हम जिस समाज में रहते हैं उसके परिवेश की हमें आदत पड़ जाती है। हम यह मान लेते हैं कि दुनिया हमेशा ऐसी ही रही है। हम भूल जाते हैं कि जीवन हमेशा वैसा नही था जैसा हमें आज दिखाई देता है। क्या हम आज खेती-बाड़ी, सड़कें, रेलगाड़ियों के बिना जीवन की कल्पना कर सकते हैं। इस रूप में इतिहास एक रोमांचक यात्रा है। यह यात्रा समय और संसार के आर-पार देखने का दृश्टिकोण देती है। हम अतीत के विशय में काफी कुछ जान सकते हैं, यथा पहले लोग किस तरह अपना जीवन व्यतीत करते थे? उनका घर कैसा था? वे क्या खाते थे? आदि। इसी तरह धर्म, राजा, कृशक, प्रदेश आदि के विशय में भी जानकारी हासिल कर सकते हैं।
अतीत के बारे में कैसे जानें
अतीत के जानकारी के मुख्यत: तीन स्रोत हैं:
1. पुरातात्विक स्रोत
2. साहित्यिक स्रोत
3. विदेशी यात्रियों का विवरण
पुरातात्विक स्रोत
यह स्रोत प्रागैतिहासिक काल के विशय में जानने का एकमात्र स्रोत है। इसके अन्तर्गत अभिलेखों, सिक्कों, स्मारकों, भवनों, मूर्तियों, चित्रकला, मृदभांड, भौतिक अवशेशों आदि का अध्ययन किया जाता हैं। पुरातात्विक वस्तुओं से हमें प्राचीन मानव के विशय में विस्तृत जानकारी मिलती है। जैसे लाखों वर्श पहले नर्मदा नदी के तट पर रहने वाले लोग कुशल संग्राहक थे। वे लोग अपने आस-पास की विशाल संपदा से बखूबी परिचित थे। इसी तरह मानव जीवन के महत्वपूर्ण पड़ाव के विशय को जानने में पुरातात्विक स्रोत सहायक हैं। यथा 8000 वर्श पूर्व सबसे पहले गेहूँ और जौ जैसी फसलों को उपजाने का श्रेय उत्तर-पश्चिम सुलेमान और किरथर पहाड़ियों के क्षेत्र के लोगों को जाता है। कृशि के विकास में उत्तर-पूर्व के गारों तथा मध्य भारत के विन्ध्य पहाड़ियों के लोगों का काफी योगदान रहा है। विन्ध्य के उत्तर में सबसे पहले चावल की खेती के प्रमाण मिले हैं। अतीत के महत्वपूर्ण पुरातात्विक स्रोत हैं – शक नरेश रूद्रदामन व अशोक के अभिलेख, आहत सिक्के, खुदाई में निकली मूर्तियाँ, अजंता व एलोरा की चित्रकला, मोहनजोदड़ों से प्राप्त मुहरें व मृदभांड आदि।
साहित्यक स्रोत
अतीत के अध्ययन में साहित्यिक स्रोत काफी मदद करते हैं। अतीत में लिखी गयी पुस्तक (पाण्डुलिपि) को पढ़कर इतिहासकार अतीत के विशय में जानते हैं।
’पाण्डुलिपि’ शब्द के लिए अग्रेंजी में ’मैन्यूस्क्रिप्ट’ शब्द है। यह शब्द लैटिन भाशा के ’मेनू’ शब्द से निकला है, जिसका अर्थ ’हाथ’ होता है। अत: अतीत की पुस्तकें हाथ से लिखी जाने के कारण, उसे ’पाण्डुलिपि’ कहा जाता है।
ये पाण्डुलिपियाँ प्राय: ताड़ पत्रों अथवा हिमालय क्षेत्र में उगने वाले ’भूर्ज’ नामक पेड़ की छाल से तैयार भोज-पत्र पर लिखी जाती थीं। साहित्यक स्रोत के मुख्यत: दो रूप मिलतें हैं। जो निम्न हैं:
1. धार्मिक साहित्य
2. धार्मिकेत्तर साहित्य
धार्मिक साहित्य
इनमें मुख्यत: वेद (चार वेद हैं – ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद), उपनिशद, वेदांग व स्मृतियाँ, रामायण, महाभारत, पुराण, उपवेद, शड्दर्शन आदि प्रमुख हैं।
धार्मिकेत्तर साहित्य
इनमें मुख्यत: बौद्ध-जैन साहित्य, लौकिक साहित्य के ग्रंथ (जैसे कल्हण का राजतरंगिणी), विशाखदत्त का मुद्रराक्षस आदि प्रमुख हैं। इनमें ज्यादातर संस्कृत की रचना है, जबकि अन्य प्राकृत भाशा की है। ज्ञात हो कि प्राकृत भाशा आम बोलचाल अर्थात् आम जन की भाशा थी।
विदेशी यात्रियों का विवरण
लोगों ने सदैव उपमहाद्वीप के एक हिस्से से दूसरे हिस्से तक यात्रा की है। ऐतिहासिक काल में की गयी यात्राओं के विवरण से अतीत के विभिन्न हिस्सों की सटीक जानकारी मिलती है। प्रमुख विदेशी यात्री व उनके द्वारा रचित पुस्तकें हैं – मेगास्थनीज की ’इडिंका’, फाह्यान का ‘फो-क्यू-की’, ह्वेनसांग का ‘सि-यू-की’, इत्सिंग द्वारा रचित बौद्ध धर्म का रिकॉर्ड आदि।
इतिहास में तिथियों को लिखने की पद्धति
प्रांरभ में इतिहास लेखन तिथियों का क्रम मात्र था यानी इतिहास और तिथियों को एक दूसरे का पर्याय मान लिया गया था। तिथियाँ ही खोज एवं वाद-विवाद का एक प्रमुख विशय हुआ करती थी। इस रूप में इतिहास मानव सभ्यता में समयानुसार होने वाले परिवर्तनों का अध्ययन करता है। वर्तमान और भूतकाल (अतीत) में घटी घटनाओं की तुलना एक विशेश समय से ’पहले’ या ’बाद’ जैसे शब्दों द्वारा की जाती है। वर्तमान में वर्श की गणना ईसाई धर्म प्रवर्तक ईसा मसीह से की जाती है। इतिहास में तिथियों का विवरण देने के लिए हम B.C. अथवा A.D. का प्रयोग करते हैं। B.C. (Before Christ) का अर्थ है ईसा मसीह के जन्म से पहले तथा A.D. (Ano Domini) का अर्थ है ईसा मसीह का जन्म वर्श। वास्तव में तिथि का प्रयोग घटनाओं के क्रमानुसार विवरण रखने के लिए किया जाता है। इस प्रकार 500 B.C. (ईसा पूर्व) कहने का तात्पर्य है – ईसा के जन्म से 500 वर्श पूर्व और 2000 A.D. ई कहने का तात्पर्य है – ईसा के जन्म से 2000 वर्श के बाद। A.D. की जगह C.E. (कॉमन एरा-Common Era) अर्थात् ’क्रिश्चियन एरा’ एवं B.C. की जगह B.C.F. (बिफोर कॉमन एरा-Before Common Era) का प्रयोग भी मिलता है। भारत में तिथि के इस रूप का प्रयोग लगभग 200 वर्श पूर्व हुआ। इतिहास पुस्तक लेखन में विभिन्न विशिश्ट घटनाओं के आधार पर विशय को खण्डों में विभाजित किया जाता है, यथा – दिल्ली-सल्तनत या फिर मुगल काल।