भोजन (Food)
सभी जीवों को जिन्दा रहने के लिए ऊर्जा की आवश्यकता होती है। अगर जीवों को ऊर्जा नहीं मिलेगी तो उनकी मृत्यु हो जाएगी। सभी जीवों को ऊर्जा उनके भोजन से मिलती है अर्थात् भोजन वह खाद्य पदार्थ है जो जीवों को ऊर्जा प्रदान करता है। इस पृथ्वी पर पौधे ही भोजन का निर्माण करते हैं। सभी जीवों को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से भोजन पौधों से ही प्राप्त होता है।
भोजन के घटक− हमारे भोजन में विभिन्न प्रकार के घटक पाये जाते हैं‚ जिन्हें पोषक कहते हैं। हमारे भोजन में मुख्य पोषक− कार्बोहाइड्रेट‚ प्रोटीन‚ वसा‚ विटामिन तथा खनिज लवण है। इसके अतिरिक्त हमारे शरीर में रूक्षांश तथा जल भी शामिल है‚ जिनकी हमारे शरीर में आवश्यकता है।
कार्बोहाइड्रेट (Carbohydrate)− कार्बोहाइड्रेट‚ कार्बन (C), हाइड्रोजन (H) तथा ऑक्सीजन (O) से बना एक कार्बनिक यौगिक है। हमारे भोजन में पाए जाने वाले मुख्य कार्बोहाइड्रेट‚ मंड तथा शर्करा के रूप में होते हैं। सभी मीठे पदार्थों जैसे− मीठे फल‚ गन्ना तथा आलू‚ चावल एवं अन्य अनाजों आदि में कार्बोहाइड्रेट पाया जाता है। कार्बोहाइड्रेट विभिन्न रूपों जैसे− ग्लूकोज‚ फ्रक्टोज (फलों की शर्करा)‚ लैक्टोज (दूध की शर्करा)‚ सुक्रोज (गन्नो की शर्करा)‚ मण्ड (आलू‚ चावल‚ रोटी में) कार्बोहाइड्रेट हमारे लिए ऊर्जा के दोत हैं। सभी प्रकार के कार्बोहाइड्रेट पाचन के उपरान्त ग्लूकोज में परिवर्तित हो जाते हैं।
प्रोटीन (Protein)− प्रोटीन मुख्यत: शारीरिक वृद्धि में सहायक है। प्रोटीन युक्त भोजन को शरीर वर्द्धक भोजन कहते हैं। प्रोटीन के यौगिक मुख्यत: कार्बन (C), हाइड्रोजन (H), ऑक्सीजन (O), नाइट्रोजन (N) तत्त्वों से मिलकर बनते हैं। दोत के आधार पर प्रोटीन दो प्रकार के होते हैं−
• जन्तु प्रोटीन− जैसे− दूध‚ मांस‚ मछली‚ पनीर तथा अण्डा आदि।
• वनस्पति प्रोटीन− जैसे दालें‚ सेम‚ सोयाबीन‚ फलियाँ तथा गरीदार फल आदि।
• सबसे अधिक प्रोटीन (43%) सोयाबीन में पायी जाती है।
वसा (Fat)− वसा में भी कार्बन‚ हाइड्रोजन तथा ऑक्सीजन तत्त्व होते हैं। ठोस रूप में वसा को चर्बी तथा तरल रूप में तेल कहते हैं। वसा हमें जन्तु तथा वनस्पति दोनों से प्राप्त होती है। जन्तुओं से घी‚ मक्खन प्राप्त होता है जबकि वनस्पतियों जैसे− सरसों‚ मूंगफली‚ तिल‚ अलसी तथा नारियल आदि के बीजों से तेल प्राप्त होता है। वसा से भी हमें ऊर्जा प्राप्त होती है।
विटामिन (Vitamin)− भोजन में विटामिन की अल्प मात्रा ही पर्याप्त होती है‚ परन्तु इनके न लिए जाने पर शरीर रोग ग्रस्त हो जाता है। विटामिन हमारी आँख‚ अस्थियों दाँत और मसूड़ों को स्वस्थ रखने में भी सहायता करते हैं। घुलनशीलता के आधार पर विटामिन दो प्रकार के होते हैं−
• जल में घुलनशील विटामिन− विटामिन B तथा C
• वसा में घुलनशील विटामिन− विटामिन A, D, E तथा K।
खट्टे फलों जैसे संतरा‚ नींबू‚ आँवला आदि में विटामिन C की प्रचुर मात्रा होती है। विटामिन C बहुत से रोगों से लड़ने में हमारी मदद करता है। गाजर‚ मक्खन‚ पपीता‚ आम तथा पालक विटामिन A के अच्छे दोत हैं। विटामिन A हमारी त्वचा तथा आँखों को स्वस्थ रखता है। विटामिन B कॉम्प्लैक्स vit, B1, B2, B3, B5, B12 आदि हरी सब्जी‚ फलों दूध में पाया जाता है। विटामिन D हमारी अस्थियों और दाँतों के लिए कैल्शियम का उपयोग करने में हमारे शरीर की सहायता करता है।
खनिज लवण तथा जल− हमारे शरीर की खनिज लवणों की आवश्यकता अल्प मात्रा में होती है। शरीर के उचित विकास तथा अच्छे स्वास्थ्य के लिए प्रत्येक खनिज लवण आवश्यक हैं। इनमें कैल्शियम तथा फॉस्फोरस मुख्य रूप से आवश्यक तत्व हैं। हमारे शरीर की हड्डियॉ तथा दाँत मुख्य रूप से कैल्शियम और फॉस्फोरस के लवणों से बनते हैं। इनकी कमी से हड्डियाँ कमजोर हो जाती हैं तथा अनेक प्रकार के रोग हो सकते हैं।
कैल्शियम के बिना रक्त का थक्का नहीं जम सकता है। मांस पेशियाँ भी ठीक प्रकार से कार्य नहीं कर पायेंगी।
जल में घुलनशील विटामिन
विटामिन | स्रोत | कमी के प्रभाव |
B1 (थायमीन) | अनाज‚ फलियाँ‚ सोयाबीन‚ दूध‚ यीस्ट‚ अंडे‚ मांस | बेरी−बेरी |
B2 (राइबोफ्लैविन) | पनीर‚ अंडे‚ यीस्ट‚ हरी पत्तेदार सब्जियाँ‚ मांस‚ यकृत‚ बीन्स‚ मेवा‚ टमाटर‚ मशरूम | किलोसिस |
B3 (नियासिन) | दूध‚ यीस्ट‚ मछली‚ मांस‚ यकृत‚ अंडे‚ फलियाँ‚ हरे मटर‚ दूध‚ मशरूम‚ मूंगफली‚ मेवा। | पेलाग्रा |
B5 (पैटोंथीनिक अम्ल) | दूध यकृत‚ मांस‚ दही‚ टमाटर‚ मूंगफली‚ गन्ना‚ मक्का‚ ब्रोकली‚ मशरूम‚ सूरजमुखी के बीज‚ गोभी | वृद्धि में कमी‚ चर्म रोग‚ बाल का सफेद होना‚ जनन क्षमता में कमी‚ अस्थमा‚ तनाव |
B6 (पाइरीडॉक्सिन) | मांस‚ मछली‚ यीस्ट‚ यकृत‚ दूध‚ अनाज‚ पालक‚ आलू‚ गाजर‚ शकरकंद‚ केला | रुधिर क्षीणता (एनीमिया)‚ चर्म रोग‚ पेशीय ऐंठन |
B12 (सायनोकोबालमिन) | दूध एवं दुग्ध उत्पाद‚ मांस‚ मछली‚ अंडा‚ यकृत | रुधिर क्षीणता तंत्रिका तंत्र में गड़बड़ियाँ |
B7 (विटामिन -H बायोटिन) | यकृत‚ मांस‚ अंडा‚ यीस्ट‚ मेवा (अखरोट)‚ केला‚ गेहूँ‚ मूंगफली‚ फल‚ सब्जियाँ‚ चॉकलेट | चर्म रोग‚ बाल का झड़ना |
फोलिक अम्ल समूह | यकृत‚ यीस्ट‚ सोयाबीन‚ हरी पत्तेदार सब्जियाँ‚ फलियाँ‚ ब्रोकली‚ गोभी शतावर | रुधिर की कमी‚ वृद्धि का अवरोध होना |
विटामिन−C (ऐस्कॉर्बिक अम्ल) | नींबू वंश के खट्टे फल‚ टमाटर‚ पपीता‚ आलू‚ अमरूद ब्रोकली‚ किवी‚ स्ट्राबेरी‚ पालक | स्कर्वी रोग |
वसा में घुलनशील विटामिन
विटामिन | स्रोत | कमी का प्रभाव |
विटामिन-A (रेटिनॉल) | दूध‚ मक्खन‚ दही‚ अंडा‚ यकृत‚ मछली का तेल‚ पालक‚ ब्रोकली‚ गाजर‚ अखरोट | कार्निया व त्वचा की कोशिकाओं का शल्कीभवन‚ रतौंधी‚ वृद्धि अवरुद्ध होना‚ केरैटोमैसेसिया |
विटामिन-D (कैल्सिफेराल) | मक्खन‚ यकृत‚ अंडे‚ सूर्य का प्रकाश‚ दूध | आस्टियोमैलेसिया (वयस्कों में) रिकेट्स (बच्चों में) इसे ‘सूखा रोग’ के नाम से भी जाना जाता है। |
विटामिन-E (टोकोफेराल) | मूंगफली तेल‚ गेहूँ‚ बादाम‚ सोयाबीन‚ अंडे की जर्दी | जननांग तथा पेशियाँ कमजोर‚ जनन क्षमता में कमी |
विटामिन-K नैफ्थोक्विनोन (फिलोक्विनोन) | अंडा‚ यकृत‚ दुग्ध उत्पाद‚ हरी पत्तेदार सब्जियाँ‚ टमाटर‚ गोभी‚ पालक आदि। | चोट लगने पर रुधिर का थक्का न जमने से अधिक रक्त स्राव का होना। |
पोषक तत्त्व
पोषक तत्त्व | मुख्य कार्य | स्रोत | कमी से होने वाले रोग |
कार्बोहाइड्रेट | शरीर को ऊर्जा प्रदान करना | अनाज‚ सब्जियाँ‚ फल‚ गुड़‚ चीनी‚ गन्ना इत्यादि | |
प्रोटीन | शरीर की वृद्धि‚ शरीर की कोशिकाओं तथा ऊतकों की मरम्मत करना‚ एन्जाइम तथा हार्मोन का निर्माण | दाल‚ दूध एवं दूध से निर्मित पदार्थ‚ मांस‚ मछली आदि। | क्वाशरकोर‚ मेरास्मस |
वसा | वसा भी कार्बोहाइड्रेट की भांति ऊर्जा प्रदान करने का कार्य करती है। वसा कई हार्मोन्स का निर्माण करती है। जो शारीरिक क्रियाओं को नियंत्रित करते हैं। | घी‚ तेल‚ मक्खन‚ मेवे‚ दूध‚ पनीर‚ मूंगफली‚ मछली‚ अण्डा आदि | |
विटामिन (A, B, तथा C, D, E एवं K) | शरीर द्वारा पोषक तत्त्वों के सही उपयोग पर नियंत्रण रखना‚ शरीर की रोगों से लड़ने की क्षमता को बढ़ाना | विटामिन ‘A’– आम‚ पपीता‚ गाजर आदि। | रतौंधी |
विटामिन ‘B’– हरी पत्तेदार सब्जियाँ‚ माँस‚ मछली आदि | बेरी-बेरी | ||
विटामिन ‘C’– आँवला‚ संतरा‚ नींबू‚ कच्चा आम। | स्कर्वी | ||
विटामिन ‘D’– सूखे मेवे‚ अण्डा‚ मछली‚ दूध‚ दही‚ सूर्य की किरणें आदि। | रिकेट्स (सूखा रोग) | ||
विटामिन ‘E’– हरी सब्जियाँ‚ सूखे मेवे जैसे अखरोट‚ काजू‚ बादाम‚ मूँगफली‚ अण्डा‚ मछली का तेल‚ यकृत आदि। | प्रजनन क्षमता में कमी। | ||
विटामिन ‘K’– दूध‚ मक्खन‚ अण्डा‚ आलू‚ टमाटर‚ पालक‚ गोभी‚ हरी सब्जियाँ आदि। | रक्त का थक्का न जमना | ||
खनिज लवण (कैल्शियम‚ आयरन‚ आयोडीन‚ पोटैशियम आदि) | हड्डियों तथा दाँतों का निर्माण कोमल रेशों का निर्माण थायरॉक्सिन हार्मोन का निर्माण | दूध व दूध से बने उत्पाद‚ जैसे− पनीर‚ दही‚ मट्ठा तथा मांस‚ मछली‚ अंडा आदि। | कैल्शियम की कमी से हड्डी व दांत कमजोर होना। आयरन की कमी से रक्ताल्पता (एनीमिया) होना। आयोडीन की कमी से घेंघा रोग होना। पोटैशियम की कमी से निर्जलीकरण होना। |
जल | भोजन के पाचन में सहायक‚ शरीर के तापक्रम पर नियंत्रण | सादा स्वच्छ पानी‚ पेय पदार्थ जैसे− शर्बत‚ शिकंजी‚ लस्सी‚ मट्ठा‚ नारियल पानी‚ आदि। | पाचन क्रिया प्रभावित होना। |
रेशा (फाइबर) युक्त भोजन | भोजन को पचाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका | गेहूँ‚ ज्वार‚ बाजरा‚ शकरकंद‚ हरी सब्जियाँ‚ पपीता‚ अमरूद‚ केला आदि। | कब्ज होना‚ एसीडिटी होना तथा पाचन तंत्र कमजोर होना। |
सन्तुलित आहार
सामान्यत: पूरे दिन में जो कुछ भी हम खाते हैं‚ उसे आहार कहते हैं। हमारे शरीर की वृद्धि और अच्छे स्वास्थ्य को बनाये रखने के लिए हमारे आहार में वे सभी पोषक तत्त्व उचित मात्रा में होने चाहिए जिनकी आवश्यकता हमारे शरीर को है।
कोई भी पोषक तत्व न आवश्यकता से अधिक हो और न ही कम।
हमारे आहार में पोषक तत्त्व‚ विटामिन एवं खनिज के साथ पर्याप्त मात्रा में रूक्षांश तथा जल भी होना चाहिए। इस प्रकार के आहार को संतुलित आहार कहते हैं।
• सब्जियों तथा फलों के छिलकों में अधिकतर विटामिन पाये जाते हैं जो अधिक पकाने व भूनने पर नष्ट हो जाते हैं।
• चावल और दालों को बार−बार नहीं धोना चाहिए क्योंकि चावल और दालों को बार−बार धोने से उसमें उपस्थित विटामिन और कुछ खनिज लवण नष्ट हो जाते हैं।
• लौह तत्व की कमी से हमारे शरीर में रूधिर (एनीमिया) की कमी हो जाती है जिसे रुधिर अल्पता (एनीमिया) कहते हैं। इसकी अत्यन्त कमी होने पर आयरन की गोलियाँ लेने से पूरी हो जाती है।
• कैल्शियम तथा फॉस्फोरस की कमी से दोषपूर्ण दाँत विकसित होते हैं।
• आयोडीन की कमी से घेंघा (Goitre) नामक रोग होता है।
• फ्लोरीन खनिज का समावेश दन्त वल्क (इनामेल) का क्षरण रोकता है।
कुपोषण एवं उनसे होने वाले रोग− आहार‚ संतुलित होने के साथ−साथ पर्याप्त भी होना चाहिए। अपर्याप्त भोजन‚ अपर्याप्त पोषण का कारण बन जाता है। इससे उत्पन्न स्थिति को कुपोषण कहते हैं। बढ़ती जनसंख्या तथा गरीबी के कारण अधिकांश व्यक्ति कुपोषण के शिकार हैं। कार्बोहाइड्रेट तथा प्रोटीन की कमी के कारण होता है। कार्बोहाइड्रेट की कमी से शरीर क्षीण हो जाता है। प्रोटीन की कमी से उत्पन्न स्थिति में शारीरिक वृद्धि रुक जाती है‚ मांसपेशियाँ कमजोर और ढीली पड़ जाती हैं‚ शरीर के भार में कमी हो जाती हैं और मनुष्य की मृत्यु भी हो सकती है। मेरेस्मस तथा क्वाशरकोर कुपोषण जनित रोग है।
क्वाशरकोर− यह रोग मुख्यत: प्रोटीन की कमी से होता है। इस रोग में बच्चों की शारीरिक वृद्धि रुक जाती है। भूख कम लगती है। शरीर में सूजन आ जाती है। हाथ पैर दुर्बल तथा पेट बाहर की ओर निकल आता है। भारत में 1% बच्चे इस रोग से पीड़ित है। इस रोग से बचने के लिए रोगी बच्चे को नियमित रूप से उसके दैनिक आहार में प्रोटीन युक्त भोजन दिया जाना चाहिए।
मेरेस्मस− यह प्रोटीन तथा कैलोरी दोनों की कमी से होता है।
इस रोग में बच्चों की शारीरिक वृद्धि रुक जाती है। इस रोग से चेहरा दुर्बल तथा आँखे धंसी हुई दिखाई देती है। यह मुख्यत: एक साल के बच्चों में होता है।
भोजन का परिरक्षण− आप जानते है कि भोजन को अधिक दिन तक रखने पर खराब हो जाते हैं। अत: भोज्य पदार्थों को खराब होने से बचाने के लिए उसका परिरक्षण आवश्यक है।
पके भोजन आसानी से जल्दी खराब हो जाते हैं। अत: इनको ताजा ही खा लेना चाहिए। यदि किन्ही कारणों से भोजन को रखना पड़ता है तो उन्हें खराब होने से बचाने की आवश्यकता होती है। पके भोजन को जीवाणु बड़ी जल्दी से खराब कर देते हैं। इसलिए इनको संरक्षित किया जाता है।
• आजकल फल‚ सब्जियों को बचाने के लिए रेफ्रिजरेटर का प्रयोग किया जाता है। रेफ्रिजरेटर में तापमान कम होता है। इसलिए फल‚ सब्जियाँ खराब नहीं होते हैं क्योंकि कीटाणु निष्क्रिय हो जाते हैं।
स्टरलाइजेशन (Sterlization) एक विधि है जिसके द्वारा खाद्य पदार्थों को सूक्ष्म जीवों से मुक्त किया जाता है। इससे खाद्य पदार्थ एक निश्चित समय तक खराब नहीं होते हैं। फ्रिज (रेफ्रिजरेटर) एक उपकरण है जिसके द्वारा पदार्थ सामान्य ताप से कम ताप (5oC से 10oC) उत्पन्न कर सूक्ष्म जीवों की उपापचयी क्रियाएँ तथा वृद्धि को नियंत्रित किया जाता है। इसी फ्रिज का उपयोग फल सब्जियों तथा खाद्य एवं पेय पदार्थों को ठंडा करने के लिए किया जाता है।
पाश्चुरीकरण− लुई पाश्चर (1866) ने दूध में किण्वन रोकने के लिए पाश्चुरीकरण विधि का पता लगाया। इस विधि में दूध को 145o फारेनहाइट (62.8oC) पर लगभग 30मिनट तक गर्म करते हैं या 161o फारेनहाइट (71.7oC) पर लगभग 15 सेकेण्ड तक गर्म करते हैं। इस विधि से सभी हानिकारक या रोग कारक जीवाणु व बीजाणु मर जाते हैं।
• दूध को उबालकर रखा जाता है ताकि जल्दी खराब न हो। थैली वाला दूध पाश्चुरीकृत दूध होता है। 30 सेकेण्ड के लिए उबालकर और ठण्डा करके थैलियों में पैक कर दिया जाता है जिससे वह जल्दी खराब न हो। इस विधि को पाश्चुरीकरण कहा जाता है। इस विधि में सभी हानिकारक या रोग कारक जीवाणु व बीजाणु मृत हो जाते हैं।
• आचार में नमक (सोडियम क्लोराइड NaCl) मिलाकर रखने में नमक संरक्षक का कार्य करता है। इसके द्वारा उत्पन्न माध्यम में एन्जाइम निष्क्रिय हो जाते हैं जो सामान्य तापक्रम में भोजन विखण्डित कर देते हैं।
• जैम‚ जेली व शर्बत जिन बर्तनों में सुरक्षित रखे जाते हैं उनको जीवाणु रहित किया जाता है। इसके लिए बर्तनों को निश्चित समय के लिए पानी में खौलाया जाता है। इसके अतिरिक्त इन सामग्रियों में सोडियम मेटा बाई सल्फाइट तथा सोडियम बेंजोएट की निश्चित मात्रा मिलायी जाती है‚ जो परिरक्षक का कार्य करती है।
• सॉस‚ चटनी में ऐसीटिक अम्ल (Acetic Acid CH3COOH) परिरक्षक का कार्य करता है।
खराब भोजन एवं दूषित जल से होने वाले रोग− भोजन जीवाणुओं अथवा कवकों के द्वारा खराब हो जाता है। खराब होने की स्थिति में भोजन विषैला‚ दूषित तथा हानिकारक हो जाता है। पाचन क्रिया ठीक से नहीं हो पाती है और इससे विभिन्न प्रकार के रोग होने की सम्भावना रहती है। जीवाणु हमारे भोजन के साथ शरीर में प्रविष्ठ होकर तरह−तरह के रोग उत्पन्न कर देते हैं। ऐसा भोजन खाने से कभी−कभी मृत्यु भी हो सकती है। इन जीवाणुओं द्वारा उत्पन्न रोग मुख्यत: हैजा‚ टी.बी.‚ निमोनिया‚ टाइफाइड‚ डिप्थीरिया‚ आन्त्रशोध‚ सूजाक‚ पीलिया रोग‚ कुकुर खाँसी‚ कोढ़ तथा टिटनेस आदि है।
कवक द्वारा हमारे भोजन (मुरब्बे‚ आचार‚ रोटी फल तथा अनाज) खराब हो जाते हैं। राइजोपस‚ म्यूकर‚ एस्पर्जिलस तथा पेन्सिलियम आदि कवक हमारे भोजन को खराब करते हैं और शरीर में प्रवेश करके कई रोग उत्पन्न करते हैं। कवक द्वारा उत्पन्न रोग मुख्यत: दाद है। खराब भोजन के अलावा दूषित जल का प्रयोग भी भिन्न−भिन्न प्रकार के रोग उत्पन्न करता है। हैजा‚ टाइफाइड तथा पीलिया दूषित जल से होने वाले प्रमुख रोग है। कुछ रोग परजीवी जनित होते हैं जैसे− मलेरिया (जूड़ी बुखार)‚ फाइलेरिया (फीलपांव) तथा पेचिस (अतिसार) आदि रोग प्रमुख है।
• मलेरिया का रोगाणु प्लाज्मोडियम नामक प्रोटोजोआ है। इस रोगाणु को मच्छर (मादा एनोफिलीज) एक मनुष्य से दूसरे मनुष्य तक रक्त चूसते समय पहुँचाते हैं। पेचिस एण्टअमीबा हिस्टोलिटिका नामक प्रोटोजोआ से होता है। इसकी वाहक घरेलू मक्खी है।
• मलेरिया के उपचार के लिए सिनकोना के छाल का प्रयोग किया जाता है।
संक्रामक रोग
ऐसे रोग जीवों में एक−दूसरे के संपर्क में आने पर फैलते हैं। ये रोग हानिकारक सूक्ष्म जीवों जैसे− जीवाणु‚ विषाणु‚ प्रोटोजोआ‚ कवक आदि से फैलते हैं।
जीवाणु (Bacteria) जनित रोग− टिटनेस‚ सिफलिस‚ हैजा‚ डिप्थीरिया‚ काली खाँसी‚ प्लेग‚ निमोनिया‚ कॉलरा‚ गोनोरिया‚ क्षय रोग‚ टायफाइड‚ कोढ़ आदि।
विषाणु (Virus) जनित रोग− रेबीज या हाइड्रोफोबिया‚ चेचक‚ छोटी माता‚ खसरा‚ पोलियो‚ हेपेटाइटिस‚ एड्स‚ इबोला‚ इंसेफलाइटिस‚ चिकनगुनिया‚ डेंगू‚ रूबेला‚ गलसुआ आदि।
प्रोटोजोआ (Protozoa) जनित रोग– मलेरिया‚ पेचिस‚ पायरिया‚ कालाजार‚ निद्रा रोग आदि।
कृमिजन्य (Worm) जनित रोग– फाइलेरिया‚ टीनिएसिस‚ एस्केरियेसिस आदि।
एड्स (AIDS : Acquired Immuno Deficiency Syndrome)– यह रोग HIV (Human Immuno Deficiency Virus) के कारण होता है। इस रोग में रोगी की रोग प्रतिरोधक क्षमता धीरे-धीरे कम होती जाती है। जिसका कारण यह है कि ये वायरस रोगी की प्रतिरक्षा प्रणाली के लिये जिम्मेदार ‘T’ लिम्फोसाइट श्वेत रक्त कणिकाओं को नष्ट करते हैं। इस रोग का प्रसार लैंगिक संभोग‚ संक्रमित व्यक्ति के रक्त का अन्य व्यक्ति को चढ़ाना‚ और प्लेसेंटा के संपर्क से हो सकता है। इस रोग में लसिका पर्व में सूजन‚ स्मृति का लोप‚ रात्रि में पसीना आना आदि प्रमुख लक्षण है।
• HIV के जाँच के लिये ELISA (Enzyme-n Linked Immuno Sorbent Assay) टेस्ट किया जाता है।
मलेरिया (Malaria)– इस रोग के कारण प्लाज्मोडियम नामक प्रोटोजोआ है जिसका वाहक मादा एनोफिलीज मच्छर होती है। यह जानकारी सर्वप्रथम सर रोनाल्ड रॉस ने दी जिन्हें इस कार्य हेतु 1902 में चिकित्सा का नोबेल पुरस्कार मिला। ये प्रोटोजोआ मानव शरीर में लिवर तथा प्लीहा को संक्रमित कर देते हैं। इस रोग में लाल रुधिर कोशिकाएँ तेजी से नष्ट होने लगती हैं और संक्रमित व्यक्ति में मलेरिया के स्पष्ट लक्षण दिखाई देने लगते हैं।
डेंगू (Dengue)– यह डेंगू नामक वायरस से फैलने वाली बिमारी है जिसकी वाहक मादा एडीज एजिप्टी मच्छर होती है। इस रोग में रोगी के शरीर में प्लेटलेट्स की कमी हो जाती है। जिसके कारण आंतरिक रक्त स्राव होने लगता है।
पीत ज्वर (Yellow Fever)– यह भी एक वायरस जनित बिमारी है। जिसका वाहक एडीज एजिप्टी मच्छर होता है।
चिकनगुनिया (Chikunguniya)– यह चिकनगुनिया वायरस से फैलने वाली बिमारी है। इसका वाहक भी एडीज एजिप्टी मच्छर होता है। जोड़ों में तीव्र दर्द एवं त्वचा पर लाल चकते इसके लक्षण हैं।
कवक से होने वाले रोग (Fungal Disease)
रोग रोग कारक का नाम दमा (Asthma) एस्पर्जिलस फ्यूमिगेट्स (Aspergillus fumigatus)
गंजापन (Baldness) टिनिया केपिटिस (Taenia capitis)
जापानी इन्सेफेलाइटिस (Japanese Encephalitis)– यह एक विषाणु जनित रोग है। इस रोग का उद्गम सर्वप्रथम जापान में हुआ। इसी कारण इसे जापानी इन्सेफेलाइटिस कहा जाता है। यह रोग क्यूलेक्स (Culex) प्रजाति के मच्छरों द्वारा होता है। यह रोग सुअरों के माध्यम से भी फैलता है।
धान के खेत क्यूलेक्स मच्छर के पनपने के लिये उपयुक्त स्थान होते हैं। यह रोग दक्षिण−पूर्व एशिया के कई स्थानों पर फैलता है।
• जापानी मस्तिष्क ज्वर एवं एक्यूट इन्सेफलाईटिस सिन्ड्रोम बीमारी के रसायन लीची (फल) में भी पाये जाते हैं।
• जापानी इन्सेफलाईटिस को रोकने के लिए उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा दस्तक अभियान चलाया गया है।
स्वाइन फ्लू (Swine flu)– यह एक संक्रामक रोग है‚ जो विषाणु जनित है। रोग फैलाने वाले वायरस का नाम इन्फ्लूएन्जा H1N1 है। अचानक तेज बुखार‚ उल्टी एवं दस्त‚ शरीर में दर्द‚ खाँसी आना आदि इस रोग के प्रमुख लक्षण हैं। इसके इलाज के लिये ओसेल्टा मिविर नामक औषधि दी जाती है।
असंक्रामक रोग
सभी रोग एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में नहीं पहुँचते। जो रोग एक व्यक्ति से दूसरे में स्थानान्तरित नहीं होते उन्हें असंक्रामक रोग कहते हैं। जैसे− हीनताजन्य रोग‚ आनुवंशिक रोग‚ हृदय रोग‚ कैंसर आदि।
हीनताजन्य रोग (Deficiency Disease)– ऐसे रोग जो शरीर में अनेक पदार्थों की कमी से होते‚ जैसे− मेरेस्मस‚ क्वाशिओरकर।
हृदय रोग
हृदयशूल (Angian Pectoris)– अत्यधिक मानसिक तनाव‚ कठोर परिश्रम‚ अत्यधिक आहार के कारण कभी−कभी हृदय को ऑक्सीजन की पूर्ति बाधित हो जाती है। जिससे सीना एवं बाई भुजा में दर्द होता है।
हृदयघात (Heart Attack)– कभी−कभी उच्च तनाव‚ मोटापा‚ अधिक वसा युक्त भोजन सेवन आदि से हृदय को शुद्ध रक्त की आपूर्ति नहीं हो पाती और हृदय का स्पंदन रुक जाता है। सीने में तीव्र दर्द‚ पसीना आना‚ जी मचलना‚ बाहों में दर्द इत्यादि हृदयाघात के लक्षण हो सकते हैं।
उच्च तनाव (Hypertension)– अत्यधिक रुधिर दाब के कारण अति तनाव की स्थिति उत्पन्न होती है।
एलर्जी− एलर्जी कुछ बाह्य पदार्थों‚ जैसे− धूल‚ धुआँ आदि के प्रति शरीर की संवेदनशीलता से होती है। सर्दी‚ सिरदर्द एवं अस्थमा इत्यादि एलर्जी के कारण हो सकते हैं।
कैंसर (Cancer)
• कोशिकाओं के अनियंत्रित विभाजन के कारण होने वाले रोग कैंसर हो सकते हैं। कैंसर निम्न प्रकार के होते हैं−
• कार्सीनोमा− यह त्वचा‚ स्तन‚ मस्तिष्क तथा गर्भाशय में होता है।
• सार्कोमा− यह रक्त‚ पेशियां‚ उपास्थि तथा अस्थि में होने वाले कैंसर हैं।
• लिम्फोमा− यह अस्थि मज्जा‚ प्लीहा‚ यकृत आदि में होता है।
• ल्यूकेमिया− यह WBCs की संख्या के अत्यधिक बढ़ने के कारण उत्पन्न होता है।
आनुवंशिक विकार−
हीमोफीलिया (Hemophilia)– इस रोग में रुधिर के थक्का बनने से संबद्ध प्रोटीन प्रभावित होता है। इस रोग से ग्रस्त व्यक्ति के शरीर में चोट लगने पर रुधिर का निकलना बंद नहीं होता। इस रोग के जीन की वाहक महिलाएँ है लेकिन यह जीन पुरुषों में प्रभावी रूप से लक्षण प्रदर्शित करता है और हिमोफीलिया का कारण बनता है।
इसे रॉयल हिमोफीलिया भी कहते हैं।
वर्णान्धता− ऐसे व्यक्ति जो लाल व हरे रंग में भेद करने में अक्षम होते हैं ऐसे व्यक्ति कलाकार‚ ड्राइवर‚ डिजाइनर नहीं बन सकते हैं।
अन्य रोग एवं उनसे संबंधित तथ्य
रोग | कारक | संक्रमण | लक्षण | उपचार और बचाव |
इंफ्लुएंजा (फ्लू) | इंफ्लुएंजा विषाणु | संक्रमित व्यक्तियों के थूक‚ कफ आदि द्वारा (वायु संवाहित रोग)। | खाँसी‚ बलगम‚ छींक‚ ज्वर तथा सिर दर्द आदि। | इंफ्लुएंजा के नियंत्रण का कोई प्रभावी तरीका नहीं है। फिर भी एंटीबायोटिक दवाएँ इस रोग में उपचार में उपयोग की जाती हैं। |
पोलियो | पोलियो विषाणु | भोजन | माँस−पेशियाँ सिकुड़ जाती है तथा हाथ−पैर निष्क्रिय हो जाते हैं। बच्चे विकलांग हो जाते हैं। | पोलियों टीकाकरण से बचाव संभव |
खसरा | मोर्बेली विषाणु | वायु वाहित रोग। | आरंभ में नाक व आँख से पानी बहना‚ शरीर में दर्द तथा ज्वर आदि। 3−4 दिनों बाद शरीर पर लाल दाने हो जाते हैं। | आराम करना‚ हल्का भोजन और उबला पानी पीना। |
चेचक | वैरिओला विषाणु | वायु द्वारा या रोगी से सीधे संपर्क से | ज्वर‚ सिर में दर्द‚ जुकाम व उल्टियाँ होती हैं। 3-4 दिनों बाद मुँह पर लाल दाने निकल आते हैं‚ जो कि शीघ्र ही पूरे शरीर पर फैल जाते हैं। | रोगी के संपर्क में आने से बचना‚ चेचक का टीका लगाना। |
छोटी माता | वैरिओला जोस्टर विषाणु | श्वास या छींकों द्वारा | शरीर पर छोटे−छोटे दाने निकल आते हैं। हल्का बुखार एवं जोड़ों में दर्द रहता है। | सीधा एवं स्पष्ट उपचार नहीं‚ रोगी को स्वच्छ वातावरण में रखना। |
रेबीज | रेबीज विषाणु | ऐसे जानवर के काटने से होता है‚ जिसमें रेबीज विषाणु विद्यमान होते हैं‚ जैसे− पागल कुत्ता‚ बिल्ली आदि। | सिर दर्द‚ गले में दर्द तथा हल्का बुखार (2-10 दिन तक) इसके प्रारम्भिक लक्षण हैं। बाद में रोगी पानी से भी डरने लगता है। इसीलिये इसे ‘हाइड्रोफोबिया’ भी कहा जाता है। | रेबीजरोधी टीके लगवाना‚ घाव को साफ से अच्छी तरह से साफ करना। |
हेपेटाइटिस या पीलिया | हेपेटाइटिस विषाणु | खाने की वस्तुओं द्वारा (टाइप−A) तथा रुधिर आधान द्वारा (टाइप−B) | आँखे और त्वचा पीली हो जाती है‚ पेशाब भी पीला हो जाता है‚ तिल्ली की कार्य क्षमता घट जाती है‚ खून में पित्त बढ़ जाता है‚ भूख नहीं लगती है। | यकृत के इंजेक्शन‚ दही‚ हरी साग−सब्जी (बिना तेल के) का सेवन तथा आराम करना। |
क्लैमाइडिया ट्रैकोमैटिस जीवाणु | इस जीवाणु से संक्रमित वस्तुओं के उपयोग से | आँखे लाल हो जाती है‚ कार्निया में वृद्धि हो जाती है जिससे रोगी निद्राग्रस्त-सा लगता है। आँख में दर्द बना रहता है। पानी आता है तथा दृष्टि कमजोर हो जाती है। | रोगाणु विरोधी एंटीबायोटिक्स और मलहम पेनीसीलीन‚ क्लोरोमाइसीटोन का प्रयोग करना। | |
हैजा (Cholera) | विब्रियो कॉलेरी जीवाणु | खाने की वस्तुओं‚ दूषित जल द्वारा। | उल्टी एवं दस्त‚ जल की कमी‚ पेशाब बंद हो जाता है‚ हाथ पैरों में ऐंठन हो जाती है। रोगी की मृत्यु भी हो सकती है। | ठंडी वस्तुएँ‚ अमृतधारा तथा हैजे का टीका लेना; पानी को उबालकर एवं शुद्ध करके पीना। |
टाइफाइड | साल्मानेला टाइफी जीवाणु | प्रदूषित जल‚ रोगी के मल-मूत्र एवं थूक के द्वारा। इस रोग को फैलाने में मक्खियों की विशेष भूमिका होती है। | सिर दर्द‚ ज्वर तथा शरीर पर लाल दाने उभर आते हैं‚ जिनमें पानी भर जाता है तथा पाचन शक्ति खराब हो जाती है। | टायफाइड का टीका लगवाना एवं क्लोरोमाइसिटीन वर्ग की एंटीबॉयोटिक लेना। |
टिटनेस | क्लास्ट्रीडियम टिटेनी जीवाणु | शरीर के किसी भाग में चोट लगने पर जब घाव बन जाता है‚ तब ये जीवाणु धूल‚ गोबर आदि से घाव के रास्ते शरीर में प्रवेश कर जाते हैं। | तेज बुखार और शरीर में ऐंठन होती है। जबड़े की माँस−पेशियाँ सिकुड़ी हुई अवस्था में जकड़ जाती हैं‚ जबड़े बंद हो जाते हैं। पूरा शरीर धनुष के आकार में तन जाता है। इसलिए इस रोग को धुनष्टकांर भी कहा जाता है। | एंटी-टिटनेस वैक्सीन‚ पेन्सिलीन तथा एंटीसीरम इंजेक्शन लगवाना। बच्चों को डीपीटी (DPT) का टीका लगवाना चाहिये। |
डिप्थीरिया | कोरोनी बैक्टीरियम डिप्थीरी जीवाणु | खाने की वस्तुओं से | जीवाणु गले में एक सफेद झिल्ली बनाकर श्वास नलिका को रुद्ध कर देते हैं‚ तेज बुखार या हृदय व मस्तिष्क क्षतिग्रस्त हो जाते हैं। | रोगी को अलग कमरे में रखना और एंटीसीरम का इंजेक्शन लगवाना। बच्चें को डीपीटी नामक टीका लगवाना (डीपीटी का टीका डिप्थीरिया‚ टिटनेस एवं कुकुरखाँसी से बचाता है।) |
तपेदिक या क्षय रोग (T.B.) | माइकोबैक्टीरियम ट्यूबरकुलोसिस जीवाणु | थूक‚ खाँसी‚ छींक‚ रोगी से सीधे संपर्क अथवा भोजन‚ जल तथा वायु के माध्यम से। | प्रारंभ में हल्का ज्वर तथा खाँसी आती है। बलगम काफी बढ़ जाता है। थकान एवं कमजोरी का अनुभव होता है। बलगम के साथ खून आने लगता है। | घर के कमरों को स्वच्छ एवं वायु‚ सूर्य के प्रकाश की समुचित व्यवस्था रखना। रोगी के संपर्क से बचना‚ बच्चों को B.C.G. का टीका लगवाना। |
काली खाँसी | बोर्डेटेला पर्टुसिस जीवाणु | हवा से। | लगातार खाँसी आना। | काली खाँसी का टीका (DPT) लगवाना |
कुष्ठ रोग | माइकोबैक्टीरियम लेप्री जीवाणु | लंबे समय तक कुष्ठ रोगी के संपर्क में रहने से। | शरीर के जिन स्थानों पर यह रोग होता है‚ वहाँ संवेदनशीलता समाप्त हो जाती है। इन स्थानों की त्वचा मोटी हो जाती है‚ नाड़ियाँ संकुचित हो जाती हैं तथा रंगहीन धब्बे बन जाते हैं अंतत: हाथों तथा पैरों की अंगुलियों में घाव उत्पन्न हो जाते हैं और ये गलकर विकृत हो जाते हैं। | सल्फा ड्रग का प्रयोग करना‚ घाव को साफ रखना। |
प्लेग | पास्ट्यूरेला पेस्टिस जीवाणु | पिस्सुओं से‚ जो संक्रमित चूहों के कीटाणु लिये होते हैं। | तेज बुखार‚ गर्दन एवं टाँगों में गिल्टियाँ निकल जाती हैं। कुछ प्रकार के प्लेगों में लाल रक्त कणिकाएँ नष्ट हो जाती हैं। | प्लेग के टीके लगवाना तथा चूहों को घर में नहीं आने देना। |
सिफलिस | ट्रैपोनेमा पैलिडम जीवाणु | रोगी के साथ संभोग करने से। | शिश्न एवं योनि में लाल रंग के दाने‚ बाद में शरीर पर चकत्ते तथा अंत में हृदय‚ यकृत व मस्तिष्क भी प्रभावित होता है। | पेनिसिलीन का सेवन |
गोनोरिया | नाइसेरिया गोनोरी | रोगी के साथ संभोग करने से | मूत्र-जनन पथ की म्यूकस का संक्रमण‚ जोड़ों में दर्द एवं प्रजनन क्षमता प्रभावित होती है। | रोगी व्यक्ति के साथ संभोग से बचना‚ एंटीबायोटिक औषधियों का प्रयोग करना। |
काला−जार | लीश्मैनिया डोनोवानी | बालूमक्खी (Sand Fly) के काटने से | तेज बुखार‚ पीलिया। | − |
पेचिस | एंटअमीबा हिस्टोलिटिका | अशुद्ध जल से। | सिर-दर्द तथा बुखार हो जाता है व पेट में मरोड़ उत्पन्न होते हैं‚ पखाने में रक्त के साथ−साथ परजीवी की पुटियाँ भी आती है। कभी−कभी परजीवी रक्त के साथ यकृत‚ हृदय फेफड़े और मस्तिष्क में भी पहुँच जाते हैं और वहाँ घाव कर देते हैं। | हरी सब्जियों को पोटैशियम परमैंग्नेट (KMnO4) में एक घंटा तक भिगोकर उपयोग में लाना। पानी उबालकर पीना। रोगी को पूरी सफाई से रखना। |
फाइलेरिया | वाउचेरिया बैंक्रोफ्टी गोलकृमि | क्यूलेक्स मच्छर से गंदे पानी में रोगाणु का जनन तेजी से होता है। | शरीर के अंग सूज कर बहुत मोटे हो जाते है‚ विशेषकर पाँव इसलिये इस रोग को ‘हाथीपाँव’ भी कहते हैं। रोग की शुरुआत के साथ ही तेज बुखार होता है। | स्वच्छ पानी का प्रयोग करना‚ क्यूलेक्स मच्छरों को मारने के लिए डाइएथिल कार्बेमेजीन का प्रयोग करना‚ हैट्रोजन एम.एस.ई. आिद दवाओं का सेवन करना। |
ऐस्केरिएसिस | ऐस्केरिस लुम्ब्रीकॉइडिस | भोजन से | पेट में दर्द होता है। वजन वृद्धि रुक जाती है। फेफड़ों में संक्रमण‚ ज्वर‚ साँस की तकलीफ का कारण बनता है। | स्वच्छता |
टीनिएसिस | टीनिया सोलियम परजीवी | संक्रमित सूअर का अधपका माँस खाने से | लक्षण स्पष्ट रूप से दिखाई नहीं पड़ते। केवल कभी−कभी अपच और पेट-दर्द होता है‚ किन्तु जब कभी आँत में लार्वा उत्पन्न हो जाते हैं और केंद्रीय तंत्रिका तंत्र आँखों‚ फेफड़ों‚ यकृत व मस्तिष्क में पहुँच जाते हैं‚ तो रोगी की मृत्यु हो जाती है। | सूअर का माँस पूरी तरह पकाकर ही खाना। |
एथलीट फुट | ट्राईकोफाइटॉन कवक | त्वचा में जलन | स्वच्छता | किसी भी प्रकार से इन कवकों के संपर्क में आने पर। |
खाज | सरकॉप्टस स्केबीज कवक | त्वचा में खुजली होती है तथा सफेद दाग पड़ जाते हैं। | स्वच्छता | |
दाद | ट्राइकोफाइटॉन कवक | त्वचा पर लाल रंग के गोले पड़ जाते हैं। | स्वच्छता |
•मच्छरों से फैलने वाले रोग : मलेरिया‚ डेंगू‚ चिकनगुनिया‚ मस्तिष्क ज्वर
•मक्खियों से फैलने वाले रोग : हैजा पेचिश/डायरिया
•दूषित जल और भोजन से होने वाले रोग : पीलिया‚ आंत्र ज्वर‚ हैजा
स्वच्छता एवं साफ सफाई
अच्छे स्वास्थ्य व पोषण के लिए स्वच्छ परिवेश एवं व्यक्तिगत स्वच्छता अत्यन्त आवश्यक है।
स्वच्छता एवं स्वास्थ्य का आपस में घनिष्ठ सम्बन्ध है। जिन स्थानों पर स्वच्छता का अभाव होता है वहाँ बीमारियों के संक्रमण का खतरा बढ़ जाता है। गन्दे हाथ‚ दूषित खाना या दूषित पानी के साथ बीमारियों के कीटाणु या विषाणु बच्चे के शरीर में प्रवेश कर जाते हैं जिससे बच्चे को संक्रमण से फैलने वाली बीमारी हो सकती है।
व्यक्तिगत स्वच्छता के नियम− व्यक्तिगत स्वच्छता हेतु निम्नलिखित व्यवहार आवश्यक है।
• रोज दैनिक क्रिया से निवृत्त होकर नहायें।
• हमेशा धुले साफ वध्Eा एवं चप्पल पहनें।
• बाल साफ रखें एवं नियमित रूप से नाखून काटे।
• भोजन से पूर्व हमेशा हाथ धोयें।
• शौच के पश्चात हमेशा साबुन से हाथ धोयें।
• शौच के लिए हमेशा शौचालय का प्रयोग करें।
• पीने का पानी स्वच्छ रखें।
• खुली सामग्री न खायें।
स्वच्छ परिवेश के नियम/व्यवहार− स्वच्छ परिवेश हेतु निम्नलिखित व्यवहार आवश्यक है−
• सार्वजनिक स्थानों पर गंदगी न फैलायें।
• कूड़ा−कूड़ेदान में ही फेंकें।
• आस−पास पानी इकट्ठा न होने दें।
• नालियों को साफ रखें।
• हमेशा शौचालय का प्रयोग करें। खुले में शौच जाने से पर्यावरण दूषित होता है जिससे कई तरह की बीमारियाँ होने का डर रहता है।
• बच्चे का मल शैचालय में ही फेंकें या डाले। खुले में पड़ा मल‚ जल‚ मिट्टी‚ हाथों और मक्खियों द्वारा संक्रमण फैला सकते हैं‚ जिससे दस्त आदि बीमारियाँ हो सकती हैं। इसलिए मल या बच्चे के मल को खुला न छोड़ें।
• इधर उधर न थूकें।
सुरक्षित पेयजल−
• सुरक्षित पेय जल के दोत‚ जैसे− इण्डिया मार्का हैण्ड पम्प या पाईप लाइन वाली टोटी या नल से निकलने वाले पानी को ही पीने का इस्तेमाल करें।
• पीने के पानी के दोत के पास की जगह को साफ रखे और पानी इकट्ठा न होनें दें।
• शौचालय को पीने के पानी के किसी भी दोत से कम से कम 9
मी. की दूरी पर बनवायें।
• घर पर पीने के पानी का सुरक्षित रख−रखाव करें।
स्वास्थ्य एवं स्वच्छता− स्वस्थ्य जीवन के लिए उत्तम स्वास्थ्य तथा स्वच्छ वातावरण होना आवश्यक है। आजकल हमारे आस−पास का वातावरण‚ हमारा भोजन तथा खान−पान दूषित हो चुका है। साथ ही हमारी दिनचर्या भी अस्त−व्यस्त हो चुकी है। इसका सीधा प्रभाव हमारे स्वास्थ्य पर पड़ रहा है। इस कारण हमार शरीर विभिन्न प्रकार के रोगों का घर बनता जा रहा है। निरोध रहने के लिए हमें अपने वातावरण को स्वच्छ रखना अत्यन्त आवश्यक है।
वर्तमान में दूषित जल‚ दूषित भोज्य पदार्थ तथा खेती में रसायनों एवं कीटनाशकों का अन्धाधुंध प्रयोग हमारे वातावरण को विषाक्त बना रहे हैं। समय रहते इसे रोकना अत्यन्त आवश्यक है। इसके लिए हम सभी को मिलजुल कर प्रयास करना होगा।
अपने वातावरण को स्वच्छ रखने की जिम्मेदारी देश के प्रत्येक नागरिक की होती है। स्वच्छता के प्रति अपने दायित्वों को पूरा करके हम न सिर्फ स्वयं स्वस्थ रह सकते हैं अपितु एक स्वस्थ देश के निर्माण में अहम भूमिका निभा सकते हैं। आइए हम सब इस पाठ के माध्यम से स्वच्छ भारत के निर्माण में अपने कत्र्तव्यों को समझें और जन−जन तक फैलायें। स्वच्छता के दो रूप हैं−
(1) व्यक्तिगत स्वच्छता
(2) सार्वजनिक या सामाजिक स्वच्छता।
1. व्यक्तिगत स्वच्छता− स्वस्थ रहने के लिए हमें अपने शरीर की साफ−सफाई करनी आवश्यक है जो व्यक्तिगत स्वच्छता कहलाती है। इसके अन्तर्गत दैनिक किये जाने वाले क्रियाकलापों‚ जैसे− प्रतिदिन स्नान करना‚ भोजन से पहले एवं भोजन करने के बाद हाथ धोना‚ स्वच्छ कपड़े पहनना एवं नियमित रूप से दाँत‚ बाल एवं नाखून की साफ−सफाई करना आवश्यक है। नीचे व्यक्तिगत स्वच्छता के अन्तर्गत किए जाने वाले क्रियाकलापों की रेखाचित्र एवं चित्रों के माध्यम से दर्शाया गया है−
2. सार्वजनिक या सामाजिक स्वच्छता− स्वस्थ जीवन के लिए व्यक्तिगत स्वच्छता के साथ−साथ सामाजिक स्वच्छता का ज्ञान भी अत्यन्त आवश्यक है। सामाजिक स्वच्छता से तात्पर्य आस−पड़ोस की स्वच्छता से है। दूसरे शब्दों में आस−पास के वातावरण की पूर्ण सफाई ही सामाजिक या सार्वजनिक स्वच्छता है। इसके अन्तर्गत गलियों−सड़कों की सफाई‚ नदियों‚ तालाबों व जलाशयों की साफ− सफाई‚ सार्वजनिक स्थल (जैसे− अस्पताल‚ रेलवे स्टेशन‚ विद्यालय‚ पार्क आदि) की स्वच्छता आवश्यक है।
सामाजिक स्वच्छता के प्रति जागरूकता के अभाव में लोग इधर− उधर कूड़ा कचरा फेंकते हैं तथा खुले में शौच करते हैं। इस कारण वातावरण में अनेक प्रकार के रोगाणु उत्पन्न हो जाते हैं। इस फेंके गये कूड़े−कचरे पर मच्छर‚ मक्खियाँ बहुतायत से पनपते हैं। यही मच्छर‚ मक्खियाँ अपने साथ जीवाणु एवं विषाणुओं को भी एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाते हैं। जब ये खुले रखे खाद्य− पदार्थों एवं पेय पदार्थों पर बैठते हैं तो उनके द्वारा लाये गये जीवाणु−विषाणु उन खाद्य पदार्थों‚ पेय पदार्थों में चले जाते हैं। जिसे खाने पीने से टाइफाइड‚ हैजा‚ डायरिया‚ पेट दर्द‚ आदि रोग हो जाते हैं। इसलिए हमें खुले में रखे हुए खाद्य पदार्थों को नहीं खाना चाहिए। यह हमारा दायित्व है कि हम अपने परिवेश को साफ−सुथरा रखें। यदि कोई व्यक्ति वातावरण को दूषित करता है तो उसे जागरूक करना भी हमारा परम कर्त्तव्य है।
अक्सर हम दैनिक उपयोग से निकली अनुपयोगी वस्तुओं को इधर−उधर फेंक देते हैं। इधर−उधर फेंकी वस्तुएँ ही धीरे−धीरे कचरे का रूप ले लेती हैं। घरों का कचरा‚ विद्यालयों में होने वाला कचरा‚ उद्योगों का कचरा अक्सर सड़कों के किनारे बड़े−बड़े पहाड़ के समान इकट्ठा रहता है। शाक−सब्जियों व फलों का कचरा‚ जीवों का मल− मूत्र आदि सब गलकर सड़ते रहते हैं इन्हें गीला कचरा कहते हैं।
शाक−सब्जियों के छिलके‚ सड़ी−गली सब्जियाँ‚ खराब फल‚ फलों के छिलके‚ फलों का रस निकालने के बाद शेष गूदा आदि गीले कचरे के उदाहरण हैं।
पॉलीथीन‚ प्लास्टिक की बनी वस्तुएँ‚ रबड़ की बनी वस्तुएँ (टायर‚ टूटे खिलौने) बिस्कुट‚ नमकीन आदि खाद्य सामग्रियों के फाइबर के डिब्बे‚ पैकेट आदि आसानी से नष्ट होते हैं‚ इन्हें सूखा कचरा कहते हैं।
गीला एवं सूखा कचरा एक ही कूड़ेदान में डालने से उसमें बदबू एवं कीड़े पैदा हो जाते हैं जो परिवेश की वायु को दूषित करते हैं। अगर गीले एवं सूखे कचरे को अलग−अलग कर दिया जाए तो गीले कचरे से खाद बनायी जा सकती है। जबकि सूखे कचरे को पुन: चक्रण कर वस्तुएँ बनायी जा सकती हैं। क्लीन सिटी ग्रीन सिटी योजना के अन्तर्गत नगर पालिका ने लोगों को गीला एवं सूखा कचरा अलग−अलग कूड़ेदान में इकट्ठा करने का सुझाव दिया है।
साथ ही इस बात पर भी जोर दिया है कि प्रत्येक नागरिक गीले कचरे को हरे रंग के कूड़ेदान में ही डालें और सूखे कचरे को नीले रंग के कूड़ेदान में ही डालें।
कचरों का उपयोग− घर तथा विद्यालयों निकले कूड़े या कचरे का उपयोग‚ हम कम्पोस्ट पिट बनाकर कर सकते हैं− कम्पोस्ट पिट− किसी मैदान में एक गड्ढा खोदें। इस गड्ढे में सबसे नीचे कुछ महीन कंकड़ बिछा दें। इसके बाद विद्यालय व घर से निकला कचरा इसमें डाल कर ढँक दें। इसे नम रखने के लिए सप्ताह में एक या दो दिन बाद गड्ढे में पानी डालें‚ इस तरह तीन से चार महीने में कचरे से खाद बन कर तैयार हो जायेगी। इसका प्रयोग विद्यालय के बगीचों में किया जा सकता है।
स्वच्छता एवं सफाई का महत्त्व− अच्छे स्वास्थ्य के लिए पोषण के साथ−साथ स्वच्छता भी समान रूप से आवश्यक है। जिस प्रकार के अभाव में हम स्वस्थ नहीं रह सकते हैं‚ उसी प्रकार स्वच्छता के अभाव में भी हमारा शरीर स्वस्थ नहीं रह सकता है। दूषित जल एवं गन्दे वातावरण में अनेकों हानिकारक जीव−जन्तु जैसे मक्खी‚ मच्छर‚ खटमल‚ चूहे एवं सूक्ष्म जीव जैसे− जीवाणु‚ विषाणु इत्यादि पनपते हैं‚ जो हमारे शरीर में मलेरिया‚ फाइलेरिया‚ पीलिया‚ हैजा‚ डायरिया‚ दस्त‚ प्लेग जैसी बीमारियाँ फैलाते हैं। शरीर को अच्छी तरह से साफ न करने से शरीर पर अनेक कीटाणु पनप सकते हैं एवं हमारे शरीर में उन कीटाणुओं से संक्रमण हो सकता है। गन्दे हाथों से भोजन करने पर कीटाणु शरीर के अन्दर प्रवेश करके हमें बीमार कर देते हैं। इन बीमारियों के कारण हमारा स्वास्थ्य प्रभावित होता है।
स्वस्थ रहने के लिए हमें व्यक्तिगत स्वच्छता और अपने आस−पास के वातावरण को भी स्वच्छ रखना आवश्यक है।
शौचालय का प्रयोग एवं महत्त्व−
• शौच के लिए सदैव शौचालय का प्रयोग करना चाहिए।
• विद्यालय में छात्र एवं छात्राओं के लिए अलग−अलग शौचालय की व्यवस्था होनी चाहिए। शौचालय में स्वच्छ जल‚ साबुन एवं तौलिए की उचित व्यवस्था होनी चाहिए।
• शौच के लिए साफ मग या बाल्टी में स्वच्छ पानी का प्रयोग करना चाहिए।
• शौच क्रिया के पहले एवं बाद में शौचालय सीट को पानी से अवश्य साफ करना चाहिए।
• शौचालय के आस−पास गंदगी नहीं करनी चाहिए। यथास्थान (शौचालय शीट) का ही प्रयोग करना चाहिए।
• शौचालय में नंगे पैर नहीं जाना चाहिए। शौच क्रिया के बाद हाथ−पैर को साबुन से अच्छी तरह से धोना चाहिए।
शौचालय की स्वच्छता हेतु ध्यान देने योग्य बातें
• शौचालय से निकलने वाले अपशिष्ट पदार्थों के निस्तारण के लिए सोकपिट की व्यवस्था होनी चाहिए।
• शौचालय में कुण्डीयुक्त दरवाजे लगे होने चाहिए।
• बाल्टी या मग को यथास्थान ही रखना चाहिए। इधर−उधर फेंकना नहीं चाहिए।
• शौचालय की प्रत्येक सप्ताह में उत्तम कीटनाशक पदार्थों द्वारा सफाई करनी चाहिए।
• सीवर या सोकपिट को समय−समय पर साफ कराना चाहिए।
खुले में शौच करने के दुष्प्रभाव
− वर्तमान में भारत की लगभग आधी आबादी ये नहीं जानती है कि खुले में शौच जाने से न सिर्फ उनके स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है बल्कि वातावरण भी दूषित होता है। खुले में शौच मानव जीवन के स्वास्थ्य को निम्नलिखित प्रकार से प्रभावित करता है−
• जल दोतों में संक्रमण होता है जिसके कारण इसका पानी पीने योग्य नहीं रह जाता है।
• मनुष्य को कृमि संबंधी रोग हो सकते हैं। खासतौर पर बच्चों के स्वास्थ्य पर ज्यादा प्रभाव पड़ता है।
• सड़क के किनारे तथा झाड़ियों के बीच शौच करते समय साँप और कीड़ों का भय बना रहता है।
• बरसात के मौसम में बाहर शौच करने से संक्रमण का खतरा और भी अधिक बढ़ जाता है। खुले मैदान में पड़े मल−मूत्र वर्षा के जल के साथ बह कर नदी‚ तालाब आदि जलाशयों में मिल जाते हैं।
जिससे संक्रमण और बढ़ जाता है।
• घरों में शौचालय न होने से महिलाओं एवं लड़कियों को खुले में जाना पड़ता है जो उनके लिए असुविधाजनक एवं असुरक्षित है।
• बीमारी एवं संक्रमण फैलाने वाले रोगाणुओं से बचने का सबसे आसान‚ सस्ता और प्रभावी तरीका साबुन से हाथ धोना है। इसलिए बच्चों में यह आदत विकसित करने के उद्देश्य से 15 अक्टूबर को विश्व हाथ धुलाई दिवस के रूप में मनाया जाता है।
स्वच्छ भारत के लिए किए जा रहे जागरूकता अभियान− उत्तर प्रदेश सरकार ने प्रधानमंत्री सरकारी योजना के अंतर्गत ‘‘उत्तर प्रदेश शौचालय निर्माण योजना (2017−18) की शुरुआत की।
इसका मुख्य उद्देश्य पूरे उत्तर प्रदेश को खुले में शौच से मुक्त करना है। इस योजना के अंतर्गत सरकार सभी गरीबों को धनराशि दे रही है ताकि वह अपने−अपने घर में शौचालय बनवा सकें। उत्तर प्रदेश सरकार 12‚000 रुपये राष्ट्रीय आवेदनकर्ता के खाते में डालेगी।
स्वच्छ भारत के निर्माण के लिए भारत सरकार द्वारा समय−समय पर केन्द्रीय ग्रामीण स्वच्छता कार्यक्रम (सी.आर.एस.पी.)‚ पूर्ण स्वच्छता अभियान (टी.एस.सी.)‚ स्वच्छ भारत अभियान जैसे जागरूकता अभियान चलाये जाते हैं।
उपरोक्त अभियान का मुख्य उद्देश्य अल्प लागत से शौचालय बनाना साथ ही दूसरी सुविधाएँ जैसे− हैण्डपम्प‚ जल निकासी व्यवस्था‚ गाँव की सफाई इत्यादि सुनिश्चित करता है।
स्वच्छ भारत अभियान
• स्वच्छ भारत अभियान भारत सरकार द्वारा आरंभ किया गया राष्ट्रीय स्तर का अभियान है जिसका उद्देश्य गलियों सड़कों तथा आस−पास के क्षेत्रों को साफ−सुथरा करना और कूड़ा साफ रखना है।
• इस अभियान की शुरूआत महात्मा गाँधी के 150वें जन्मदिन 2 अक्टूबर 2014 को प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी के द्वारा की गई।
• इस अभियान का नारा है− ‘न गंदी करेंगे− न करने देंगे।’
• पहले तीन 100% खुले में शौच मुक्त (ODF) राज्य हैं− सिक्किम‚ हिमाचल प्रदेश और केरल।
• स्वच्छ भारत अभियान के ब्राण्ड अम्बेसडर अमिताभ बच्चन हैं।
• वर्तमान समय में भारत के पाँच राज्य ओ.डी.एफ. घोषित किये गये हैं− सिक्किम‚ हिमाचल प्रदेश‚ केरल‚ उत्तरखण्ड और हरियाणा।
• भारत का सबसे स्वच्छ शहर है− इंदौर
• भारत का सबसे गंदा शहर है− गुरुग्राम दरवाजा बंद अभियान दरवाजा बंद अभियान 30 मई 2017 को केन्द्र सरकार द्वारा शुरू की गई। जिसका मूल उद्देश्य ऐसे लोगों के व्यवहार में परिवर्तन लाना है‚ जो घरों में शौचालय होने के बावजूद उसका प्रयोग नहीं करते हैं। इसके ब्राण्ड एम्बेसडर अमिताभ बच्चन तथा अनुष्का शर्मा को बनाया गया है।
विश्व शौचालय दिवस
• विश्व शौचालय दिवस प्रत्येक वर्ष 19 नवम्बर को मनाया जाता है।
• वर्ष 2018 में मनाये गये ‘विश्व शौचालय दिवस’ का मुख्य विषय रहा− ‘When Nature Calls’
• देश का पहला स्वच्छता प्राप्त करने वाला राज्य सिक्किम है।
टीकाकरण या प्रतिरक्षण− प्रत्येक व्यक्ति में रोगों से बचाव की प्राकृतिक दक्षता होती है। जब किसी बीमारी के रोगाणु (जीवाणु या विषाणु) शरीर में प्रवेश करते हैं‚ तो साधारणत: शरीर की प्राकृतिक बचाव क्षमता (प्रतिरोधक क्षमता) कम हो जाती है तो रोगग्रस्त होने की आशंका बढ़ जाती है। अत: शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता को बनाए और बढ़ाए रखने की आवश्यकता होती है। कुछ रोगों की रोकथाम के लिए बच्चों को सही समय पर टीके लगवाना एवं ड्राप पिलाना आवश्यक होता है। इससे शरीर में रोगों से लड़ने की क्षमता उत्पन्न होती है। बच्चों को समय−समय पर आवश्यक टीका लगवाने एवं ड्रॉप (ओरल ड्रॉप) पिलाने से कई घातक रोगों से उन्हें बचाया जा सकता है। ये ड्रॉप एवं टीके सभी प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों पर नि:शुल्क पिलाए एवं लगाये जाते हैं।
जैसे− पोलियो ड्रॉप‚ चेचक‚ टिटनेस‚ खसरे एवं काली खाँसी इत्यादि।
रोग और उनसे बचाव के टीके
रोग | बचाव का टीका |
टिटनेस | डी.पी.टी. |
काली खाँसी | डी.पी.टी. |
पोलियो | पोलियो टीका डीप्थीरिया डी.पी.टी. |
तपेदिक | बी.सी.जी. |
टायफाइड | टी.ए.बी |
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• डी.पी.टी. के तीन टीके लगवाना और पोलियो की तीनों खुराक देनी चाहिए अन्यथा टीकों का प्रभाव नहीं रहता है।
पल्स पोलियो कार्यक्रम
• पोलियो को पूर्ण रूप से खत्म करने के लिए भारत सरकार ने पल्स पोलियो कार्यक्रम की शुरूआत 1995−96 में की थी।
उल्लेखनीय है कि ये कार्यक्रम अब भी संचालित है और इसके अन्तर्गत 0−5 वर्ष की आयु के बच्चों की पोलियों की दवा पिलाई जाती है।
• इसके सफल क्रियान्वयन के लिए प्रति वर्ष सरकार द्वारा निर्धारित तिथियों को सरकारी अस्पतालों में शिविर लगाये जाते हैं। परिवार कल्याण विभाग द्वारा आकाशवाणी तथा दूरदर्शन के माध्यम से भी आने वाली भयंकर बीमारी से बचा जा सकता है।
धूम्रपान (Smoking)
• धूम्रपान एवं मदिरा का सेवन दोनों स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होती है। इसके प्रयोग से शरीर के तंत्रिका तंत्र पर सीधा प्रभाव पड़ता है। इनका अधिक सेवन व्यक्ति को कमजोर तथा संवेदन शून्य कर देता है तथा कई भयंकर बीमारियों को पैदा होने की स्थिति बनाता है।
• धूम्रपान अधिक करने से श्वास संबंधी विभिन्न रोग (फेफड़ों का कैंसर तक) हो जाते हैं। अधिक मदिरा का सेवन व्यक्ति के यकृत को प्रभावित करता है। उसकी कार्यक्षमता घट जाती है।
इनके परिणामस्वरूप मृत्यु भी हो सकती है।
चिकित्सा संबंधी आविष्कार एवं आविष्कारक
पेनीसिलिन −एलेक्जेंडर फ्लेमिंग
विटामिन ‘ए’ −मैकुलन
विटामिन ‘बी’ −मैकुलन
विटामिन ‘सी’ −युजोक्ट होल्कट
विटामिन ‘डी’ −F.C. हॉकिन्स
स्टेथोस्कोप −रेनेलैनक
हैजे का टीका −रॉबर्ट कोच
डी.डी.टी. का टीका −पॉल मूलर
बेरी−बेरी रोग की चिकित्सा −आइजकमैन
पोलियो का टीका −जॉन ई. साल्क
हृदय प्रत्यारोपण −क्रिश्चियन बनार्ड
RNA −वाटसन तथा आर्थर अर्ग
DNA −वाटसन तथा क्रिक
इन्सुलिन −बेंटिंग
क्लोरोफॉर्म −हैरिसन तथा सिम्पसन
T.B. बैक्टीरिया −रॉबर्ट कोच
B.C.G. −यूरिन कालमेट नोट−
डिप्थीरिया‚ काली खाँसी और टिटनेस बीमारियों को दूर करने के लिए टीका लगाया जाता है जिसे डी.पी.टी. (DPT) का टीका कहते हैं।
• राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण कार्यक्रम – 1992
• प्रजनन एवं बाल स्वास्थ्य कार्यक्रम – 1997–98
• पल्स पोलियो कार्यक्रम – 1995–96
• जननी सुरक्षा योजना – 2003–04
कुछ महत्त्वपूर्ण तथ्य
• जल कैलोरी−फ्री आहार होता है। इसलिये एक ग्लास पानी पीने से मिलने वाली कैलोरी की मात्रा शून्य होती है।
• रक्त में पोटैशियम‚ कैल्शियम‚ सोडियम तथा लौह का समुचित अनुपात हृदय की गति तथा अन्य चिकनी मांस-पेशियों को उत्तेजित करने एवं उनमें संकुचन की क्रिया संपन्न करने के लिए आवश्यक है।
• प्रोटीन अमीनो अम्ल से निर्मित होते हैं। अमीनों अम्ल मानव शरीर में संगृहीत नहीं रहते हैं।
• जंतु एवं वनस्पति दोतों में लौह का सर्वाधिक अंश हरी पत्तेदार सब्जियों में मिलता है।
• पपीते में मुख्य रूप से विटामिन−C पाया जाता है जिसकी मात्रा पाए जाने वाले विटामिन A, B1, B2, फॉलिक एसिड‚ पैंटोथेनिक अम्ल आदि से कहीं अधिक होती है।
• जीवित पदार्थ में सर्वाधिक मात्रा में जल (अकार्बनिक) पाया जाता है‚ परन्तु कार्बनिक पदार्थों में सर्वाधिक मात्रा में प्रोटीन पाया जाता है।