मुगल बादशाहों में औरंगज़ेब आखिरी शक्तिशाली बादशाह था। उसने वर्तमान भारत के एक बहुत बड़े हिस्से पर नियंत्रण स्थापित कर लिया था। 1707 ई. में उसकी मृत्यु के बाद सारे मुगल सूबेदार और बड़े-बड़े ज़मींदार अपनी ताकत दिखाने लगे थे। इन ज़मींदारों ने अपनी क्षेत्रीय रियासतें कायम कर ली थीं। जैसे-जैसे विभिन्न भागों में ताकतवर क्षेत्रीय रियासतें सामने आने लगीं, दिल्ली अधिक दिनों तक प्रभावी केन्द्र के रूप में नहीं रह सकी। 18वीं सदी के उत्तरार्द्ध तक राजनीतिक क्षितिज पर अंग्रेजों के रूप में एक नयी ताकत उभरने लगी थी।
पूर्व में ईस्ट इंडिया कम्पनी का आना
1600 ई. में ईस्ट इंडिया कम्पनी ने इंग्लैण्ड की महारानी एलिजाबेथ प्रथम से चार्टर अर्थात् इजाज़तनामा हासिल कर लिया जिससे कम्पनी को पूर्व से व्यापार करने का एकाधिकार मिल गया। इस इजाज़तनामे का मतलब यह था कि इंग्लैण्ड की कोई और व्यापारिक कम्पनी इस इलाके में ईस्ट इंडिया कम्पनी से होड़ नहीं कर सकती थी। इस चार्टर के सहारे कम्पनी समुद्र पार जाकर नये इलाकों को खंगाल सकती थी। वहाँ से सस्ती कीमत पर चीजें खरीद कर उन्हें यूरोप में ऊँची कीमत पर बेच सकती थी।
ईस्ट इंडिया कम्पनी द्वारा बंगाल में व्यापार की शुरुआत
पहली इंग्लिश फैक्टरी 1651 ई. में हुगली नदी के किनारे शुरू हुई। कम्पनी के व्यापारी यहीं से अपना काम चलाते थे। इन व्यापारियों को उस ज़माने में ‘फैक्टर’ कहा जाता था। इस फैक्टरी में वेयर हाऊस था जहाँ निर्यात होने वाली चीजों को जमा किया जाता था। यहीं उसके दफ्तर थे जिनमें कम्पनी के अफसर बैठते थे। जैसे-जैसे व्यापार फैला कम्पनी ने सौदागरों और व्यापारियों को फैक्टरी के आस-पास आकर बसने के लिए प्रेरित किया।
1696 ई. तक कम्पनी ने एक आबादी के चारों तरफ एक किला बनाना शुरू कर दिया था। दो साल बाद उसने मुगल अफसरों को रिश्वत देकर तीन गाँवों की ज़मींदारी भी खरीद ली। इनमें से एक गाँव कालीकाता था, जो बाद में कलकत्ता बना। अब इसे कोलकाता कहा जाता है। कम्पनी ने मुगल सम्राट औरंगज़ेब को इस बात के लिए भी तैयार कर लिया कि वह कम्पनी को बिना शुल्क चुकाए व्यापार करने का फरमान जारी कर दे। अंग्रेजों के आने से पहले पुर्तगालियों ने भारत के पश्चिमी तट पर उपस्थिति दर्ज करा दी थी। वे गोवा में अपना ठिकाना बना चुके थे। पुर्तगाल के खोजी यात्री वास्को डी गामा ने ही 1498 ई. में पहली बार भारत तक पहुँचने के इस समुद्री मार्ग का पता लगाया था। 17वीं शताब्दी की शुरुआत तक डच भी हिन्द महासागर में व्यापार की सम्भावनाएँ तलाशने लगे थे। कुछ ही समय बाद फ्रांसीसी व्यापारी भी सामने आ गये। समस्या यह थी कि सारी कम्पनियाँ एक जैसी चीजें ही खरीदना चाहती थीं। यूरोप के बाज़ारों में भारत के बने बारीक सूती कपड़े और रेशम की जबरदस्त माँग थी। इनके अलावा काली मिर्च, लौंग, इलायची और दालचीनी की भी जबरदस्त माँग रहती थी। यूरोपीय कम्पनियों के बीच इस बढ़ती प्रतिस्पर्द्धा से भारतीय बाज़ारों में इन चीजों की कीमतें बढ़ने लगीं और उनसे मिलने वाला मुनाफा गिरने लगा। अब इन व्यापारिक कंपनियों के लिए फलने-फूलने का यही एक रास्ता था कि वे अपनी प्रतिस्पर्द्धी कम्पनियों को खत्म कर दें। इसलिए बाज़ारों पर कब्ज़े की इस होड़ ने व्यापारिक कम्पनियों के बीच लड़ाइयों की शुरुआत कर दी। अपनी व्यापारिक चौकियों की किलेबन्दी करने और व्यापार में मुनाफा कमाने की कोशिशों के कारण स्थानीय शासकों से भी टकराव होने लगे।
व्यापार से युद्धों तक
18वीं सदी की शुरुआत में कम्पनी और बंगाल के नवाबों का टकराव काफी बढ़ गया था। औरंगजे़ब की मृत्यु के बाद बंगाल के नवाब अपनी ताकत दिखाने लगे थे। मुर्शिद कुली खान के बाद अली वर्दी खान और उसके बाद सिराजुद्दौला बंगाल का नवाब बना। उसने कम्पनी को रियायतें देने से मना कर दिया। व्यापार का अधिकार देने के बदले कम्पनी से नज़राने माँगे, उसे सिक्के ढालने का अधिकार नहीं दिया और उसकी किलेबन्दी को बढ़ाने से रोक दिया। कम्पनी पर धोखाधड़ी का आरोप लगाते हुए उसने दलील दी कि उसकी वजह से बंगाल सरकार की राजस्व वसूली कम होती जा रही है और नवाबों की ताकत कमजोर पड़ रही है। कम्पनी कर देने को तैयार नहीं थी, उसके अफसरों ने अपमानजनक चिट्ठियाँ लिखी और नवाबों व उनके अधिकारियों को अपमानित करने का प्रयास किया।
ये टकराव दिनों-दिन गम्भीर होते गये। अन्तत: इन टकरावों की परिणति प्लासी के प्रसिद्ध युद्ध के रूप में हुई।
प्लासी का युद्ध
1756 ई. में अली वर्दी खान की मृत्यु के बाद सिराजुद्दौला बंगाल के नवाब बने। कम्पनी को सिराजुद्दौला की ताकत से काफी भय था। सिराजुद्दौला की जगह कम्पनी एक ऐसी कठपुतली को नवाब चाहती थी जो उसे व्यापारिक रियायतें और अन्य सुविधाएँ आसानी से देने में आनाकानी न करे। कम्पनी ने प्रयास किया कि सिराजुद्दौला के प्रतिद्वन्द्वियों में से किसी एक को नवाब बना दिया जाए। कम्पनी को कामयाबी नहीं मिली। जवाब में सिराजुद्दौला ने हुक्म दिया कि कम्पनी उनके राज्य के राजनीतिक मामलों में टाँग अड़ाना बन्द कर दे, किलेबन्दी रोके और बाकायदा राजस्व चुकाए। जब दोनों पक्ष पीछे हटने को तैयार नहीं हुए तो अपने 30,000 सिपाहियों के साथ नवाब ने बाज़ार में स्थित इंग्लिश फैक्टरी पर हमला बोल दिया। उनके अफसरों को गिरफ्तार कर लिया और गोदाम पर ताला डाल दिया। नवाब ने कलकत्ता स्थित किले पर कब्जे के लिए उधर का रुख किया। कलकत्ता के हाथ से निकल जाने की खबर सुनने पर मद्रास में तैनात कम्पनी के अफसरों ने भी रॉबर्ट क्लाइव के नेतृत्व में सेनाओं को रवाना कर दिया। इस सेना को 9 सैनिक बेड़े की मदद भी मिल रही थी। इसके बाद लम्बे समय तक सौदेबाजी चली। आखिरकार 1757
ई. में रॉबर्ट क्लाइव ने प्लासी के मैदान में सिराजुद्दौला के खिलाफ कम्पनी की सेना का नेतृत्व किया। इस युद्ध में सिराजुद्दौला की हार हुई। नवाब सिराजुद्दौला की हार का एक बड़ा कारण उसके सेनापतियों में से एक सेनापति मीर जाफर की कारगुज़ारियां भी थीं। जाफर की टुकड़ियों ने युद्ध में हिस्सा नहीं लिया। जाफर को नवाब बना दिया गया। प्लासी का युद्ध इसलिए जरूरी माना जाता है, क्योंकि इसमें कम्पनी की बड़ी जीत हुई, सिराजुद्दौला को मार दिया गया और जाफर नवाब बना। कम्पनी अभी भी शासन की जिम्मेदारी संभालने को तैयार नहीं थी। उद्देश्य व्यापार को बढ़ाना था। मीर जाफर ने कम्पनी का विरोध किया तो कम्पनी ने उसे हटाकर मीर कासिम को नवाब बना दिया। जब मीर कासिम परेशान करने लगा तो बक्सर की लड़ाई (1764 ई.) में उसे भी हराना पड़ा। उसे बंगाल से बाहर कर दिया। जाफर को दोबारा नवाब बनाया गया। अब नवाब को हर महीने पाँच लाख रुपये कम्पनी को चुकाने थे। जब 1757 ई. में जाफर की मृत्यु हुई, तब तक कम्पनी के इरादे बदल चुके थे। कठपुतली नवाबों के साथ अपने खराब अनुभवों को देखते हुए क्लाइव ने ऐलान किया कि अब हमें खुद ही नवाब बनना पड़ेगा।
1765 ई. में मुगल सम्राट ने कम्पनी को ही बंगाल प्रान्त का दीवान नियुक्त कर दिया। इस तरह कम्पनी की एक पुरानी परेशानी हल हो गयी थी।
कम्पनी के अफसर ‘नवाब’ बन बैठे
प्लासी के युद्ध के बाद बंगाल के असली नवाबों को इस बात के लिए बाध्य कर दिया गया कि वे कम्पनी के अफसरों को निजी तोहफे के तौर पर जमीन और बहुत सारा पैसा दें। खुद रॉबर्ट क्लाइव ने ही भारत में बेहिसाब दौलत जमा कर ली। वह 1743 ई. में इंग्लैण्ड से मद्रास आया था। उस समय उसकी आयु 18 वर्ष थी। 1767 ई. में जब वह दो बार गवर्नर बनने के बाद हमेशा के लिए भारत से चला गया तो यहाँ उसकी दौलत 401102 पाउण्ड के बराबर थी। गवर्नर को अपने दूसरे कार्यकाल में कम्पनी के अन्दर फैले भ्रष्टाचार को खत्म करने का काम सौंपा। लेकिन 1772 ई. में ब्रिटिश संसद में उसे खुद भ्रष्टाचार के आरोपों पर अपनी सफाई देनी पड़ी। सरकार को उसकी अकूत सम्पत्ति के स्रोत मिल रहे थे। उसे भ्रष्टाचार के आरोपों से बरी तो कर दिया, लेकिन 1774 ई. में उसने आत्महत्या कर ली।
कम्पनी का फैलता शासन
बक्सर की लड़ाई के बाद कम्पनी ने भारतीय रियासतों में रेजिमेण्ट तैनात कर दिये। ये कम्पनी के राजनीतिक या व्यावसायिक प्रतिनिधि होते थे। उनका काम कम्पनी के हितों की रक्षा करना, उनको आगे बढ़ाना था। अगला राजा कौन होगा, किस पद पर किसको बिठाया जाएगा, इस तरह की चीजें भी कम्पनी के अफसर ही तय करना चाहते थे। कई बार कम्पनी ने रियासतों पर ‘सहायक सन्धि’ भी थोप दी। जो रियासत इस बन्दोबस्त को मान लेती थी उसे अपनी स्वतंत्र सेनाएं रखने का अधिकार नहीं रहता था। उसे कम्पनी की तरफ से सुरक्षा मिलती थी और ‘सहायक सेना’ के रख-रखाव के लिए कम्पनी को पैसा दिया जाता था। अगर भारतीय शासक रकम अदा करने में चूक जाते थे तो जुर्माने के तौर पर उनका इलाका कम्पनी अपने कब्जे में ले लेती थी।
मराठों से लड़ाई
18वीं शताब्दी के अन्त से कम्पनी मराठों की ताकत को भी काबू और खत्म करने के बारे में सोचने लगी थी। 1761 ई. में पानीपत की तीसरी लड़ाई में हार के बाद दिल्ली से देश का शासन चलाने का मराठों का सपना चूर-चूर हो गया। उन्हें कई राज्यों में बाँट दिया। इन राज्यों की बागडोर सिन्धिया, होलकर, गायकवाड़ और भोसले जैसे अलग-अलग राजवंशों के हाथों में थी। ये सारे सरदार एक पेशवा के अंतर्गत एक कन्फेडरेसी के सदस्य थे। पेशवा इस राज्य मण्डल का सैनिक और प्रशासकीय प्रमुख होता था और पुणे में रहता था।
टीपू सुल्तान ‘शेर-ए-मैसूर’
जब कम्पनी को अपने राजनीतिक, आर्थिक हितों पर खतरा दिखाई दिया, तो कम्पनी ने प्रत्यक्ष सैनिक टकराव का रास्ता भी अपनाया। हैदर अली (शासनकाल 1761 से 1782 ई.) और उनके विख्यात पुत्र टीपू सुल्तान (शासनकाल 1782 से 1799 ई.) जैसे शक्तिशाली शासकों के नेतृत्व में मैसूर काफी ताकतवर हो चुका था। मालाबार तट पर होने वाला व्यापार मैसूर रियासत के नियंत्रण में था जहाँ से कम्पनी काली मिर्च और इलायची खरीदती थी।
1785 ई. में टीपू ने अपनी रियासत में पड़ने वाले बन्दरगाहों से चन्दन की लकड़ी, काली मिर्च, इलायची का निर्यात रोक दिया। सुल्तान ने स्थानीय सादागरों को भी कम्पनी के साथ कारोबार करने से रोक दिया था। टीपू सुल्तान ने भारत में रहने वाले फ्रांसीसी व्यापारियों से घनिष्ठ सम्बन्ध विकसित किये और सुल्तान के इन कदमो ं से अगं ेज्र आग-बबूला हो गये। मैसूर के साथ अंग्रेजों के चार बार युद्ध हुए (1767-69 ई., 1780-84 ई., 1790-92 ई. और 1799 ई.)। अपनी राजधानी की रक्षा करते हुए टीपू मारे गये। मैसूर का राजकाज पुराने वाडियार राजवंश के हाथों में सौंप दिया गया और सहायक सन्धि थोप दी गयी। कम्पनी ने मराठों को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया। पहला युद्ध 1782 ई. में सालवाई सन्धि में खत्म हुआ। दूसरा अंग्रेज मराठा युद्ध
(1803-65 ई.) कई मोर्चों पर लड़ा गया। नतीजा यह हुआ कि उड़ीसा और यमुना के उत्तर में स्थित आगरा व दिल्ली सहित कई भू-भाग अंग्रेजों के कब्जे में आ गये। अत: 1817-19 ई. के तीसरे अंग्रेज-मराठा युद्ध में मराठों की ताकत को पूरी तरह कुचल दिया गया। पेशवा को पुणे से हटाकर कानपुर के पास पेंशन पर भेज दिया गया। अब विन्ध्य के दक्षिण में स्थित पूरे भू-भाग पर कम्पनी का नियंत्रण हो चुका था।
सर्वोच्चता का दावा
लॉर्ड हेस्टिंग्स (1813-1823 ई. तक गवर्नर जनरल) के नेतृत्व में ‘सर्वोच्चता’ की एक नयी नीति शुरू की गयी। कम्पनी का दावा था कि उसकी सत्ता सर्वोच्च है। अपने हितों की रक्षा के लिए वह अधिग्रहण की धमकी देने का अधिकार अपने पास मानती थी।
विलय नीति
अधिग्रहण की आखिरी लहर 1848 ई. से 1856 ई. के बीच गवर्नर-जनरल बने लॉर्ड डलहौजी के शासन काल में चली। लॉर्ड डलहौजी ने एक नयी नीति अपनायी जिसे विलय नीति का नाम नहीं दिया गया। यह सिद्धान्त इस तर्क पर आधारित था कि अगर किसी शासक की मृत्यु हो जाती है और उसका कोई पुरुष वारिस नहीं है, तो उसकी रियासत हड़प कर ली जाएगी, यानी कम्पनी के भू-भाग का हिस्सा बन जाएगी। इस सिद्धान्त के आधार पर एक के बाद एक कई रियासतें सतारा (1848 ई.), सम्बलपुर (1850 ई.), उदयपुर
(1852 ई.), नागपुर (1853 ई.) और झांसी (1854 ई.) अंग्रेजों के हाथ में चली गयीं।
1856 ई. में कम्पनी ने अवध को भी अपने नियंत्रण में ले लिया। इस बार अंग्रेजों ने एक नया तर्क दिया। उन्होंने कहा कि वे अवध की जनता को नवाब के ‘कुशासन’ से आजाद कराने के लिए ‘कर्तव्य से बंधे’ हुए हैं, इसलिए वे अवध पर कब्जा करने को मजबूर हैं। अपने प्रिय नवाब को जिस तरह से गद्दी से हटाया गया, उसे देखकर लोगों में गुस्सा भड़क उठा और अवध पर कब्जा करने लगे।
1830 ई. के दशक के अन्त में ईस्ट इण्डिया कम्पनी रूस के प्रभाव से बहुत डरी हुई थी। कम्पनी को भय था कि कहीं रूस का प्रभाव पूरे एशिया से फैलकर उत्तर-पश्चिम से भारत को भी अपनी चपेट में न ले ले। इसी डर के चलते अंग्रेज अब उत्तर-पश्चिमी भारत पर भी अपना नियंत्रण स्थापित करना चाहते थे।
नये शासन की स्थापना
गवर्नर-जनरल वारेन हैस्टिंग्स (1773-1785 ई.) उन बहुत सारे महत्त्वपण्ूर् ा व्यक्तियो म ें से एक थे जिन्होनं े कम्पनी की ताकत फैलाने मे ं अहम भूमिका अदा की थी। वारेन हैस्टिंग्स के समय तक आते-आते कंपनी ने केवल बंगाल ही नहीं बल्कि बम्बई और मद्रास में भी सत्ता हासिल कर ली थी। ब्रिटिश इलाके मोटे तौर पर प्रशासकीय इकाइयों में बंटे हुए थे जिन्हें प्रेजिडेन्सी कहा जाता था। उस समय तीन प्रेजिडेन्सी थी – बंगाल, मद्रास और बम्बई। हर एक का शासन गवर्नर के पास होता था। सबसे ऊपर गवर्नर जनरल होता था। वारेन हैस्टिंग्स ने कई प्रशासकीय सुधार किये। न्याय के क्षेत्र में उसके सुधार खासतौर से उल्लेखनीय थे। 1772 ई. से एक नयी न्याय व्यवस्था स्थापित की गयी। इस व्यवस्था में प्रावधान किया गया कि हर जिले में दो अदालतें होंगी – फौजदारी अदालत ओर दीवानी अदालत। दीवानी अदालतों के मुखिया यूरोपीय जिला कलेक्टर होते थे। मौलवी और हिन्दू पण्डित उनके लिए भारतीय कानूनों की व्याख्या करते थे।