अध्याय 3 सामाजिक अध्ययन का अधिगम तार्किक चिन्तन का विकास

तार्किक चिन्तन की अवधारणा
• संक्रियात्मक दृष्टि से चिन्तन तार्किक संक्रियाओं की एक प्रवृत्ति है जिनमें से प्रत्येक संक्रिया, संज्ञान की प्रक्रिया में एक विचित्र भूमिका अदा करता है।
• तर्क, चिन्तन का एक मुख्य पक्ष है। इस प्रक्रिया में अनुमान भी महत्त्वपूर्ण होता है।
• तार्किक चिंतन अवधारणाओं, संकल्पनाओं, सिद्धांतों आदि में वस्तु जगत को परावर्तित करने वाली संक्रिया है।
• तार्किक चिन्तन मुख्यत: समस्याओं के समाधान से जुड़ा होता है।
• तार्किक चिन्तन की उद्भावना विभिन्न क्रियाकलापों की प्रक्रिया के दौरान होती है।
• अपने विशिष्ट मूल, क्रियाकलाप के ढंग और परिणामों की दृष्टि से तार्किक चिन्तन का स्वरूप सामाजिक होता है। तार्किक चिन्तन मुख्यत: दो गतिविधियों के माध्यम से होता है:
1. निगमन विधि: इस विधि में दिए गए कथन के आधार पर उसका विस्तार करते हैं और अंत में विषय-संबंधी निश्चित निष्कर्ष पर पहुंचते हैं।
2. आगमन विधि: इस विधि में उपलब्ध प्रमाण या निष्कर्ष के आधार पर एक निश्चित कथन की पुष्टि करते हैं। ज्यादातर विज्ञान-सम्मत तर्क आगमन प्रकृति के होते हैं। छात्रों में आलोचनात्मक चिन्तन के विकास पर बल दिया जाना चाहिए। आलोचनात्मक चिन्तन से तात्पर्य उस प्रविधि से है जिसमें छात्र स्वयं एक अर्थपूर्ण निर्णय लेने के लिए सक्षम है।

तार्किक चिन्तन का उद्देश्य
शिक्षा ग्रहण के दौरान विद्यालयी व्यवस्था के विभिन्न स्तर पर विद्यार्थियों में तार्किक चिन्तन के विकास हेतु सामाजिक विज्ञान की अलग-अलग पाठ्यक्रम की व्यवस्था की गई हैं। तार्किक चिन्तन के विकास हेतु सामाजिक-अध्यययन शिक्षण के निम्नलिखित उद्देश्य हैं:
• तार्किक चिन्तन, ज्ञान प्राप्ति का अच्छा साधन है, क्योंकि स्पष्ट चिन्तन व उचित निर्णय के लिए सही ज्ञान का होना अनिवार्य है।
• बालकों के जीवन को एक अच्छे वातावरण के भीतर विकसित एवं समृद्ध करना।
• वैज्ञानिक अभिवृत्तियों का विकास करना।
• सामाजिक अध्ययन का उद्देश्य अध्ययन संबंधी आदतों का ही निर्माण करना नहीं होता, अपितु पाठ्यपुस्तकों के बुद्धिमत्तापूर्वक प्रयोग से लेकर असीम उत्तेजक परिस्थितियों में भी भावनाओं को नियंत्रण में रखने जैसी आदतों का निर्माण भी करना होता है।
• तार्किक चिन्तन से विद्यार्थियों का समाजीकरण होता है।
• इससे विद्यार्थी में परिवार, समाज, राज्य तथा राष्ट्र संबंधी सामाजिक बातों और समस्याओं की समझ विकसित होती है।
• सामाजिक अध्ययन अपनी अधिकांश प्रयोगात्मक सामग्री इतिहास, भूगोल, नागरिक शास्त्र तथा समाजशास्त्र जैसे विशाल क्षेत्रों से ग्रहण करता है। इन सब बातों की जानकारी के बिना चिन्तन व तर्क-शक्ति का विकास संभव नहीं, जो प्रजातंत्र के लिए आवश्यक है।
• चिन्तन व तर्क शक्ति से हम निर्णय लेने और अंतत: समस्याओं का समाधान ढूंढने के योग्य बनते हैं।

शिक्षार्थियों के बीच तार्किक चिन्तन का विकास
सामाजिक अध्ययन शिक्षण तथा विद्यार्थियों के बीच तार्किक चिन्तन के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इस चिन्तन के माध्यम से शिक्षार्थी समस्याओं के समाधान हेतु सक्षम ही नहीं बनते, अपितु विभिन्न विषम परिस्थिति का धैर्यपूर्वक सामना करने के लिए भी अभिप्रेरित होते हैं।
• शिक्षार्थियों में तार्किक चिन्तन के विकास हेतु अध्यापक को सदैव तत्पर रहना चाहिए। उन्हें एक सकारात्मक दृष्टिकोण का विकास करना चाहिए। अत: बालकों को शिक्षा देते समय हमें कम से कम आने वाले बीस वर्षों के संभावित परिवर्तनों को ध्यान में रखना चाहिए।
• अध्यापक को चाहिए कि वे शिक्षार्थियों में ऐसे कौशल का विकास करें कि विद्यार्थी परिवर्तनशील वातावरण में स्वयं को व्यवस्थित कर सकें।
• छात्रों में आलोचनात्मक चिन्तन का विकास किया जाना चाहिए ताकि उनमें सामाजिक गुणों का विकास हो सकें।
• छात्रों में समायोजन शक्ति का विकास किया जाना चाहिए साथ ही छात्रों में स्वतंत्र चिन्तन शक्ति को भी बढ़ावा देना चाहिए।
• छात्रों को तर्क-वितर्क एवं वाद-विवाद का अवसर प्रदान करना चाहिए। अध्यापक को चाहिए कि कक्षा में एकांगी रवैया न अपनाएं, न ही ज्यादातर व्याख्यान विधि अपनाएं, बल्कि वार्तालाप शैली का प्रयोग करें। इससे शिक्षार्थियों में वाक्-चातुर्य का विकास होगा।
• कक्षा में छात्रों को अभिव्यक्ति का अवसर प्रदान किया जाना चाहिए।
• परीक्षा में ऐसे प्रश्नों को जगह दी जानी चाहिए, जिसके उत्तर में विद्यार्थी स्वयं को स्वतंत्र रूप में अभिव्यक्त करें। तर्क-शक्ति और वैचारिक-संबंधी प्रश्न अधिक पूछे जाने चाहिए।
• एक से अधिक उत्तर वाले प्रश्नों का निर्माण करना चाहिए, ताकि विद्यार्थी अपनी बुद्धि का प्रयोग करके स्वयं का उत्तर लिख सकें।
• शिक्षार्थी को गृहकार्य हेतु ऐसे कार्य दिए जाने चाहिए जिसकी सामाजिक उपादेयता अधिक से अधिक हो।

शिक्षार्थियों को निर्देश एवं परामर्श देना
वर्तमान की बदलती हुई परिस्थिति में शिक्षक निर्देशक का रूप लेता जा रहा है अर्थात् प्राचीन रूढ़िवादी शिक्षक की मानसिकता को छोड़कर अब वह बच्चों को डराता नहीं, बल्कि उनमें सकारात्मक अधिगम हेतु उचित निर्देशक का कार्य करते हैं। अध्यापक को चाहिए कि वह अपनी कक्षा के सभी विद्यार्थियों को एक समान अधिगम कराने की बजाए, व्यक्तिगत भिन्नता (Individual differences) को ध्यान में रखते हुए, उसे निर्देशित करें। उदाहरण स्वरूप यदि किसी बच्चे को पढ़ने में दिक्कत है, तो कोई अन्य लिखने वाला गृहकार्य न देकर, ऐसा गृहकार्य दें, जिससे बालक पढ़ना सीख सके। इसी तरह का प्रयोग विद्यार्थियों की लिखावट सुधार हेतु अथवा बोलने की क्षमता का विकास हेतु भी दिया जा सकता है। अध्यापक को चाहिए कि वह विद्यार्थियों को यथोचित परामर्श एवं निर्देश दे। इससे उनमें आत्मबल का विकास होगा।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *