अध्याय 15 इतिहास साम्राज्य का सृजन

मुगल साम्राज्य
मध्यकाल में किसी भी राजा के लिए भारतीय उपमहाद्वीप जैसे बड़े क्षेत्र पर शासन कर पाना अत्यन्त ही कठिन कार्य होता था क्योंकि वहाँ लोगों एवं संस्कृतियों में इतनी अधिक कठिनाइयाँ और विभिन्नता थी। अपने पूर्ववर्तियों के अनुरूप मुगलों ने एक साम्राज्य की स्थापना की और वह कार्य पूरा किया जो अब तक केवल छोटी अवधियों के लिए ही सम्भव जान पड़ता था।
16वीं सदी के उत्तरार्द्ध से मुगलों ने दिल्ली और आगरा से अपने राज्य को बढ़ाना प्रारम्भ किया और 17वीं शताब्दी में लगभग पूरे महाद्वीप पर कब्जा कर लिया था। उन्होंने प्रशासन तथा सत्ता संबंधी जो विचार लागू किये थे उनके राज्य के पतन के बाद भी बने़े रहे थे। यह एक ऐसी राजनीतिक विरासत थी जिसके प्रभाव से उपमहाद्वीप में उनके बाद आने वाले शासक अपने को अछूता न रख सके। इस समय भारत के प्रधानमंत्री 15 अगस्त के दिन मुगल शासकों के निवास स्थान, दिल्ली के लाल किले की चोटी से राष्ट्र को सम्बोधित करते हैं।

मुगल कौन थे?
मुगलों के वंशज दो महान शासक थे। माता की ओर से वे चीन और मध्य एशिया के मंगोल शासक चंगेज़ खान (1227 ई. में जिनका निधन हुआ) मंगोल के दाया-अधिकारी थे। पिता की ओर से वे ईरान, इराक एवं वर्तमान तुर्की के शासक तैमूर (जिसका निधन 1404 ई. में हुआ) के वंशज थे। मुगल अपने को मुगल या मंगोल कहलवाना पसन्द नहीं करते थे।
ऐसा इसलिए था क्योंकि चंगेज़ खान से जुड़ी यादें सैकड़ों व्यक्तियों के नरसंहार से जुड़ी थी। यही यादें मुगलों के अवलेखन उजबेगों से भी जुड़ी थीं। दूसरी तरफ, मुगल तैमूर के कुल से होने पर गर्व इसलिए महसूस करते थे क्योंकि उनके इस पूर्वज ने 1398 ई. में दिल्ली पर कब्जा कर लिया था। हर एक मुगल शासक ने तैमूर के साथ अपना छाया बनवाया था।

मुगल सम्राट एवं उनके प्रमुख अभियान

बाबर (1526–1530 ई.)
मुगल कुल के संस्थापक (1526-1530 ई.) बाबर ने जब 1494 ईमें फरगाना राज्य का दाया अधिकार प्राप्त किया था तो उस समय उसकी आयु केवल 12 वर्ष थी। मंगोलों की दूसरी शाखा उजबेगों के हमलों के कारण उसे अपनी वंशगत गद्दी छोड़नी पड़ी। 1504 ई. में कई वर्षों तक इधर-उधर घूमने के बाद उसने काबुल पर कब्जा कर लिया।
1526 ई. में बाबर ने दिल्ली के सुल्तान इब्राहिम लोदी को पानीपत में पराजित कर दिल्ली और आगरा को अपने अधिकार में कर लिया।
16वीं शताब्दी की लड़ाई में तोप और गोलाबारी का पहली बार प्रयोग हुआ था। पानीपत की पहली लड़ाई में अकबर ने इसका अच्छी तरह से प्रयोग किया था। बाबर ने तुर्की भाषा में अपनी आत्मकथा ‘तुजुक-ए-बाबर’ (बाबरनामा) लिखी। बाबर एक अच्छा लेखक भी था।
1527 ई. में बाबर ने खानवा की लड़ाई में राणा सांगा, राजपूत राजाओं और उनके समर्थक राजाओं को पराजित किया था। बाबर ने चन्दोरी में राजपूतों को (मेदिनीराय) को 1528 ई. में पराजित किया था।
1528 ई. में घाघरा की लड़ाई में बाबर ने महमूद लोदी को पराजित किया था। महमूद लोदी इब्राहीम लोदी का भाई था जो अफगानों को संगठित करके लाया था। 1530 ई. में बाबर का निधन हुआ। अपने निधन से पहले उसने दिल्ली और आगरा में मुगल नियंत्रण स्थापित किया था। बाबर का निधन आगरा में हुआ था। बाबर के मकबरे को अकबर ने आगरा से काबुल स्थानान्तरित करवाया था।

हुमायूँ (1530–1540 ई. एवं 1555–1556 ई.)
पिता की वसीयत के अनुसार हुमायूँ ने जायदाद का बँटवारा किया। हर एक भाई को एक-एक राज्य मिला। उसके भाई मिर्जा कामरान की लालचों के कारण हुमायूँ अफगान में अपने दुश्मनों के सामने खाली पड़ गया था। हुमायूँ को दो बार शेर खान ने पराजित किया था। 1540 ई. में कन्नौज बिलग्राम के युद्ध में उसे ईरान की ओर भागने को मजबूर होना पड़ा। हुमायूँ ने ईरान में सफाजिद शाह की मदद ली। 1556 ई. में उसने दिल्ली पर दोबारा अधिकार कर लिया। परन्तु इसके अगले वर्ष एक दुर्घटना में उसका निधन हो गया था।

अकबर (1556–1605 ई.)
हुमायूँ के प्रवास काल के दौरान अमरकोट में अकबर का जन्म 1542
ई. में हुआ था और उनकी माता का नाम हमीद बानो था।
13 वर्ष की कम आयु में 1556 ई. में अकबर सम्राट बने। 1560 ईतक उसने बैरम खाँ के संरक्षण में शासन किया था।
1556 ई. में राज्याभिषेक के बाद अकबर ने बैरम खाँ की सहायता से पानीपत की दूसरी लड़ाई में हेमू ‘विक्रमादित्य’ को हराया था।

मुगलों के अन्य शासकों के साथ संबंध
मुगलों ने उन शासकों के खिलाफ निरंतर विरोध किये जिन्होंने उनकी सत्ता को अस्वीकार कर दिया। जब मुगल शक्तिशाली हो गये तो बहुत से शासकों ने अपनी इच्छा से उनकी आधीनता को स्वीकार कर लिया। राजपूत इसके एक अच्छे उदाहरण हैं। अनेक राजपूत राजाओं ने मुगल घराने में अपनी पुत्रियों का विवाह करके उच्च पद प्राप्त किये थे। परन्तु कुछ ने विरोध भी किया। सिसोदिया राजपूत लम्बे समय तक मुगलों की सत्ता को अस्वीकार करते रहे, लेकिन पराजित हुये। मुगलों ने उनके साथ सम्माननीय व्यवहार किया और उन्हें उनकी जमीन (राज) राज जागीर के रूप में वापिस कर दी। पराजित कर लेकिन अपमानित न करने के बीच सावधानी से बनाये गये सन्तुलन की वजह से मुगल भारत के अनेक शासकों और सरदारों पर अपना प्रभाव बढ़ाने में सफल रहे थे।

मनसबदार और जागीरदार
साम्राज्य का जैसे-जैसे विस्तार होता गया, वैसे-वैसे मुगलों ने अनेक तरह के लोगों को प्रशासन में शामिल करना शुरू किया। प्रारम्भ में अधिकतर लोग सरदार, तुर्की (तूरानी) थे लेकिन बाद में इस वर्ग के साथ-साथ उन्होंने शासक वर्ग में ईरानियों, हिन्दुस्तानियों, मुसलमानों, अफगानों, राजपूतों, मराठों और दूसरे समूहों को सम्मिलित करना शुरू कर दिया था। मुगलों की सेवा करने वाले नौकरशाह ‘मनसबदार’ कहलाते थे। इस शब्द का उपयोग ऐसे व्यक्तियों के लिए होता था, जिन्हें कोई मनसब यानी कोई सरकारी हैसियत अथवा पद मिलता था। यह मुगलों द्वारा चलाई गयी एक प्रथा थी। जिसके द्वारा पद, वेतन एवं सैन्य पद व्यवस्था जाति की मात्रा पर निर्भर होती थी। जाति की मात्रा जितनी अधिक होती थी दरबार में उसकी उपलब्धि भी उतनी ही अधिक हो जाती थी और उसका पैसा भी इतना ही बढ़ जाता था। जो सैन्य अधिकार मनसबदारों को दिये जाते थे उसी के हिसाब से उन्हें घु़ड़वार रखने पड़ते थे।

अकबर की नीतियाँ
शासन के मुख्य नियम अकबर ने निर्धारित किये थे और इनका सम्पूर्ण विस्तार अबुल फजल की अकबरनामा में प्राप्त होता है। अबुल फजल के अनुसार, सम्पूर्ण राज्य को ‘सूबा’ कहा जाता था। सत्ता के शासक ‘सूबेदार’ कहे जाते थे जो राजनीतिक एवं तरह-तरह के काम का पालन करते थे। प्रत्येक सूबा में एक दूसरा अधिकारी भी होता था जिसे ‘दीवान’ कहा जाता था। नियम और व्यवस्था को बनाये रखने के लिए सूबेदार को दूसरे अधिकारियों का साथ प्राप्त था, जैसे कि बक्शी
(सैनिक वेतनाधिकारी), सदर (धार्मिक और धर्मार्थ किये जाने वाले कार्यों का मंत्री), फौजदार (सेनानायक) और कोतवाल (नगर का पुलिस अधिकारी) होता था। अकबर के मंत्री बड़ी सेनाओं का संचालन करते थे और बड़ी मात्रा में वे धन खर्च कर सकते थे। जब तक वे वफादार रहे राष्ट्र का कार्य सुचारू रूप से चलता रहा लेकिन 17वीं सदी के आखिर में बहुत से मंत्रियों ने अपनी स्वतन्त्रता को बढ़ाया जिससे राज्य के लिए उनकी वफादारी उनके अपने फायदों की वजह से कमजोर पड़ गई थी। अकबर जब फतेहपुर सीकरी में 1570 ई. में था, तो उसने उलेमा, ब्राह्मणों, जेसुइट पादरियों (जो रोमन कैथोलिक थे) और जरदुश्त धर्म के मानने वालों के साथ धर्म के मामलों पर चर्चा शुरू की। इन चर्चाओं को इबादतखाना कहा जाता था। अकबर की ईच्छा अनेक लोगों के धर्मों व रीति-रिवाजों में थी। इस बातचीत से अकबर की समझ बनी कि जो विद्वान धार्मिक रीति और मान्यताओं पर बल देते हैं। वे ज्यादातर कठोर होते हैं। उनकी शान प्रजा के बीच अलग मत और असामंजस्य पैदा करती है। यह जानकारी अकबर को सुलह-ए-कुल एवं ‘सर्वत्र शान्ति’ की सोच की ओर ले गयी। अबुल फजल ने सुलह-ए-कुल के हिसाब से शासन व्यवस्था बनाने में अकबर की सहायता की थी। शासन के इन नियमों का जहाँगीर एवं शाहजहाँ ने भी पालन किया था। मनसबदार अपने सवारों को निरीक्षण के लिए अपने साथ लाते थे। वे अपने साथ सैनिकों के घोड़ों को दगवाते थे और सैनिकों का पंजीकरण करवाते थे। इन कामों के बाद ही उन्हें सैनिकों को पैसा देने के लिए मिलता था। मनसबदार अपना पैसा जमीन से मिलने वाले राजस्व को इकट्ठा करके प्राप्त करते थे। जिसको जागीर कहते थे और जो तकरीबन इक्ताओं के समान थी। लेकिन मनसबदार अपने वादों से भिन्न अपनी जागीरों पर नहीं रहते थे और न ही उन पर शासन करते थे। उनके पास केवल अपनी जागीरों से पैसा एकत्रित करने का अधिकार था। यह पैसा उनके नौकर इकट्ठा करते थे, जबकि वे खुद देश के किसी दूसरे भाग में काम कर रहे होते थे। अकबर के समय में पैसों को सावधानीपूर्वक वसूला जाता था, ताकि इनका पैसा मनसबदार के पैसों के तकरीबन बराबर रहे। औरंगजे़ब के समय तक यह स्थिति बदल गयी थी। अब मिला हुआ पैसा मनसबदार के पैसों से बहुत कम था। मनसबदारों की संख्या में भी बहुत बढ़ोत्तरी हुई थी। जिसकी वजह से उन्हें वेतन मिलने से पहले इन्तजाम अधिक करना पड़ता था। इन सभी वजहों से पैसों की संख्या में कमी हो गई। जिसके कारण जागीरदार बहुत से पैसे रहने पर यह कोशिश करते थे कि वे जितना पैसा वसूल कर सकें कर लें। अपने शासनकाल के आखरी समय में औरंगजे़ब इन बदलावों पर काबू नहीं रख पाया। इसकी वजह से किसानों को बहुत मुश्किलों का सामना करना पड़ा।

जब्त और जमींदार
मुगलों की आय का प्रमुख साधन किसानों की उपज से मिलने वाला पैसा था। ज्यादातर जगहों पर किसान ग्रामीण कुलीन यानी मुखिया या स्थानीय सरदारों के माध्यम से धन देते थे। समस्त पंचों के लिए, चाहे वे स्थानीय गांव प्रमुख हों या फिर सरदार हों, मुगल एक ही शब्द जमींदार का प्रयोग करते थे।
1570-1580 ई. में अकबर के राजस्वमंत्री ने 10 वर्ष की अवधि के लिए फसल की पैदावार उपज मूल्य और कृषि भूमि का सावधानी पूर्वक सर्वेक्षण किया। इससे प्राप्त आँकड़ो के आधार पर हर एक फसल पर नकद के रूप में कर (पैसा) तय कर दिया गया। सभी सूबों (प्रान्तों) को राजस्व मण्डलों में बांट दिया गया और हर एक की फसल के लिए पैसा देकर अलग तालिका बनायी गयी। पैसा प्राप्त करने की इस व्यवस्था को ‘जब्त’ कहा जाता था। यह व्यवस्था उन जगहों पर प्रचलित थी जहाँ पर मुगल प्रशासनिक अधिकारी भूमि का निरीक्षण कर सकते थे और ध्यानपूर्वक उनका हिसाब रख सकते थे।
ऐसी जाँच गुजरात और बंगाल जैसे राज्यों में सम्यक नहीं हो पायी थी। कुछ जगहों में जमींदार इतने बलवान थे कि मुगल प्रशासकों द्वारा काम लिए जाने की स्थिति में वे विद्रोह कर देते थे। कभी-कभी एक ही जाति-धर्म के जमींदार और किसान मुगल सत्ता के खिलाफ मिलकर लड़ाई कर लेते थे।
17वीं शताब्दी के अन्त में ऐसे किसानों ने लड़ाइयों में मुगल साम्राज्य के स्थायित्व को चुनौती दी थी।

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