सनिथिन
मिर्च में लाल रंग कैप्सनथिन
हल्दी में पीला रंग कुरकुमिन
सेब‚ गाजर में लाल रंग एन्थोसायनिन
गाजर में नारंगी रंग कैरोटिन
अरबी में कनकनाहट कैल्शियम ऑक्सेलेट
तिलहनों के तेल का पीला कैरोटिनाइज्ड (एलाइल आइसो

सब्जी का नाम रंग/गंध/स्वाद

मूली में तीखापन आइसोसाइनेट
मिर्च में चटपटाहट केप्सेसिन
शलजम में चरपराहट कैल्शियम ऑक्सलेट
खीरे में कड़वाहट कुकरबिटेसिन
प्याज में गंध एलाइल प्रोपाइल डाइसल्फाइड
लहसुन में गंध एलाइसिन (डाइएलाइल डाइसल्फाइड)
करेले में कड़ुवाहट मेमोर्डिकोसाइट/टेट्रोसाइक्लिक ट्राइ
सूरजमुखी के तेल में कसैलापन ऑक्सीडेशन
खेसारी से लकवा/गठिया न्यूटेक्सिन/लेथे्रजन (BOAA)
चने की पत्ती में खटास ऑक्सेलिक अम्ल

प्रमुख कृषि क्रांतियाँ एवं उनसे संबंधित क्षेत्र्ा

क्रांति क्रांति का उद्देश्य
हरित क्रांति भारत में हरित क्रांति की शुरुआत 1966−67 में हुई। कृषि उत्पादन में तकनीक सुधार द्वारा खाद्यान्न उत्पादन में आत्मनिर्भरता (श्रेय− डॉ. नार्मन बोरलॉग‚ मैक्सिको) एवं (भारतीय परिप्रेक्ष्य में) डॉ. एम. एस. स्वामीनाथन
श्वेत क्रांति दूध के क्षेत्र में उत्पादकता बढ़ाना जिसके लिए ऑपरेशन फ्लड नामक योजना प्रारंभ की गयी। (श्रेय− भारत के डॉ. वर्गीज कुरियन)
पीली क्रांति खाद्य तेलों तथा तिलहन फसलों के उत्पादन में वृद्धि
स्वर्ण क्रांति फल/बागवानी में वृद्धि
गोल क्रांति आलू उत्पादन एवं आलू क्षेत्र में वृद्धि
मूक क्रांति मोटे अनाज उत्पादन में वृद्धि
सदाबहार क्रांति जैव तकनीकी द्वारा कृषि के समग्र विकास हेतु
गुलाबी क्रांति झींगा/प्याज उत्पादन में वृद्धि
नीली क्रांति मछली उत्पादन में वृद्धि
रजत क्रांति अंडा/पोल्ट्री उत्पादन में वृद्धि
लाल क्रांति मांस/टमाटर उत्पादन में वृद्धि
गोल्डन फाइबर क्रांति जूट उत्पादन में वृद्धि
सिल्वर फाइबर क्रांति कपास उत्पादन में वृद्धि
ग्रे क्रांति उर्वरक को बढ़ावा देना
इंद्रधनुष क्रांति कृषि के सभी क्षेत्रों के उत्पादन में वृद्धि हेतु

विटीकल्चर − अंगूरों का उत्पादन। पीसीकल्चर− मछली पालन की क्रिया। सेरीकल्चर− रेशम उत्पादन की क्रिया। हॉर्टीकल्चर− बागवानी फसलों (फल‚ सब्जी आदि) का उत्पादन। ओलिवीकल्चर− जैतून की कृषि। एपीकल्चर− शहद उत्पादन हेतु मधुमक्खी पालन। फ्लोरीकल्चर− फूलों की कृषि। सिल्वीकल्चर− वनों के संरक्षण एवं संवर्धन से संबंधित क्रिया। ओलेरीकल्चर− पौष्टिक शाक सब्जियों की कृषि। वर्मीकल्चर− कृषि उत्पादन में वृद्धि हेतु केंचुआ पालन। सेरीकल्चर− रेशम कीट हेतु शहतूत की कृषि। एरोपोनिक्स− पौधों को हवा में उगाना। पोमोलॉजी− फल विज्ञान। एन्थोलॉजी− पुष्पों का अध्ययन आनिथोलॉजी− पक्षियों का अध्ययन
पादपों से संबंधित कुछ रोचक तथ्य

संसार का सबसे लम्बा वृक्ष सिकोया या कोस्ट रेट वुड ऑफ कैलीफोर्निया (ऊँचाई 120 मीटर)
संसार का सबसे बड़ा आवृत्तबीजी वृक्ष यूकेलिप्ट्‌स
संसार का सबसे बड़ी पत्ती वाला पौधा विक्टोरिया रीजिया (यह भारत में पं. बंगाल का जलीय पादप)
संसार का सबसे बड़ा फल लोडोसिया या डबल कोकोनट्‌स (यह भारत के केरल में पाया जाता है)
सबसे बड़ा पुष्प रैफ्लेशिया (व्यास 1 मीटर तथा भार लगभग 8 से 10 किलो ग्राम) इसमें से सड़े मांस की दुर्गन्ध आती है
सबसे बड़ा बीजाण्ड साइकस
सबसे छोटा आवृत्तबीजी पौधा लेम्ना (एक जलीय पौधा)
सबसे छोटा बीज आर्किड
सबसे छोटा गुणसूत्र शैवाल में
सबसे अधिक गुणसूत्र वाला पौधा औफियोग्लोसम (यह फर्न है जिसमें 1266 गुणसूत्र होते हैं)
सबसे कम गुणसूत्र वाला पादप हेप्लोपैपस ग्रेसिलिस
सबसे छोटा नग्नबीजी पादप जेमिया पिग्मिया
सबसे छोटी कोशिका माइकोप्लाज्मा गेलिसेप्टिकम (P.P.L.O.)

जन्तु (Animal)

जन्तु जगत में जन्तुओं के विषय में पढ़ा जाता है। अरस्तू को जन्तु विज्ञान का जनक कहा जाता है। पानी में रहने वाले जीव‚ जैसे− मछलियाँ‚ ऑक्टोपस‚ दरियाई घोड़ा आदि‚ रेंग कर चलने वाले जीव‚ जैसे साँप‚ छिपकली‚ केंचुआ आदि कीड़े− मकोड़े जैसे बिच्छु‚ तितली‚ मच्छर‚ मकड़ी आदि पशु पक्षी और मनुष्य सभी जन्तु जगत में आते हैं।
एक कोशिका− इन जन्तुओं का शरीर केवल एक कोशिका से बना होता है इनको नग्न आँखों से नहीं देखा जा सकता है। जैसे− पैरामीशियम‚ यूग्लीना इत्यादि।
बहु कोशिका− वे जीव−जन्तु जिनका शरीर एक से अधिक कोशिकाओं से बना होता है‚ जिन्हें नग्न आँखों से देखा जा सकता है। जैसे− हाइड्रा‚ घोंघा‚ मछली‚ मेढ़क‚ मनुष्य इत्यादि।
कशेरूकी जीव− इन जन्तुओं के शरीर में रीढ़ की हड्डी (मेरूदण्ड)
पायी जाती है। जैसे− मछली‚ पक्षी‚ मनुष्य‚ गाय इत्यादि।
अकशेरूकी जीव− ऐसे जन्तु जिनमें (मेरूदण्ड) रीढ़ की हड्डी नहीं पायी जाती है। जैसे− कीड़े−मकौड़े‚ केंचुआ‚ घोंघा‚ तिलचट्टा इत्यादि।
अण्डयुज− वो जीव जो अण्डें देते हैं। जैसे− मछली‚ मेढ़क‚ छिपकली‚ सर्प‚ पक्षी‚ कीड़े−मकौड़े इत्यादि।
जरायुज− वो जीव जो बच्चे पैदा करते हैं। जैसे− मनुष्य‚ चूहा‚ खरगोश‚ गाय‚ बकरी इत्यादि।

कुछ विशेष जानवर−

शेर (Lion)– शेर जंगल में रहता है। इसको जंगल का राजा कहा जाता है। इसकी आयु लगभग 14 साल की होती है। यह भूरे रंग का होता है। यह अपनी मूँछो की मदद से शिकार का पता लगा लेता है और अंधेरे में अपना रास्ता ढूँढ लेता है। अंधेरे में यह मनुष्य से लगभग छह गुना ज्यादा देख सकता है। शेर अपनी मूत्र की सहायता से अपने क्षेत्र (इलाकों) को पहचान लेता है।
बाघ− यह हमारा राष्ट्रीय पशु है। इसकी शरीर पर पीली और काली धारियाँ होती हैं। इसकी आयु लगभग छब्बीस साल की होती है। यह भी मूँछों की मदद से शिकार का पता लगा लेता है और अंधेरे में अपना रास्ता ढूँढ़ लेता है। इसकी दहाड़ लगभग तीन किलोमीटर तक सुनाई देती है। यह भी मांसाहारी होता है।
हाथी− हाथी पृथ्वी पर पाये जाने वाला सबसे बड़ा जानवर है। इसकी आयु लगभग 70 साल की होती है। इसका काला−स्लेटी रंग होता है। अपने शरीर को ठंडा करने के लिए पानी और कीचड़ में खेलता है। यह एक दिन में एक बड़ी हाथी लगभग 1 क्विंटल (100
किलो) से ज्यादा पत्ते और झाड़ियाँ खा जाता है। इसलिए यह शाकाहारी है। हाथी बहुत कम सोते हैं (बस दो से चार घण्टे)। हाथी के कान बहुत बड़े होते हें। यह सुनने के अलावा अपने कानों से हवा भी कर लेता है।
गैण्डा− यह पृथ्वी पर पाये जाने वाला दूसरा सबसे बड़ा जानवर है। इसकी आयु लगभग 50 साल की होती है। इसके सींग इसके नाक के ऊपर होते हैं। यह एक सींग वाला भी हो सकता है और दो सींग वाला भी। इसकी चमड़ी काफी मोटी होती है। (लगभग डेढ़ सेंटीमीटर)। यह शाकाहारी होता है। असम के काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान में एक सींग वाला गैंडा पाया जाता है।
व्हेल− यह एक स्तनधारी है क्योंकि यह बच्चे को जन्म देती है। ब्लू व्हेल पृथ्वी की सबसे बड़ी जानवर है। यह फेफड़ों से साँस लेती है। इसकी आयु लगभग नब्बे साल होती है।
डॉल्फिन− यह पानी में रहने वाली एक स्तनधारी है। यह फेफड़ों से साँस लेती है। इसकी आयु लगभग 50 साल होती है। अंधी डॉल्फिन (सूंसू) भारत का राष्ट्रीय जलीय जीव है। यह बुद्धिमान है और मनुष्य के साथ जल्दी घुल−मिल जाती है।
मोर− मोर हमारा राष्ट्रीय पक्षी है। इसके पंख नीले और हरे होते हैं। इसके सिर पर एक मुकुट होता है। इसकी आयु लगभग 20 साल होती है। यह हर साल अपने पंख छोड़ देता है। यह सर्वाहारी होता है।
साँप− ये रेंगकर चलते हैं। इनके दाँत होते हैं‚ परन्तु यह भोजन को पूरा निगल जाते हैं। इनके कान नहीं होते हैं। यह जमीन पर हुए कंपन को महसूस करते हैं। ये मांसाहारी होते हैं। ये अपने दो खांम्बले दाँतों का प्रयोग जहर निकालने के लिए करते हैं। हमारे देश में केवल चार प्रकार के जहरीले साँप पाये जाते हैं। ये हैं− नाग (कोबरा)‚ दुबोइया‚ कुरैत और अकाई। अजगर सबसे लम्बा जीव है।
इसकी लम्बाई तीस फीट तक हो सकती है।
स्लाथ−ये भालू जैसा जानवर है। यह रात्रिचर है और दिन में सोता है (लगभग अट्ठारह घण्टे)। यह पेड़ों पर उल्टा लटक कर सोता है। इसकी आयु लगभग चालीस साल तक होती है। ये पेड़ों पर रहकर पेड़ों के पत्ते तथा कीड़े-मकोड़ों को खाते हैं। कुछ जानवर ठंड के मौसम में बिल्कुल दिखाई नहीं देते। वे पूरी सर्दी अपने−अपने आश्रय में सोते रहते हैं। इसे शीत निद्रा कहा जाता है। जैसे− साँप‚ बिच्छु‚ छिपकली‚ भालू आदि।
• सभी बहुकोशिकीय जन्तु परपोषी होते हैं यानि ये अपना भोजन स्वयं नहीं बना सकते हैं बल्कि उत्पादक (Producer) पौधों के द्वारा बनाये गये भोज्य पदार्थों पर आश्रित होते हैं। भोजन की प्रकृति के आधार पर इन्हें निम्नलिखित वर्गों में वर्गीकृत किया गया है−
शाकाहारी (Herbivorous)– इस प्रकार के जीव पौधों द्वारा निर्मित भोज्य पदार्थों पर आश्रित होते हैं। जैसे− खरगोश‚ बकरी‚ गाय‚ हिरण‚ घोड़ा इत्यादि।
मांसाहारी (Carnivorous)– जो शाकाहारी जीवों को खाते हैं। जैसे− शेर‚ बाघ‚ चीता इत्यादि।
सर्वाहारी (Omnivorous)– ऐसे जीव जो शाकाहारी एवं माँसाहारी दोनों को खाते हैं जैसे− मनुष्य।
परजीवी (Parasite)– जो जीव अन्य जीवित जीव-जन्तुओं के शरीर से अपना भोजन प्राप्त करते हैं जैसे− फीताकृमि‚ गोलकृमि‚ चपटेकृमि इत्यादि।
रक्तहारी (Sanguivorous)– ऐसे जीव अन्य जीवों का रुधिर चूसते हैं। जैसे− मच्छर‚खटमल‚ जोंक इत्यादि।
विष्ठाभोजी (Coprophagous)– ऐसे जीव विष्ठा का भक्षण करते हैं जैसे− गुबरैला एवं सूअर आदि।

कुछ जन्तुओं के संघ एवं उनसे संबंधित जन्तु−

संघ प्रोटोजोआ− अमीबा‚ युग्लीना‚ पैरामीशियम‚ एण्टअमीबा।
संघ पोरीफेरा− स्पंज‚ साइकॉन‚ यूस्पांजिया या बाथस्पंज‚ यूप्लैक्टिला आदि।
संघ सीलेण्ट्रेटा− हाइड्रा‚ जेलीफिश‚ सी−एनीमोन।
संघ प्लेटीहेल्मिंथीज− फीताकृमि (टीनिया सोलियम) लीवर फ्लूक (फेसिओला हिपैटिका) प्लेनेरिया।
संघ निमैटोडा (ऐस्केल्मिंथीज)− गोलकृमि (एस्केरिस) पिनकृमि‚ फाइलेरिया कृमि (वुचेरिया) हुक वर्म या अंकुश कृमि।
संघ एनेलिडा− जोंक‚ केंचुआ‚ नेरीस।
संघ आर्थोपोडा− कीट वर्ग‚ तिलचट्टा‚ मच्छर‚ झींगा‚ मछली‚ बिच्छु‚ खटमल आदि।
संघ मोलास्का− घोंघा‚ सीपी‚ ऑक्टोपस (Devil Fish), सीपिया (Cuttle fish), स्कैवड (Squid), ओयस्टर (Pearl Oyster) आदि।
संघ एकाइनोडर्मेटा− सितारा मछली (Star fish) ब्रिटिल स्टार‚ समुद्री अर्चिन इत्यादि।
संघ कार्डेटा− इस संघ के जन्तुओं को कई वर्गों में बाँटा गया है।
मत्स्य वर्ग− स्कॉलियोडोन (डॉग फिश) ट्राइगोन (स्टिंग रे)‚ ब्लू शार्क‚ व्हेल शार्क‚ आरा मछली इत्यादि।
एम्फीबिया वर्ग− मेढ़क‚ हायला (वृक्ष मेढ़क)‚ सैलामेंडर।
सरीसृप वर्ग− कछुआ‚ छिपकली‚ सर्प‚ घड़ियाल आदि।
पक्षी वर्ग− कौआ कबूतर चिड़िया आदि।
स्तनी वर्ग− मनुष्य‚ कुत्ता‚ डॉल्फिन‚ व्हेल‚ हाथी‚ कंगारू‚ ऊँट‚ गैंडा‚ चूहा‚ खरगोश‚ गिलहरी‚ गाय‚ बैल‚ बकरी‚ भेड़‚ हिरन आदि।

कुछ महत्त्वपूर्ण तथ्य

• यूग्लीना को हरा प्रोटोजोआ (Green Protozoa) कहा जाता है क्योंकि इसमें क्लोरोफिल उपस्थित होता है।
यूग्लीना (Euglena) को सजीव तथा निर्जीव के बीच संयोजन कड़ी माना जाता है।
• एण्टअमीबा हिस्टोलिटिका परजीवी के कारण मनुष्य में पेचिश रोग होती है।
• लीशमानिया डोनोवानी के कारण मनुष्य में कालाजार (Kalazar) नामक रोग होता है।
• मनुष्य एवं अन्य स्तनधारियों में मलेरिया ज्वर प्लाज्मोडियम के द्वारा ही उत्पन्न होता है।
• पैरामीशियम का आकार बहुत कुछ चप्पल से मिलता जुलता है। अत: इसे चप्पल (Slipper) जन्तु कहते हैं।
• यूप्लेक्टेला को Jeerveme kesâ hetâueeW keâer [eefueÙeeB (Venus flower basket) कहा जाता है। इसके सुन्दरता के कारण इसका उपयोग सजावट के काम में किया जाता है। ये जापान में लोगों को उपहार के रूप में दिए जाते हैं।
• हाइड्रा में अमरत्व (Immortality) का गुण पाया जाता है। हाइड्रा में श्वसन अंग तथा रक्त अनुपस्थित होते हैं तथा श्वसन विसरण के माध्यम से होता है।
• फाइसेलिया को साधारण पुर्तगाली युद्धपोत कहा जाता है।
• लीवर फ्लूक या यकृत कृमि भेड़−बकरी‚ सूअर आदि के यकृत की पित्त नलियों में पाए जाने वाला एक चपटा कृमि है।
• टीनिया सोलियम (Teania Solium) एक फीता कृमि है जो मनुष्य की आँत में अन्त: परजीवी होता है।
• फीताकृमि में ज्वाला कोशिकाएँ (Flame cells) परासरण (Osmoregulation) एवं उत्सर्जन में सहायता करती है।
• गोलकृमि मनुष्य की आँत में पाया जाने वाला परजीवी है जिससे एस्केरिएसिस नामक बिमारी होती है।
• वूचेरिया द्वारा मनुष्य में फाइलेरिया रोग उत्पन्न होता है।
• हिरूडिनेरिया को सामान्यत: जोंक कहते हैं जो अधिकांशत: मीठे जल वाले तालाबों या पोखरों और गड्ढों में पाया जाता है। यह वाह्य परजीवी तथा रक्ताहारी होती है। खून चूसते समय जोंक एक प्रकार का प्रतिस्कन्दक निकालती है जो खून को जमने से रोकती है।
• केंचुआ को किसानों का मित्र‚ प्रकृति का हलवाहा‚ पृथ्वी की आँत एवं मृदा उर्वरता का बैरोमीटर कहते हैं।
• आर्थोपोडा प्राणी जगत का सबसे बड़ा संघ है।
• आर्थोपोडा में श्वसन क्रिया एक विशेष अंग पुस्तक फुस्फुसो (Book lungs) द्वारा होती है।
• पेरिपेटस को आर्थोपोडा एवं एनेलिडा के बीच संयोजक कड़ी कहा जाता है।
• सिल्वर फिश (Silver fish) एक पंखहीन कीट है।
• तिलचट्टा का हृदय 13 चैम्बरों का बना होता है एवं यह sensory haire द्वारा अल्ट्रासोनिक साउंड प्राप्त करता है।
• ऑक्टोपस समुद्र में पाया जाता है। इसे डेविल फिश (Devil Fish) भी कहते हैं।
• भोजन चबाने के लिए समुद्री अर्चिन में अरस्तू की लालटेन (Aristotle’s lantern) नामक रचना होती है‚ जो पाँच कठोर दाँतों द्वारा ढँका होता है।
• हिप्पोकैम्पस एक समुद्री मीन है तथा इसे समुद्री घोड़ा कहते हैं‚ क्योंकि यह देखने में एक छोटे घोड़े जैसा लगता है।
• शार्क (Shark) या स्कोलियोडॉन (Scoliodon) को डॉग फिश (Dog fish) तथा तॉरपीडो को इलेक्ट्रिक रे (Electric Ray) के नाम से जाना जाता है।
• ड्रैको (Draco) को उड़ने वाला छिपकली (Flying Lizard) कहते हैं।
• शुतुरमुर्ग सबसे बड़ा जीवित पक्षी है जबकि हमिंग बर्ड (Humming bird) सबसे छोटा पक्षी है।
• कीवी भी एक बहुत बड़ा दौड़ने वाला पक्षी है जो न्यूजीलैण्ड में पाया जाता है। इसका वैज्ञानिक नाम एप्टेरिक्स (Apteryx) है।
डोडो (Dodo) एक विलुप्त प्राय पक्षी है जो कि मॉरीशस में पाया जाता था।
जीवधारियों के वर्ग एवं उनकी विशेषताएँ वर्ग का नाम विशेषताएँ मोनेरा (Monera

वर्ग का नाम विशेषताएँ
मोनेरा (Monera) सभी असीमकेन्द्रक (Prokaryotic) जीव इसमें शामिल है। जैसे− जीवाणु
प्रोटिस्टा (Protista) इसमें विविध प्रकार के एककोशिकीय‚ प्राय: जलीय समीमकेन्द्रक (Eukaryotic) जीव शामिल हैं। जैसे – यूग्लीना।
पादप (Plantae) इसमें बहुकोशीकीय पादप सम्मिलित हैं। ये अपना भोजन प्रकाश−संश्लेषण से बनाते हैं।
कवक (Fungi) इसमें प्राय: परपोषित जीवधारी सम्मिलित किए गये हैं। इनमें अवशोषण द्वारा पोषण होता है।
ऐनिमेलिया (Animalia) इसमें बहुकोशिकीय जन्तु सम्मिलित किए गए हैं।

कुछ जीवधारियों के वैज्ञानिक नाम

जीवधारी का नाम वैज्ञानिक नाम
मनुष्य (Man) होमो सेपियन्स (Homo sapiens)
गाय (Cow) बॉस इंडिकस (Bos indicus)
भैंस (Buffalo) बॉस बुबेलिस (Bos bubalis)
ऊँट (Camel) कैमेलस बैक्ट्रिएनस (Camelus bactrianus)
बिल्ली (Cat) फेलिश डोमेस्टिका (Felis domestica)
कुत्ता (Dog) केनिस फैमिलियेरिस (Canis Familiaris)
हाथी (Elephant) ई. मैक्सिमस इंडिकस (E. maximus indicus)
बकरी (Goat) कोपरा हिरकस (Copra hircus)
शेर (Lion) पैन्थेरा लीयो (Panthera leo)
चीता (Leopard) पैन्थेरा पारड्‌स (Panthera pardus)
मक्खी (Housefly) मस्का डोमेस्टिका Musca domestica)
आम (Mango) मैंगिफेरा इंडिका (Mangifera indica)
आँवला (Amla) एम्बलिका ऑफिसिनेलिस (Emblica officinalis)
सेब (Apple) मैलस सिलवेस्ट्रिस (Malus Sylvestris)
अमरूद (Guava) सिडियम गुजावा (Psidium guajava)
नींबू (Lemon) सिट्रस लिमोन (Citrus limon)
पपीता (Papaya) कैरिका पपाया (Carica papaya)
अनार (Pomegranate) प्रुनिका ग्रैनैटम (Prunika granatum)
बाँस (Bamboo) बम्बूसा तुलदा (Bambusa tulda)
नीम (Margosa) अजरडिरैक्टा इंडिका (Azardirachta indica)
पीपल (Peepal) फाइकस रेलिगियोसा (Ficus religiosa)
सागवन (Teak) टैक्टोना ग्रैंडिश (Tactona grandis)
शीशम (Indian redwood) डलबरजिया सिसू (Dalbergia sissoo)
धान (Rice) ओरिजा सटाइवा (Oryza sativa)
गेहूँ (Wheat) ट्रिटिकम एस्टिवम (Triticum aestivum)
चना (Gram) सिसेर एरिएटिनम (Cicer arietinum)

जन्तु के संघ एवं उनके उदाहरण

संघ का नाम प्रमुख लक्षण उदाहरण
प्रोटोजोआ (Protozoa) ये सृष्टि के प्रथम जन्तु हैं। एक कोशिकीय‚ जलीय‚ एकल रूप में स्वतंत्र अथवा परजीवी हो सकते हैं। अमीबा‚ पैरामिशियम‚ युग्लीना
पोरीफेरा (Porifera) शरीर छिद्रित‚ नाल एवं जल परिवहन तंत्र उपस्थित साइकन ल्यूकोसोलेनिया आदि।
सीलेण्ट्रेटा (Coelenterata) (i) शरीर के अन्दर गुहिका सीलेन्ट्रॉन उपस्थित (ii) दंश कोशिकाएं स्पर्शक पर उपस्थित हाइड्रा एवं जेली− फिश
प्लेटीहेल्मिंथीज (Platyhelminthes) (i) पाचन तंत्र एवं देहगुहा का अभाव (ii) उत्सर्जन प्रोटोनोफ्रिडिया द्वारा प्लेनेरिया‚ लिवर− फ्लूक‚ फीताकृमि आदि
ऐस्केल्मिंथीज (Aschelminthes) बेलनाकार शरीर‚ चिकनी वलयाकार क्यूटिकल से ढका गोलकृमि जैसे एस्केरिस‚ थ्रेडवर्म तथा वुचेरिया।
एनेलिडा (Annelida) (i) लम्बा बेलनाकार खण्डयुक्त शरीर (ii) श्वसन प्राय: त्वचा के कुछ जन्तुओं में क्लोन के द्वारा। (ii) प्रचलन मुख्यत: काइटिन से बनी सीटी (Setae) द्वारा केंचुआ‚ जोंक‚ नेरीस आदि।
आर्थोपोडा (Arthropoda) (i) शरीर सिर‚ वक्ष एवं उदर में विभाजित (ii) पाद संधि− युक्त तथा परिसंचरण तंत्र खुले प्रकार का (iii) ट्रेकिया‚ गिल्स‚ बुक− लंग्स‚ सामान्य सतह आदि श्वसन अंग है। तिलचट्टा‚ खटमल‚ मक्खी‚ मच्छर‚ झींगा मछली‚ केकड़ा‚ मधुमक्खी‚ टिड्डी आदि।
मोलस्का (Mollusca) (i) शरीर सिर‚ अन्तरांग में विभक्त। (ii) श्वसन गिल्स या टिनीडिंया द्वारा (iii) रंगहीन रक्त घोंघा‚ सीपी आदि।

मानव शरीर के तंत्र

पाचन तंत्र (Digestive system)– मनुष्य के पाचन तंत्र में सम्मिलित अंगों को दो मुख्य भागों में बाँटा गया है− A. आहार नाल तथा B. सहायक पाचक ग्रन्थियाँ आहार नाल− आहार नाल 30 फीट लम्बी मुख से गुदा तक फैली एक नली है जो निम्नलिखित भागों में बँटी रहती है−
• मुखगुहा‚
• ग्रसनी‚
• ग्रासनली‚
• अमाशय‚
• आँत (छोटी आँत एवं बड़ी आँत)
• मुखगुहा से ही भोजन का पाचन प्रारम्भ हो जाता है। मुखगुहा में तीन जोड़िया लार ग्रंथियाँ पाई जाती हैं जो लार का स्रावण करती हैं। लार में मुख्यत: दो प्रकार के पाचक एन्जाइम− टायलिन व लाइसोजाइम पाए जाते हैं।
• मेढ़क और व्हेल मछली में लार ग्रन्थिया नहीं पाई जाती हैं।
• लार में टायलिन एन्जाइम उपस्थित होता है जो भोजन के स्टार्च को डाइसैकेराइड माल्टोस में तोड़ देता है।
• लार में उपस्थित लाइसोजाइम व थायोसायनेट आयन भोजन के साथ आए हुए सूक्ष्म जीवों व जीवाणुओं को नष्ट कर देते हैं।
• मनुष्य ‘विषमदंती’ (Heterodont) होता है‚ अर्थात्‌ मनुष्य में 4 प्रकार के दाँत पाए जाते हैं कृंतक (Incisor) रदनक (canine), अग्रचवर्णक (Premolar) एवं चवर्णक (Molar)।
• इनैमल दाँत की ऊपरी परत होती है। इनैमल मानव शरीर का कठोरतम भाग होता है। इनैमल लगभग 98% कैल्शियम लवण (कैल्शियम फॉस्फेट व कैल्शियम कार्बोनेट) द्वारा बना होता है।
• अमाशय प्रोटीन पाचन का प्रमुख स्थान होता है। अमाशय की भीतरी दीवार पर उपस्थित ‘जठर ग्रन्थियाँ’ जठर रस का स्रावण करती है‚ जो अत्यधिक अम्लीय (pH = 1.8) होता है। जठर रस के अन्तर्गत पाचक एन्जाइम्स यथा−पेप्सिन एवं रेनिन तथा हाइड्रोक्लोरिक अम्ल (HCl) एवं म्यूकस (Mucus) आते हैं।
• हाइड्रोक्लोरिक अम्ल का स्रावण अम्लजन कोशिकाओं (Oxyntic cells) से होता है। HCl अम्ल जीवाणुनाशक की तरह कार्य करता है तथा भोजन के साथ आने वाले जीवाणुओं को नष्ट कर देता है।
• मनुष्य की आँत की लम्बाई 12 फीट होती है।
• मनुष्य की आँत दो भागों में बाँटा जा सकता है− छोटी आँत एवं बड़ी आँत।
• छोटी आँत तीन भागों में विभक्त होती है− ग्रहणी (Duodenum), अग्रक्षुद्रांत (Jejunum) तथा क्षुद्रांत (Ileum)।
• पित्त रस यकृत द्वारा स्रावित होता है जो पित्ताशय (gall Bladder) में संचित रहता है।
• पित्त रस गाढ़ा‚ हरे−पीले रंग का हल्का क्षारीय द्रव होता है।
पित्त रस में कोई भी पाचक एन्जाइम नहीं पाया जाता है।
• अग्नाशय रस क्षारीय होता है जो अग्न्याशयी कोशिकाओं द्वारा स्रावित होता है। इसमें कार्बोहाइड्रेट वसा‚ प्रोटीन आदि सभी के पाचन के लिए पाचक एन्जाइम्स उपस्थित होते हैं। अत: इसे ‘पूर्ण पाचक रस’ (Complete Digestive Juice) कहा जाता है।
• अग्न्याशय रस में एमाइलेज‚ ट्रिप्सिन‚ काइमोट्रिप्सिन‚ कार्बोक्सीपेप्टिडेज लाइपेज आदि एंजाइम पाए जाते हैं।
• आन्त्र रस हल्के पीले रंग का हल्का क्षारीय द्रव होता है‚ जो आंत्र−ग्रन्थियों द्वारा स्रावित होता है।
आंत्र रस में निम्नलिखित एंजाइम्स उपस्थित होते हैं−
• माल्टेज− माल्टोज को ग्लूकोज में बदल देता है।
सुक्रेज− सुक्रोज (चीनी) को ग्लूकोज तथा फ्रक्टोज में बदल देता हे।
लैक्टेज− लैक्टोज को ग्लूकोज तथा गैलेक्टोज में बदल देता है।
इरेप्सिन− प्रोटीन के अवयवों को अमीनों अम्ल में तोड़ देता है।
• बड़ी आँत‚ छोटी आँत की तुलना में अधिक चौड़ी किन्तु लम्बाई में छोटी होती है। मनुष्य में लगभग 5 फीट लम्बा तथा 2.5 इंच चौड़ी होती है।
• बड़ी आँत सीकम‚ मलाशय तथा कोलन तीन भागों में विभक्त होती है।
• मनुष्य में सीकम से एक मुड़ी (Twisted) और कुंडलित (Coiled) लगभग 2 इंच लम्बी रचना ‘वर्मीफार्म एपेंडिक्स’ निकलती है। वर्मीफार्म एपेंडिक्स एक अवशेषी अंग है।
• बड़ी आँत कोई एन्जाइम स्राव नहीं करती है। इसका कार्य केवल बिना पचे हुए भोजन को कुछ समय के संचित करना होता है।
पाचक ग्रन्थियाँ
• यकृत (Liver)– यह मानव शरीर की सबसे बड़ी ग्रन्थि है। यकृत कोशिकाओं से पित्त का स्रावण होता है जो यकृत नलिका से होते हुए एक पतली पेशीय थैली (पित्ताशय) में सान्द्रित एवं जमा होता है। यह विटामिन−A का संश्लेषण भी करता है।
इसके अलावा यकृत ग्लूकोज को ग्लाइकोजन के रूप में संचित रखता है। यकृत अमीनों अम्ल और अमोनिया को यूरिया में बदल देता है और उसके बाद यूरिया मूत्र के द्वारा शरीर से बाहर निकल जाता है।
अग्न्याशय−अग्न्याशय U आकार के ग्रहणी के बीच स्थित एक लम्बी ग्रन्थि है‚ जो बहिध्Eावी और अंत:दाावी दोनों ही ग्रन्थियों की तरह कार्य करती है। अग्न्याशय में एक विशेष कोशिकाओं का समूह पाया जाता है जिसे ‘लैगरहैंस की द्विपिका’ (Islets of langerhans) कहते हैं। लैंगरहैंस की द्विपिका के -कोशिका से इन्सुलिन तथा - कोशिका से सोमेटोस्टेटिन नामक हार्मोन निकलता है।
• मनुष्य में इन्सुलिन की कमी से मधुमेह (Diabetes) हो जाता है।
• अग्न्याशय द्वारा ट्रिप्सिन एंजाइम का स्राव किया जाता है‚ जो प्रोटीन को अमीनों अम्ल में परिवर्तन के लिए उत्प्रेरक की तरह कार्य करता है।
श्वसन तंत्र (Respiratory system)
मनुष्य का श्वसन तंत्र निम्नलिखित अंगों से मिलकर बना होता है−
• नाक‚
• ग्रसनी (Pharynx),
• स्वरयंत्र (Larynx),
• श्वासनली (Trachea),
• फेफड़े (Lungs).
इसके अतिरिक्त ब्रोंकी (Bronchi) एवं ब्रोंकीओल्स (Bronchioles) डायफ्रॉम व इंटरकोस्टल पेशियाँ भी श्वसन में सहायता करती है।
• नाक श्वसन मार्ग का प्रथम अंग है। ग्रसनी‚ पाचन व श्वसन तंत्र दोनों के अंतर्गत आती है। वायु ग्रसनी से होते हुए श्वासनली में पहुँचाती है। श्वासनली‚ वक्षगुहा में विभाजित होकर दो श्वसनियों में बँट जाती है। प्रत्येक श्वसनी फेफड़ों में पहुँचकर श्वसनिकाओं (Bronchioles) में बँट जाती है। इनका अन्तिम छोर वायुकोष (Airsac) में खुलता है। प्रत्येक वायुकोष फेफड़ों की संरचनात्मक एवं कार्यिकी इकाई होती है।
• वक्षगुहा में दोनों तरफ एक−एक स्पंजी‚ गुलाबी और लगभग शंक्वाकार फेफड़ा पाया जाता है।
• फेफड़ों तक अशुद्ध रक्त (Deoxygenated Blood) ‘फुफ्फुस धमनी’ (Pulmonary Artery) द्वारा पहुँचाया जाता है। यह मानव शरीर की एकमात्र धमनी है। जिसमें अशुद्ध रक्त बहता है।
• फेफड़ों द्वारा शुद्ध किया हुआ रक्त (Oxygenated Blood)
‘फुफ्फुस शिरा’ (Pulmonary vein) द्वारा हृदय के बाएँ आलिंद (Left Atrium) में पहुँचाया जाता है। यह मानव शरीर का एकमात्र शिरा है जिसमें शुद्ध रक्त बहता है।
श्वसन (Respiration)– श्वसन एक महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया है जिसमें ऊर्जा का उत्पादन होता है। इस प्रक्रिया में सामान्य स्थितियों में ग्लूकोज का ऑक्सीजन की उपस्थिति में ऑक्सीकरण होता है तथा ऊर्जा (Energy) विमुक्त होती है।
इसी कारण ग्लूकोज को कोशिकीय श्वसन कहते हैं।
• कोशिका के अन्दर भोजन (ग्लूकोज) ऑक्सीजन का उपयोग करके कार्बन डाइऑक्साइड और जल में विखंडित हो जाता है।
जब ग्लूकोस का विखण्डन ऑक्सीजन के उपयोग द्वारा होता है तो यह वायवीय श्वसन कहलाता है। ऑक्सीजन की अनुपस्थिति में भी भोजन विखंडित हो सकता है। यह प्रक्रम अवायवीय श्वसन कहलाता है। भोजन के विखंडन से ऊर्जा निर्मुक्त होती है।
जल ऊर्जा
कुछ जीव जैसे यीस्ट वायु की अनुपस्थिति में जीवित रह सकते हैं। ऐसे जीव अवायवीय श्वसन के द्वारा ऊर्जा प्राप्त करते हैं। इन्हें अवायवीय जीव कहते हैं। ऑक्सीजन की अनुपस्थिति में ग्लूकोज‚ ऐल्कोहॉल और कार्बन डाई ऑक्साइड में विखंडित हो जाता है।
• यीस्ट एक कोशिकीय जीव है। यीस्ट अवायवीय रूप से श्वसन करते हैं और इस प्रक्रिया के समय ऐल्कोहॉल निर्मित करते हैं।
अत: इनका उपयोग शराब (वाइन) और बियर बनाने के लिए किया जाता है।
• श्वसन या साँस लेने का अर्थ है ऑक्सीजन से समृद्ध वायु को अंदर खींचना या ग्रहण करना और कार्बन डाई ऑक्साइड से समृद्ध वायु को बाहर निकालना। ऑक्सीजन से समृद्ध वायु को शरीर के अंदर लेना अत: श्वसन और कार्बन डाई−ऑक्साइड से समृद्ध वायु को बाहर निकालना उच्छवसन कहलाता है।
• कोई वयस्क व्यक्ति विश्राम की अवस्था में एक मिनट में औसतन 15−18 बार साँस अंदर लेता है और बाहर निकलता है।
ऑक्सीजन का परिवहन− ऑक्सीजन मनुष्य के शरीर के अन्दर हीमोग्लोबिन से मिलकर ऑक्सीहीमोग्लोबिन (Oxyhaemoglobin) बना लेता है। मनुष्य में श्वसन रंजक (Respiratory pigments) हीमोग्लोबिन होता है। डीऑक्सीजिनेटेड हीमोग्लोबिन (Deoxygenated Haemoglobin) का रंग बैंगनी (Violet) होता है जबकि ऑक्सीहीमोग्लोबिन का रंग चमकदार लाल होता है।
कार्बन मोनोऑक्साइड (CO) एक अत्यन्त जहरीली (Poisonous) गैस है। CO के प्रति हीमोग्लोबिन का आकर्षण ऑक्सीजन (O2) से लगभग 250 गुना अधिक होता है। CO की उपस्थिति में हीमोग्लोबिन इससे अभिक्रिया कर लेता है जिससे इसकी O2 को ले जाने की क्षमता कम हो जाती है। फलस्वरूप रक्त में O2 की कमी के कारण मस्तिष्क अवचेतन अवस्था में चला जाता है तथा लम्बे समय की अवचेतन अवस्था मृत्यु का कारण बन जाता है।
• अलग−अलग वातावरण में रहने के कारण विभिन्न जन्तुओं में श्वसन क्रिया करने के लिए अलग−अलग विधियाँ होती हैं और विभिन्न श्वसन अंग होते हैं। हाथी शेर‚ गाय‚ बकरी‚ मेढ़क‚ छिपकली‚ सर्प आदि जन्तुओं की वक्ष−गुहाओं में मुनष्यों की भाँति फेफड़े होते हैं। अमीबा तथा हाइड्रा जैसे जलीय जन्तुओं में विशेष श्वसन अंग नहीं होते हैं। ये सम्पूर्ण शरीर की सतह से विसरण द्वारा गैसीय आदान−प्रदान करते हैं।
कॉकरोच के शरीर के पार्श्व भाग में छोटे−छोटे छिद्र होते हैं। अन्य कीटों के शरीर में भी इस प्रकार के छिद्र होते हैं। इन छिद्रों को श्वास रन्ध्र या स्पाइरेकल्स (Spiracles) कहते हैं। इन्हीं छिद्रों से वायुमण्डलीय ऑक्सीजन श्वास नलिकाओं द्वारा शरीर के विभिन्न भागों तक पहुँचती है।
• केंचुए अपनी त्वचा से श्वसन करते हैं। केंचुए की त्वचा स्पर्श करने पर आर्द्र और श्लेष्मीय प्रतीक होती है। इसमें से गैसों को आवागमन आसानी से हो जाता है। यद्यपि मेढ़क में मनुष्य की भाँति फेफड़े होते हैं तथापि वे अपनी त्वचा से भी श्वसन करते हैं जो आर्द्र और श्लेष्मीय होती है।
• मछलियाँ क्लोम की सहायता से श्वसन करती हैं। क्लोम में रक्त वाहिनियों की संख्या अधिक होती है‚ जो गैसीय−विनिमय में सहायता करती है।
• जैसे−जैसे हम ऊँचाई पर जाते हैं हवा का घनत्व तथा ऑक्सीजन की मात्रा घटती जाती है। इस कारण रक्त में ऑक्सीजन की कमी हो जाती है‚ जिसे हाइपोक्सियाँ (Hypoxia) कहा जाता है।

उत्सर्जन तंत्र (Excretory system)

जब हमारी कोशिकाएँ अपना कार्य करती हैं‚ तो कुछ पदार्थ अपशिष्ट के रूप में निर्मुक्त होते हैं। अधिकांशत: ये पदार्थ विषाक्त होते हैं‚ इसलिए इन्हें शरीर से बाहर निकालने की आवश्यकता होती है। सजीवों द्वारा कोशिकाओं में निर्मित होने वाले अपशिष्ट पदार्थों को बाहर निकालने के प्रक्रम को उत्सर्जन कहते हैं और उत्सर्जन में भाग लेने वाले सभी अंग मिलकर उत्सर्जन तंत्र बनाते हैं।
वृक्क‚ मूत्र वाहिनियाँ‚ मूत्राशय और मूत्रमार्ग सम्मिलित रूप से उत्सर्जन तंत्र बनाते हैं।
वृक्क (Kidney)– मनुष्य के वृक्क सेम के बीच की आकृति के गहरे भूरे लाल रंग के होते हैं। प्रत्येक वृक्क में लगभग 10 लाख सूक्ष्म एवं लम्बी व कुडलित नलिकाएँ पाई जाती हैं‚ जिसे नेफ्रान कहते हैं।
नेफ्रान वृक्क की संरचनात्मक एवं कार्यात्मक इकाई होती है।
वृक्क यूरिया को पानी में घुले मूत्र के रूप में शरीर से बाहर निकालता है। यूरिया आदि उत्सर्जी पदार्थों को शरीर से बाहर निकालने के लिए वृक्क ही मुख्य अंग है। यह रक्त का शुद्धिकरण करता है।
• मूत्र का हल्का पीला रंग ‘यूरोक्रोम’ नामक वर्णक के कारण होता है। मूत्र का सामान्य घटक जल‚ लवण‚ यूरिया व यूरिक अम्ल है।
• मूत्र का pH मान 4.5 से 8.6 के मध्य होता है।
• वृक्क में पथरी (Kideney stone), यूरिक अम्ल (Uric Acid), कैल्शियम ऑक्सलेट (Calcium oxalate) तथा कैल्शियम फॉस्फेट (Calcium phosphate) के कारण बनती है।
• मूत्र के स्रावण को डाइयूरेटिक औषधि द्वारा बढ़ाया जाता है।
• कोई वयस्क व्यक्ति सामान्यत: 24 घंटे में 1 से 1.8 लीटर मूत्र करता है। मूत्र में 95% जल‚ 2.5% यूरिया और 2.5% अन्य अपशिष्ट उत्पाद होते हैं।
उत्सर्जी पदार्थों के आधार पर विभिन्न जन्तुओं का वर्गीकरण
• अमोनोटेलिक (Ammonotelic)– इन जन्तुओं में मुख्य उत्सर्जी पदार्थ अमोनिया होती है। उदाहरण− कुछ मछलियाँ‚ कुछ क्रस्टेशियन तथा कुछ प्रोटोजोआ।
यूरिकोटेलिक (Uricotelic)– इन जन्तुओं में मुख्य उत्सर्जी पदार्थ यूरिक अम्ल (Uric Acid) होता है। उदाहरण− सभी सरीसृप (छिपकलियाँ तथा सर्प) तथा पक्षी आदि।
यूरीओटेलिक (Ureotelic)– इन जन्तुओं में मुख्य उत्सर्जी पदार्थ यूरिया (Urea) होता है। उदाहरण− मेंढ़क‚ स्तनधारी आदि।
मनुष्य में अन्य उत्सर्जी अंग− मनुष्य एवं सभी कशेरूकी प्राणियों में वृक्कों के अलावा अन्य अंग भी उत्सर्जन में मदद करते हैं। जैसे− यकृत‚ त्वचा‚ फेफड़े आदि।
यकृत (Liver)
यकृत विशेष एंजाइमों की सहायता से आवश्यकता से अधिक अमोनिया (NH3) को यूरिया में परिवर्तित कर देता है।
• यकृत में मृतक R.B.Cs के हीमोग्लोबिन के टूटने के कारण पित्त वर्णक (Bile pigment) का निर्माण होता है। पित्त वर्णक पित्त रस के साथ आंत्र में पहुँचकर विष्ठा के साथ शरीर से बाहर निकलते हैं।
त्वचा− त्वचा की स्वेद ग्रन्थियाँ रुधिर से जल‚ लवण एवं यूरिया लेकर पसीने के रूप में शरीर से बाहर निकलती है। साथ ही तैलीय ग्रन्थियों से स्रावित सीबम भी अनेक उत्सर्जी पदार्थों को बाहर निकालता है।
फेफड़े− फेफड़े श्वसन क्रिया के अंतर्गत श्वास छोड़ने की प्रक्रिया में रुधिर में घुली CO2 का उत्सर्जन करते हैं। साथ ही यह जलवाष्प का भी उत्सर्जन करते हैं।
अपोहन−कभी−कभी किसी व्यक्ति के वृक्क काम करना बंद कर देते हैं। ऐसा किसी संक्रमण अथवा चोट के कारण हो सकता है। वृक्क के अक्रिय हो जाने की स्थिति में रक्त में अपशिष्ट पदार्थों की मात्रा बढ़ जाती है। ऐसे व्यक्ति की अधिक दिनों तक जीवित रहने की संभावना कम हो जाती है। तथापि‚ यदि कृत्रिम वृक्क द्वारा रक्त को नियमित रूप से छानकर उसमें से अपशिष्ट पदार्थों को हटा दिया जाए तो उसके जीवनकाल में वृद्धि संभव है। इस प्रकार के छनन की विधि को अपोहन (Dialysis) कहते हैं।
ज्ञानेन्द्रियाँ− सर्दी में हमें ठंड लगती है तथा गर्मी में हमें गर्मी लगती है। हम स्वाद एवं गंध को भी पहचानते हैं। हम रंगों में भी विभेद कर सकते हैं। इन परिवर्तनों का अनुभव विशेष अंगों के द्वारा होता है। इन्हें संवेदी अंग या ज्ञानेन्द्रियाँ कहते हैं। हमारे शरीर में कान‚ आँख‚ नाक‚ जीभ तथा त्वचा पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं।
कान− कान को श्रवणेन्द्रिय कहा जाता है। कान सुनने तथा शरीर का संतुलन बनाने में सहायक होते हैं। आपने देखा होगा कि मछली‚ मेढक‚ छिपकली तथा पक्षियों आदि में बाह्य कर्ण नहीं पाये जाते हैं जबकि स्तनधारियों जैसे खरगोश‚ चूहा‚ हाथी आदि में हमारी भाँति बाह्य कर्ण पाये जाते हैं।
मनुष्य के कान− मनुष्य के कान के मुख्यत: तीन भाग होते हैं।
1. बाह्य कर्ण− कार्टिलेज (उपास्थि) का बना लचीला रोमयुक्त होता है।
2. मध्य कर्ण− कर्ण गुहा में स्थित कर्णपटह झिल्ली तथा तीन छोटी−छोटी अस्थियाँ होती हैं।
3. आंतरिक कर्ण− अर्धपारदर्शक झिल्ली की बनी एक कलागहन के रूप में होता है।
बाह्य कर्ण और मध्य कर्ण ध्वनि तरंगों को ग्रहण कर आंतरिक कर्ण तक पहुँचाने का कार्य करते हैं। आंतरिक कर्ण का सम्बन्ध श्रवण तंत्रिका द्वारा मस्तिष्क से होता है। यह सुनने का कार्य करता है तथा शरीर से संतुलन का कार्य भी करता है।
• कुछ जीवधारियों जैसे मछली‚ मेढ़क‚ छिपकली तथा पक्षियों में बाह्यकर्ण नहीं होते हैं परन्तु इनमें आंतरिक कर्ण पाये जाते हैं और इन आंतरिक कर्णों की सहायता से ध्वनि को सुनने का कार्य कर लेते हैं।
आँख− आँख द्वारा देखने का कार्य होता है। आँखे वस्तुओं का आकार‚ आकृति‚ रंग‚ प्रकाश तथा अंधकार आदि का अनुभव करती है। आँख को दृश्येन्द्रिय भी कहा जाता है।
मनुष्य की आँख− मनुष्य की आँखे कपाल (खोपड़ी) में नेत्र कोटरों में स्थित होती है। नेत्र कोटरों में आँखें सुरक्षित रहती हैं। बाहर से आँखों का केवल 1/5 भाग दिखाई देता है। इनकी सुरक्षा में पलकें तथा बरौनियाँ सहायक होती हैं।
मनुष्य की आँख में एक पारदर्शी उत्तल लेंस होता है। इसी लेंस के द्वारा वस्तु का प्रतिबिम्ब आँख के अन्दर बनता है और उसी चित्र को मनुष्य देखता हैं। हाइड्रा तथा केंचुआ आदि में आँखें नहीं होती हैं। कीटों की आँखें अन्य जन्तुओं से भिन्न होती हैं। इन्हें संयुक्त नेत्र कहते हैं।
नाक− नाक द्वारा गंध का अनुभव होता है। इसको घ्राणेन्द्रिय कहा जाता है। कुत्तों और चींटी की घ्राण शक्ति अधिक होती है।
आपने देखा होगा कि पुलिस द्वारा चोर एवं अपराधियों का पता विशिष्ट प्रशिक्षित कुत्तों से लगाया जाता है।
जीभ− हमारी जीभ मीठे‚ कड़वे‚ खट्टे‚ नमकीन‚ कसैले स्वाद वाले खाद्य पदार्थों के प्रति संवेदनशील होती है। इसको स्वादेन्द्रिय भी कहा जाता है। स्वाद सम्बन्धी संवेदना जीभ के अलग−अलग भागों में स्थित स्वाद कलिकाओं से प्राप्त होती है इसके अतिरिक्त हमारी जीभ बोलने तथा भोजन और लार को मिलाने का कार्य करती है परन्तु मेढ़क की जीभ शिकार पकड़ने में सहायता करती है।
त्वचा− त्वचा से हमें सर्दी तथा गर्मी का अनुभव होता है।

कंकाल तंत्र (Skeletal System)

• कंकाल तंत्र अस्थियों एवं उपास्थियों का ढ़ाँचा होता है। कंकाल तंत्र के मुख्यत: दो भाग होते हैं− बाह्य कंकाल तंत्र एवं अन्त: कंकाल तंत्र।
• बाह्य कंकाल के अंतर्गत बाल और नाखून आते हैं। मृत कोशिकाओं के बने होने के कारण इनमें रक्त संचरण नहीं हो पाता है।
• अंत: कंकाल के अंतर्गत शरीर के भीतर अस्थि पंजर आता है। यह अस्थि एवं उपास्थि का बना होता है।
• एक वयस्क मनुष्य में 206 हड्डियाँ होती हैं। जबकि जन्म के समय शिशुओं में लगभग 300 हड्डियाँ होती हैं।
• मानव शरीर में सबसे बड़ी अस्थि फीमर (जाँघ की अस्थि) तथा सबसे छोटी स्टेप्स (कान की अस्थि) होती है।
मानव कंकाल के भाग
अक्षीय कंकाल – 80 अस्थियाँ
• उपांगीय कंकाल– 126
अस्थियाँ कुल अस्थियाँ

परिसंचरण तंत्र (Circulatory system)

हृदय और रक्त वाहिनियाँ संयुक्त रूप से हमारे शरीर का परिसंचरण तंत्र बनाती है।
शरीर में रुधिर का परिसंचरण सदैव एक निश्चित दिशा में होता है और रुधिर परिसंचरण का कार्य हृदय द्वारा संपादित किया जाता है।
रक्त परिसंचरण तंत्र हृदय‚ रुधिर एवं रुधिर वाहिकाओं से मिलकर बना होता है।
• रक्त परिसंचरण की खोज विलियम हार्वे (1578−1657) नामक एक चिकित्सक ने की थी।
हृदय (Heart)
हृदय वह अंग है‚ जो रक्त द्वारा पदार्थों के परिवहन के लिए पंप के रूप में कार्य करता है। यह निरंतर धड़कता रहता है।
• हृदय बन्द मुट्ठी के आकार का होता है। ऊपरी दो कक्ष आलिन्द कहलाते हैं और निचले दो कक्ष निलय कहलाते हैं।
कक्षों के बीच का विभाजन दीवार ऑक्सीजन समृद्ध परस्पर मिलने नहीं देती है। सामान्य मनुष्य के हृदय का वजन लगभग 300 ग्राम होता है।
• हृदय की धड़कन पर नियंत्रण के लिए पोटैशियम (K) आवश्यक है। हृदय दो धड़कनों के बीच आराम करता है।
• हृदय लगभग 5 लीटर रक्त प्रति मिनट पंप करता है।
• नाड़ी की गति हृदय स्पंदन गति (70−90/मिनट) के समान होती है।
• हृदय को रक्त का संभरण करने वाली धमनियाँ‚ हृदय धमनियाँ (Coronary Arteries) कहलाती है‚ जो शुद्ध रक्त को स्वयं हृदय की दीवार तक पहुँचाने का कार्य करती है।
• मनुष्य का हृदय लगातार धड़कता रहता है। यह एक मिनट में 72 बार धड़कता रहता है। बच्चों के दिल की धड़कन अनियंत्रित होती है। दिल की धड़कन को स्टेथेस्कोप से सुना जा सकता है।
ECG (इलेक्ट्रोकार्डियोग्राम)−एक प्रकार का चिकित्सीय परीक्षण है जो हृदय की गतिविधि को दर्शाता है।
रुधिर वाहिकाएँ (Blood vessels)– शरीर में विभिन्न प्रकार की रक्त वाहिनियाँ होती है‚ जो रक्त को शरीर में एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाती है। शरीर में दो प्रकार की रक्त वाहिनियाँ पाई जाती हैं− धमनी और शिरा।
धमनियाँ (Arteries)
धमनियाँ हृदय से ऑक्सीजन समृद्ध रक्त को शरीर के सभी भागों में ले जाती है। चूंकि रक्त प्रवाह तेजी से और अधिक दाब पर होता है। अत: धमनियों की भित्तियाँ (दीवार) मोटी और प्रत्यास्थ होती है।
• फुफ्फुसीय धमनी (Pulmonary Artery) में अशुद्ध रक्त होता है। यह दाँये निलय से अशुद्ध रक्त फेफड़ों तक पहुँचाती है।
शिराएँ (Veins)
वे रक्त वाहिनियाँ जो कार्बन डाई ऑक्साइड समृद्ध रक्त को शरीर के सभी भागों से वापस हृदय में ले जाती है‚ शिराएँ कहलाती है। शिराओं की भित्तियाँ अपेक्षाकृत पतली होती है।
शिराओं में ऐसे वाल्व होते हैं जो रक्त को केवल हृदय की ओर ही प्रवाहित होने देते हैं।
• शिराएँ त्वचा के समीप पाई जाती है।
• फुफ्फुसीय शिरा (Pulmonary vein) शुद्ध रक्त फेफड़ों से बायें आलिंद में पहुँचाता है। हृदय के दाहिने कक्ष में अवस्थित सिनोएट्रियल नोट (SA Node) हृदय गति को नियंत्रित करता है। इसे प्राकृतिक पेस मेकर भी कहा जाता है। हृदय की पेसमेकर कोशिकाएँ विद्युतीय तरंग उत्पन्न करती है। जो स्पंदन को निष्पादित करती है।
रक्त (Blood)– रुधिर (Blood) एक तरल संयोजी ऊतक है।
यह एक प्राकृतिक क्षारीय कोलाइड है। इसका pH 7.4 होता है।
रुधिर मुख्यत: दो अवयवों से मिलकर बना होता है−
• प्लाज्मा (Plasma)
• रुधिर कोशिकाएँ (Blood cells)
प्लाज्मा− प्लाज्मा हल्का पीला‚ साफ‚ चिपचिपा तथा पारदर्शी भाग होता है। सामान्य रूप से इसमें 90% जल तथा 10% अकार्बनिक एवं कार्बनिक पदार्थ होते हैं। अकार्बनिक क्षारीय लवणों के कारण रुधिर प्लाज्मा क्षारीय होता है। कार्बनिक पदार्थों में प्रोटीन्स‚ ग्लूकोस‚ वसा अम्ल तथा हारमोन्स विद्यमान होते हैं।
रुधिर कोशिकाएँ− रुधिर का लगभग 40% भाग इनसे बनता है। ये तीन प्रकार की होती है−
• लाल रुधिर कणिकायें
• श्वेत रुधिर कणिकायें
• रुधिर प्लेटलेट्‌स लाल रुधिर कणिकायें (RBCs)−
ये रुधिर कणिकायें‚ गोल‚ तश्तरीनुमा तथा दोनों ओर से पिचकी (उभयावतल) होती है। ये समस्त रक्त कणिकाओं का 90% होती है। प्रत्येक लाल रुधिर कणिका प्लाज्मा झिल्ली जीवकला के आवरण से ढकी होती है और केन्द्रक विहीन होती है।
• इसमें हीमोग्लोबीन नामक रंगयुक्त प्रोटीन होता है। लाल रुधिर कणिकायें शरीर में अस्थियों की अस्थि मज्जा में बनती है। भ्रूण में ये कणिकायें यकृत तथा प्लीहा बनाती है।
• इनका जीवन काल लगभग 120 दिनों तक होता है तथा अधिकतम 127 दिन का होता है। RBCs की खोज लेंड स्टीनर ने किया एवं RBCs को सबसे छोटी कोशिका भी मानी जाती है।
• रक्त का लाल रक्त कणिकायें आक्सीजन तथा कार्बन डाईऑक्साइड से बन्ध बनाकर उनका परिवहन करती है।
श्वेत रुधिर कणिकायें (WBCs)−
ये रुधिर कणिकायें लाल रुधिर कणिकाओं की अपेक्षा बड़ी तथा केन्द्रक युक्त होती हैं। श्वेत रुधिर कणिकायें अमीबा के समान अनियमित आकार की होती है। इनमें कोई वर्णक नहीं होता है इसलिए ये रंगहीन होती है। ये प्लीहा में बनती है। इनका जीवन काल 1−4 दिन तक का होता है।
• शरीर को जब कोई रोगाणु या दूसरा परजीवी प्रभावित करता है तो श्वेत रुधिर कणिकाओं की संख्या में वृद्धि हो जाती है। ये प्रतिरक्षा का कार्य करती है। जिससे शरीर में रोग उत्पन्न न हो या उसका प्रभाव कम हो जाये।
• श्वेत रुधिर कणिकायें शरीर में अशक्त तथा टूटी हुई कोशिकाओं का भक्षण कर रुधिर की सफाई करती है।
प्लेटलेट्‌स (Platelets)– रुधिर प्लेटलेट्‌स आकार में बहुत छोटी‚ केन्द्रकविहिन‚ द्विउत्तलीय (Biconvex) प्लेटनुमा होती है। एक घन मिमी रक्त में इनकी संख्या लगभग 2,50,000 तक होती है।
• रुधिर प्लेटलेट्‌स रुधिर का थक्का बनने में सहायता करती है।
जो चोट लगने के कारण लगातार होने वाले रुधिर बहाव को नियंत्रित करने में सहायक होता है।
• रक्त कोशिकाओं (RBC, WBC, Platlets आदि) का निर्माण‚ जन्म से लेकर वयस्कों तक में लाल अस्थि मज्जा (Red Bone Marrow) में होता है।
• प्लीहा को RBC का कब्रगाह भी कहते हैं क्योंकि यह मृत RBCs का निपटान करती है।
• रक्तदाब का नियंत्रण अधिवृक्क (एड्रिनल) ग्रंथि करती है।
• RBC की सामान्य संख्या−
• वयस्क पुरुष : 4.6 − 6.0 मिलियन/मिमी3
• वयस्क महिला : 4.2−5.0 मिलियन/मिमी3
• मानव शरीर में रक्त की अपर्याप्त आपूर्ति इस्कीमिया कहलाती है।
• एक स्वस्थ्य मनुष्य में रक्त की कुल मात्रा 5−6 लीटर होता है।
• रुधिर में हिपैरिन या एंटीथ्राम्बिन नामक प्रतिस्कंदक (Anticoagulant) पदार्थ पाए जाने के कारण रक्त में थक्का नहीं जमता।

कुछ और भी जानें−

• पुरुषों के एक घन मिमी रक्त में R.B.C. की संख्या 55 लाख तथा स्त्रियों में 45 से 50 लाख होती है।
• मनुष्य के एक घन मिमी रक्त में W.B.C. की संख्या 5000 से 9000 तक होती है।
• ऊँट तथा लामा के रुधिर में लाल रुधिर कणिकायें अण्डाकर तथा केन्द्रक युक्त होती है।
• डेंगू रोग का नाम आजकल काफी चर्चित है जो विशेष जाति के मच्छर के काटने से होता है। प्लेटलेट्‌स की संख्या इस रोग में कम होने लगती है। इनकी संख्या की जानकारी से इस रोग का पता लगता है।
रुधिर के कार्य−
रुधिर ऑक्सीजन तथा कार्बन डाई ऑक्साइड का परिवहन करता है।
• रुधिर पोषक पदार्थों तथा उत्सर्जी पदार्थों का परिवहन करता है।
• बाहर से आये जीवाणुओं एवं विषाणुओं से श्वेत रुधिर कणिकाओं द्वारा शरीर की रक्षा करता है अर्थात्‌ रोगों से बचाव करता है।
• रुधिर को जमाकर बाहर बहने से रोकता है तथा घाव भरने में सहायता करता है।
• अन्य पदार्थों जैसे हार्मोन‚ एण्टीबॉडीज (प्रतिरक्षी) आदि का परिवहन करता है।
रुधिर का थक्का जमना (Coagulation of Blood)
रुधिर का जमना एक रासायनिक क्रिया है। रुधिर जमने की सम्पूर्ण प्रक्रिया विभिन्न चरणों में पूरी होती है। शरीर के क्षतिग्रस्त स्थान की रुधिर कोशिकाएँ फट जाती है और रुधिर बहकर वायु के सम्पर्क में आता है। क्षतिग्रस्त ऊतकों के रुधिर की प्लेटलेट्‌स के विघटित होने से एक तत्त्व बनता है जिससे प्लाज्मा में उपस्थित फाइब्रिनोजन नामक निष्क्रिय प्रोटीन फाइब्रिन में बदल जाती है। जो रेशे की भाँति होती है। अनेक फाइब्रिन के रेशे क्षतिग्रस्त स्थान के ऊपर जाल के रूप में जम जाते हैं। उन रेशों में रक्त कणिकाएँ (R.B.C. तथा W.B.C.) उलझ जाती है और क्षतिग्रस्त स्थान पर लाल थक्का जम जाता है और रक्त का बहना रुक जाता है। थोड़े समय बाद क्षतिग्रस्त स्थान से फाइब्रिन जाल से एक हल्के पीले रंग का द्रव निकलता है। इसे सीरम कहते हैं।
रुधिर वर्ग (Blood group)
सर्वप्रथम कार्ल लैंडस्टीनर ने ज्ञात किया कि सभी मनुष्यों में रुधिर एक समान नहीं होता। मनुष्य का रुधिर‚ लाल रुधिर कणिकाओं में पाए जाने वाले एक विशेष प्रकार के प्रोटीन‚ एंटीजन्स (Antigens) के कारण भिन्न होता है।
• लैंडस्टीनर ने बताया कि मनुष्य के शरीर में गलत रुधिर आधान (Blood Transfusion) के कारण होने वाले अभिश्लेषण (Agglutination = रक्त के अवयवों का चिपकना) दो विशेष प्रकार के प्रोटीन के कारण होता है‚ जिन्हें एन्टीजन्स तथा एंटीबॉडी कहते हैं।
एंटीजन वे पदार्थ है जो प्रतिपिंड या प्रतिरक्षी (Antibody) के निर्माण को उद्दीप्त करते हैं तथा प्रतिरक्षी तंत्र को प्रवर्तित करते हैं।
इन्हें ऐग्लुटीनोजेन्स (Agglutinogens) भी कहते हैं‚ ये सदैव लाल रुधिर कणिकाओं की प्लाज्मा मेम्ब्रेन (Plasma membrane) में लगे हुए पाए जाते हैं। मनुष्य में एन्टीजन (Antigen) दो प्रकार एन्टीजन−A और एन्टीजन –B पाये जाते हैं।
एन्टीबॉडी को ऐग्लुटिनिन्स (Agglutinins) भी कहते हैं। ये रुधिर प्लाज्मा (Blood Plasma) या सीरम (Serum) में पाए जाते हैं। एंटीबॉडी भी दो प्रकार के होते हैं− Antibody–A
तथा Antibody–B ।
मनुष्य में चार प्रकार के रुधिर वर्ग पाये जाते हैं−
रुधिर वर्ग ‘A’
• रुधिर वर्ग ‘B’
• रुधिर वर्ग ‘AB’ तथा
• रुधिर वर्ग ‘O’ ।
उपर्युक्त चारों रुधिर वर्गों में से‚ A B तथा O वर्ग की खोज कार्ल लैंडस्टीनर ने 1900 ई. में की थी तथा रुधिर वर्ग− AB की खोज डीकैस्टेलो तथा स्टर्ली (Decastello and Sturli) ने 1901 में की थी।
रक्त वर्ग− A, B, AB तथा O

रुधिर वर्ग एंटीजन (Antigen) एंटीबॉडी (Antibody)
A A b
B B a
AB A,B कोई नहीं
O कोई नहीं a,b

रुधिर आधान (Blood Transfusion) के लिए रुधिर वर्ग

रुधिर वर्ग (Blood Group) किस वर्ग को रुधिर दिया जा सकता है? किस वर्ग से रुधिर ग्रहण किया जा सकता है?
A A तथा AB O तथा A
B B तथा AB O व B
AB AB O, A, B तथा AB
O A, B, AB तथा O केवल O

• रुधिर वर्ग ‘O’ वाले व्यक्ति का रुधिर सभी रुधिर वर्गों वाले व्यक्तियों को दिया जा सकता है। अत: O रुधिर वर्ग को सार्वत्रिक दाता (Universal Donar) कहा जाता है।
• रुधिर वर्ग ‘AB’ वाले व्यक्ति को किसी भी रुधिर वर्ग वाले व्यक्ति का रुधिर दिया जा सकता है। अत: ‘AB’ रुधिर वर्ग को सार्वत्रिक ग्राही (Universal Recipient) कहा जाता है।
रुधिर दाब (Blood Pressure)– सर्वप्रथम हेल्स (S. Hales 1733) ने घोड़े में रक्त दाब नापा था। रक्त बन्द नलिकाओं की दीवार पर दबाव डालता है। हृदय प्रकुंचन के समय यह दाब अधिक होता है तथा हृदय शिथिलन के समय कम होता है। इसे रक्त दाब (B.P.)
कहते हैं जिसकी दो अवस्थाएँ होती है।
प्रकुंचन दाब− यह रक्त दाब की ऊपरी सीमा है। जो हृदय संकुचन की अवस्था प्रदर्शित करती है।
शिथिलन दाब− यह रक्त दाब की निचली सीमा है जो हृदय शिथिलन की अवस्था प्रदर्शित करती है।
• रक्त दाब नापने के यंत्र को स्फिग्मोमैनोमीटर कहते हैं। रक्त दाब मनुष्य में बाजू के क्रेनियल धमनी में नापा जाता है। स्वस्थ्य मनुष्य का दाब (B.P.) 120/80 mmHg होता है। प्रकुंचन दाब 120 Hg तथा शिथिलन दाब 80 Hg दर्शाता है।
• रक्त दाब का मापक यंत्र− स्फिग्मोमैनोमीटर
मानव शरीर का रक्तदाब वायुमंडलीय दाब से अधिक होता है।
व्यक्ति के वृद्ध होने पर सामान्यतया उसका रक्त चाप बढ़ जाता है।
लसीका (Lymph)– लसीका रुधिर वाहिनियों तथा ऊतकों के मध्य खाली स्थान में एक रंगहीन‚ स्वच्छ तरल‚ पदार्थ के रूप में पाया जाता है। रुधिर प्लाज्मा रुधिर कोशिकाओं की पतली दीवार से छनकर ऊतक कोशिकाओं के संपर्क में आ जाता है उस छने हुए द्रव को लसीका या ऊतक द्रव कहते हैं।
• लसीका में RBC नहीं पाई जाती है। इसमें WBC अधिक मात्रा में पाई जाती है।
• इसमें CO2 तथा उत्सर्जी पदार्थों की मात्रा अधिक होती है।
लसिका के कार्य (Function of Lymph)
यह कोशिका ऊतकों से CO2 एवं अन्य हानिकारक पदार्थ लेकर रुधिर तक पहुँचता है।‚
• लसीका अंगों व लसीका ग्रंथियों में लिम्फोसाइट्‌स का निर्माण होता है‚ जो जीवाणुओं का भक्षण करती है।
• यह कोमल अंगों की रक्षा करने तथा उन्हें रगड़ से बचाने में सहायक है।
• R.B.C. की संख्या हीमोसाइटोमीटर यंत्र से ज्ञात की जाती है।
• रुधिर प्लाज्मा में प्रोथ्राम्बिन तथा फाइब्रोजिन प्रोटीन का निर्माण‚ यकृत में नैफ्थोक्विनोन विटामिन की सहायता से होता है।
मानव शरीर से जुड़े महत्त्वपूर्ण तथ्य
सबसे छोटी अस्थि −स्टेपीज (मध्यकर्ण)
सबसे लम्बी अस्थि −फीमर (जांघ में)
पेशियों की कुल संख्या −639
यकृत का भार (पुरुष में) −1.4−1.8 किग्रा.
यकृत का भार (महिला में) −1.2−1.4 किग्रा.
सबसे बड़ी ग्रंथि −यकृत
सर्वाधिक पुनरुद्‌भवन की क्षमता −यकृत में
सबसे कम पुनरुद्‌भवन की क्षमता −मस्तिष्क में
शरीर का सबसे कठोर भाग −दांत का इनेमल
सबसे बड़ी लार ग्रन्थि −पैरोटिड ग्रन्थि
शरीर में रुधिर की मात्रा −5.5 लीटर
सबसे छोटी श्वेत रुधिर कोशिका −लिम्फोसाइट
सबसे बड़ी श्वेत रुधिर कोशिका −मोनोसाइट
सबसे बड़ी धमनी −एब्डोमिनल एरोटा
मस्तिष्क का भार −1220 से 1400 ग्राम
मेरूदण्ड की लम्बाई −42 से 45 सेमी
क्रेनियल तंत्रिकाओं की संख्या −12 जोड़ी
स्पाइनल तंत्रिकाओं की संख्या −31 जोड़ी
सबसे बड़ी अन्त:दाावी ग्रन्थि -थायरॉइड
ऑक्समिक ग्रन्थि −एड्रिनल
सबसे छोटी अन्त:दाावी ग्रन्थि −पिट्‌यूटरी ग्रन्थि
महिलाओं में मासिक धर्म का काल −28 दिन
गर्भावस्था की अवधि −266−270 दिन
सबसे मजबूत हड्डी कौन−सी है −जबड़े की
मानव शरीर में जल का प्रतिशत होता है −65%
मानव की सामान्य हृदय गति होती है −72 बार/मिनट
श्वसन दर प्रति मिनट होती है −16 से 18 बार
किडनी में उपस्थित प्रमुख रासायनिक यौगिक है −यूरिक एसिड
वृक्क की कार्यात्मक इकाई किसे कहा जाता है −नेफ्रॉन को
अपोहन या डायलिसिस का संबंध किससे है −वृक्क
शरीर के ताप को नियंत्रण कौन करता है −हाइपोथैलेमस
त्वचा के रंग के कारक हैं −मेलानिन
भारत में प्रथम बार हृदय का सफल प्रत्यारोपण करने का श्रेय किसको जाता है −डॉ. पी. वेणुगोपाल
शिराएँ (Venis) नीली क्यों दिखाई देती है −कार्बनडाई ऑक्साइड (CO2) सहित अशुद्ध रक्त के कारण
मानव में गुणसूत्रों की संख्या −46 (23 जोड़े)
विटामिन A संचित होता है −यकृत में
ब्लड बैंक कहा जाता है −प्लीहा को
लिंग निर्धारण होता है −पुरुष क्रोमोसोम पर
कानों द्वारा श्रव्य तरंगों की क्षमता –20–20000 Hz
प्रोटीन की फैक्ट्री −राइबोसोम
आत्महत्या की थैली −लाइसोसोम जीव जन्तुओं की रोचक बातें−
बहुत से जानवर रंगों को देखने/पहचानने में अक्षम होते हैं। उनकी दृष्टि मात्र काला और सफेद रंग देख पाती है। किन्तु बंदर मानव की तरह अलग−अलग रंगों को पहचानने में सक्षम है।
• कुत्ते में सूँघने की क्षमता बहुत तेज होती है। यदि कुत्ते किसी स्थान से दूसरे स्थान पर चले जाते हैं तो वह अपनी सूँघने की शक्ति के कारण वापस उसी स्थान पर आ जाते हैं। कुत्ते के सूँघने की शक्ति के कारण ही विस्फोटक व नशीले पदार्थों को ढूँढ़ने तथा अपराधियों को पकड़ने में उसकी मदद ली जाती है।
• शेर‚ चीता‚ बिल्ली भी अपने सूँघने की शक्ति से अपने लिए भोजन की तलाश व अपने वास स्थान को पहचानते हैं। चीटियाँ चलते समय जमीन पर कुछ ऐसा पदार्थ (फीरोमोन्स pheromones) निकालती है जिसे सूँघकर पीछे आने वाली चीटियों को रास्ता मिल जाता है। कुछ नर कीड़े‚ मकोड़े गंध से मादा कीड़े की पहचान कर लेते हैं। मच्छर भी हमारे शरीर की गंध से हमें ढूँढ़ लेते हैं।
• साँप के पास बाहरी कान नहीं होते हैं। वे जमीन पर होने वाले कम्पन्न महसूस करते हैं। बीन की आवाज सुनकर साँप का नाचना लोगों में फैला एक भ्रम है।
• चमगादड़ की सुनने की क्षमता बहुत तेज होती है। वे बहुत ऊँचे सुर वाली आवाज अपने मुख अथवा नाक से निकालते हैं। जब वे आवाजें किसी वस्तु से टकराती है तो गूँजती है। इस गूँज को अपने कानों से सुनकर चमगादड़ अँधेरे में अपने भोजन की दूरी और दिशा का पता लगा देते हैं।

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