उन्नीसवीं सदी के शुरुआत से ही हमें सामाजिक रीति-रिवाजों और मूल्य-मान्यताओं में बदलाव दिखाई देता है। किन्तु मात्र दो सौ साल पहले महिलाओं के हालात बहुत भिन्न थे। ज्यादातर बच्चों की शादी बहुत कम उम्र में ही कर दी जाती थी। हिन्दू व मुसलमान दोनों धर्मों के पुरुष एक से अधिक पत्नियाँ रख सकते थे। देश के कुछ भागों में विधवाओं से यह उम्मीद की जाती थी कि वे अपने पति की चिता के साथ ही जिंदा जल जाए। इस तरह स्वेच्छा से या जबरदस्ती मार दी गयीं महिलाओं को ‘सती’ कहकर महिमामंडित किया जाता था। हिन्दू समाज में अनेक कुरीतियाँ थीं, जिनके कारण समाज में स्त्रियों की काफी बुरी दशा थी। सती प्रथा, बाल विवाह, बहु-विवाह जैसी अनेक कुरीतियाँ मौजूद थीं। पुत्री का जन्म होने पर शोक मनाया जाता था। ब्रिटिश शासन में पाश्चात्य शिक्षा की शुरुआत हुई। इसके तहत महिलाओं की शिक्षा के प्रयास शुरू हुए। इससे महिलाओं के हालात में काफी सुधार आया।
राजा राममोहन राय और सती प्रथा का विरोध
राजा राममोहन राय (22 मई 1772 – 27 सितम्बर 1833) को भारतीय पुनर्जागरण का अग्रदूत कहा जाता है। भारतीय सामाजिक और धार्मिक पुनर्जागरण के क्षेत्र में उनका विशिष्ट स्थान है। इन्होंने ‘ब्रह्म समाज’ की स्थापना की थी। 20 अगस्त, 1828 को इसका पहला सत्र आयोजित हुआ था। राजा राममोहन राय रूढ़िवाद और कुरीतियों के विरोधी थे। राममोहन राय देश में पश्चिमी शिक्षा का प्रसार करने और महिलाओं के लिए ज्यादा स्वतंत्रता व समानता के पक्षधर थे। राममोहन राय इस बात से काफी दुखी थे कि विधवा औरतों को अपनी जिंदगी में भारी कष्टों का सामना करना पड़ता है। इसी बात को ध्यान में रखते हुए उन्होंने ‘सती प्रथा’ के खिलाफ मुहिम छेड़ी थी। राममोहन राय ने अपने लेखन के जरिए यह सिद्ध करने का प्रयास किया कि प्राचीन ग्रंथों में विधवाओं को जलाने की अनुमति कहीं नहीं दी गयी है। राममोहन राय के प्रयासों के द्वारा ही लॉर्ड विलियम बैण्टिक ने 1829 ई. में अधिनियम 17 पारित कर ‘सती प्रथा’ पर पाबंदी लगा दी।
प्रार्थना समाज: स्त्री शिक्षा एवं विधवा विवाह
भारतीय नवजागरण दौर में धार्मिक और सामाजिक सुधार हेतु ‘प्रार्थना समाज’ की स्थापना आत्माराम पांडुरंग ने केशवचन्द सेन की सहायता से बम्बई में 31 मार्च 1867 में की। प्रार्थना समाज के आंदोलन ने राजा राममोहन राय द्वारा बंगाल में स्थापित ब्रह्म समाज (1828) से प्रेरणा ग्रहण की और व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन के स्वस्थ सुधार के लिए अपनी सारी शक्ति धार्मिक शिक्षा के प्रचार में अर्पित कर दी। प्रार्थना समाज ने रानाडे के नेतृत्व में जाति प्रथा, बाल विवाह, स्त्री शिक्षा एवं विधवा विवाह के विरुद्ध आन्दोलन किया। उसने 19वीं शदी के नवें दशक में नारी-जागरण की योजनाओं का आरम्भ किया। आर्य महिला समाज की स्थापना (1882) उन्हीं योजनाओं का फल है। सन् 1878 में प्रार्थना समाज द्वारा स्थापित पहला रात्रि विद्यालय जनशिक्षा और प्रौढ़-शिक्षा के क्षेत्र में अग्रणी रहा। ‘दि डिप्रेस्ड क्लास मिशन सोसाइटी ऑफ इण्डिया’ नाम की संस्था जो अछूतोद्धार के लिए प्रसिद्ध है, प्रार्थना समाज के एक कार्यकर्ता विट्ठल रामजी शिंदे द्वारा स्थापित हुई थी। 1861 ई. में महादेव गोविन्द रानाडे ने महाराष्ट्र में विधवा-विवाह के प्रचार के लिए ‘विडो रिमैरिज एसोसिएशन’ की स्थापना की।
आर्य समाज एवं समाज सुधार
आर्य समाज की स्थापना स्वामी दयानन्द सरस्वती ने सन् 1875 में की थी। आर्य समाज ने हिन्दू धर्म को सुधारने का प्रयास किया। यह आंदोलन पाश्चात्य प्रसादों की प्रतिक्रिया स्वरूप हिन्दू धर्म में सुधार के लिए प्रारम्भ हुआ था। इसने छुआछूत व जातिगत भेदभाव का विरोध किया तथा स्त्रियों व शूद्रों को भी यज्ञोपवीत धारण करने व वेद पढ़ने का अधिकार दिया। स्वामी दयानन्द सरस्वती द्वारा रचित ‘सत्यार्थ प्रकाश’ नामक ग्रंथ आर्य समाज का मूल ग्रंथ है। आर्य समाज शिक्षा, समाज-सुधार एवं राष्ट्रीयता का आन्दोलन था। स्वदेशी आन्दोलन का मूल सूत्रधार आर्य समाज ही है। सन् 1886 में लाहौर में स्वामी दयानन्द के अनुयायी लाला हंसराज ने दयानंद एंग्लो वैदिक कॉलेज की स्थापना की। स्वतंत्रता पूर्व काल में हिन्दू समाज के नवजागरण और पुनरुत्थान आंदोलन के रूप में आर्य समाज सर्वाधिक शक्तिशाली आन्दोलन था। स्वयं ब्राह्मण होते हुए भी स्वामी जी ने ब्राह्मणों की सत्ता के खण्डन का प्रतिपादन किया। आर्य समाज ने सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध आन्दोलन का शंखनाद किया।
रामकृष्ण मिशन और स्त्री पुनरुद्धार
रामकृष्ण मिशन की स्थापना 1 मई 1897 को रामकृष्ण परमहंस के शिष्य स्वामी विवेकानन्द ने की थी। इसका मुख्यालय कोलकाता के निकट बेलुड़ में है। स्वामी विवेकानन्द का मानना था कि महिलाओं की दशा सुधारने के लिए लड़कियों को शिक्षित करना जरूरी है। उन्होंने पुरोहितवाद, धार्मिक कर्मकाण्ड और रूढ़ियों की खिल्ली भी उड़ाई और लगभग आक्रमणकारी भाषा में ऐसी विसंगतियों के खिलाफ युद्ध किया। स्वामी विवेकानन्द के शिक्षा-दर्शन के आधार ढाँचे में बालक एवं बालिकाओं, दोनों को समान शिक्षा देने पर बल दिया गया। विवेकानन्द बड़े स्वप्न दृष्टा थे। उन्होंने एक ऐसे समाज की कल्पना की थी, जिसमें धर्म, जाति या लिंग के आधार पर मनुष्य-मनुष्य में कोई भेद न रहे।
ईश्वरचन्द विद्यासागर एवं नारी शिक्षा
ईश्वरचन्द विद्यासागर बंगाल के पुनर्जागरण के स्तंभों में से एक थे। वे नारी शिक्षा के समर्थक थे। उनके प्रयासों से ही कलकत्ता में एवं अन्य स्थानों में बहुत से बालिका विद्यालयों की स्थापना हुई। इन्हें सुधारक के रूप में राजा राममोहन राय का उत्तराधिकारी माना जाता है। इन्होंने विधवा-विवाह के लिए लोकमत तैयार किया। इन्हीं के प्रयासों से 1856 ई. में विधवा-पुनर्विवाह कानून पारित हुआ। इन्होंने नारी शिक्षा के लिए अथक प्रयास किये और इसी क्रम में बैथन (Baithun)
स्कूल की स्थापना कर कुल 35 स्कूल खुलवाये।
महिलाओं की स्थिति सुधार में अन्य सुधारकों का योगदान
उन्नीसवीं सदी के मध्य में जब कई प्रारंभिक स्कूल खुले तो बहुत सारे लोगों को इस बात का भय हुआ कि अब लड़कियाँ घरेलू कामकाज नहीं करेंगी। बहुत सारे लोगों को लगता था कि इससे लड़कियाँ बिगड़ जाएँगी। उनकी मान्यता थी कि लड़कियों को सार्वजनिक स्थानों से दूर रहना चाहिए। तत्कालीन पुनर्जागरण के स्तम्भ एवं समाज सुधारकों ने इस बात पर बल दिया कि महिलाओं की दशा सुधारने के लिए लड़कियों को शिक्षित करना जरूरी है। उन्नीसवीं सदी के अन्त में आर्य समाज द्वारा पंजाब में और ज्योतिराव फुले द्वारा महाराष्ट्र में लड़कियों के लिए स्कूल खोले गये। बेगम रुक्कया सखावत हुसैन भी इस दौर की एक प्रभावशाली महिला थीं जिन्होंने कलकत्ता और पटना में मुस्लिम लड़कियों के लिए स्कूल खोले।
पंडिता रमाबाई
संस्कृत की महान विद्वान पंडिता रमाबाई का मानना था कि हिन्दू धर्म महिलाओं का दमन करता है। उन्होंने ऊँची जातियों की हिन्दू महिलाओं की दुर्दशा पर लिखा और पूना में एक विधवागृह की स्थापना की।
ताराबाई शिंदे
ताराबाई शिंदे ने ‘स्त्री पुरुष तुलना’ नाम से एक किताब लिखी, जिसमें पुरुषों और महिलाओं के बीच मौजूद सामाजिक अन्तरों की आलोचना की गयी थी।
जाति व्यवस्था को चुनौती
जाति व्यवस्था जड़ हो चुकी रूढ़िवादी विचार का ही दुष्परिणाम है, जो समाज को विभिन्न खेमों में बाँटता है। उन्नीसवीं सदी के प्रारंभ में वैचारिक दबाव में इस व्यवस्था का खंडन किया जाने लगा। राममोहन राय ने जाति व्यवस्था की आलोचना करने वाले एक पुराने बौद्ध ग्रंथ का अनुवाद किया। प्रार्थना समाज भक्ति परम्परा का समर्थक था जिसमें सभी जातियों की आध्यात्मिक समानता पर जोर दिया गया था। जाति उन्मूलन के लिए काम करने हेतु बम्बई में सन् 1840 में परमहंस मंडली का गठन किया गया। इन सुधारकों और सुधार संगठनों के सदस्यों में बहुत सारे तथाकथित ऊँची जातियों के लोग थे। गुप्त बैठकों में ये सुधारक भोजन और स्पर्श जैसे मामलों में जातीय कायदे-कानूनों का उल्लंघन करते थे जिससे अपने जीवन में भी जातीय पूर्वाग्रहों और बंधनों से निजात पा सकें। उन्नीसवीं सदी में ईसाई प्रचारक आदिवासी समुदायों और ‘‘निचली’’ जातियों के बच्चों के लिए स्कूल खोलने लगे थे।
सतनामी आन्दोलन
यह आंदोलन घासीदास ने शुरू किया था जो एक ‘निम्न’ जाति के व्यक्ति थे। उन्होंने सामाजिक समानता और न्याय की माँग करते हुए निम्न जाति की सामाजिक स्थिति में सुधार के लिए आंदोलन किया था। वहीं, ”निम्न जाति“ के नेताओं में ज्योतिराव फुले सबसे मुखर नेताओं में से एक थे। 1873 में फुले ने गुलामगीरी (गुलामी) नामक एक किताब लिखी। दूसरी ओर, बीसवीं सदी के आरंभ में गैर-ब्राह्मण आंदोलन शुरू हुआ।