मध्यकाल में सामाजिक परिवर्तन
मुगल काल में भारत में सामाजिक परिवर्तन के रूप में एक महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुआ जिसके कई कारण थे। इस समय मुसलमानों का वर्चस्व स्थापित हो गया था। मुसलमानों ने हिन्दुओं को मुसलमान बनने के लिए बाध्य किया तथा कुछ लोगों ने स्वेच्छा से इस धर्म को अपनाया। मुस्लिम अधिकारियों की रसिकता से रक्षा पाने के लिए हिन्दू समाज में पर्दे और बाल-विवाह का प्रचलन हुआ। ब्राह्मणों की कट्टरता एवं कर्मकाण्डों के कारण सामान्य हिन्दू जनता की स्थिति सोचनीय हो गयी थी। उस समय परस्पर विरोधी आस्थाओं एवं विश्वास के खिलाफ सामाजिक परिवर्तन आवश्यक हो गया था। समाज में सुधार की सख्त आवश्यकता थी जिसके द्वारा ब्राह्मणों के कर्मकाण्डों एवं इस्लामिक कट्टरपंथियों के प्रभाव को कम किया जा सके। सूफी एवं भक्ति आन्दोलन की शुरुआत इन्हीं कारणों से हुई जिससे मध्यकालीन भारतीय समाज अत्यधिक प्रभावित हुआ।
भक्ति आन्दोलन की शुरुआत के सांस्कृतिक कारण
हिन्दुओं की धार्मिक स्थिति दयनीय हो गयी थी, उन्हें मुसलमानों से अपमानित होना पड़ता था। बाल-विवाह, बहु-पत्नी प्रथा, पर्दा प्रथा, छुआछूत आदि कुरीतियों ने भक्ति आंदोलन को बल दिया। सिद्ध और जैन धर्माचार्यों के जादू-टोने, तन्त्र-मन्त्र आदि से गुमराह लोगों के लिए भक्ति आन्दोलन अधिक शान्तिप्रद लगा। भारत में सूफी मत का प्रचार-प्रसार इस्लाम धर्म की कट्टरता के कारण हुआ और हिन्दू धर्म में व्याप्त कुरीतियों एवं आडम्बरों ने यहाँ के सन्तों को जनता के उद्धार के लिए प्रेरित किया।
दक्षिण भारत में नयनार और अलवार
7वीं से 9वीं सदी के बीच नयनारों (शैव सन्तों) और अलवारों (वैष्णव सन्तों) ने कुछ नये धार्मिक आंदोलनों का प्रादुर्भाव किया। सन्त बौद्धों और जैनों के कटु आलोचक थे तथा शिव एवं विष्णु के प्रति सच्चे प्रेम को मुक्ति का मार्ग बताते थे। उन्होंने संगम साहित्य में समाहित प्यार और शूरवीरता के आदर्शों को अपनाकर भक्ति के मूल्यों में उनका समावेश किया था। नयनार और अलवार घुमक्कड़ साधु सन्त थे, वे जिस गाँव में भी जाते थे वहाँ के स्थानीय देवता की प्रशंसा में सुन्दर कविताएँ रचकर उन्हें संगीतबद्ध कर दिया करते थे। तेवरम और तिरूवाचकम नयनार के गीतों के दो संकलन हैं। अलवार सन्त संख्या में 12 थे। वे भिन्न-भिन्न जगहों से आये थे।
दर्शन और भक्ति
शंकर का जन्म 8वीं शताब्दी में केरल में हुआ था। वे अद्वैतवाद के समर्थक थे, जिसके अनुसार जीवात्मा और परमात्मा दोनों एक ही हैं। उन्होंने शिक्षा दी कि ब्रह्मा एक है और वह निर्गुण और निराकार है।
शंकर ने हमारे चारों ओर के संसार को मिथ्या माना और संसार का परित्याग करने अर्थात् संन्यास लेने और ब्रह्म की सही प्रकृत्ति को समझने और मोक्ष प्राप्त करने के लिए ज्ञान के मार्ग को अपनाने का उपदेश दिया। रामानुज 11वीं शताब्दी में तमिलनाडु में पैदा हुए थे। वे अलवार सन्तों से बहुत प्रभावित थे। उनके अनुसार मोक्ष प्राप्त करने का उपाय विष्णु के प्रति अनन्य भक्ति-भाव रखना है। रामानुज ने विशिष्टताद्वैत के सिद्धांत को प्रतिपादित किया जिसके अनुसार आत्मा परमात्मा से जुड़ने के बाद भी अपनी अलग सत्ता बनाए रखती है। रामानुज के सिद्धांत ने नयी धारा को प्रेरित किया जो उत्तरी भारत में विकसित हुई।
बसवन्ना का वीर शैववाद आन्दोलन
तमिल भक्ति आन्दोलन और मन्दिर पूजा के परिणामस्वरूप जो प्रतिक्रिया हुई, वह बसवन्ना और अल्लमा प्रभु और अक्कमहादेवी द्वारा शुरू किये गये वीर शैव आन्दोलन में साफ दिखाई देती है। वीर शैवों ने जाति प्रथा, नारी के प्रति व्यवहार, ब्राह्मणवादी विचारधारा के विरुद्ध अपने तर्क दिये। वीर शैव कर्मकांडों और मूर्ति पूजा के विरोधी थे।
नाथपन्थी, सिद्ध और योगी
मध्यकाल में अनेक ऐसे धार्मिक समूह उभरकर सामने आए जिन्होंने रूढ़िवादी, कर्मकाण्डों, आडम्बरों तथा समाज व्यवस्था की आलोचना की। इनमें नाथपन्थी और सिद्धचार और योगी जन उल्लेखनीय हैं। उन्होंने संसार के परित्याग एवं संन्यास पर बल दिया। उनके अनुसार निराकार परम सत्य का चिन्तन-मनन और उसके साथ एक हो जाने की अनुभूति ही मोक्ष का मार्ग है। ये समूह मुख्य रूप से नीची कही जाने वाली जातियों में बहुत प्रसिद्ध हुए। उनके द्वारा की गयी रूढ़िवादिता की आलोचना से भक्तिमार्ग का आधार तैयार हुआ, जो उत्तरी भारत में लोकप्रिय शक्ति बना।
इस्लाम और सूफी मत
सन्तों और सूफियों में बहुत अधिक समानता थी। सूफी मुसलमान रहस्यवादी थे। वे धर्म के बाहरी आडम्बरों को नकारते हुए ईश्वर के प्रति प्रेम, भक्ति तथा सभी मनुष्यों के प्रति दया भाव पर बल देते थे। सूफी कवि भी सन्त कवियों की तरह अपनी भावनाओं को व्यक्त करने के लिए काव्य रचना किया करते थे। मध्य एशिया के महान सूफी सन्तों में गज्जाली, रूमी और सादी के नाम उल्लेखनीय हैं। सूफी भी सन्तों की तरह यह मानते हैं कि दुनिया के प्रति उनका नज़रिया अपनाने के लिए दिल को सिखाया-पढ़ाया जाता है। 11वीं शताब्दी से अनेक सूफी जन मध्य एशिया से आकर हिन्दुस्तान में बसने लगे थे। दिल्ली सल्तनत की स्थापना के बाद यह प्रक्रिया उस समय और अधिक मजबूत हो गयी जब उपमहाद्वीप में बड़े-बड़े सूफी केन्द्र विकसित हो गये। चिश्ती सिलसिला इन सबमें प्रभावशाली था। औलियाओं की एक लम्बी परम्परा थी, जैसे अजमेर के ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती, दिल्ली के बख्तियार काकी, पंजाब के बाबा फरीद और दिल्ली के ख्वाजा निजामुद्दीन औलिया। सूफी सन्त अपने खानकाहों में विशेष बैठकों का आयोजन करते थे, जिनमें सभी भक्तगण आया करते थे। यहाँ पर आध्यात्मिक विषयों पर चर्चा की जाती थी। लोग अपनी समस्याओं से निजात पाने के लिए सन्तों से आशीर्वाद माँगते थे।
उत्तर भारत में धार्मिक बदलाव
तेरहवीं शताब्दी के बाद उत्तर भारत में भक्ति की नयी लहर आयी।
यह एक ऐसा युग था जब विभिन्न धर्मों की विचारधाराओं ने एक-दूसरे को प्रभावित किया। इस समय नये नगरों का निर्माण हो रहा था और लोग अपने लिए व्यवसाय खोज रहे थे। ऐसे लोग सन्तों के विचारों को सुनने के लिए इकट्ठा हो जाया करते थे। कबीर और बाबा गुरु नानक जैसे सन्तों ने धर्म के आडम्बरों और रूढ़िवादिता को अस्वीकार किया। तुलसीदास और सूरदास जैसे कुछ अन्य सन्तों ने उस समय विद्यमान विश्वासों तथा पद्धतियों को स्वीकार करते हुए उन्हें सबकी पहुँच में लाने का प्रयत्न किया। तुलसीदास ने ईश्वर को राम के रूप में धारण किया। उन्होंने रामचरितमानस की रचना की जो उनके भक्ति भाव से जुड़ी हुई थी। सूरदास श्री कृष्ण के अनन्य भक्त थे। उनकी रचनाएँ सूरसागर, सूरसारावली और साहित्य लहरी में संग्रहित हैं। इन रचनाओं में इनके भक्ति भाव की अभिव्यक्ति हुई है। असोम के शंकर देव जो इन्हीं के समकालीन थे, ने विष्णु की भक्ति पर बल दिया और असमिया भाषा में कविताएँ तथा नाटक लिखे। दादू दयाल, रविदास और मीराबाई भी इस सन्त परम्परा में शामिल हैं।
कबीर
1398-1418 ई. में कबीर एक प्रभावशाली सन्त थे। उनका लालन-पालन एक जुलाहा परिवार ने किया था। उनकी साखियों में उनके विचारों की जानकारी मिलती है। कहा जाता है कि उनके भजनों को घुमंतू द्वारा गाया जाता था। इनके कुछ भजन गुरु ग्रंथ साहिब व पंचवाणी में संग्रहित हैं। कबीर के उपदेश प्रमुख धार्मिक परम्पराओं की पूर्ण एवं प्रचण्ड अस्वीकृति पर आधारित थे। कबीर के उपदेशों में हिन्दू धर्म व इस्लाम दोनों के आडम्बरों पर करारी चोट की है। कबीर की बोलचाल की हिन्दी थी जो आम आदमियों द्वारा आसानी से समझी जा सकती थी। कबीर, निराकार, परमेश्वर में विश्वास रखते थे। उन्होंने उपदेश दिया कि भक्ति के माध्यम से ही मोक्ष यानी मुक्ति प्राप्त हो सकती है। उनके अनुयायी हिन्दू व मुसलमान दोनों थे।
बाबा गुरु नानक
गुरु नानक का जन्म तलवंडी (पाकिस्तान) में हुआ था। उन्होंने अपने अनुयायियों के लिए करतारपुर में एक नियमित उपासना पद्धति अपनाई जिसके अन्तर्गत उन्हीं के भजनों को गाया जाता था। उनके मानने वाले सभी भेदों को खत्म करके एक थाली में खाते थे जिसे लंगर कहा जाता था। जिस जगह पर उपासना और धार्मिक कार्य किये जाते थे उसे धर्मसाल कहा गया। आज इसे गुरुद्वारा कहते हैं।
1539 ई. में अपनी मृत्यु के पूर्व गुरु नानक ने एक अनुयायी को अपना उत्तराधिकारी चुना जो गुरु अंगद के नाम से जाने जाते हैं। गुरु अंगद ने गुरु नानक की रचनाओं का संग्रह किया और उस संग्रह में अपनी रचनाएँ भी जोड़ दीं। यह संग्रह एक नयी लिपि गुरुमुखी में लिखा गया। गुरु अंगद के उत्तराधिकारियों ने भी अपनी रचनाएँ नानक के नाम से लिखी। इन सभी का संग्रह गुरु अर्जुन देव ने 1604 ई. में किया। इस संग्रह में शेख फरीद, सन्त कबीर, भगत नामदेव और गुरु तेग बहादुर जैसे सूफी सन्तों और गुरुओं की वाणी जोड़ी गयी। केन्द्रीय गुरुद्वारा ‘हरमन्दिर साहिब’ (स्वर्ण मन्दिर) के आस-पास रामदासपुर शहर (अमृतसर) 17वीं शताब्दी के प्रारम्भ में विकसित होने लगा था। 17वीं शताब्दी में सिख आन्दोलन का राजनीति कारण शुरू हो गया था जिसका परिणाम यह हुआ कि 1699 ई. में गुरु गोविन्द सिंह ने ‘खालसा पंथ’ की स्थापना की। गुरु नानक ने अपने उपदेश के सार को व्यक्त करने के लिए तीन शब्दों का प्रयोग किया – नाम, दान और स्नान। नाम से तात्पर्य सही उपासना, दान से तात्पर्य दूसरों का भला करना और स्नान का तात्पर्य आचार-विचार की पवित्रता। आज उनके उपदेशों को नाम-जपना, कीर्तन करना और वण्ड छकना के रूप में याद किया जाता है।