अध्याय 11 इतिहास संस्कृति और विज्ञान

परिचय
संस्कृति शब्द का अर्थ उत्तम या सुधरी हुई स्थिति होता है। संस्कृति शब्द संस्कृत भाषा की धातु ‘कृ’ से बना है जिसका शाब्दिक अर्थ ‘करना’ होता है। अंग्रेजी में संस्कृति के लिए ‘कल्चर’ शब्द का प्रयोग किया जाता है। यह लैटिन भाषा के कल्ट या कल्टरा से लिया गया है जिसका अर्थ जोतना, विकसित करना या परिष्कृत करना और पूजा करना होता है। संस्कृति किसी समाज में गहराई तक व्याप्त गुणों के समग्र रूप का नाम है जो उस समाज के सोचने, विचारने, कार्य करने, खाने-पीने, बोलने, नृत्य, गायन, साहित्य, कला, वस्तु इत्यादि में निहित होता है। संस्कृति का वर्तमान रूप किसी समाज द्वारा दीर्घ काल तक अपनायी गयी पद्धतियों का परिणाम होता है। मनुष्य एक प्रगतिशील प्राणी है। यह अपने चारों ओर प्राकृतिक परिस्थितियों को निरंतर सुधारता और उन्नति करता रहता है। सभ्यता एवं संस्कृति के अंतर्गत जीवन-पद्धति, रीति-रिवाज, रहन-सहन, आचार-विचार, नवीन अनुसंधान और आविष्कार देखने को मिलते हैं। सभ्यता से मनुष्य की भौतिक क्षेत्र की प्रगति का पता चलता है जबकि संस्कृति से मानसिक क्षेत्र की प्रगति का पता चलता है। भौतिक उन्नति से शरीर की भूख मिट सकती है परन्तु इसके बावजूद मन और आत्मा अशांत रहती है। इन्हें संतुष्ट करने के लिए मनुष्य जो विकास और उन्नति करता है, उसे संस्कृति कहते हैं। संस्कृति विकास की एक ऐतिहासिक प्रक्रिया है। हमारे पूर्वजों ने बहुत सी बातें अपने पूर्वजों से सीखी हैं। उन्होंने अपने अनुभवों से उसमें और वृद्धि करने का प्रयास किया है। उन्होंने जिसे अनावश्यक समझा, उसका त्याग कर दिया। हम लोगों को भी पूर्वजों से बहुत कुछ सीखने को मिला है। समय व्यतीत होने के साथ-साथ हम लोग उसमें नये विचार, नयी भावनाएं जोड़ते चले जाते हैं। जो अनुपयोगी होता है उसे छोड़कर आगे बढ़ जाते हैं। इस तरह संस्कृति एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक हस्तांतरित हो जाती है। जो संस्कृति हम लोग अपने पूर्वजों से प्राप्त करते हैं, उसे ”सांस्कृतिक विरासत“ कहा जाता है। यह विरासत कई स्तर पर विद्यमान रहती है। एक राष्ट्र को भी संस्कृति विरासत के रूप में प्राप्त होती है। सांस्कृतिक विरासत में वह सभी पक्ष या मूल्य समाहित होते हैं जिसे मनुष्य पीढ़ी दर पीढ़ी अपने पूर्वजों से प्राप्त करते हैं। विरासत में मिले सभी मूल्यों की पूजा की जाती है, उनको संरक्षित किया जाता है और आने वाली पीढ़ी इस पर गर्व करती है।

भारतीय संस्कृति
भारतीय संस्कृति में विविधता पायी जाती है। भारतीय संस्कृति के रीति-रिवाज, भाषाएँ, प्रथाएँ और परम्पराएँ इसके एक-दूसरे से परस्पर संबंधों में महान विविधताओं का एक अद्वितीय उदाहरण है। भारत कई धार्मिक प्रणालियों जैसे कि हिन्दू धर्म, जैन धर्म, बौद्ध धर्म और सिक्ख धर्म जैसे धर्मों का जनक है। भारत में उत्पन्न हुए विभिन्न धर्म और परम्पराओं ने विश्व के अलग-अलग हिस्सों को बहुत ज्यादा प्रभावित किया है। भारत की संस्कृति का निर्माण जिसमें भारत का महान इतिहास, भूगोल, सिंधु घाटी सभ्यता, वैदिक युग, बौद्ध धर्म एवं स्वर्ण युग की शुरुआत और उसके अंत के साथ भली-भांति फली-फूली अपनी खुद की प्राचीन विरासत शामिल है। भारत में बोली जाने वाली भाषाओं की बड़ी संख्या ने यहाँ की संस्कृति और विविधता को बढ़ाया है। भारत में ऐसी कई भाषाएँ है जिसे दस हजार से अधिक समूह के लोग बोलचाल में उपयोग करते हैं। भारतीय संविधान ने संघ के संचार के लिए हिन्दी और अंग्रेजी इन दोनों भाषाओं के उपयोग को अधिकारिक भाषा के रूप में घोषित किया है। राज्यों की उनके आंतरिक संचार के लिए अपनी अलग भाषा होती है।
धर्मों में विविधता पूरे विश्व में सबसे ज्यादा भारत में पायी जाती है जिसमें कुछ कट्टर धार्मिक संस्थाएँ और संस्कृतियाँ शामिल हैं।

भारतीय संस्कृति की प्रमुख विशेषताएँ

निरंतरता और बदलाव
भारतीय संस्कृति की एक महत्वपूर्ण विशेषता है कि हजारों वर्षों के बाद भी यह संस्कृति अपने मूल रूप में जीवित हैं, जबकि मिस्र, सीरिया, यूनान एवं रोम की संस्कृतियाँ अपने मूल स्वरूप को लगभग विस्मृत कर चुकी हैं। कई सौ वर्ष पहले भारतीय उपमहाद्वीप में हड़प्पा का विकास हुआ था और आज भी भारत के गांवों में बने मकानों की बनावट उसी से मेल खाती है। मातृ देवी की पूजा एवं पशुपति की उपासना हड़प्पा सभ्यता में की जाती थी, जो आज भी प्रचलित है। भारत में नदियों, वट, पीपल, सूर्य तथा अन्य प्राकृतिक देवी-देवताओं की पूजा-अर्चना का क्रम हड़प्पा काल से चला आ रहा है। देवताओं की मान्यता, हवन और पूजा-पाठ की पद्धतियों की निरंतरता आज तक अप्रभावित रही है। गीता और उपनिषदों के संदेश हजारों साल से हमारी प्रेरणा और कर्म का श्रोत हैं। वेदों और वैदिक धर्म में करोड़ों भारतीयों की आस्था और विश्वास आज के समय में भी उतना ही है जितना कि हजारों साल पहले हुआ करता था। भारतीय संस्कृति में निरंतरता के साथ-साथ परिवर्तन भी देखने को मिलता है। इस संस्कृति में जिस तत्व को अनावश्यक समझा गया, उसे परिवर्तित कर दिया। भारतीय इतिहास में कई आंदोलन हुए और बदलाव भी देखने को मिले। भारतीय चिन्तन और व्यवहार में अनेकों परिवर्तन हुए। कुछ परिवर्तनों के बावजूद भारतीय संस्कृति के आधारभूत तत्वों, जीवन मूल्यों और वचन पद्धति में एक ऐसी निरंतरता देखने को मिलती है कि आज भी करोड़ों भारतीय स्वयं को उन मूल्यों से जुड़ा हुआ महसूस करते हैं और उससे प्रेरणा लेते हैं।

विविधता और एकता
भौगोलिक दृष्टि से भारत विविधताओं का देश है, परन्तु सांस्कृतिक रूप से एक इकाई के रूप में इसका अस्तित्व प्राचीन काल से है। इस विशाल देश में उत्तर का पर्वतीय भू-भाग जिसकी सीमा पूर्व में ब्रह्मपुत्र और पश्चिम में सिंधु नदी तक फैली हुयी है। इसके साथ-साथ गंगा, यमुना और सतलुज की उपजाऊ कृषि भूमि, विंध्य और दक्षिण के वनों से आच्छादित पठारी भूभाग, पश्चिम के घाट, रेगिस्तान, दक्षिण का तटीय प्रदेश एवं पूर्व में असम और मेघालय के वर्षा के क्षेत्र सम्मिलित हैं। इन भौगोलिक विविधता के अलावा इस देश में सामाजिक एवं आर्थिक विविधता भी विद्यमान है। इन विविधताओं के कारण भारत में कई सांस्कृतिक उपधाराएँ विकसित हुईं। अनेक विभिन्नताओं के बावजूद भारत की सांस्कृतिक सत्ता पृथक रही है। हिमालय पूरे देश के गौरव का प्रतीक रहा है। गंगा, यमुना और नर्मदा जैसी नदियों की पूजा यहाँ के लोग प्राचीन काल से करते आ रहे हैं। राम, कृष्ण और शिव की आराधना यहाँ सदियों से की जा रही है। भारत की सभी भाषाओं में इन देवताओं पर आधारित साहित्य का सृजन किया गया। संपूर्ण भारत में जन्म, विवाह और मृत्यु के संस्कार एक समान होते हैं। विभिन्न रीति-रिवाज, आचार-व्यवहार और तीज-त्योहारों में भी समानता देखने को मिलती है। विश्व में भारत सबसे पुरानी सभ्यताओं का देश है जहाँ सदियों से बहुत सारी जाति, धर्म के लोग एक साथ निवास करते हैं। यहाँ पर लोग अपने धर्म एवं इच्छा के अनुसार लगभग 1600 से ज्यादा भाषाओं का प्रयोग बोलचाल के रूप में करते हैं। संस्कृति, धर्म, परम्परा और भाषा से अलग होने के बावजूद भी लोग एक दूसरे का सम्मान करते हैं। भाषाओं में विविधताएँ अवश्य हैं फिर भी संगीत, नृत्य और नाट्य के मौलिक स्वरूपों में समानता मिलती है। संगीत के सात स्वर और नृत्य के त्रिताल संपूर्ण भारत में समान रूप से प्रचलित हैं। भारत अनेक धर्मों, समुदायों, मतों और पृथक अवस्थाओं एवं विश्वासों का देश रहा है। इसके बावजूद इस देश का सांस्कृतिक समुच्चय और अनेकता में एकता पूर्ण रूप से विद्यमान है।

भौतिकवादी और अध्यात्मवादी
भारतीय संस्कृति में आश्रम व्यवस्था के साथ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष जैसे चार पुरुषार्थों का विशिष्ट स्थान रहा है। वस्तुत: इन पुरुषार्थों ने ही भारतीय संस्कृति में भौतिकवादी के साथ अध्यात्मवादी का एक अद्भुत समन्वय स्थापित किया है। किसी राष्ट्र की मन, रुचि, चरित्र, आचार-विचार, कला-कौशल और सभ्यता के क्षेत्र में आध्यात्मिक विकास संस्कृति कहलाती है। भारत की संस्कृति उसकी जनता की सरलता और विद्वता की प्रमाण है। इतिहासकारों के अनुसार हड़प्पा सभ्यता की संस्कृति शहरी थी। इस सभ्यता में शहरों का निर्माण सुनियोजित तरीके से किया गया था। इस सभ्यता में नगरों में वृहत् निकास प्रणाली थी। हड़प्पा सभ्यता की खुदाई से प्राप्त प्रमाण से पता चलता है कि वहाँ के लोग नाप-तौल का प्रयोग करते थे। यहाँ के लोग व्यापार करते थे। व्यापार के दौरान वे समुद्र के उस पार तक की यात्रा करते थे। हमारी संस्कृति में जीवन के ऐहिक और परलौकिक दोनों पहलुओं से धर्म को जोड़ा गया था। धर्म उन सिद्धांतों, तत्वों और जीवन प्रणालियों को कहते हैं जिससे मानव जाति परमात्मा प्रदत्त शक्तियों के विकास को अपना लौकिक जीवन सुखी बना सकें तथा मृत्यु के उपरांत जीवात्मा शांति का अनुभव कर सके। शरीर नश्वर है, आत्मा अमर है, यह अमरता मोक्ष से जुड़ी हुई है और यह मोक्ष प्राप्ति के लिए अर्थ और काम के पुरुषार्थ को करना जरूरी है। भारतीय संस्कृति में धर्म और मोक्ष के अध्यात्मिक संदेश एवं अर्थ और काम की भौतिक अनिवार्यता परस्पर सम्बद्ध है। अध्यात्मिकता और भौतिकता के इस समन्वय में भारतीय संस्कृति की वह विशिष्ट अवधारणा परिलक्षित होती है जो मनुष्य के इस लोक और परलोक को सुखी बनाने के लिए भारतीय मनीषियों के द्वारा निर्मित की गई थी। सुखी मानव-जीवन के लिए ऐसी सोच विश्व की अन्य संस्कृतियाँ नहीं करती हैं। साहित्य, संगीत और कला की संपूर्ण विधाओं के माध्यम से भी भारतीय संस्कृति के इस अध्यात्मिक एवं भौतिक समन्वय को देखा जा सकता है।

प्राचीन भारत में विज्ञान
भारतीय विज्ञान की परम्परा विश्व की प्राचीनतम वैज्ञानिक परम्पराओं में से एक है। भारत में विज्ञान का ज्ञान तीन हजार ई. पू. में हुआ था। हड़प्पा तथा मोहनजोदड़ो की खुदाई से प्राप्त सिंधु घाटी के प्रमाणों से वहाँ के लोगों के वैज्ञानिक दृष्टिकोण और वैज्ञानिक उपकरणों के उपयोगों का पता चलता है। आज विज्ञान का स्वरूप काफी विकसित हो चुका है। संपूर्ण दुनिया में बहुत तेजी से वैज्ञानिक खोजें हो रही हैं। भारत का अतीत ज्ञान से परिपूर्ण था। भारतीय व्यक्ति संसार का नेतृत्व करते थे। सबसे प्राचीन वैज्ञानिक एवं तकनीकी मानवीय क्रियाकलाप मेहरगढ़ में पाये गये हैं। मेहरगढ़ वर्तमान में पाकिस्तान में अवस्थित है।

नक्षत्र विज्ञान
भारतीय हिन्दू संस्कृति में नक्षत्रों की गणना आदि काल से की जाती है। अथर्ववेद, तैत्तिरीय संहिता, शतपथ ब्राह्मण के अनुसार आकाश मंडल में 27 नक्षत्र और अभिजित को मिलाकर कुल 28 नक्षत्र हैं। नक्षत्र का सिद्धांत भारतीय वैदिक ज्योतिष में पाया जाता है। यह पद्धति संसार की अन्य प्रचलित ज्योतिष पद्धतियों से अधिक सटीक एवं अचूक मानी जाती थी। आकाश में चंद्रमा पृथ्वी के चारों ओर परिक्रमा करने में 273 दिन का समय लेता है। इस प्रकार एक मासिक चक्र में आकाश में जिन मुख्य सितारों के समूहों के बीच से चंद्रमा गुजरता है, चंद्रमा एवं सितारों के समूह के उसी संयोग को नक्षत्र कहा जाता है। चंद्रमा की 3600 की एक परिक्रमा के पथ पर लगभग 27 विभिन्न तारा-समूह बनते हैं। आकाश में तारों के यही विभाजित समूह नक्षत्र या तारामंडल के नाम से जाने जाते हैं। नक्षत्र विज्ञान से संबंधित आर्यभट्ट द्वारा एक वैज्ञानिक सिद्धांत दिया गया था जो बाद में खगोलशास्त्रीय के लिए काफी उपयोगी सिद्ध हुआ। ज्योतिष का सिद्धांत विश्वासों पर आधारित था जबकि आर्यभट्ट का सिद्धांत वैज्ञानिक दृष्टिकोण के अनुरूप था। आर्यभट्ट के द्वारा एक ग्रंथ लिखा गया था जिसका नाम ”आर्यभट्टीय“ ग्रंथ था। इस ग्रंथ में 121 श्लोक हैं। इस ग्रंथ में खगोल से एवं नक्षत्रों से संबंधित विषयों के अनेक खण्ड थे। आर्यभट्ट के अनुसार जब पृथ्वी और सूर्य के बीच चंद्रमा का आगमन होता तब सूर्य ग्रहण लगता है एवं जब चंद्रमा और सूर्य के बीच पृथ्वी का आगमन होता है तब चंद्र ग्रहण लगता है। नक्षत्र विज्ञान के क्षेत्र में वराहमिहिर की ”वृहत संहिता“ (6 शताब्दी ई. पू.) तक महत्वपूर्ण कृति है।

गणित शास्त्र
प्राचीन काल से ही भारत में गणित शास्त्र का विशेष महत्व है। शून्य एवं दशमलव की खोज भारत में हुई थी। यह भारत के द्वारा विश्व को दी गयी एक अनमोल देन है। इस खोज ने गणितीय जटिलताओं को खत्म कर दिया। तीसरी शताब्दी तक गणित शास्त्र एक पृथक शास्त्र के रूप में उभर आया था। इस ज्ञान का उपयोग राजा यज्ञ की आहुतियाँ देने के लिए वेदी के निर्माण में करते थे। ब्रह्मगुप्त द्वारा लिखा गया ग्रंथ ब्रह्मस्फुट सिद्धांत है जिसमें शून्य को एक संख्या के रूप में दर्शाया गया है। शून्य का आविष्कार ब्रह्मगुप्त ने किया था। उन्होंने ऐसे नियम का प्रतिपादन किया जिससे शून्य का प्रयोग अन्य संख्याओं के साथ किया जा सकता था। उनके द्वारा कर्जे को ऋणात्मक संख्या और भाग्य को धनात्मक संख्या माना जाता था। इससे पता चलता है कि प्राचीन भारत में व्यापार में गणित का प्रयोग करते थे। वैदिक काल में अंकगणित अपने विकसित रूप में स्थापित था। यजुर्वेद में एक से लेकर 10 खरब तक की संख्याओं का उल्लेख मिलता है। अज्ञात संख्या का ज्ञात संख्या के साथ समीकरण करके अज्ञात संख्या को निकालना ही बीजगणित कहलाता है। भारतीय बीज गणित का विकास स्वतंत्र रूप से हुआ है और इसका श्रेय भारतीय विद्वान आर्यभट्ट को जाता है। रेखागणित का आविष्कार भी वैदिक युग में ही हो गया था।

धातु विज्ञान
भारत में धातु विज्ञान का प्राचीन काल से व्यावहारिक जीवन में उपयोग होता आया है। रामायण, महाभारत, पुराणों, श्रुति आदि ग्रंथों में भी धातु का उल्लेख किया गया है। पहली शताब्दी तक भारत में तांबा, लोहा, सोना, चांदी इत्यादि धातुओं और पीतल एवं कांस्य आदि मिश्रित धातुओं का व्यापक स्तर पर उत्पादन प्रारंभ हो गया था। सिंधु घाटी की खुदाई से कांस्य एवं तांबे की कलाकृतियां एवं बहुत सारे मिट्टी के बर्तन के उपयोग के बारे में पता चलता है। पुरातत्व विभाग द्वारा भागलपुर के सुल्तानगंज में खुदाई से दो मीटर ऊँची बुद्ध की कांस्य की प्रतिमा मिली है। नई दिल्ली में कुतुब मीनार के पास लौह स्तंभ विश्व के धातु विज्ञानियों के लिए आकर्षण का केंद्र रहा है। लगभग 1600 से अधिक वर्षों से यह खुले आसमान के नीचे सदियों से सभी मौसम में अविचल खड़ा है। इतने वर्षों से आज तक इसमें जंग नहीं लगी है। इससे ज्ञात होता है कि धातु विज्ञान भारत में प्राचीन काल से विकसित रहा और इसका मानव कल्याण के लिए उपयोग करने के लिए कई विधियाँ भारत में विकसित की गईं।

भूगोल
भूगोल वह शास्त्र है जिसके द्वारा पृथ्वी के ऊपरी स्वरूप और उसके प्राकृतिक विभागों जैसे पहाड़, महादेश, देश, नगर, नदी, समुद्र, झील, जलडमरूमध्य आदि के बारे में जानकारियाँ प्राप्त होती हैं। सर्वप्रथम प्राचीन यूनानी विद्वान इरैटोस्थनीज ने भूगोल को धरातल के एक विशिष्ट विज्ञान के रूप में मान्यता प्रदान की थी। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद भूगोल का विकास बहुत तीव्र गति से हुआ। प्रारंभिक मध्ययुग में तीर्थ और तीर्थयात्रा की अवधारणा विकसित हुई। मनुष्य तीर्थयात्रा पर दूरदेश जाने लगे जिससे वहाँ की भौगोलिक जानकारियाँ प्राप्त होने लगीं। उस समय मनुष्यों को पृथ्वी पर अपनी स्थिति और आसपास के देशों से दूरी का पता नहीं था। गुजरात के लोथल में बंदरगाह का अवशेष प्राप्त हुआ है जिससे पता चलता है कि उस समय में समुद्र के माध्यम से व्यापार किया जाता था। यहाँ के लोगों ने चीन और पश्चिमी देशों के भूगोल के बारे में ज्ञान हासिल कर लिया था। भारतीय व्यक्तियों ने जब दूर देश की यात्रा आरंभ की तो उनको समुद्री जहाज की आवश्यकताओं का अनुभव हुआ। जिसके बाद उन्होंने समुद्री जहाज के निर्माण का कार्य प्रारंभ किया।

मध्यकालीन भारत में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी
11वीं से 18वीं शताब्दी के बीच का समय मध्यकालीन युग माना जाता है। इस समय विज्ञान और प्रौद्योगिकी अलग-अलग धाराओं में विकसित हुये थे। यह इस्लामिक प्राचीन परंपराओं पर आधारित था जबकि मकतब और मदरसा यूरोपियन प्रभाव से उत्पन्न नये विचारों पर आधारित थे। इस संस्था के द्वारा एक निश्चित पाठ्यक्रम निर्धारित किया गया था। इन संस्थाओं को शाही संरक्षण प्राप्त था।
शेख अब्दुल्ला और शेख अजी जुल्लाह आगरा के मदरसों के प्रमुख थे। इन दोनों ने तार्किक विज्ञान में विशेषता प्राप्त की थी। इन मदरसों में पढ़ाने के लिए विद्वान को अरब, पर्सिया और केंद्रीय एशिया से बुलाया जाता था। मुस्लिम शासक के द्वारा प्राथमिक स्कूलों में पढ़ाई की व्यवस्था सुदृढ़ करने का प्रयास किया गया था। प्राथमिक शिक्षा में बच्चों को गणित, क्षेत्रमिति, ज्यामिति, ज्योतिष, लेखाशास्त्र, लोक प्रशासन एवं कृषि विज्ञान इत्यादि की शिक्षा प्रदान की जाती थी। इन शासकों द्वारा शिक्षा में सुधार करने का बहुत प्रयास किया गया परंतु विज्ञान के क्षेत्र में विशेष प्रगति देखने को नहीं मिली। राजा ने शाही घरों और सरकारी विभागों में सामान की आपूर्ति के लिए कारखाने की स्थापना की थी। इस कारखाने में उत्पादन के साथ-साथ युवकों को तकनीकी प्रशिक्षण भी दिया जाता था। इस कारखाने से प्रशिक्षित होकर युवा पीढ़ी ने बाद में अपना स्वतंत्र कारखाना स्थापित किया।

जीव विज्ञान
जीव विज्ञान प्राकृतिक विज्ञान की तीन शाखाओं में से एक है। यह विज्ञान जीव, जीवन और जीवन की प्रक्रियाओं के अध्ययन से संबंधित है। इस विज्ञान में जीवों की संरचना, कार्यों, विकास, उद्भव, पहचान, वितरण एवं उनके वर्गीकरण के बारे में जानकारियाँ मिलती हैं। हंसदेव ने 13वीं शताब्दी में ”मृगपक्षीशास्त्र“ नामक ग्रंथ लिखा था। इस ग्रंथ से शिकार के पशु-पक्षियों के विषय में जानकारी प्राप्त होती है। मध्यकालीन शासक एवं शिकारी घोड़े कुत्ते, चीते एवं बाज इत्यादि अपने साथ लेकर चलते थे। ये शासक अपनी पशुशालाओं में पालतू एवं जंगली दोनों तरह के पशु रखते थे। तुजक-ए-जहांगीरी में जहांगीर ने पशुओं की 36 प्रजातियों का उल्लेख किया था। पालतू पशुओं की उत्तम नस्ल पैदा करने में अकबर विशेष रुचि लेता था।

रसायन शास्त्र
रसायन विज्ञान का इतिहास बहुत पुराना है। रसायन शास्त्र विज्ञान की वह शाखा है जिसमें पदार्थों के संघटन, संरचना, गुणों और रासायनिक प्रतिक्रिया के दौरान इसमें हुए परिवर्तनों का अध्ययन किया जाता है।
ऐसा माना जाता है कि रसायन विज्ञान का विकास सर्वप्रथम चीन में हुआ था। प्राचीन काल में मिस्रवासी कांच, साबुन, रंग और अन्य रसायनिक पदार्थों के बनाने की विधियाँ जानते थे। इस काल में मिस्र को ”केमिया“ कहा जाता था। दक्षिण प्रदेश में प्राचीन साहित्य ताड़ के पत्तों पर लिखा जाता था। जबकि देश के उत्तरी प्रदेशों में भोज-पत्रों पर लिखा जाता था। सियालकोट, कश्मीर, जाफराबाद, पटना, मुर्शिदाबाद, अहमदाबाद, औरंगाबाद, मैसूर इत्यादि प्रदेश मध्यकाल में कागज उत्पादन के प्रमुख केंद्र थे। टीपू सुल्तान के समय मैसूर में कागज बनाने का कारखाना स्थापित किया गया था। इस कारखाने से उत्पादित कागज की सतह सुनहरी होती थी। आतिशबाजी के निर्माण में रसायन की मुख्य भूमिका होती है। रसायनिक अभिक्रिया के कारण ही वह फटता है और विभिन्न रंगों में चमकता है।

क्षेत्र विज्ञान
मध्य काल में उज्जैन, बनारस, मथुरा और दिल्ली में वैधशालाएँ स्थापित की गई थीं। इस काल में पहले से निर्धारित खगोलीय मत का वर्णन किया गया। फिरोजशाह तुगलक ने दिल्ली में वैधशाला का निर्माण करवाया। मध्यकाल में सौर पंचांग और चंद्र पंचांग दोनों का प्रयोग किया जाता था। हमीम हुसैन जिलानी एवं सैयद मोहम्मद काजमी के आदेशानुसार फिरोजशाह ने दौलताबाद में एक वैधशाला की स्थापना की थी। उनके दरबार में महेन्द्र सूरी नक्षत्र विज्ञानी थे। इन्होंने एक यंत्र का विकास किया था, जिसका नाम यंत्रज था। जयपुर के महाराजा सवाई जय सिंह द्वितीय के द्वारा दिल्ली, उज्जैन, वाराणसी, मथुरा और जयपुर में नक्षत्र संबंधित वैधशाला का निर्माण करवाया गया था।

औषध विज्ञान
मनुष्य को प्राचीन काल से ही वनस्पतियों का ज्ञान रहा है क्योंकि वह सदा उसी के संपर्क में रहा है। शारीरिक अवयवों पर औषधियों के प्रभाव को औषध विज्ञान कहा जाता है। प्राचीन काल में यह केवल उन वनस्पति पदार्थों का संकलन मात्र था जिनको रोगों में लाभ पहुँचाने वाला समझा जाता था। प्राचीन काल में विभिन्न बीमारियों पर शोध किया जाता था। बीमारी को ठीक पहचानने के लिए नाड़ी और मूत्र का परीक्षण किया जाता था। उस समय धातुओं से औषधियों का निर्माण किया जाता था। अब तक मनुष्य को उपचार के लिए औषधियों के प्रयोग में काफी विश्वास हो चुका था। प्राचीन हिन्दू पुस्तकों में औषधियों के निर्माण में यंत्र-मंत्रादि का विस्तृत उल्लेख मिलता है। अथर्ववेद में ऐसे अनेकों विधानों का उल्लेख है। चरक तथा सुश्रुत संहिता एवं निघंटु में कई सौ औषधियों का सामूहिक विवरण मिलता है। इब्न सीना ने अपना औषधि ज्ञान यूनान से प्राप्त किया था तथा आज भी भारत में उनकी चिकित्सा प्रणाली यूनानी प्रणाली के नाम से जानी जाती है। 1807 ई. में जर्मन औषधशास्त्री सरडरनर ने अफीम में से मारफीन नामक ऐलकलाइड निकाला तथा यह सिद्ध किया कि अफीम का प्रासवादक गुण इसी के कारण है। मोहम्मद मुनीन के द्वारा 17वीं शताब्दी में तुतफत-उल मुमीनिन नामक एक फारसी ग्रंथ की रचना की गयी थी जिसमें विभिन्न चिकित्सकों के मतों का जिक्र किया गया है।

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