अध्याय 17 इतिहास क्षेत्रीय संस्कृतियाँ

क्षेत्रीय संस्कृतियों का विकास
तरह-तरह के क्षेत्रों के बीच बंटी हुई सीमाओं के बनने में समय की भूमिका रही है। जिन्हें हम आज क्षेत्रीय संस्कृतियाँ समझते हैं, वे समय के साथ-साथ बदली हैं। (और सच तो यह है कि आज भी बदल रही हैं।) ये क्षेत्रीय संस्कृतियाँ जटिल प्रक्रिया से विकसित हुई हैं। इस प्रक्रिया के तहत स्थानीय परम्पराओं और उपमहाद्वीप के अन्य भागों के विचारों के आदान-प्रदान ने एक-दूसरे को सम्पन्न बनाया है। कुछ परम्पराएँ तो कुछ विशेष क्षेत्रों की अपनी हैं, जबकि कुछ अन्य तरह-तरह के क्षेत्रों में एक समान प्रतीत होती हैं। कुछ अन्य परम्पराएँ एक खास इलाके के पुराने रीति-रिवाजों से तो निकली हैं परन्तु अन्य क्षेत्रों में जाकर उन्होंने एक नया रूप ले लिया है।

चेर जन और मलयालम का विकास
महोदयपूरम का चेर राज्य प्रायद्वीप के दक्षिण-पश्चिमी भाग में है जो आज केरल राज्य का एक हिस्सा है। यह 9वीं शताब्दी में स्थापित किया गया था। सम्भवत: मलयालम भाषा इस इलाके में बोली जाती है। शासकों ने मलयालम भाषा एवं लिपि का प्रयोग अपने अभिलेखों में किया। वस्तुत: यह उपमहाद्वीप के सरकारी अभिलेखों में किसी क्षेत्रीय भाषा के प्रयोग के सबसे पहले उदाहरणों में से एक है।
क्षेत्रीय भाषा के साथ-साथ चेर लोगों ने संस्कृत की परम्पराओं
(रीति-रिवाजों) से भी बहुत कुछ ग्रहण किया। केरल का मंदिर-रंगमंच, जिसकी परम्परा इस युग तक खोजी जा सकती है, संस्कृत के महाकाव्यों पर आधारित था। मलयालम भाषा की पहली साहित्यिक कृतियाँ, जो लगभग 12वीं शताब्दी की बताई जाती हैं, प्रत्यक्ष रूप से संस्कृत की ऋणी हैं। यह भी एक काफी रोचक तथ्य है कि 14वीं शताब्दी का एक ग्रन्थ लीला तिलकम, जो व्याकरण तथा काव्यशास्त्र विषयक है ‘मणिप्रवालम’ शैली में लिखा गया था।
‘मणिप्रवालम’ का शाब्दिक अर्थ है हीरा और मूंगा, जो यहाँ दो भाषाओं (संस्कृत तथा क्षेत्रीय भाषा) के साथ-साथ प्रयोग की ओर संकेत करता है।

जगन्नाथी सम्प्रदाय
अन्य क्षेत्रों में क्षेत्रीय संस्कृतियाँ, क्षेत्रीय धार्मिक रीति-रिवाजों से विकसित हुई थीं। इस प्रक्रिया का सर्वोत्तम उदाहरण है- परी, उड़ीसा
(इस समय ओडिशा) में जगन्नाथ का सम्प्रदाय। जगन्नाथ का शाब्दिक अर्थ है, दुनिया का मालिक जो विष्णु का पर्यायवाची है। आज भी जगन्नाथ की काष्ठ प्रतिमा, स्थानीय जनजातीय लोगों द्वारा बनायी जाती है जिससे यह तात्पर्य निकलता है कि जगन्नाथ मूलत: एक स्थानीय देवता थे, जिन्हें आगे चलकर विष्णु का रूप मान लिया गया।
12वीं शताब्दी में गंग वंश के एक अत्यंत प्रतापी राजा अनन्तवर्मन ने पुरी में पुरुषोत्तम जगन्नाथ के लिए एक मन्दिर बनवाने का निश्चय किया। उसके बाद 1230 ई. में राजा अनन्तवर्मन तृतीय ने अपना राज्य पुरुषोत्तम जगन्नाथ को अर्पित कर दिया और स्वयं को जगन्नाथ का ‘प्रतिनियुक्त’ घोषित किया। ज्यों-ज्यों इस मन्दिर को तीर्थ स्थल यानी तीर्थ यात्रा के केन्द्र के रूप में महत्त्व प्राप्त होता गया, सामाजिक तथा राजनीतिक मामलों में भी इसकी सत्ता बढ़ती गयी। जिन्होंने भी उड़ीसा को जीता, जैसे – मुगल, मराठे और अंग्रेजी ईस्ट इण्डिया कम्पनी – सबने इस मन्दिर पर अपना नियंत्रण स्थापित करने का प्रयास किया। वे सब यह महसूस करते थे कि मन्दिर पर नियंत्रण प्राप्त करने से स्थानीय जनता में उनका शासन स्वीकार्य हो जाएगा।

राजपूताना
19वीं शताब्दी में ब्रिटिश लोग उस क्षेत्र को जहाँ आज का अधिकांश राजस्थान स्थित है, राजपूताना कहते थे। इससे यह समझा जा सकता है कि वह एक ऐसा प्रदेश था जहाँ केवल अथवा प्रमुख रूप से राजपूत ही रहा करते थे, लेकिन यह बात आंशिक रूप से ही सत्य है।
ऐसे अनेक समूह थे (और आज भी हैं), जो उत्तरी तथा मध्य भारत के अनेक क्षेत्रों में अपने आपको राजपूत कहते हैं। यह भी सच है कि राजस्थान में राजपूतों के अलावा अन्य लोग भी रहते हैं। तथापि, अकसर यह माना जाता है कि राजपूतों ने राजस्थान को एक विशिष्ट संस्कृति प्रदान की। राजस्थान की सांस्कृतिक परम्पराएँ वहाँ के शासकों के आदर्शों तथा अभिलाषाओं के साथ घनिष्ठता से जुड़ी हुई थीं। लगभग 8वीं शताब्दी से आज के राजस्थान राज्य के अधिकांश भाग पर विभिन्न परिवारों के राजपूत राजाओं का शासन रहा। पृथ्वीराज एक ऐसा ही शासक था।

कत्थक नृत्य
यह नृत्य शैली, उत्तर भारत के अनेक भागों से जुड़ी है। ‘कत्थक’ शब्द ‘कथा’ शब्द से निकला है, जिसका प्रयोग संस्कृत तथा अन्य भाषाओं में कहानी के लिए किया जाता है। कत्थक मूल रूप से उत्तर भारत के मन्दिरों में तथा कहानी सुनाने वालों की एक जाति थी। ये कथाकार अपने हाव-भाव तथा संगीत से अपने कथावचन को अलंकृत किया करते थे।
15वीं तथा 16वीं शताब्दी में भक्ति आंदोलन के प्रसार के साथ कत्थक एक विशिष्ट नृत्य शैली का रूप धारण करने लगा। राधा-कृष्ण के पौराणिक आख्यान (कहानियाँ) लोक नाट्य के रूप में प्रस्तुत किये जाते थे। इन्हें ‘रासलीला’ कहा जाता था। रासलीला में लोक नृत्य के साथ कत्थक कथाकार के मूल हाव-भाव भी जुड़े होते थे। मुगल बादशाहों और उनके अभिजातों के शासनकाल में कत्थक राजदरबार में प्रस्तुत किया जाता था, जहाँ इस नृत्य ने अपने वर्तमान अभिलक्षण अर्जित किये और वह एक विशिष्ट नृत्य शैली के रूप में विकसित हो गया। आगे चलकर यह दो परम्पराओं अर्थात् ‘घरानों’ में फला-फूला; एक राजस्थान (जयपुर) के राजदरबारों में और दूसरा लखनऊ में। अवध के अन्तिम नवाब वाजिद अली शाह के संरक्षण में, यह एक प्रमुख कला रूप में उभरा। 1850-1875 ई. के दौरान यह नृत्य शैली के रूप में इन दो क्षेत्रों में ही नहीं, बल्कि आज के पंजाब, हरियाणा, जम्मू-कश्मीर, बिहार तथा मध्य प्रेदश के निकटवर्ती इलाकों में भी पक्के तौर पर संस्थापित हो गया। इसकी प्रस्तुति में क्लिष्ट तथा दु्रत पद संचालन, उनमें वेशभूषा तथा कहानियों के प्रस्तुतीकरण एवं अभिनय पर जोर दिया जाने लगा। अनेक अन्य सांस्कृतिक गतिविधियों की तरह कत्थक को भी 19वीं तथा 20वीं शताब्दी में अधिकांश ब्रिटिश प्रशासकों ने नापसन्द किया। फिर भी यह जीवन बचा रहा और गणिकाओं द्वारा पेश किया जाता रहा। स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद तो देश में इसे छह ‘शास्त्रीय’ नृत्य रूपों में मान्यता मिल गयी। अन्य नृत्य-रूप, जिन्हें इस समय शास्त्रीय माना जाता है, वे हैं: भरत नाट्यम (तमिलनाडु), कथकली (केरल), ओडिसी (उड़ीसा), कुचिपुड़ी (आन्ध्र प्रदेश) एवं मणिपुरी (मणिपुर)।

लघु चित्रों की परम्परा
एक अन्य परम्परा जो कई रीतियों से विकसित हुई, वह थी लघु चित्रों की परम्परा। लघु चित्र, जैसा कि नाम से पता चलता है, छोटे आकार के चित्र होते हैं, जिन्हें आमतौर पर जल रंगों से कपड़े या कागज पर चित्रित किया जाता है। प्राचीनतम लघुचित्र, ताल-पत्रों अथवा लकड़ी की तख्तियों पर चित्रित किये गये थे। इनमें से सर्वाधिक सुन्दर चित्र, जो पश्चिम भारत में पाये गये; जैन ग्रन्थों को सचित्र बनाने के लिए प्रयोग किये गये थे। मुगल बादशाह अकबर, जहाँगीर और शाहजहाँ ने अत्यन्त कुशल चित्रकारों को संरक्षण प्रदान किया था, जो प्राथमिक रूप से इतिहास और काव्यों की पाण्डुलिपियाँ चित्रित करते थे। ये पाण्डुलिपियाँ आमतौर पर चटक रंगों में चित्रित की जाती थीं और उनमें दरबार के दृश्य, लड़ाई तथा शिकार के दृश्य और सामाजिक जीवन के अन्य पहलू चित्रित किये जाते थे। अकसर उपहार के तौर पर भी इन चित्रों का आदान-प्रदान किया जाता है और ये कुछ गिने-चुने लोगों (बादशाह और उनके घनिष्ठ जनों) द्वारा ही देखे जा सकते हैं।

बंगला भाषा का विकास
प्रारम्भिक (ईसा पूर्व प्रथम सहस्राब्दी में मध्य भाग के) संस्कृत ग्रंथों के अध्ययन से यह पता चलता है कि बंगाल के लोग संस्कृत से उपजी हुई भाषा नहीं बोलते हैं। ईसा पूर्व तीसरी-चौथी शताब्दी से बंगाल और मगध (दक्षिण बिहार) के बीच वाणिज्यिक संबंध स्थापित होने लगे थे जिसके कारण सम्भवत: संस्कृत का प्रभाव बढ़ता गया होगा। चौथी शताब्दी के दौरान गुप्तवंशीय शासकों ने उत्तरी बंगाल पर अपना राजनीतिक नियंत्रण स्थापित कर लिया और वहाँ ब्राह्मणों को बसाना शुरू कर दिया। इस प्रकार गंगा की मध्य घाटी के भाषायी तथा सांस्कृतिक प्रभाव अधिक प्रबल हो गये।
8वीं शताब्दी से पाल शासकों के अन्तर्गत एक क्षेत्रीय राज्य का उद्भव हो गया। 14वीं शताब्दी से 16वीं शताब्दी के बीच बंगाल पर ऐसे सुल्तानों का शासन रहा जो दिल्ली में स्थित शासकों से स्वतंत्र थे।
1856 ई. में जब अकबर ने इस प्रदेश (बंगाल) को जीत लिया, तो उसे ‘सूबा’ माना जाने लगा। उस समय प्रशासन की भाषा तो फारसी थी लेकिन बंगाली एक क्षेत्रीय भाषा के रूप में विकसित हो रही थी। वस्तुत: 15वीं शताब्दी तक आते-आते उपभाषाओं तथा बोलियों का बंगाली समूह, एक सामान्य साहित्यिक भाषा के द्वारा एकबद्ध हो गया।
यह साहित्यिक भाषा उस क्षेत्र के पश्चिमी भाग की बोलचाल की भाषा थी, जिसे अब पश्चिमी बंग कहा जाता है। यद्यपि बंगाली का उद्भव संस्कृत से ही हुआ है, परन्तु यह अपने क्रमिक विकास की अनेक अवस्थाओं से गुजरी है। इसके अलावा गैर संस्कृत शब्दों का एक विशाल शब्द भण्डार, जो जनजातीय भाषाओं, फारसी और यूरोपीय भाषाओं सहित अनेक स्रोतों से इसे प्राप्त हुआ है, आधुनिक बंगला का एक हिस्सा बन गया है। बंगाली के प्रारम्भिक साहित्य को दो श्रेणियों में बाँटा जा सकता है।
एक श्रेणी, संस्कृत की ऋणी है और दूसरी, उससे स्वतंत्र है। पहली श्रेणी में संस्कृत महाकाव्यों के अनुवाद, ‘मंगलकाव्य’ (शाब्दिक अर्थों में शुभ यानी मंगलिक काव्य, जो स्थानीय देवी-देवताओं से संबंधित हैं) और भक्ति साहित्य जैसे गौड़ीया वैष्णव आन्दोलन के नेता श्री चैतन्यदेव की जीवनियाँ आदि शामिल हैं। दूसरी श्रेणी में नाथ साहित्य शामिल है, जैसे मैनामती-गोपीचन्द के गीत, धर्म ठाकुर की पूजा से संबंधित कहानियाँ, परिकथाएँ, लोककथाएँ और गाथागीत। मुगल साम्राज्य के पतन के साथ अनेक चित्रकार मुगल दरबार छोड़कर नये उभरने वाले क्षेत्रीय राज्यों के दरबारों में चले गये। परिणामस्वरूप मुगलों की कलात्मक रुचियों ने दक्षिण के क्षेत्रीय दरबारों और राजस्थान ने राजपूती राजदरबारों को प्रभावित किया लेकिन इसके साथ ही उन्होंने अपनी विशिष्ट विशेषताओं को सुरक्षित रखा और उनका विकास भी किया। मुगल उदाहरणों का अनुसरण करते हुए शासकों तथा उनके दरबारों के दृश्य चित्रित किये जाने लगे। इनके साथ-साथ मेवाड़, जोधपुर, बूंदी, कोटा और किशनगढ़ जैसे केन्द्रों में पौराणिक कथाओं तथा काव्यों के विषयों का चित्रण बराबर जारी रहा। आधुनिक हिमाचल प्रदेश के इर्द-गिर्द हिमालय की तलहटी के इलाके में 17वीं शताब्दी के बाद वाले वर्षों में, लघु चित्रकला की एक साहसपूर्ण एवं भावप्रवण शैली का विकास हुआ, जिसे ‘बसोहली’ शैली कहा जाता है। यहाँ जो सबसे लोकप्रिय पुस्तक चित्रित की गयी वह भानुदन की रसमंजरी थी।
1739 में नादिरशाह के आक्रमण और दिल्ली विजय के परिणामस्वरूप मुगल कलाकार, मैदानी इलाकों की अनिश्चितताओं से बचने के लिए पहाड़ी क्षेत्रों को पलायन कर गये। उन्हें वहाँ जाते ही आश्रयदाता तैयार मिले, जिसके फलस्वरूप चित्रकारी की कांगड़ा शैली की स्थापना हुई।
18वीं शताब्दी के मध्य तक, कांगड़ा के कलाकारों ने एक नयी शैली विकसित कर ली, जिसने लघु चित्रकारी में एक नयी जान डाल दी। उनकी प्रेरणा का स्रोत था, वहाँ की वैष्णव परम्पराएं। ठण्डे नीले और हरे रंगों सहित कोमल रंगों का प्रयोग और विषयों का काव्यात्मक निरूपण इस कांगड़ा शैली की विशेषता थी।

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