ब्रिटिश शासन की स्थापना के उपरांत कई उद्योग-धंधों का विनाश हुआ जिसके फलस्वरूप कृषि पर निर्भरता बढ़ी। कृषि में भू-राजस्व नीति के चलते ऋणग्रस्तता जैसी परेशानियों से जूझना पड़ा। ब्रिटेन के हितों की पूर्ति के लिए भारत में ईस्ट इंडिया कम्पनी ने आर्थिक नीतियाँ बनायीं।
कम्पनी की आमदनी
1765 ई. में कम्पनी के दीवान बनने के बाद राजस्व वसूली अनियमित तरीके से शुरू हुई। पाँच साल के भीतर बंगाल से खरीदी गयी वस्तुओं की कीमत दोगुनी हो गयी। 1865 ई. के उपरांत सोने-चाँदी के बदले सामान का फेरबदल चलता था परन्तु अब बंगाल से वसूले पैसे से निर्यात संभवत: आसान था। 1770 ई. में पड़े अकाल से बंगाल की एक-तिहाई आबादी नष्ट हो गयी, अर्थव्यवस्था अस्त-व्यस्त हुई, किसान ऋणग्रस्त हुए, मज़दूर काम की तलाश में पलायन करने पर उतारू हुए। यह सब जबरन कम कीमतों पर अपना सामान कम्पनी को बेचने के कारण और भी बढ़ा।
स्थायी बन्दोबस्त
1793 ई. में स्थायी बन्दोबस्त की नीति लागू की गयी। इसमें जमींदारों का दर्जा राजाओं और तालुकदारों को मिला और उनकी चुकाई जाने वाली राजस्व राशि भी नियमित थी। इस नीति के पीछे की कूटनीति यह थी कि अंग्रेज चाहते थे कि ज़मीन सुधार में पैसा लगाया जाए ताकि उन्हें राजस्व मिलता रहे। जो ज़मींदार राजस्व कीमत चुकाने में विफल रहते थे उनकी ज़मींदारी खत्म होती थी और कुछ को नीलामी का सामना करना पड़ता था। जब 19वीं सदी में खेती में सुधार आने से आर्थिक दशा सुधरी तो सिवाए ब्रिटिश सरकार के सभी को उसका फायदा हुआ। कारण था राजस्व की नियमित कीमतें पहले से तय कर देना।
रैयतवाड़ी व्यवस्था
कैप्टन एलेक्जेण्डर रीड द्वारा व्यावहारिक तौर पर चली इस व्यवस्था का थॉमस मूनरो ने दक्षिण भारत में पूर्णत: लागू किया। इस व्यवस्था के पीछे मूनरो और रीड की मंशा सीधे किसानों (रैयतों) से वास्ता बनाना था। वह मानते थे कि एक पिता की भाँति किसान और कम्पनी का रिश्ता कायम हो। इसके विपरीत समान धरोहर पर उत्तर भारत में होल्ट मैकेंजी ने महलवाड़ी व्यवस्था को शुरू किया।
यूरोप के लिए फसलें
यूरोप में बढ़ती माँग को पूरा करना केवल ग्रामीण क्षेत्र के अधिकार में था। 19वीं सदी की शुरुआत और 18वीं सदी के अन्त में नील और अफीम की खेती पर जोर दिया गया। ये यूरोप में निर्यात होने वाली महत्त्वपूर्ण फसलें थीं। इसके अलावा असम में चाय, बंगाल में पटसन, उत्तर प्रदेश में गन्ना, पंजाब में गेहूँ व कपास, मद्रास में चावल, महाराष्ट्र में कपास की लगभग 150 वर्षों तक खेती होती रही।
भारतीय नील की माँग
13वीं सदी तक इटली, फ्रांस और ब्रिटेन के उत्पादक भारतीय नील पर निर्भर रहे। 17वीं सदी के पश्चात् फ्रांस, ब्राज़ील, जमैका, वेनेजुएला और उत्तरी अमेरिका में नील के बागान सामने आए। औद्योगिकीकरण का ब्रिटेन में आगमन हुआ जिसके साथ कपास का उत्पादन बढ़ा और उसकी रंगाई के लिए नील की माँग बढ़ी। कई कारणों से 1783 ई. से 1789 ई. में नील उत्पाद दुनियाभर में आधा हुआ और हरेक को नील की खेती का स्रोत दिखा – भारत।
भारत में ब्रिटेन की बढ़ती दिलचस्पी
बाजार में नील की माँग की गहमागहमी ने भारतीय नील की माँग और यूरोप की भारत में दिलचस्पी को बढ़ावा दिया। 1788 ई. में भारतीय नील का हिस्सा 30 प्रतिशत था, वह 1810 ई. में बढ़कर 95 प्रतिशत हो चुका था। नील की खेती के इस मुनाफे ने कई कर्मचारियों को नौकरी त्यागने और इंग्लैण्ड और स्कॉटलैंड से यहाँ आकर कर्ज़ा उठाकर नील के बागान चलाने के लिए प्रोत्साहित किया।
‘नील विद्रोह’ और उसके बाद
मार्च 1859 ई. में विद्रोह की लहर दौड़ी। यह विद्रोह था नील की खेती ना करने को लेकर। इस विद्रोह को ‘नील विद्रोह’ के नाम से जाना गया, जिसमें न केवल रैयत बल्कि महिलाओं का भी आक्रोश देखने को मिला। रैयत इस हद तक आक्रोश में थे कि लगान वसूली, एजेण्टों की पिटाई, लठियालों का विद्रोह और कर्ज़ा लेकर खेती न करने जैसी बातों को निर्भयता से सामने लाये। 1857 ई. के विद्रोह के बाद अचानक उठे 1859 ई. में दूसरे विद्रोह से अंग्रेजी सरकार हिल गयी। इसके मद्देनजर लेफ्टिनेंट गवर्नर ने इलाकों का दौरा कर एक कमेटी बनायी जिसमें पाया गया कि बागान मालिक शत-प्रतिशत दोषी हैं। इस आंदोलन की दूसरी लहर 1917 ई. में बिहार के चम्पारण जिले में महात्मा गाँधी द्वारा चलाये गये आंदोलन में दिखी।