भारत के उपनिवेश बनते ही ब्रिटिश सरकार ने केवल सम्पन्न वर्गों से नाता जोड़ा और निम्न वर्ग को उसका हर्जाना भोगना पड़ा। इस नाराजगी को इस वर्ग ने आन्दोलनों के ज़रिए जताया। इन आन्दोलनों में कई ऐसे वर्ग हैं जो अनुसूचित थे और बाहरी लोगों को ‘दीकु’ कहकर संबोधित करते थे। इनमें कुछ जनजातीय समूह थे: मुण्डा, सन्थाल इत्यादि।
जनजातीय समूहों के लोगों का जीवन
19वीं सदी में कई प्रकार के आदिवासी समूह अनेक बार प्रकाश में आये। इनकी गतिविधियाँ अद्वितीय थीं। इनमें एक समूह था – झूम खेती अथवा घुमन्तू खेती समूह। इस समूह के लोग पेड़ों का ऊपरी हिस्सा काटकर धूप ज़मीन तक लाते और घास-फूस जलाकर उसकी राख पोटाशयुक्त होने के कारण ज़मीन पर छिड़कते थे। दूसरी ओर खोण्ड समुदाय के लोग टोली बनाकर शिकार करते और जो मिलता उसे बाँट लेते। यह लोग बोझा ढोते और निर्माण कार्य में भी हाथ बंटाते थे। इसके विपरीत बैगा समूह औरों के लिए काम करने से कतराते थे। वह खुद को जंगल की संतान मानते थे। मजदूरी करना उनके लिए लगभग अपमान था। कुछ समूह चरवाहे थे: जैसे पंजाब के गुज्जर और आंध्र प्रदेश के लबाड़िया। ये मौसमी रेवड़ और मवेशियों को चराने यहाँ-वहाँ घूमते रहते थे। जनजातीय गरीबी और पिछड़ेपन का सारा जिम्मा महाजन और व्यापारियों पर था। ऊँची ब्याज दर पर कर्ज़ा देना इसका मुख्य कारण था।
खेती में बदलाव आये। छोटा नगर के मुण्डा इसका प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। वे एक जगह रुककर 19वीं सदी से पहले खेती करने लगे थे। ब्रिटिश सरकार उन समूहों को अधिक सभ्य समझती थी जो एक जगह स्थायी जीवन बिताते थे। शिकारी और घुमंतू उनकी नज़र में बर्बर थे।
औपनिवेशिक शासन का आदिवासियों के जीवन पर प्रभाव
हर जनजाति का एक मुखिया होता था जिसका ज़मीन पर एकाधिकार होता था परन्तु औपनिवेशिक काल के पश्चात् वे भी ब्रिटिश सरकार की बात मानने पर बाध्य हो गये। एक स्थान पर रहने वाले किसानों को नियंत्रित करना और उनसे मिलने वाली आमदनी से फायदा अंग्रेज सरकार को प्रोत्साहन देता रहा कि झूम खेती को स्थायी खेती बनाएँ परन्तु उनका यह कार्य लगभग विफल रहा। उन्होंने इसे नियमित करने के लिए कई कदम उठाये, जिनमें खेतों को मापकर क्षेत्रफल तय करना, लगान तय करना, भूमि-स्वामी और पट्टेदार का विभाजन शामिल था।
वन कानून का आदिवासियों के जीवन पर प्रभाव
उपनिवेशिक काल में वनों को राज्य की सम्पत्ति घोषित कर दिया गया और कुछ को आरक्षित घोषित किया गया। अंग्रेजों की इस कट्टरता को देखकर बहुत से झूम खेती वाले समूह वन छोड़कर दूसरे क्षेत्रों में काम की तलाश में जा पहुँचे। इस पलायन से अंग्रेजों को भारी नुकसान नज़र आया और वह था: स्लीपर्स रेलवे पटरी डालने के लिए रास्ते से पेड़ हटाये जाने हेतु मज़दूर मुहैया न हो पाना। इस समस्या के हल स्वरूप अंग्रेजों ने फैसला किया कि वे झूम समुदाय को ज़मीन के टुकड़े देंगे जिन पर वे खेती करें और शर्त यह थी कि उन्हें मज़दूरी भी करनी होगी। अंग्रेजों की इस प्रकार की मनमानियों का कई बार विरोध किया गया, जिसके उदाहरण हैं – 1906 ई. में सोंग्राम संगमा द्वारा असम में विद्रोह और 1930 ई. में मध्य प्रांत में हुआ सत्याग्रह।
बिरसा मुण्डा
बिरसा मुण्डा एक समूह मुण्डा से थे। उनका जन्म 1870 ई. में हुआ था। पिता गरीब थे तो आस-पास से ही मौखिक शिक्षित हुए जिसमें दीकुओं से मुक्त एक स्वर्ण युग की कहानी उन्होंने सदैव सुनी। किशोरावस्था में ही वे इस कार्य में तत्पर रहे और 1895 ई. में उन्होंने बदलाव का आह्वान किया। उन्हें गिरफ्तार कर 2 साल की सज़ा सुनाई गयी। जेल से रिहाई के पश्चात् 1897 ई. में वे गाँव-गाँव समर्थन के लिए घूमे। उनका निशाना ज़मींदार और पादरी थे। सफेद झण्डा इनके मुण्डा समुदाय का प्रतीक था। इसी बीच 1900 ई. में हैजे से पीड़ित बिरसा की मृत्यु होने से आंदोलन ठण्डा पड़ गया।