परिचय
भारत विभिन्नताओं का देश है। सामान्य रूप से विभिन्नता से हमारा तात्पर्य अंतर से है। ये अंतर सामूहिक होते हैं जो व्यक्ति विशेष के समूह को दूसरे समूह से अलग करते हैं। ये विविधताएँ भिन्न-भिन्न प्रकार की हो सकती हैं, उदाहरण के लिए- सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक और जैविक सांस्कृतिक इत्यादि। उदाहरण के लिए भाषिक में लोगों द्वारा प्रयोग की जाने वाली भाषा के आधार पर अलग-अलग हो सकते हैं। सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक में लोगों के रहन-सहन, खान-पान में विविधताएँ पाई जाती हैं। अत: हम कह सकते हैं कि विविधता सामूहिक अंतर से किसी भी आधार पर उत्पन्न होती हैं। विभिन्नता देश के लिए एक अलगाव व भयानक आपदा का रूप भी ले सकती है अगर स्वार्थ की सिद्धि चाहने वाले लोग धर्म, समुदाय या जाति के एजेंडे के रूप में या हथियार के रूप में लोगों में आपसी मतभेद कराते हैं। किन्तु एक राष्ट्र के रूप में भारत की यही सबसे बड़ी विशेषता उभरकर सामने आती है कि भारत विविधताओं में एकता वाला देश है और यही विशेषता भारत को अन्य देशों के मुकाबले एक गर्व भरा अहसास दिलाती है।
विविधता में एकता
भारत की विभिन्नता को ही उसकी शक्ति माना गया है। क्योंकि जब भी भारत पर कोई बाह्य या आंतरिक आक्रमण होता है, तो अलग-अलग मज़हब, क्षेत्र इत्यादि के लोग सामूहिक रूप से आक्रमणों से बचाव करने के लिए या उसका विरोध करने के लिए एकजुट हो जाते हैं। इस बात का गवाह हमारा इतिहास भी रहा है कि कैसे अंग्रेजों की कूटनीति ‘फूट डालो और राज करो’ के समय तथा ऐसी कूटनीति के चलते भी भारत की विविधता में एकता की शक्ति ने भारत को अंग्रेजों के राज से मुक्त कराया। भारत को आज़ाद कराने में सभी धर्मों, जातियों व समुदायों के लोगों का योगदान रहा। भारत की इसी विशेषता से प्रेरित होकर पं० जवाहरलाल नेहरू जी ने अपनी पुस्तक ‘भारत एक खोज’ में लिखा कि ”भारतीय एकता कोई बाहर से थोपी हुई चीज़ नहीं है, बल्कि यह बहुत ही गहरी है जिसके अंदर अलग-अलग तरह के विश्वास और प्रथाओं को स्वीकार करने की भावना है। इसमें विविधता को पहचाना और प्रोत्साहित किया जाता है।“ ठीक इसी तरह हमारे राष्ट्रगान में भी विविधता में एकता की गूंज समाई हुई है जिसके रचयिता रवींद्रनाथ टैगोर हैं।
विविधता एवं भेदभाव
भारत में अनेक धर्मों को मानने वाले लोग निवास करते हैं। यहाँ हजारों भाषाओं का प्रयोग किया जाता है, जो लोगों की मातृभाषा कहलाती है। परन्तु संविधान की आठवीं अनुसूची में 18 भाषाओं को मान्यता प्राप्त है जिनमें से 39
प्रतिशत जनसंख्या हिन्दी भाषा का प्रयोग करती है। यहाँ अनेक धर्म हैं जिनकी मान्यताएँ व वेश-भूषाएँ भिन्न-भिन्न प्रकार की हैं। यहाँ के नृत्य कला तथा पाक कला भी भिन्न हैं। यह विभिन्नता कभी-कभी निराशा का कारण भी बन जाती है। हम समाज में या देश में ऐसे लोगों को चुन लेते हैं जो हमारी तरह दिखते हों, हमारी सोच और पसंद जिनसे मिलती हो। ऐसा करने से हम अपने आप को सुरक्षित महसूस करते हैं तथा ऐसे लोगों का चुनाव हमारे लिए आसान भी हो जाता है परन्तु इसका एक दुष्परिणाम भी होता है।
हम अपने ही राष्ट्र या समाज के लोगों में भेदभाव करना शुरू कर देते हैं जिससे समाज में असमानता के तत्व उत्पन्न हो जाते हैं। ये असमानताएँ रूढ़िवादी सोच व पितृ सत्तात्मक सत्ता को मजबूत करती है व राष्ट्र में भेदभाव के कारणों को जन्म देती है। ये कारण कई स्तर पर हो सकते हैं, जैसे- जाति, धर्म, भाषा तथा लिंग के आधार पर। अपने आप को बेहतर दिखाने के लिए लोग अक्सर दूसरों को नीचा दिखाने की कोशिशों में व्यस्त रहते हैं। जैसे- किसी के कपड़ों का मज़ाक बनाना, किसी के नौकरी/पेशें को नीची निगाहों से देखना या अपनी किसी सामान्य चीज को उसे छूने न देना इत्यादि भेदभाव हम आमतौर पर देखते हैं। विविधता वाले राष्ट्र में भेदभाव के कारणों से असमानता भी पैदा हो सकती है। अधिकतर लोगों के पास अपनी मूल जरूरतों की प्राप्ति के साधन भी उपलब्ध नहीं होते हैं। इस कारण भी समाज में हर स्तरों पर उन्हें भेदभाव का सामना करना पड़ता है। भारत जैसे विशाल राष्ट्र में अधिकतर लोगों को असमानता और विभिन्नता दोनों ही स्तर पर भेदभाव का सामना करना पड़ता है। जैसे- एक तो वे अपनी रोजमर्रा की जरूरतों को भी पूरा करने में समर्थ नहीं हैं तो भी उन्हें भेदभाव की दृष्टि से देखा-परखा जाता है।
रूढ़िबद्ध धारणाएँ बनाना
रूढ़िबद्ध धारणा उसे कहते हैं जब हम किसी व्यक्ति विशेष कि धारणाओं को या उसके व्यवहार के आधार पर अपने मस्तिष्क में एक चित्र अंकित कर लेते हैं और उसे ही सत्य छवि मान लेते हैं। इस अंकित छवि के चलते हम किसी धर्म, लिंग, विशेष का होने के कारण उसे विभिन्न नामों से संबोधित करने लग जाते हैं। जैसे- अपराधी, पागल इत्यादि। कुछ लोगों के आधार पर हम समूचे समूह को अपराधी या दोषी ठहराते हैं। हमारी यह धारणा न केवल हमारे मानसिक विकास पर रोक लगाती है बल्कि दूसरों की अद्भुता पर भी प्रश्नचिह्न लगाती है।
रूढ़िबद्ध धारणाएँ लिंग भेद की बड़ी समस्या पैदा कर देती हैं। समाज के उन दायरों को और मजबूत कर देता है। जैसे- लड़की फौज में नहीं जा सकती है। लड़कियों का स्वभाव मृदुभाव होता है। इसी के विपरीत लड़कों को घर का चूल्हा-चौका संभालने से रोका जाता है और अगर वह यह कार्य कर भी लेते हैं तो समाज उनका उपहास करता है। ये उदाहरण लैंगिक रूढ़िबद्धता के हैं।
समानताएँ, असमानताएँ और विभाजन
प्रत्येक समाज में सामाजिक विभिन्नताएँ हमारे सामने अलग-अलग रूप में उपस्थित होती हैं। ज्यादातर सामाजिक विभाजन जन्म से आधारित होता है। जो व्यक्ति जिस समूह या परिवार में जन्म लेता है उसे उसी का एक हिस्सा या इकाई के रूप में हम स्वीकार करते हैं। कई बार हमारे समाज में समानता का दर्जा पाने के लिए लोगों को संघर्ष करना पड़ता है। उदाहरण के लिए- उच्च जाति के लोगों द्वारा दलितों को अपमान और तिरस्कार सहन करना पड़ता था जिसके विरुद्ध उन्होंने संगठित होकर संघर्ष किया था, जिसके आदर्श डॉ. बी.आर. अम्बेडकर रहे जिन्हें बाबा साहेब के नाम से भी जाना जाता है। डॉ बी.आरअम्बेडकर आजाद भारत के पहले कानून मं ी बने।
ये असमानता लिंग के आधार पर भी देखी जा सकती है। जैसे- शिक्षा का अधिकार। महिलाओं ने अपने व समाज के कल्याण हेतु आवाज बुलंद की कि उन्हें भी शिक्षा की प्राप्ति अवश्य उपलब्ध हो तभी समाज समान रूप से आगे बढ़ सकता है अन्यथा यह एक पुरुष प्रधान समाज बनकर रह जाएगा। अधिकतर सामाजिक विभाजन जन्म पर आधारित न होकर लोगों की व्यक्तिगत इच्छा पर आधारित होता है। जैसे कोई अपने धर्म की रूढ़िबद्ध धारणाओं से ग्रस्त है या उनके नियमों को अपनाने में कठिनाई महसूस करता है तो अपने धर्म को त्याग कर दूसरे धर्म को ग्रहण कर लेता है जैसे पढ़ाई से संबंधित विषयों का चयन रोजगार, खेल या उनकी सांस्कृतिक गतिविधियों के आधार पर अपना धर्म परिवर्तित करते हैं। इन सबके आधार पर ही किसी सामाजिक समूह का निर्माण होता है जो जन्म से संबंधित नहीं होता है।
सामाजिक विभाजनों की राजनीति
भारत एक लोकतांत्रिक देश है। वर्तमान समय में राजनीतिक पार्टियों का बोलबाला है और इसी राजनीतिक होड़ के कारण कोई भी समुदाय मतभेद का शिकार हो सकता है। अक्सर ऐसा देखा जाता है कि ये चुनावी पार्टियाँ अपने को बढ़ाने के लालच में सामाजिक मतभेदों का फायदा उठाती हैं। किसी विशेष समूह को समर्थन देकर अपना बहुमत हासिल कर लेती हैं। जैसे मुस्लिम समुदाय में जाकर राजनेता कहते हैं कि ”हम आपको यह आश्वासन दिलाते हैं कि आपको भी हिन्दूओं के समान अधिकार दिलाए जाएंगे या देश को सशक्त बनाने में मुस्लिम की अपेक्षा हिन्दुओं का अधिक योगदान है, इत्यादि। इसके विपरीत यह भी सच है कि सामाजिक विभाजन की प्रत्येक घटना में राजनीतिक अभिव्यक्ति नहीं होती है।
भारतीय संविधान में समानता के लिए उपाय
देश के आज़ाद होने के तुरंत बाद ही समाज असमानता के व्याप्त तत्वों ने हमारे नेताओं का ध्यान आकर्षित किया। संविधान के निर्माण में योगदान देने वाले लोग भी इससे परिचित थे कि हमारे समाज में न जाने कितने वर्षों से लोग भेदभाव के शिकार हुए हैं और उसके खिलाफ एक सशक्त संघर्ष की आवश्यकता है जिसमें डॉ. बी.आरअम्बेडकर ने अग्रणी भूमिका निभाई। संविधान का निर्माण करने से पहले एक ही लक्ष्य मुख्य रूप से उभर कर सामने आया और वह समानता का लक्ष्य था। हमें इतने बड़े राष्ट्र को समान रूप से एक सतह पर लाने के लिए एक सशक्त प्रयास करने की आवश्यकता है। संविधान बनाने वालों का मुख्य नारा था समान अधिकार समान अवसर और उसी के तहत उन्होंने मौलिक अधिकारों के निर्माण की घोषणा की। सामाजिक विभाजनों की राजनीति का परिणाम तीन चीजों पर निर्भर करता है- पहली चीज़ तो यह है कि प्रत्येक भारतवासी अपने आप को भारतीय होने का गर्व प्रदान करता है फिर किसी धर्म, जाति या प्रदेश का हिस्सा मानता है। वह अपने आपको बहुस्तरीय व विशिष्ट मानते हुए भी लोगों में तालमेल बैठाने के लिए उचित प्रयास भी करता है और सफल भी हो जाता है। दूसरी चीज़ किसी विशेष समूह की मांगों को राजनीतिक दल कैसे इस्तेमाल करते हैं। संविधान के अनुसार या उसके दायरे से बाहर जाकर तथा किसी समूह को नुकसान पहुंचाए बिना अपनी मांगों को आसानी से स्वीकार करवाना इत्यादि। तीसरी चीज़ सरकार का नज़रिया। इन मांगों पर सरकार का क्या नज़रिया होता है, वह किसे महत्व देती है। अगर वह बहुसंख्यक को महत्व देकर अल्पसंख्यकों की मांगों को अनसुना करती है तो यह उसके लिए भी घातक सिद्ध हो सकता है। बहुसंख्यक के बल पर एकता बनाए रखने की कोशिश कभी-कभी विभाजन की ओर ले जाती है क्योंकि ये अल्पसंख्यक ही संगठित होकर बहुसंख्यक का कार्य सम्पन्न करते हैं अन्यथा शासन के विरुद्ध खड़े हो जाते हैं। इसीलिए सरकार को अल्पसंख्यक समुदायों की उचित मांगों को ईमानदारी से पूरा करने का नि:संदेह प्रयास करना चाहिए क्योंकि जो लोग अपने आप को भेदभाव की मूल वस्तुओं या अधिकारों से वंचित अनुभव करते हैं तो उन्हें इन भेदभावों से उभरने के लिए संघर्ष करना होता है। ऐसे संघर्ष न हों इसलिए लोग शांतिपूर्ण मार्ग का अनुसरण कर चुनावों के माध्यमों से अपनी समस्याओं का हल पाने के लिए प्रयास करते हैं। उपरोक्त सभी अस्त-व्यस्त चीज़ों को व्यवस्थित करने और विभिन्नता को समाहित करने का सबसे अच्छा रास्ता लोकतंत्र है।