अध्याय 12 इतिहास नये सम्राट और साम्राज्य

समुद्रगुप्त
चंद्रगुप्त प्रथम के बाद मगध सिंहासन पर समुद्रगुप्त का अधिकार हुआ। समुद्रगुप्त ने 335 ई. से लेकर 376 ई. तक राज्य चलाया। समुद्रगुप्त गुप्त राजवंश का राजा था। समुद्रगुप्त एक ऐसा प्रतापी राजा था जिसे कभी हार का सामना नहीं करना पड़ा। वह जीवनभर अपराजित रहा था। समुद्रगुप्त को भारत का नेपोलियन कहा जाता है। वह गुप्त वंशीय महाराजाधिराज चंद्रगुप्त प्रथम की पट्टमहिशी लिच्छिवी कुमारी श्रीकुमारी देवी का पुत्र था। चंद्रगुप्त के अनेक पुत्र थे परंतु गुण और वीरता में समुद्रगुप्त सबसे बढ़-चढ़कर था। चंद्रगुप्त ने उसे ही अपना उत्तराधिकारी चुना और अपने इस निर्णय को राज्यसभा बुलाकर सभी के सम्मुख घोषित किया। इस निर्णय से राज्यसभा में एकत्र हुए सभी सभ्यों को प्रसन्नता हुई। चंद्रगुप्त ने अपने जीवनकाल में ही समुद्रगुप्त को राज्य की सत्ता दे दी थी। चंद्रगुप्त के इस निर्णय से उसके अन्य पुत्रों में द्वेष की भावना उत्पन्न हो गयी थी। उसके अन्य पुत्रों ने इसका विरोध किया, जिसका नेता ‘कांच’ था। ‘कांच’ नामक कुछ सोने के सिक्के भी मिले हैं। इनमें गुप्त काल के अन्य सोने के सिक्कों की अपेक्षा सोने की मात्रा बहुत कम थी। इससे अनुमान होता है कि भाइयों की इस कलह में राज्यकोष पर बहुत बड़ा प्रभाव पड़ा था। जिसके कारण कांच ने अपने सिक्कों में सोने की मात्रा कम कर दी थी। समुद्रगुप्त का मुकाबला कांच ज्यादा दिन तक नहीं कर सका था। समुद्रगुप्त अनुपम वीर था। उसने अपने इस कलह को शीघ्र ही समाप्त कर दिया और पाटलिपुत्र के सिंहासन पर दृढ़ता के साथ अपना अधिकार स्थापित कर लिया था। समुद्रगुप्त ने गृह-कलह को समाप्त करने के बाद अपने साम्राज्य के विस्तार के लिए संघर्ष प्रारंभ किया। इस विजय यात्रा का वर्णन प्रयाग में अशोक के मौर्य के प्राचीन स्तंभ पर देखने को मिलता है। सबसे पहले आर्यावर्त के तीन राजाओं को जीतकर अपने अधीन कर लिया था। इसके बाद समुद्रगुप्त का राज्य उत्तर में हिमालय, दक्षिण में विंध्य पर्वत, पूर्व में ब्रह्मपुत्र नदी और पश्चिम में चंबल और यमुना नदी तक हो गया था। दक्षिण के राज्यों मालव, यौघय, भद्रगणों आदि में उसने अपने अधीन शासक नियुक्त किये। पश्चिम और उत्तर के विदेशी शक और ‘देवपुत्र शाहानुशाही’ कुषाण राजाओं और दक्षिण के सिंहल द्वीप-वासियों से भी उसने विविध उपहार लिये जो उनकी अधीनता के प्रतीक थे। इसका विवरण इलाहाबाद किले के प्रसिद्ध शिला-स्तंभ पर विस्तारपूर्वक देखने को मिलता है। समुद्रगुप्त ने मुद्रा संबंधी अनेक सुधार कार्य किये थे। उसने शुद्ध स्वर्ण की मुद्राओं तथा उच्चकोटि की ताम्र मुद्राओं का प्रचलन करवाया था। समुद्रगुप्त दान में शुद्ध सोने का सिक्का दिया करता था। यह उसके शासन के वैभव का प्रतीक था। मुद्राओं द्वारा उसके जीवन चरित्र, व्यक्तित्व, अभिरुचि, संगीत और कला प्रेम, प्रशासनिक व राजनैतिक उपलब्धियों का पता चलता है। समुद्रगुप्त ने छोटे-छोटे राज्यों को मिलाकर एक गणतांत्रिक विशाल साम्राज्य का रूप प्रदान किया था, जिसके कारण भारत की राजनीतिक एकता सुदृढ़ हुई थी। अश्वमेघ यज्ञ द्वारा उसने भूमि बंधन कराकर अपने दिग्विजयी होने तथा पराक्रमी सम्राट होने का प्रमाण प्रस्तुत किया था। समुद्रगुप्त ने कुछ काव्य ग्रंथों की रचना किया थी, जो दुर्भाग्यवश लुप्त हो गयी है। वह उच्चकोटि के विद्वानों का प्रशंसक एवं संरक्षक था। वह उदार, धार्मिक दृष्टिकोण से संपन्न शासक था। उसने ब्राह्मण एवं शूद्र और वैष्णव एवं शैव आदि में किसी के साथ भेदभाव नहीं था। समुद्रगुप्त के 45 वर्षों के उत्कृष्ट शासनकाल के पश्चात् उसकी मृत्यु 380 में हुई थी। उसके संपूर्ण चरित्र एवं शासनकाल के विश्लेषण से यह पता चलता है कि वह महान विजेता, दिग्विजयी, नीति-निपुण शासक, राजनीतिज्ञ, साहित्य और कला प्रेमी, उदार एवं सहिष्णु दृष्टिकोण रखने वाला शासक था।

हर्षवर्धन
राज्यवर्धन के बाद हर्षवर्धन लगभग 606 ई. में थानेश्वर के सिंहान पर बैठा। हर्ष ने 41 वर्षों तक शासन किया। इन वर्षों में हर्ष ने अपने साम्राज्य का विस्तार जालंधर, पंजाब, कश्मीर, नेपाल एवं बल्लमीपुर तक कर लिया था। इसके द्वारा आर्यावर्त को भी अपने अधीनस्थ कर लिया गया। हर्षवर्धन प्राचीन भारत का एक प्रतापी राजा था। उन्होंने भारत में अपना एक सुदृढ़ साम्राज्य स्थापित किया था। हर्षवर्धन हिंदू सम्राट था जिसने पंजाब छोड़कर शेष समस्त उत्तरी भागों पर राज किया था। शशांक की मृत्यु के पश्चात् वह बंगाल को भी अपने अधीन कर लेने में सफल हो गया था। हर्षवर्धन के पिता का नाम प्रभाकरवर्धन था। राजवर्धन उसका बड़ा भाई एवं राजश्री उसकी बड़ी बहन थी। हर्षवर्धन ने शासन कुशलतापूर्वक किया था। धर्मों के संबंध में उसके द्वारा उदार नीति बरती जाती थी। उसके शासनकाल में विदेशी यात्रियों को सम्मान दिया जाता था। चीनी यात्री ह्वेनसांग ने उसकी बहुत प्रशंसा की है। हर्ष साहित्य और कला का पोषक था। गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद भारत के उत्तरी भाग में अराजकता की स्थिति बन गयी थी। इस समय हर्षवर्धन द्वारा राजनैतिक शासन में स्थिरता प्रदान की गयी थी। हर्ष के द्वारा कन्नौज को राजधानी बनाया गया था। हर्ष को एक और नाम शिलादित्य से भी जाना जाता है। उन्होंने ”परम भट्टारक“ मगध नरेश की उपाधि ग्रहण की थी। चालुक्य नरेश पुलकेशिन द्वितीय के द्वारा हर्ष को तापी नदी के किनारे हराया गया था। हर्ष बौद्ध धर्म की महायान शाखा का समर्थक होने के साथ-साथ विष्णु एवं शिव की भी स्तुति करता था। प्रशासनिक व्यवस्था में हर्ष व्यक्तिगत रूप से रुचि लेता था। सम्राट की सहायता के लिए एक मंत्रिपरिषद का गठन किया गया था। बाणभट्ट के अनुसार अवन्ति युद्ध और शांति का सर्वोच्च मंत्री था। हर्ष के महान सेनापति को सिंहनाद कहा जाता था। हर्ष के समय में अधिकारियों को वेतन, नकद एवं जागीर के रूप में दिया जाता था परंतु ह्वेनसांग का मानना है कि मंत्रियों एवं अधिकारियों का वेतन भूमि अनुदान के रूप में दिया जाता था। हर्ष का प्रशासन, गुप्त प्रशासन की अपेक्षाकृत अधिक सामन्तिक एवं विकेंद्रीकृत हो गया था। इस कारण सामंतों की कई श्रेणियाँ हो गयी थीं। हर्ष के समय में राष्ट्रीय आय का एक चौथाई भाग उच्च कोटि के राज्य कर्मचारियों को वेतन या उपहार के रूप में, एक चौथाई भाग धार्मिक कार्यों के खर्च हेतु, एक चौथाई भाग शिक्षा के खर्च के लिए एवं एक चौथाई भाग राजा स्वयं अपने खर्च के लिए प्रयोग करता था। राजस्व के स्रोत के रूप में तीन प्रकार के करों जैसे भाग, हिरण्य और बलि का विवरण मिलता है। ह्वेनसांग के अनुसार हर्ष की सेना में हाथीसवार, घुड़सवार और पैदल सैनिक थे। हर्ष की सेना के साधारण सैनिकों को चाट एवं भाट, अश्वसेना के अधिकारियों को हदेश्वर, पैदलसेना के अधिकारियों को बलाधिकृत और महाबलाधिकृत कहा जाता था।

दक्षिण के राज्यों में सभाएँ
प्राचीन भारत में सभा जनतांत्रिक संस्थाएँ थीं। वैदिक युग की अनेक जनतांत्रिक संस्थाओं में सभा काफी महत्वपूर्ण थी। सभा में, ब्राह्मणों, अभिजात लोगों और धनी व्यक्तियों की ज्यादा भागीदारी होती थी। इसके सदस्यों को ‘सुजात’ अर्थात् कुलीन कहा गया है। वह निकाय जिसके लोग आभायुक्त हों, उसे सभा कहा जाता है। सभा में बहुत तरह के निर्णय लिये जाते थे। इन सभाओं के द्वारा खेती से जुड़े विभिन्न कार्य, सड़क निर्माण, स्थानीय मंदिरों की देखभाल करना होता था। नगरम व्यापारियों की एक सभा का नाम था। इसके भू-स्वामी ब्राह्मण होते थे।

सातवीं शताब्दी के बाद के राजवंश
राजवंशों का अस्तित्व सातवीं सदी के बाद आया। इस समय तक विभिन्न भागों में बड़े-बड़े भू-स्वामी और योद्धा सरदार अस्तित्व में आ गये थे। राजा ने इन सभी को सामंत के रूप में मान्यता प्रदान की थी। राजा इन लोगों से कहते थे कि उनके लिए उपहार लेकर आएं, प्रतिदिन सभा में आकर हाजिरी लगाएं और जब जरूरत हो तो वे सेना के साथ मदद के लिए हमेशा तत्पर रहें। सामंत जब अधिक सत्ता एवं संपदा हासिल कर लेते थे, तब वे अपने आप को महासामंत के होने की घोषणा कर देते थे। सामंत अपने आप का स्वतंत्र भी कहते थे। उद्यमी परिवारों ने सैन्य सहायता की मदद से अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित करने का प्रयास किया। कदम्ब मयूर शर्मण और गुर्जर प्रतिहार हरिचंद ब्राह्मण कुल के थे जिन्होंने शस्त्र को अपनाकर अपना राज्य स्थापित किया था। इन्होंने कर्नाटक और राजस्थान में शासन किया था।

राज्यों में प्रशासन
नये राजा सामंतों, किसानों, व्यापारियों और ब्राह्मणों के संगठनों के साथ अपनी सत्ता की साझेदारी किया करते थे। इनमें से कुछ राजाओं ने महाराजाधिराज, त्रिभुवन इत्यादि की उपाधियाँ भी प्राप्त कर रखी थीं। राज्यों में कारीगरों, किसानों और पशुपालकों से राजा इनके उत्पादों का एक भाग ले लेता था। राजा के अनुसार यह राजस्व का एक अंग था। राजस्व व्यापारियों से भी लिया जाता था। राजस्व संग्रह करने के लिए राजा ने पदाधिकारियों की नियुक्ति कर रखी थी। ये पदाधिकारी ऊँचे परिवारों के होते थे। अक्सर इन पदों पर नियुक्तियाँ वंशानुगत होती थीं। यही नियम सेना की नियुक्ति के लिए भी अपनाया जाता था।

प्रशस्तियाँ और भूमि अनुदान
प्रशस्तियाँ विद्वान ब्राह्मणों द्वारा लिया गया वह ग्रंथ होता है जिसमें शासक की प्रशंसा के बारे में वृहत् जानकारी दी रहती है। प्रशस्तियों से शासक के जीवन के बारे में जानकारियाँ प्राप्त होती हैं। इसमें शासक के बारे में लिखी गयी बात सही नहीं भी हो सकती है। इसके माध्यम से प्रशासन में सहायता प्रदान होती है। राजतरंगिणी कल्हण द्वारा रचित एक संस्कृत ग्रंथ है जिसकी रचना 12वीं शताब्दी में हुई थी। कश्मीर के इतिहास के बारे में वृहत् जानकारी राजतरंगिणी में दी गयी है। इसमें आदिकाल से लेकर 1151 ई. के आरंभ तक के कश्मीर के प्रत्येक शासक के काल की घटनाओं का क्रमानुसार विवरण दिया गया है। राजतरंगिणी में कुल आठ तरंग एवं लगभग 8000 श्लोक हैं। पहले के तीन तरंगों में कश्मीर के प्राचीन इतिहास की जानकारी मिलती है। चौथे से लेकर छठे तरंग में कार्कोट एवं उत्पवल वंश के इतिहास का वर्णन है। सातवें एवं आठवें तरंग में लोहार वंश के इतिहास का उल्लेख है।

धन के लिए युद्ध
गंगा घाटी में कन्नौज नगर एक वांछनीय क्षेत्र था। प्राचीन काल में सभी राजा अपना क्षेत्र विस्तार करने के लिए एक-दूसरे के राज्य पर आक्रमण करते रहते थे। प्रत्येक राजा का एक विशेश क्षेत्र होता था। इस समय राजाओं द्वारा अपनी सत्ता एवं संसाधन का प्रदर्शन किया जाता था। वे बड़े-बड़े मंदिर बनवाते थे। मंदिरों में बहुत ज्यादा धन-संपत्ति हुआ करती थी जिस कारण जब वे आक्रमण करते थे तब मंदिरों पर भी आक्रमण करते थे और मंदिर का खजाना लूट लिया जाता था। कन्नौज के ऊपर शासन करने के लिए तीनों राजाओं के वंशज गुर्जर-प्रतिहार, राश्ट्रकूट एवं पाल वंश आपस में लड़ाई करते रहते थे। इसका तीन पक्ष होने के कारण इसे त्रिपक्षीय संघर्श कहा जाने लगा। सुलतान महमूद ने 997 ई. से 1030 ई. तक शासन किया। वह अफगानिस्तान का था। इसने अपने साम्राज्य का विस्तार मध्य एशिया के भागों, ईरान एवं उपमहाद्वीप के उत्तर-पश्चिम भाग तक किया था। इसके द्वारा प्रत्येक वर्श उपमहाद्वीप पर आक्रमण किया जाता था। इसने अपना निशाना मंदिर को भी बनाया। यह सोमनाथ मंदिर पर आक्रमण करके वहाँ से सारा सोना-चाँदी लूटकर अपने साथ लेकर चला गया। इस धन संपत्ति का प्रयोग महमूद ने अपनी राजधानी को वैभवशाली बनाने में किया था।

चोल राज्य
चोल राज्य की स्थापना विजयालय के द्वारा की गयी थी। वह शुरू में पल्लवों का एक सामंती सरदार था। इस साम्राज्य का उदय नौवीं शताब्दी में हुआ था और दक्षिण प्रायद्वीप का अधिकतर हिस्सा चोल शासक के अधिकार में था। इन्होंने श्रीलंका एवं मालदीव को भी अपने नियंत्रण में कर लिया था। इसके पास शक्तिशाली नौसेना थी। चोल साम्राज्य दक्षिण भारत का एकमात्र सबसे शक्तिशाली साम्राज्य था। इन्होंने बारहवीं शताब्दी के मध्य तक एक स्थिर प्रशासन दिया। इसके साथ ही कला और साहित्य को भी बहुत प्रोत्साहन प्रदान किया गया। इतिहासकारों के अनुसार चोल काल दक्षिण भारत का ‘स्वर्ण युग’ था। चोल वंश का सबसे प्रतापी राजा राजराज एवं उसके पुत्र राजेंद्र प्रथम थे। राजाराज को उसके पिता ने अपने जीवन काल में ही अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया था। इन्होंने सिंहासन पर बैठने से पहले ही प्रशासन तथा युद्ध कौशल में संपूर्ण दक्षता प्राप्त कर ली थी। इसने श्रीलंका पर आक्रमण करके उसके उत्तरी हिस्से को अपने साम्राज्य का अंग बना लिया था। उन्होंने यह सब दक्षिण पूर्व एशिया के देशों से होने वाले व्यापार को अपनी मुट्ठी में करने के लिए किया था। उन दिनों कोरोमंडल तट और मालाबार तट, भारत तथा दक्षिण पूर्व एशिया के बीच होने वाले व्यापार का केन्द्र था। उत्तर में राजराज ने गंग प्रदेश के उत्तरी-पश्चिमी हिस्सों को भी अपने अधिकार में ले लिया था और वेंगी को भी अपने शासन के अंतर्गत कर लिया था। राजेंद्र प्रथम ने राज्य की विस्तार नीति को अपनाया और पांड्य चेर देशों पर विजय प्राप्त कर उन्हें अपने साम्राज्य में मिला लिया था। राजराज तथा राजेंद्र प्रथम ने विभिन्न जगहों पर शिव एवं विश्णु के मंदिरों का निर्माण कर अपनी विजय का प्रदर्शन किया था। इसके द्वारा बनाया गया सबसे प्रसिद्ध तंजावुर का राजराजेश्वर मंदिर है जिसका निर्माण 1010 ई. में हुआ था। चोल शासकों द्वारा इन मंदिरों की दीवारों पर अपनी विजय के बड़े-बड़े अभिलेख खुदवाये थे। चोल शासकों ने अपने कई दूत चीन भेजे थे। सत्तर व्यापारियों का एक मंडल 1077 ई. में चोल दूतों के रूप में चीन गया था। चोल प्रशासन में सर्वाधिक महत्वपूर्ण पद राजा का होता था। चोल शासन व्यवस्था राजतंत्रात्मक थी। राजा का पद वंशानुगत व्यवस्था पर आधारित था। राजा के लिए एक मंत्रिपरिशद थी। इस समय अधिकारियों के वेतन का भुगतान नकद रूप में न होकर भूमि के रूप में होता था। प्रशासन की सुविधा हेतु संपूर्ण चोल साम्राज्य 6 प्रांतों में विभाजित किया गया था। प्रांतों को मंडलम् कहा जाता था। यहाँ का प्रशासन राजकुमार देखता था। बड़े-बड़े शहर या गाँव एक अलग कुर्रम बन जाते थे और उसे तनियूर या तंकुरम कहा जाता था। मण्डलम् से लेकर ग्राम स्तर तक के प्रशासन हेतु स्थानीय सभाओं का सहयोग लिया जाता था। चोलों की स्थायी सेना में पैदल, गजारोही, अश्वरोही आदि सैनिक शामिल होते थे। बंगाल की खाड़ी चोलों की नौसेना के कारण ही ‘चोलों की झील’ बन गयी।

कृषि और सिंचाई
कृशि में हुए नये आविश्कारों के माध्यम से चोलों की कई उपलब्धियाँ देखने को मिलती हैं। कृशि के करने के तरीके में बदलाव आ गया था। तमिलनाडु के दूसरे भाग में कृशि पहले से ही की जा रही थी परंतु छठी शताब्दी तक आते-आते कृशि वृहत् रूप में की जाने लगी थी। कृशि करने के लिए जंगलों की सफाई की गयी एवं जमीन को समतल बनाया गया था। कृशि की सिंचाई के लिए नहरों का निर्माण किया गया एवं बाढ़ से बचने के लिए तटबंध बनाये गये थे। सिंचाई के लिए बहुत तरह की पद्धतियाँ अपनायी जाती थीं। कुछ लोगों के द्वारा कुआँ खोदकर सिंचाई की जाती थी। कुछ लोग वर्शा का पानी इकट्ठा कर उससे खेतों में सिंचाई करते थे। यहाँ पर फसलें एक वर्श के दौरान दो तरह की उगायी जाती थी। कम वर्शा वाले क्षेत्रों में कृशि उत्पादन बढ़ाने के लिए कृशि तकनीक में सुधार किया गया था।

चोल साम्राज्य का प्रशासन
चोल प्रशासन में सर्वाधिक महत्वपूर्ण पद राजा का होता था। राजा का पद वंशानुगत के अनुसार निर्धारित किया जाता था। राजा के कार्य के लिए मंत्रिपरिशद का निर्माण किया जाता था। राजकीय आदेशों का क्रियान्वयन ‘ओलै’ नामक अतिविशिश्ट अधिकारी किया करते थे। राजा के प्रधान सचिव को ‘औलनायमकम’ कहा जाता था। चोल प्रशासन में भाग लेने वाले उच्च पदाधिकारियों को ‘पेरुन्दनम्’ कहा जाता था एवं निम्न श्रेणी के पदाधिकारियों को ‘शेरून्दनम्’ कहा जाता था। राज्य के उच्च अधिकारियों को उड़नकुट्टम कहा जाता था। प्रशासन को सुदृढ़ ढंग से चलाने के लिए संपूर्ण चोल साम्राज्य को 6 प्रांतों में विभाजित कर दिया था। प्रांतों को उस समय मण्डलम् कहा जाता था। मण्डलम् को कोट्टम (कमिश्नरी) में, कोट्टम को नाडु
(जिले) में एवं नाडु को कई कुर्रमों (ग्राम समूह) में विभक्त किया गया था। चोल साम्राज्य के शासक परान्तक प्रथम के शासन के 12वें एवं 14वें वर्ष के प्रसिद्ध उत्तरमेरूर अभिलेखों में चोलकालीन स्थानीय स्वशासन एवं ग्राम प्रशासन व्यवस्था का साक्ष्य मिलता है। चोल शासन प्रणाली की मुख्य विशेषताएँ स्थानीय स्वशासन था। स्थानीय स्वशासन में ‘उर’ तथा ‘सभा’ व महासभा के सदस्य वयस्क होते थे। उर सर्वसाधारण लोगों की समिति थी, जिसका कार्य सार्वजनिक कल्याण के लिए तालाबों व बगीचों के निर्माण हेतु गाँव की भूमि का अधिग्रहण करना था। सभी की बैठक गाँव में मंदिर के वृक्ष के नीचे एवं तालाब के किनारे होती थी। व्यापारियों की सभा को नगरम् कहा जाता था। नगरों में व्यापारियों के विभिन्न संगठन थे। महासभा ग्रामवासियों पर कर लगाने, उसे वसूलने एवं बेगार लेने का भी अधिकार अपने पास रखती थी।

भूमि के प्रकार
चोल साम्राज्य में भूमि के प्रकार के बारे में उसके अभिलेखों से पता चलता है। उस समय भूमि को कई भागों में विभाजित किया गया था। गैर-ब्राह्मण किसान स्वामी की भूमि को वेल्लनवगाई कहा जाता था एवं ब्राह्मणों को उपहार में दी गयी भूमि को ब्रह्मदेय कहा जाता था। किसी विद्यालय के रख-रखाव के लिए भूमि को शालाभोग कहा जाता था। मंदिर को उपहारस्वरूप दान में दी गयी भूमि देवदान या तिरूनमट्टुक्कनी कहलाती था एवं जैन संस्थानों को दान में दी गयी भूमि पल्लिचन्दम कहलाती थी। ब्राह्मणों की एक सभा हुआ करती थी। ये सभाएँ अपना कार्य कुशलतापूर्वक किया करती थीं। इस सभा द्वारा लिये गये निर्णय, मंदिरों के दीवारों पर खुदवाये जाते थे। सभा की विभिन्न समितियों द्वारा ग्राम के कामकाज, बाग-बगीचों, मंदिरों की देखभाल की जाती थी। इस बात का प्रमाण उस समय के अभिलेखों में विस्तार से दिया गया है।

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